Author : Ayjaz Wani

Published on Sep 01, 2018 Updated 0 Hours ago

कश्मीर भी एक परम्परागत या विकासशील समाज है, जहां सामाजिक विकास के बावजूद, अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था प्रमुख भूमिका निभाती है। लेकिन क्या ये ताना-बाना अब टूट रहा है?

कश्मीर: अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था की तत्काल जरूरत

एक भारतीय पुलिसकर्मी कश्मीरी प्रदर्शनकारियों की तरफ पत्थर फेंकने के लिए गुलेल का इस्तेमाल कर रहा है। छवि: Press Trust of India

दस बरस के उमर फारूक की 19 जुलाई 2018 को हत्या हो जाने के कारण कश्मीर घाटी में दहशत फैल गई। उमर 16 जुलाई को कुपवाड़ा स्थित अपने घर से पड़ोस के बाज़ार गया था और तभी से लापता था। इस घटना के तीन दिन बाद, उमर का क्षत-विक्षत शव उसके घर से कुछ ही दूरी पर बरामद हुआ। ग्रामीणों के अनुसार, उसका शरीर निर्वस्त्र और अधजली हालत में था, उसकी बाई बाजू भी गायब थी। पुलिस ने बताया कि उसका शव ‘सड़’ चुका था। समाज के सभी तबकों के लोगों ने इस जघन्य घटना की निंदा की। इस अपराध के विरोध में जिले भर में बंद रखा गया और पुलिस ने फारूक के हत्यारों को पकड़ने के लिए विशेष जांच दल का गठन किया।

ऐसे समय में, जब कश्मीर घाटी कभी खत्म न होने वाले संघर्ष के बेहद खराब दौर से गुजर रही है, सामाजिक अपराधों की बढ़ती तादाद ने कश्मीर की परम्परागत अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा दिया है, जिसका उद्भव उसकी सदियों पुरानी विलक्षण समन्वयकारी परम्पराओं, रीति रिवाजों, विश्वासों और सामाजिक लोकाचारों से हुआ था। कभी खत्म न होने वाले संघर्ष ने परम्परागत अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था को गम्भीर चोट पहुँचाई है। पीरों और पण्डितों की शांतिपूर्ण धरती, जिसने कश्मीर की विलक्षण गंगा जमुनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया था, आज वही वादी-ए-कश्मीर युवाओं में नशेखोरी कई लत, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, मानसिक विकारों तथा पथराव और विरोध के अन्य तरीकों के जरिए हिंसक घटनाओं में कट्टरपंथी युवाओं की बढ़ती भागीदारी से ग्रसित है।

सामाजिक नियंत्रण — सामाजिक मानदंडों, कानूनों, सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के जरिए प्राप्त किया जाता है। समाज या समुदाय को अफरा-तफरी और दुविधा से दूर रखने वाली “स्वीकृत सामाजिक व्यवस्था” लागू करने से पहले सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है। सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था दो तरह की होती है-औपचारिक व्यवस्था तथा अनौपचारिक व्यवस्था। जहां एक ओर औपचारिक व्यवस्था आधुनिक शासन प्रणाली द्वारा लागू की जाती है, वहीं दूसरी ओर, अनौपचारिक व्यवस्था परिवार और समुदाय के स्तर पर समाजीकरण के जरिए लागू की जाती है। यह व्यापक सामाजिक व्यवस्था के अंग के रूप में विकसित होती है, यह ऐसी विश्ववस्त व्यवस्था होती है, जो मानदंडों, प्रथाओं, मूल्यों और रीति रिवाजों के अनुरूप होती है। हालांकि सामाजिक विकास के क्रम में, सामाजिक संरचनाओं और कार्यों की सादगी, अक्सर जटिलता का मार्ग तैयार करती है, जहां परम्परागत सामाजिक व्यवस्थायें विविध ताकतों और दबावों के अधीन हो जाती हैं। ये प्रभाव ऐसे विचारों और कार्यों की शुरुआत करते हैं, जो परम्परगत, गामीण, कृषक समाज के शहरी, औद्योगिक समाज में रूपांतरण को प्रभावित करते हुए परम्परागत समाज को आधुनिक समाज में तब्दील करने में सहायक होते हैं। आधुनिक संस्थाएं — आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक — आधुनिक समाज को कार्यात्मक और व्यवस्थित रखने की दिशा में काम करती हैं। हालांकि, परम्परागत या विकासशील समाजों में, ऐसे सामाजिक विकास के बावजूद, अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण हमेशा बरकरार रहते हैं, ताकि विश्वास पर आधारित समुदाय या समाज के लोगों के व्यवहार पर कुछ हद तक नियंत्रण रखा जा सके।

