Author : Ria Kasliwal

Published on Oct 21, 2020 Updated 0 Hours ago

केयर इकोनॉमी न केवल तीव्रगामी समावेशी विकास सेक्टर बनने का वादा करती है, बल्कि केयर वर्क में निवेश से भारत को अपने सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में भी मदद मिलेगी.

केयर वर्कर्स से जुड़ी केयर इकोनॉमी के प्रति जागरूकता की ज़रूरत

परिचय

यह देखते हुए कि भारत की जीडीपी में 2020-21 में 11.8% तक गिरावट का अनुमान है, साफ है कि अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार की रणनीति बनाने की ज़रूरत है. अतीत की असमानताओं को फिर से हावी होने न देने के लिए, यह पुनरुद्धार रणनीति समावेशी और तेज़ी से बनाने की ज़रूरत है. वह क्षेत्र जो दोनों चीजों का वादा करता है वह है-  केयर इकोनॉमी (देखभाल अर्थव्यवस्था) और इसके लिए पहला कदम है, भारत में केयर वर्कर की पहचान करना.

केयर वर्क क्या है?

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने व्यापक रूप से केयर वर्क को परिभाषित करते हुए कहा है, इसमें “वयस्क और बच्चे, बुज़ुर्ग और युवा, कमज़ोर शरीर और सक्षम-शरीर वालों की शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक जरूरतों को पूरा करने की गतिविधियां और संबंध शामिल हैं. केयर वर्कर के व्यापक दायरे में एक छोर पर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, डॉक्टर और डेंटिस्ट से लेकर दूसरे छोर पर बच्चों की देखभाल करने वाले और व्यक्तिगत देखभाल करने वाले नौकरों की पूरी श्रृंखला है. केयर वर्कर में घरेलू नौकर भी शामिल हैं.” किसी भी समाज और अर्थव्यवस्था को चलाने और फलने-फूलने के लिए, पेड (भुगतान पर) और अनपेड (अवैतनिक), दोनों तरह के केयर वर्क बेहद अहम हैं, लेकिन महामारी के दौर ने केयर वर्क की अपरिहार्य प्रकृति को और अधिक उजागर किया गया, जब केयर वर्कर की सेवाओं के बिना आगे बढ़ना मुश्किल हो गया.

केयर वर्कर की अपरिहार्यता

रोज़ाना के आम कामकाज के लिए ज़रूरी होने के साथ ही केयर इकोनॉमी एक विशाल रोज़गारदाता भी है, इस सेक्टर में विकास की अपार संभावनाएं हैं. पेड केयर वर्क सेक्टर न सिर्फ़ भारत की आबादी, ख़ासकर महिलाओं[1], के एक बड़े हिस्से को रोज़गार देता है, बल्कि यह देखते हुए कि जल्द ही भारत एक वृद्ध देश बन जाएगा, केयर वर्क की ज़रूरत बढ़ेगी, ख़ासतौर से व्यक्तिगत, घरेलू और स्वास्थ्य केयर वर्क में बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी होगी, जिसमें नौकरी चाहने वालों को समाहित करने के लिए रोज़गार का एक बड़ा क्षेत्र खुल जाएगा.

इसके अलावा, पेड केयर वर्कर हमेशा भारत के लिए आमदनी का एक प्रमुख स्रोत रहे हैं, क्योंकि बहुत से केयर वर्कर काम के लिए दूसरे देशों में प्रवास करते हैं. हालांकि, वैश्विक महामारी ने उनके रोज़गार पर असर डाला है, बहुत ज़्यादा संभावना है कि विश्व अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटती है, तो अवैतनिक केयर वर्क की जगह भुगतान वाले केयर वर्क की ज़रूरत फिर से पैदा होगी. ऐसे में, केयर इकोनॉमी पर ध्यान देने से भारत को विदेशों में आमदनी फिर से बहाल करने और संभवतः बढ़ाने में मदद मिल सकती है

पेड केयर वर्क सेक्टर न सिर्फ़ भारत की आबादी, ख़ासकर महिलाओं, के एक बड़े हिस्से को रोज़गार देता है, बल्कि यह देखते हुए कि जल्द ही भारत एक वृद्ध देश बन जाएगा, केयर वर्क की ज़रूरत बढ़ेगी, ख़ासतौर से व्यक्तिगत, घरेलू और स्वास्थ्य केयर वर्क में बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी होगी, जिसमें नौकरी चाहने वालों को समाहित करने के लिए रोज़गार का एक बड़ा क्षेत्र खुल जाएगा.

