Author : Kriti M. Shah

Published on Mar 06, 2019 Updated 0 Hours ago

सबसे ज्यादा जरूरी यह निश्चित करना है कि किस तरह का मैकेनिज्म होगा जो तालिबान द्वारा किए हुए वादों के पालन के लिए उनको जवाबदेह बनाएगा।

जब तालिबान से वार्ता कर रहे हों तो अफगानिस्तान को सुनिए

तालिबान मेज पर है और सभी उनको कुर्सी देने में हिचक रहे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका पिछले लगभग 18 सालों से तालिबान के साथ जंग लड़ रहा है। अफगान फौजों के साथ मिलकर उसने एक ऐसी जंग लड़ी है जिसकी कीमत उसके लिए 1 ट्रिलियन डॉलर से भी ज्यादा रही है। वे इस जंग को जीत नहीं सके, क्योंकि सैनिक शक्ति से इस समूह को हराने की उनमें क्षमता ही नहीं थी। दोनों पक्ष इस स्टेलमेट (शतरंज में जब राजा के लिए कोई चाल नहीं बचे और खेल खत्म हो जाए) में फंस गए हैं। अब वे एक ऐसी स्थिति में हैं जिसमें बात तभी हो सकती है जब संयुक्त राज्य अमेरिका वापिस चला जाए और फिर कभी लौट कर नहीं आए।

लोकतंत्र जटिल है और अफगानिस्तान में यह प्रक्रिया और भी जटिल हो जाती है क्योंकि वहां की घरेलू राजनीति में हंगामा ही हंगामा भरा है। उस इलाके के दूसरे देश दखलअंदाजी करते हैं और ऊपर से संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी अतीत की गलतियों से सीखने को तैयार नहीं है।

यूएस के अफगानिस्तान में रहने के इतिहास से यदि हम कुछ सीख सकते हैं तो यही कि यूएस की दिलचस्पी खत्म होना हमेशा विद्रोह की गतिविधियों की ओर जाता है। यह मामला तब हुआ जब सोवियत यूनियन का पतन हो चुका था और यूएस को लगा कि अब साम्यवाद के खिलाफ जंग जीती जा चुकी है इसलिए उसने अफगानिस्तान में दिलचस्पी खो दी; और पीछे रहे गए हथियारों से लैस और प्रशिक्षित मुजाहिदीन। 2001 में उन्हीं मुजाहिदीनों को हराने के लिए जिनकी उन्होंने एक दशक पहले मदद की थी यूएस एक बार फिर अफगानिस्तान लौटा, लेकिन वह इराक में भी फंस गया। इस दौरान वह पाकिस्तान को धन की आपूर्ति करता रहा जिसकी उसे तालिबान से लड़ने के लिए ‘जरूरत’ थी। यूएस का ध्यान इराक में जाने से, पाकिस्तान तालिबान को दुबारा ग्रुप बनाने और पूरे अफगानिस्तान में हमले करने में मदद करता रहा। जब तक वाशिंगटन को अहसास हुआ कि तालिबान वापसी कर चुका है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और पूरे देश में हिंसा फ़ैल चुकी थी।

राष्ट्रपति ओबामा द्वारा यूएस की सेना में कमी करने और 2011 के आखिर तक देश छोड़ने की घोषणा समझदारी भरा कदम नहीं था। इससे तालिबान और उनके पाकिस्तानी साथियों को प्रतीक्षा करने और सही मौके का इंतजार करने का मौका मिल गया। अब, इतिहास को अपने आप को दोहराने का मौका मिला है। राष्ट्रपति ट्रम्प, विदेश नीति की ‘जीत’ के लिए यूएस की फ़ौज की घर-वापसी के लिए प्रतिबद्ध हैं और इससे पीछे हटने की कोई संभावना नहीं है।

शांति वार्ता कैसे “अफगान नेतृत्व में और अफगान के नियंत्रण में” होनी चाहिए इस पर तमाम बातों और राजनैतिक जुमलों को सुनिश्चित करने के लिए यूएस काफी कमजोर भूमिका निभा रहा है। काबुल सरकार यूएस की ‘कठपुतली’ सरकार है और इसलिए वह अवैध है, यह देख कर तालिबान ने वर्तमान अशरफ गनी सरकार से बात करने से इंकार कर दिया है।

इस समय मास्को में चल रही वार्ता जिसमें अनेक सरकारी अधिकारी, वरिष्ठ राजनीतिज्ञ, भूतपूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई और तालिबान शामिल है, उसमें वर्तमान गनी प्रशासन का कोई भी प्रतिनिधित्व नहीं है। यह बैठक कतर में हुई पिछली वार्ता के प्रभावों को गति तो देगी लेकिन यूएस, मास्को और अफगान प्रतिनिधिमंडल की वर्तमान सरकार को शामिल करने की आवश्यकता को दुहराने की असफलता चिंताजनक है। हर कोई अपने राजनैतिक हितों (शामिल हो रहे अफगान राजनीतिज्ञों के मामले में) और अपने रणनीतिक हितों (शामिल हो रहे अन्य क्षेत्रीय देशों के मामले में) को आगे बढ़ाना चाहता है। वे सभी जो कहते है उस पर अमल नहीं करते।

