Author : Khalid Shah

Published on Nov 16, 2018 Updated 0 Hours ago

कश्मीर घाटी में, कुल वोटिंग बेहद ही कम महज़ 4.3 फ़ीसदी हुई। ज़मीन पर, वोटिंग प्रतिशत दिखाता है कि कश्मीर घाटी में लोगों ने चुनाव के प्रति सबसे कम उत्साह दिखाया जबकि कई ज़िलों के असंगत आंकड़े थोड़ा फ़र्क़ दिखाते हैं।

कश्मीर चुनाव: नई हक़ीक़त

जम्मू और कश्मीर में हाल में हुए शहरी स्थानीय निकाय (ULB) चुनाव ने राज्य में व्याप्त दो विपरीत हक़ीक़तों को उज़ागर किया। पहला, जम्मू और लद्दाख़ क्षेत्र में लोकतंत्र और चुनावों को लेकर उत्साह हमेशा चरम पर होता है। दूसरा, कश्मीर घाटी के लोगों ने चुनाव प्रक्रिया में बेहद कम दिलचस्पी दिखाई है। लेह और करगिल में 62 फ़ीसदी वोटिंग हुई और जम्मू क्षेत्र में 69 फ़ीसदी वोटिंग हुई। कश्मीर घाटी में, कुल वोटिंग बेहद ही कम महज़ 4.3 फ़ीसदी हुई। ज़मीन पर, वोटिंग प्रतिशत दिखाता है कि कश्मीर घाटी में लोगों ने चुनाव के प्रति सबसे कम उत्साह दिखाया जबकि कई ज़िलों के असंगत आंकड़े थोड़ा फ़र्क़ दिखाते हैं। ये नोट करना भी महत्वपूर्ण है कि दो क्षेत्रीय पार्टियां, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी)और नेशनल कॉन्फ़्रेंस (एनसी) ने भी चुनाव का बहिष्कार किया था।

घाटी में सबसे कम वोटिंग उन ज़िलों में दर्ज की गई जहां आतंकवाद चरम पर है। दक्षिण कश्मीर के ज़िलों में महज़ 660 वोट डाले गए, यानी कुल वोटों का महज़ 1.2 फ़ीसदी। दक्षिण कश्मीर क्षेत्र की 17 नगरपालिका समितियों में वोटिंग ही नहीं हुई, क्योंकि कुछ वार्डों में एक भी उम्मीदवार नहीं था जबकि दूसरे वार्डों में सिर्फ़ एक निर्विरोध उम्मीदवार ही था। दक्षिण कश्मीर के पुलवामा, शोपियां और कुलगाम ज़िले में शून्य फ़ीसदी मतदान हुआ क्योंकि सभी वार्ड पर निर्विरोध उम्मीदवार रहे। कश्मीर में दक्षिण कश्मीर आतंकवाद का केंद्र है और आतंकवादियों के हमलों के ख़ौफ़ ने लोगों को चुनाव न लड़ने और वोट डालने के लिए घरों से बाहर न निकलने के लिए मजबूर किया। आंकड़े हमें बताते हैं कि इन ज़िलो में राजनीतिक अलगाव अपने चरम पर है जो हिंसा के स्तर से संबंधित है। दक्षिण कश्मीर पीडीपी का मज़बूत गढ़ है और इसके चुनाव बहिष्कार ने कम टर्नआउट में निश्चित तौर पर बड़ी भूमिका निभाई है।