इसके अलावा, यह देखते हुए कि दुनिया भर में सबसे अधिक पेड केयर वर्कर महिलाएं और लड़कियां हैं [2] और वे अधिकांश अनपेड केयर वर्क को भी पूरा करती हैं, केयर इकोनॉमी पर ध्यान केंद्रित करने से भारत में महिला कर्मचारियों की बेहद कम भागीदारी बढ़ने की संभावना है. महिलाओं को न केवल केयर इकोनॉमी में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, बल्कि केयर वर्क के लिए आसान पहुंच उन महिलाओं को मौक़ा देगी जो पहले अनपेड केयर वर्क के बोझ तले दबी थीं और उन्हें पेड वर्क छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था, उन्हें फिर से लेबर फोर्स में शामिल होने का मौक़ा मिलेगा.

असल में, एक ILO रिपोर्ट बताती है कि चूंकि दुनिया भर में केयर वर्क की मांग 2030 तक बढ़ने वाली है (जनसांख्यिकीय बदलाव और शहरीकरण के चलते), भारत की केयर इकोनॉमी में निवेश अंदाज़न भारत में 1.1 करोड़ नौकरियों का सृजन कर सकता है (जिसमें से 32.5% महिलाओं का हिस्सा होगा).

जिन बाधाओं को पार करना है

हालांकि, ऐतिहासिक रूप से इसके महत्व के बावजूद केयर वर्क पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया. साफ़ तौर पर इसकी दो वजहें हैं– पहली, भारत में केयर इकोनॉमी वर्कर्स की सही पहचान के लिए कोई तंत्र नहीं है; दूसरी, अन्य देशों की तुलना में भारत में केयर इकोनॉमी पर सरकारी ख़र्च बहुत कम है.

केयर वर्कर की पहचान में मुख्य समस्या केयर इकोनॉमी की औपचारिक ‘भारतीयकृत’ परिभाषा नहीं  होने तक जाती है. औपचारिक परिभाषा के अभाव में जनसंख्या सर्वे, पेड और अनपेड दोनों के लिए कोई वर्ग शामिल करने में असमर्थ हैं, और इस तरह उन तक पहुंचने के लिए कोई संभावित रास्ता नहीं बनाते हैं जिससे कि उनके उत्थान के मक़सद से नीतियों को लागू किया जा सके.

पहचान करने में नाकामी के नकारात्मक परिणाम बहुत भारी हैं. उदाहरण के लिए, वैश्विक महामारी ने पेड केयर वर्कर को कई झटके दिए. ख़ासतौर से अनपेड महिला केयर वर्क,[3]  के मामले में यह स्पष्ट है यहां तक ​​कि महिला पेड केयर वर्कर को भी नकारात्मक परिणामों का सामना करना पड़ा, जिसके नतीजे में फ्रंटलाइन हेल्थ केयर वर्कर्स को टेस्टिंग में कोविड-19 पॉजिटिव पाए जाने  की अधिक संभावना बनी, बेहतर वेतन के लिए आशा वर्कर्स द्वारा प्रदर्शन किए गए, घरेलू नौकरों और शिक्षाकर्मियों की आमदनी और नौकरी चली गई.

महिलाओं को न केवल केयर इकोनॉमी में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, बल्कि केयर वर्क के लिए आसान पहुंच उन महिलाओं को मौक़ा देगी जो पहले अनपेड केयर वर्क के बोझ तले दबी थीं और उन्हें पेड वर्क छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था, उन्हें फिर से लेबर फोर्स में शामिल होने का मौक़ा मिलेगा.

अगर पहले से पहचान का कोई तंत्र होता, तो महामारी-पूर्व भारत में केयर इकोनॉमी की वास्तविक सीमा और दायरे को पहचानना मुमकिन होता, जिससे लॉकडाउन के दौरान केयर वर्कर को पर्याप्त राहत मिल सकती थी. इसी तरह, सरकार एक नया लेबर कोड ला रही है, जो पहचान के किसी तरीके के बिना ही अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान करने की बात करता है. ऐसे में इस नीति को केयर वर्कर्स के लिए प्रभावी तरीके से लागू करना बहुत मुश्किल होगा.