कश्मीर भी एक ऐसा ही परम्परागत या विकासशील समाज है, जहां सामाजिक विकास के बावजूद, अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था प्रमुख भूमिका निभाती है और आधुनिक औपचारिक नियंत्रण व्यवस्था की तुलना में व्यक्तियों पर ज्यादा व्यापक नियंत्रण रखने का प्रयास करती है। कश्मीर में अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण कारिंदे गांव के बुजुर्ग, हाजी (जिन्होंने मक्का जाकर हज किया हो), पड़ोस की मस्जिदों के मुल्ला, शकदार (जो गांव/समुदाय के नौजवानों पर नजर रखते थे कि कहीं वे रास्ते से भटक न जाएं)और उनके पुरखों की मजारों या ​पवित्र स्थानों के गणमान्य व्यक्ति हुआ करते थे। शैक्षिक उपलब्धियों के कारण विद्वानों की समाज में इज्जत और सम्मान था। वे सतर्क होकर काम करते थे और उन्होंने ऐसे कर्मठ गुटों का गठन किया जिन्होंने चालाकी से समाज के पथभ्रष्ट लोगों को सामुदायिक स्तर पर अन्य लोगों के जीवन को प्रभावित नहीं करने दिया या उन्हें दूर कर दिया। परम्परागत विश्वास व्यवस्था पर आधारित, गांव के ये बुजुर्गों का लोगों के आचरण पर सरकार द्वारा लागू किए गए कानूनों से कहीं ज्यादा नियंत्रण होता था। आमतौर पर ये बुजुर्ग मस्जिदों और आसपास के सैलूनों और बेकरियों (नानवाई) में नौजवानों को सामाजिक मानदंडों तथा व्यवहारों की जानकारी देते रहते थे। समाज में उनकी इज्जत या उनके प्रति श्रद्धा इतनी ज्यादा थी कि यदि रास्ते से गुजरते समय अगर कोई बुजुर्ग सामने आ जाता, तो नौजवान नजरें झुका कर अपनी दिशा बदल लेते/लेती थी।

अगर किसी के भी व्यवहार से ऐसा लगता कि वह रास्ता भटक गया है, तो इस बात की इत्तिला बुजुर्गों को दे दी जाती थी, जो तय करते थे कि इस बारे में क्या कदम उठाया जाए। दूसरों के आचरण पर नजर रखने वाले गांव के बुजुर्ग आपस में जानकारियों का आदान—प्रदान भी करते थे और समाज तथा सामाजिक एकजुटता कायम करने से जुड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए रास्ते से भटके लोगों को चतुराई से समझाने-बुझाने की क्षमता भी विकसित करते थे। अक्सर, बुजुर्ग युवाओं को सलाह देने का काम भी करते हैं और समाज को अपराधों,व्याभिचार, नशाखोरी, महिलाओं के खिलाफ हिंसा तथा अन्य सामाजिक बुराइयों से बचाते थे। वे सामाजिक शर्मिंदगी, उपहास, आलोचना और निंदा जैसी सजाएं भी देते थे।

1989 से, कश्मीर में जारी आतंकवाद ने सामुदायिक संबंधों को तहस-नहस कर डाला और उसकी परम्परागत अनौपचारिक सामाजिक व्यवस्था को खत्म कर दिया। यकीनन, कश्मीर का समाज आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और उसकी वजह सिर्फ कभी खत्म न होने वाला संघर्ष नहीं, बल्कि बढ़ती अस्थिरता, अपराध, नशाखोरी और कट्टरवाद हैं, जो 1989 से पहले नदारद थे। औपचारिक साथ ही साथ अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था, दोनों की विफलता के कारण गांव और समुदाय के स्तर पर सामाजिक तौर पर पथभ्रष्ट लोगों की तादाद खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है। सबसे पहले तो, औपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था, जो संक्रमण से गुजर रही थी, कभी खत्म न होने वाले संघर्ष के कारण प्रबल नहीं बन सकी। दूसरा, वह कश्मीर में 1989 के बाद उपजे अलग तरह के सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे के अनुकूल नहीं ढल सकी।

घाटी में कभी खत्म न होने वाली हिंसा और संघर्ष के कारण अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था अपनी प्रासांगिकता खो बैठी। बंदूक की संस्कृति प्रबल विचारधारा बन गई, जिससे गांव के बुजुर्गों को अपने वजूद के लिए खतरा महसूस होने लगा और वे खौफजदा हो गये। संघर्ष के कारण समाज में टल नहीं सकने वाले विचलन और बुराइयां पनपी, क्योंकि परम्परागत विश्वास प्रणालियों और अनौपचारिक सामाजिक व्यवस्था को खतरे में डाला गया था। आईटी क्षेत्र की क्रांति, सोशल मीडिया एक्सपोजर और अपराधों के सामाजिक रुझान के रूप में पनपने ने युवाओं को प्रभावित किया।

अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था की नाकामी का एक अन्य कारण यह था कि कश्मीर अ​सहिष्णु तथा अलग राजनीतिक नीतियों और एजेंडे वाले कट्टर मुस्लिम संगठनों के उदय और प्रसार का गवाह बना। कट्टर राजनीतिक धार्मिक और राजनीतिक परिदृश्य पर उभरे “जमात-ए-इस्लामी” का लक्ष्य समाज में बदलाव लाना था और उसका झुकाव इस्लामिक राज्य की स्थापना की ओर था। इस विचारधारा को कश्मीर में अपने समर्थक और अनुयायी मिल गए उसका अस्तित्व और प्रसार इस बात का सबूत है। जमीयत-ए-अहलिहादी एक अन्य धार्मिक संगठन था, जो 1980 के दशक के अंत से “नैतिकतावाद” का प्रचार करता था। दूसरी ओर, “तबलीग” “इस्लामी समाज” की नए सिरे से रचना करने और नए “इस्लामिक वैश्विक राष्ट्र” की स्थापना के बगैर ही कश्मीर में “वैश्विक मुस्लिम समुदाय” की स्थापना की दिशा में काम कर रहा था। इन विरोधाभासी धार्मिक विचारधाराओं ने गांव और समुदाय के स्तरों पर अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। इसकी परिणति नए राजनीतिक टकराव में हुई जिसके कारण समाज में गहरे कट्टरवाद के साथ विभाजन हुआ। लोग, खासतौर पर कश्मीर के युवा, अब “राजनीतिक इस्लाम” के कट्टर स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका प्रसार हो रहा है और जिसकी जड़े गहरी होती जा रही हैं। इसकी परिणति बढ़ते अपराधों तथा परम्परागत सामाजिक रीति रिवाजों, मूल्यों, मानदंडों और प्रथाओं के विपरीत पथभ्रष्ट आचरण में हुई है। कश्मीरी समाज ग्रामीण और सामुदायिक स्तर पर इन विविध धार्मिक विचारधाराओं में बंटा हुआ है तथा परम्परागत विश्वास व्यवस्थाओं और अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्थाओं को खतरा है। अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण प्रणाली के प्रवर्तन एजेंटों के तौर पर काम करने वाले गांव के बुजुर्गों की इज्जत और सम्मान घट चुका है।

मौजूदा दौर में कश्मीरी समाज की अफरा-तफरी और दुविधा का कारण — संघर्षों, हत्याओं, डकैतियों, आगजनी, नशेखोरी, नशे के कारोबार, तस्करी, वन्य जीवों की तस्करी, महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध, भ्रष्टाचार आदि को नियंत्रित करने वाली अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था और अहिंसक सामाजिक लोकाचारों का कमजोर पड़ना है। सड़कों पर होने वाली हिंसा में युवाओं की बढ़ती भागीदारी केवल उग्रवादी विचारधारा का ही प्रभाव नही है, बल्कि आधुनिक/औपचारिक व्यवस्था के साथ साथ परम्परागत/अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्थाओं के पूरी तरह नाकाम हो जाने की ओर भी इशारा करता है।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में मौजूद हिंसा, कट्टरवाद और संघर्षों जैसे उलझावों को सुलझाने के लिए अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था में तत्काल नए प्राण डालने की जरूरत है, जो दुनिया के ज्यादातर आधुनिक समाजों में मौजूद है। जब सरकार सामाजिक नियंत्रण, नैतिकता और संघर्ष का प्रबंधन अलग-अलग क्षेत्रों के रूप में करने का प्रयास करती है, तो अक्सर इस तथ्य की अनदेखी हो जाती है कि वे सभी परस्पर जुड़े हुए हैं। आधुनिक औपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था की नाकामी को देखते हुए, केवल परम्परागत अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण ही हैं, जिनमें सामाजिक तौर पर पथभ्रष्ट होने वालों को नियंत्रित करने की क्षमता है।

सरकार को कश्मीर में आधुनिक औपचारिक नियम थोपने की बजाए अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था को प्रा​थमिकता देनी चाहिए, ताकि हिंसा, नशाखोरी, कट्टरवाद का सफाया हो सके। कश्मीर में न तो औपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था प्रबल हो कर सामाजिक बुराइयों पर काबू पा सकी और न ही व्यक्तियों द्वारा मानदंडों और कानूनों का अनुपालन कराने के लिए कोई परम्परागत अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यवस्था यथावत रह सकी।

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