मध्य कश्मीर क्षेत्र में, जिसमें बड़गाम, श्रीनगर और गांदरबल ज़िले शामिल हैं, मतदान प्रतिशत महज़ पांच फ़ीसदी रहा। बड़गाम ज़िले की पांच नगरपालिका समितियों में वोटिंग हुई ही नहीं, क्योंकि बीरवा को छोड़कर सभी नगरपालिका समितियों में उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए, बीरवा में कोई भी उम्मीदवार चुनाव मैदान में था ही नहीं। बावजूद इसके, बड़गाम और गांदरबल ज़िलों में क्रमश: 17 फ़ीसदी और 10 फ़ीसदी वोटिंग हुई, जबकि श्रीनगर में महज़ तीन फ़ीसदी ही वोट डाले गए। मध्य कश्मीर में कुल मतदान प्रतिशत अधिक है; निर्विरोध रहनेवाली नगरपालिका समितियां कम और ख़ाली वार्डों की संख्या भी कम। मध्य कश्मीर के सभी तीनों ज़िलों में दक्षिण कश्मीर क्षेत्र की तुलना में आतंकवाद का असर कम है और यही वजह है कि यहां वोटिंग प्रतिशत दक्षिण कश्मीर के ज़िलों के मुक़ाबले बेहतर रही। गांदरबल नेशनल कॉन्फ़्रेंस का गढ़ है जहां तीन अब्दुल्ला—शेख़ अब्दुल्ला, फ़ारूक़ अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्लाने कई चुनाव लड़े हैं। इसी तरह, बड़गाम और श्रीनगर ज़िले भी नेशनल कॉन्फ़्रेंस के मज़बूत गढ़ हैं और यहां चुनाव में पार्टी के हिस्सा न लेने से वोटिंग प्रतिशत पर बहुत बुरा असर पड़ा है। अगर नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी दोनों अपने-अपने वफ़ादार मतदाताओं का 10-20 फ़ीसदी (बुरे से बुरे हालात में) वोट भी हासिल करतीं तो वोटिंग प्रतिशत काफ़ी बेहतर होता और ये चुनाव राज्य के किसी भी सामान्य चुनाव की तरह दिखता। बीरवा, जहां एक को छोड़कर नगरपालिका समिति के सभी वॉर्ड ख़ाली रह गए, वो पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की मौजूदा विधानसभा सीट है। इससे एक सवाल उठता है: क्या अगर पूर्व मुख्यमंत्री की पार्टी चुनाव लड़ी होती तो भी नगरपालिका समिति ख़ाली रही होती?

उत्तरी कश्मीर क्षेत्र पर आते हैं, यह वह जगह है जहां सभी अवसाद और निराशा विफल दिखाई पड़ते हैं। उत्तर कश्मीर के नतीजों ने निश्चित तौर पर नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी में बहुत घबराहट पैदा की होगी और दोनों पार्टियां आगामी संसदीय और विधानसभा चुनावों का बहिष्कार करने के फ़ैसले पर पुनर्विचार करेंगी। उत्तर कश्मीर क्षेत्र में कुल मतदान 16.2 फ़ीसदी हुआ। एक बार फिर, मान लीजिए कि नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी ने अपने वफ़ादार वोट बैंक का 10-20 फ़ीसदी वोट भी हासिल किया होता तो तस्वीर बिल्कुल अलग होती। इसके बावजूद, मतदान के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर कश्मीर में चुनाव मामूली अड़चनों के साथ काफ़ी हद तक सामान्य था। हंदवाड़ा और कुपवाड़ा में क्रमश: 24 फ़ीसदी और 36 फ़ीसदी वोटिंग हुई। ये दोनों इलाक़े सज्जाद लोन की पीपल्स कॉन्फ़्रेंस के मज़बूत गढ़ हैं और छिटपुट हिंसा और आतंकवाद के बीच चुनावों में पार्टी की भागीदारी ने मतदाताओं का उत्साह बढ़ाया। इस क्षेत्र में, बारामूला में 14 फ़ीसदी, बांदीपुर में 13 फ़ीसदी और सोपोर में 3 फ़ीसदी वोटिंग हुई। बारामूला और बांदीपुर दोनों ही जगहों पर दूसरी छोटी पार्टियों के साथ-साथ नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी दोनों ही पार्टियों का मज़बूत वोट बैंक है और एक बार फिर पार्टियों का चुनावों से दूर रहना बड़ा फ़ैक्टर रहा। बारामूला ज़िले में, उरी नगरपालिका समिति में 75 फ़ीसदी वोटिंग हुई जबकि सोपोर ने ऐतिहासिक तौर पर चुनावों का बहिष्कार किया।

कश्मीर घाटी के सभी तीनों क्षेत्रों ने अलग-अलग रुझान दिखाए जो इन चुनावों के नकारात्मक पहलुओं के शोर में पूरी तरह से दब गए। तब जबकि कुल 598 नगरपालिका वॉर्ड में से 184 वॉर्ड ख़ाली हैं, एक महत्वपूर्ण बात की अनदेखी हुई है कि जो वॉर्ड ख़ाली रह गए उनमें से ज़्यादातर दक्षिण और उत्तर कश्मीर के सबसे ज़्यादा आतंकवाद प्रभावित इलाक़ों में हैं। क्या अगर कश्मीर क्षेत्र की दोनों मुख्य पार्टियां चुनावों में हिस्सा लें तो उम्मीदवारों की तादाद बढ़ेगी? शायद, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ़्रेंस को भी आत्ममंथन करना होगा कि क्या अगर वो चुनाव में हिस्सा लेतीं तो भी तस्वीर यही होती। अगर पीडीपी और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेता सोचते हैं कि बहिष्कार की वजह से इस चुनाव पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा — दोनों पार्टियों की भागीदारी से 15-20 फ़ीसदी वोट प्रतिशत नहीं बढ़ा होता — तब शायद दोनों ही पार्टियों के लिए ये अपनी-अपनी दुकान बंद करने का समय है।