इसी तरह, सीमित सरकारी ख़र्च (भारत की जीडीपी का 1% से कम– जैसा कि चित्र 1 में दिखाया गया है) और कम ध्यान दिए जाने ने केयर इकोनॉमिक्स वर्कर के लिए सामाजिक और आर्थिक समस्याएं पैदा की हैं. इससे न केवल केयर वर्कर के लिए एक पहचान पद्धति तैयार करने में कोई नीतिगत रुचि नहीं पैदा हुई है, बल्कि ध्यान की कमी से भी अक्सर न्यूनतम से भी कम मज़दूरी का भुगतान किया जाता रहा है, और केयर वर्कर्स के लिए काम के हालात मुश्किल हैं.

आगे का रास्ता

इस तरह, केयर वर्क्स के लिए एक पहचान तंत्र बनाना ज़रूरी है, जिससे उन तक पहुंचने के लिए एक रास्ता बनाया जा सके. एक बार औपचारिक परिभाषा तय हो जाने के बाद, केयर वर्कर के रूप में पहचाने गए व्यक्ति को जॉब कार्ड आवंटित किया जाना चाहिए [4]. यह जॉब कार्ड न केवल लाभ जारी करने का रास्ता मुहैया कराएगा (उदाहरण के लिए, यह सरकार को इन वर्कर को अपने सामाजिक सुरक्षा भुगतानों को उपलब्ध कराने में मदद करेगा जैसा कि नए श्रम कोड में तय किया गया है) बल्कि केयर वर्कर का एक आधिकारिक नेटवर्क बनाने में भी मदद करेगा.

इस तरह का औपचारिक नेटवर्क केयर चाहने वालों और केयर देने वालों के बीच तालमेल बनाएगा, साथ ही काम की बेहतर दशा भी सृजित कर सकता है, और ज़्यादा जवाबदेही पैदा कर सकता है. इसके अलावा, एक औपचारिक परिभाषा केयर इकोनॉमी में अधिक नीतिगत कार्य को प्रोत्साहित कर सकती है जिससे मौजूदा अंतराल को उजागर किया जा सकेगा, ताकि केयर वर्क में अधिक रोज़गार को प्रोत्साहित किया जा सकेगा, ख़ासकर महिलाओं के लिए.

केयर वर्क्स के लिए एक पहचान तंत्र बनाना ज़रूरी है, जिससे उन तक पहुंचने के लिए एक रास्ता बनाया जा सके. एक बार औपचारिक परिभाषा तय हो जाने के बाद, केयर वर्कर के रूप में पहचाने गए व्यक्ति को जॉब कार्ड आवंटित किया जाना चाहिए.

इसके अलावा, अगर भारत की नई विकास रणनीति में केयर वर्क पर वास्तव में ध्यान दिया जाता है, तो अतिरिक्त लाभ सामने आएंगे. औपचारीकरण सुरक्षित वातावरण बनाने में मदद कर सकता है और न्यूनतम वेतन देने के लिए बाध्य कर सकता है, केयर वर्क को अधिक उपयोगी बना सकता है. दीर्घकाल में, अनपेड केयर वर्क को ज़्यादा मान्यता दिलाने में मदद कर सकता है और इसके नतीजे में घरेलू काम के ज़्यादा समान विभाजन का रास्ता बना सकता है.

निष्कर्ष

भारत की अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार की ज़रूरत है और आशा है कि भविष्य की विकास गाथा ज़्यादा समावेशी होगी. केयर इकोनॉमी न केवल तीव्रगामी समावेशी विकास सेक्टर बनने का वादा करती है, बल्कि केयर वर्क में निवेश से भारत को अपने सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में भी मदद मिलेगी. हालांकि, पहला कदम पहचान करना ही है!


[1] Domestic employment alone in India is estimated to range from 4.75 million (of which 3 million are women) to 80 million workers.

[2] Care work represents 19.3 per cent of global female employment

[3] With the lockdown as the access to paid care work reduced, unpaid care work was disproportionately dumped upon women

[4] Similar to the job cards held by MGNREGA workers

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