‘अफगान के नेतृत्व और अफगान के नियंत्रण’ में वार्ता का अर्थ है, कि वर्तमान सरकार (अपनी कमियों के बावजूद) को वार्ता में शामिल किया जाए। यह तालिबान को दिखाएगा कि सरकार एक वैध भागीदार है चाहे वे चाहें या न चाहें, और अफगान सरकार का भी अपना एक स्वर है।

इस वार्ता में एक पक्ष और नदारद है जिस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है, वह पक्ष है अफगान महिलाओं का। 1996 से 2001 तक तालिबान के शासन के दौरान महिलाओं पर स्कूल, विश्वविद्यालय जाने, नौकरी करने पर प्रतिबंध था। अनेक महिलाओं को सार्वजनिक पिटाई और मृत्यु दंड का सामना सिर्फ इसलिए करना पड़ा क्योंकि उन्होंने उन प्रतिबंधों का पालन नहीं किया जो उन पर कहीं आने-जाने के लिए लगे थे। तालिबान ने ऐसा कोई रुझान नहीं दिखाया है कि महिलाओं के बारे में उनके विचार परिवर्तित हो चुके हैं या उनमें कोई बदलाव आया है। वास्तव में, इस ग्रुप का मास्को में स्टेटमेंट (कथन) उनके प्रतिगामी (रेग्रेसिव) रुख को दर्शाता है, क्योंकि वह महिला अधिकारों को “पश्चिमी और गैर-अफगानी और गैर-इस्लामिक ड्रामा सीरियल के प्रचार” से जोड़ते हैं। हिंसा को खत्म करने और हिंसक अतिवाद का मुकाबला करने के लिए दशकों के शोध और साहित्य में इस बात के महत्व पर जोर दिया गया कि महिलाओं को वार्ता की मेज पर शामिल किया जाए और औपचारिक शांति प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए। इन सब तथ्यों के बावजूद सिर्फ तीन महिलाएं उस दल का हिस्सा थीं जो मास्को गया था।

अभी भी वार्ताएं शुरुआती दौर में हैं, और अभी महीनों, या शायद वर्षों लगेंगे जब एक निर्णायक समझौते पर हस्ताक्षर होंगे। लेकिन इन शुरुआती परिणामों को ‘अस्थायी’ या ‘प्राथमिक’ कह कर नकारा नहीं जा सकता। यूएस और अफगान के अधिकारी जिस लहजे को अपना रहे हैं उससे साफ़ है कि देश के लिए सबसे बेहतर समझौते तक पहुंचने के लिए अभी काफी फासला तय करना होगा। पिछले महीने, यूएस मीडिया तुरत-फुरत एक ड्राफ्ट फ्रेमवर्क की तारीफ में लग गया था कि यूएस की फ़ौज तालिबान के इस वायदे पर वहां से हट जाएगी कि अफगान की जमीन कभी आतंकवाद के नेटवर्क के लिए इस्तेमाल नहीं होगी। यह ध्यान देने वाली बात है कि यूएस को बाहर करने के लिए तालिबान को सिर्फ इतना करना है कि इस बात पर सहमत हो जाए कि विदेशी समूहों को हमला करने के लिए अफगान की जमीन का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाएगा। तालिबान के नेता पिछले कई सालों से कहते आ रहे हैं कि उनको अहसास है कि 9/11 के बाद अल-कायदा को सरंक्षण देना एक गलती थी। आज अल-कायदा इस्लामिक स्टेट खोरासान के साथ सीधे संघर्ष में है, लेकिन फिर भी यूएस का विश्वास है कि तालिबान से आतंकवादियों को सहयोग न करने के लिए कहना पहला कदम है।

आख़िरकार तालिबान बात करने के लिए राजी है और संयुक्त राज्य अमेरिका को इस अवसर का उपयोग तरीके और प्राथमिकताओं को तय करने के लिए करना चाहिए। इसमें जो सबसे जरूरी चीज शामिल होनी चाहिए वह है महिलाओं के अधिकारों पर बिलकुल भी समझौता नहीं किया जाए। यह बात भी सुनिश्चित की जाए कि वे अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन करें न कि इस्लामिक कानून या ‘अफगान संस्कृति’ का।

यह बात करना और सीमा रेखा तय करना बहुत जरूरी है कि अफगान की हथियारबंद सेना का क्या स्वरूप हो, कौन राष्ट्रीय संसाधनों और ड्रग रूट को नियंत्रित करेगा और देश के भीतर ही विस्थापित हजारों लोगों और पीड़ित अल्पसंख्यकों का क्या होगा। और सबसे ज्यादा जरूरी यह निश्चित करना है कि किस तरह का मैकेनिज्म होगा जो तालिबान द्वारा किए हुए वादों के पालन के लिए उनको जवाबदेह बनाएगा। यह घोषणा करना बहुत आसान है कि अफगानिस्तान के अंदरूनी मामलों में किसी भी बाहरी देश का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, लेकिन इस संदेश को पाकिस्तान तक पहुंचाने के लिए वास्तविक कूटनीतिक कौशल, राजनैतिक साहस (और तार्किक सोच) की जरूरत है। ऐसा होने में नाकामयाबी का मतलब होगा कि यूएस ने अपनी सबसे बुरी हार स्वीकार कर ली है, और वह भी उस देश की कीमत पर जिसे ठीक करने की उन्होंने शपथ ली थी। तालिबान वार्ता के लिए मेज पर है और उनको बताया जाना चाहिए कि अफगान के लोग उनको कहां बिठाना चाहते हैं।

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