चुनावों का बहिष्कार करने पर ग़लत अनुमान की वजह से दोनों पार्टियों ने बीजेपी, कांग्रेस और पीपल्स कांग्रेस को महत्वपूर्ण नगरपालिका समितियां सौंप दीं।

विजयी उम्मीदवार पूरे कार्यकाल के लिए पद पर रहेंगे, भले ही वो निर्विरोध चुने गए हों या फिर काफ़ी कम वोट मिले हों। फ़ारूक़ अब्दुल्ला उस उपचुनाव को जीतने के बाद श्रीनगर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें महज़ सात फ़ीसदी वोटिंग हुई थी। भविष्य में, दोनों पार्टियों को शासन चलाने के लिए इन नगरपालिका समितियों को रास्ता दिखाना होगा। अगर इस चुनाव में जीते हुए कुछ उम्मीदवार अच्छा काम करते हैं, अच्छा शासन देते हैं और लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रहते हैं तो, कश्मीर घाटी की राजनीतिक तस्वीर काफ़ी तेज़ी से बदल जाएगी।

इसके अलावा, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के बहिष्कार से बीजेपी और दिल्ली में बैठी इसकी सरकार को सबक़ मिलनी चाहिए। इन दोनों पार्टियों का एक-दूसरे को लेकर हमलावर और आक्रामक रुख़ देशहित के लिए नुक़सानदेह है — जितनी जल्दी बीजेपी इसे महसूस कर ले, उतना अच्छा है। दोनों ही पार्टियों में इससे निपटने की ताक़त है और बीजेपी के लिए जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य में इन पार्टियों को पूरी तरह से बेदख़ल करने की सोचना मूर्खतापूर्ण होगा। केंद्र सरकार और बीजेपी के कश्मीर प्रबंधकों को एक बार फिर अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके किसी दुर्व्यवहार भरे क़दम से आग को और हवा न मिले।

एक और फ़ैक्टर जिस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं गया है वो है युवा नेताओं की फ़ौज ने चुनावों में अपना भरोसा जताया है, आतंकवादियों, अलगाववादियों और वास्तव में राज्य की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के क्रोध को ख़तरे में डाल दिया है।

वे लोगों की सेवा और राज्य में बदलाव के लिए चुनावों को एक मात्र ज़रिया मानते हैं। नकारत्मकता से भरे इस चुनाव का शायद ये सबसे बड़ा सकारात्मक निष्कर्ष है। साल भर में, बड़ी तादाद में 25-40 साल के युवा मुख्य धारा की पार्टियों में शामिल हुए हैं। इस उम्र के ज़्यादा से ज़्यादा युवा अलगाववादी समूहों की जगह मुख्यधारा की राजनीति को चुन रहे हैं, क्योंकि वहां उन्हें कोई भविष्य नहीं दिखता है। वास्तव में, अगर नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी चुनाव लड़ी होतीं तो दोनों ही पार्टियों के युवा नेताओं की एक नई लहर राजनीतिक धरातल पर उभरी होती। चुनावों का बहिष्कार कर, इन पार्टियों ने युवा नेताओं की आकांक्षाओं को धोखा दिया है जो कश्मीर घाटी की राजनीति में अपनी पहचान बनाने का उत्सुकता से इंतज़ार कर रहे थे। शायद वो पार्टी आंशिक रूप से ये बताती है कि आख़िर फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने शहरी निकाय चुनावों के बहिष्कार का एलान क्यों किया। पुराने दिग्गज युवा प्रतिभाओं के उदय से डरते हैं।

ज़ोन मतदान प्रतिशत
कश्मीर  4.3
लेह और करगिल 62.1
जम्मू 68.7
कुल 35.1
क्षेत्रवार वोटिंग प्रतिशत
मध्य कश्मीर क्षेत्र 5.1
उत्तर कश्मीर क्षेत्र 16.2
दक्षिण कश्मीर क्षेत्र 1.6
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