Published on Oct 03, 2018 Updated 0 Hours ago
एनआरसी संकट से पैदा हो सकती है विश्व की सबसे बड़ी ‘राज्यविहीन आबादी’

मोरीगांव, असम के एनआरसी सेवा केन्द्र में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के अंतिम मसौदे में अपने नाम की जांच के लिए कतार में लगे लोग। स्रोत: PTI

हांलाकि असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) से हटा दिये गये 40 लाख लोगों की मसौदा सूची के निष्पक्ष और पारदर्शी सत्यापन का भरोसा दिया गया है लेकिन बड़े पैमाने पर समाधान निकालने की कोशिश नहीं की गयी तो हालात और बिगड़ सकते हैं। यदि केन्द्र और राज्य सरकारें दोबारा उन्हीं अधिकारियों को सत्यापन कार्य का जिम्मा सौंपती हैं तो परिणाम की पुनरावृत्ति की संभावना रहेगी और विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े किये जायेंगे।

एनआरसी अभियान के पहले और बाद की राज्य की आबादी का मसला छोड़ भी दें तो गैर नागरिक के रुप में चिन्हित चालीस लाख लोगों की तादाद इतनी ज्यादा है कि इसका भौतिक पुनर्सत्यापन एक जटिल प्रकिया साबित हो सकता है। अगर अंतिम निर्णय निकलने के पहले कोई एक या कई लोग व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर अदालत की शरण में चले जायें या राहत हासिल करने के लिए अन्य रास्ता अख्तियार कर लें तो स्थिति और बिगड़ सकती है। ‘असम समझौता’ होने के बाद से काफी समय बीत चुका है, जिसमें ‘विदेशियों’ को बाहर करने का प्रावधान होने के बावजूद कुछ हो नहीं पाया चाहे केन्द्र या राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो।

पहला और सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर वे घोषित तौर पर ‘गैर नागरिक’ हैं तो क्या उन्हें भारतीय अदालतों से ‘न्यायिक राहत’ हासिल हो सकती है। पश्चिमी देशों में जहां दुनिया भर के शरणार्थियों को शरण मिली हुई है, वहां उन्हें वर्षों तक विशेष शिविरों में जगह दी गयी जब तक कि संबंधित देश की आखिरी अदालत ने अपना फैसला नहीं दे दिया। भारत में श्रीलंकाई तमिलों और रोहिंग्या के साथ साथ अन्य शरणार्थियों और के लिए शरणार्थी शिविर हैं लेकिन ये एक नया अनुभव होगा, संभवतया ‘प्रयोग’ भी।

अगर उन्हें रहने की और अदालती मामलों का सामना करने की अनुमति दी गयी तो केन्द्र और राज्य की सरकारी, सार्वजनिक उपक्रमों और यहां तक कि प्राइवेट उद्यमों की स्थानीय नौकरियों में इन लोगों की अंतरिम हैसियत क्या होगी? क्या केन्द्र के पास इन्हें बाहर करने में सक्षम उपकरण और मशीनरी उपलब्ध है खासकर तब, जब संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय एनजीओ और मीडिया सक्रिय हों?

नागरिकता को लेकर पूर्व धारणा

चालीस लाख लोगों को ‘गैर भारतीय’ मानकर गैरकानूनी घोषित करने के फैसले का समर्थन कर रहे मीडिया के सभी विमर्शों में पहले से ही ये मान लिया गया है कि वे बांग्लादेशी नागरिक हैं। सबसे बड़ी बात ये हो सकती है कि भारत ये साबित कर दे कि ये भारतीय नहीं हैं। लेकिन भारत और भारतीय इस तर्क के बावजूद कि वे ‘गैर भारतीय’ हैं ये नहीं मान सकते कि ये सभी बांग्लादेशी हैं, कुछ और नहीं। अब उन प्रभावित लोगों को या तो अपनी ‘अलग’ राष्ट्रीय पहचान साबित करनी है जिसके बारे में उनका दावा है कि वे भारतीय के अलावा कुछ और नहीं या ये बांग्लादेश की उदारता पर छोड़ दिया जाये कि वह इन्हें ‘अपने लोग’ मानते हुए स्वीकार कर ले।

भारत ने ऐसा पहले भी किया है, बर्मा (अब म्यामांर) और श्रीलंका के भारतीय मूल के तमिल के शरणार्थियों के मामले में। भारत ने दलाई लामा के साथ तिब्बती शरणार्थियों के लिए भी अपनी सीमा खोल दी थी जब उन्हें राजनीतिक शरण देने का फैसला लिया गया था।

भले ही पहले के कुछ अच्छे अनुभव रहे हों, लेकिन भारत ये कतई नहीं मान सकता कि बांग्लादेश सरकार को अगर इस बारे में कभी संपर्क किया गया तो वह भारत की बात स्वीकार कर लेगा। आखिरकार, इस समय बांग्लादेश को भी करीब पांच लाख रोहिंग्या मुसलमानों को अपने नागरिक के रूप में स्वीकार करने में समस्या है। भारत ने भी म्यांमार और साथ ही संयुक्त राष्ट्र समेत पूरे विश्व से अपील की है कि वो रोहिंग्या को स्वीकार करें। लेकिन म्यामांर की उदारवादी नेता आंग सान सू की ने इस मसले पर आंखें मूंद रखी हैं।

एनआरसी संकट का एक और पहलू भी है। इसकी शुरूआत दशकों पहले आल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) के विदेशी आंदोलन से होती है जब ये दावे किये गये थे कि पूर्ववर्ती पूर्वी पाकिस्तान के लाखों लोगों ने बांग्लादेश बन जाने के बावजूद वहां लौटने की बजाय भारत में रहना तय किया जबकि युद्ध समाप्त हो चुका था। इसका मतलब ये कि उनके पास हो सकता है ये भी दस्तावेज नहीं हो जिससे कि बांग्लादेश की नागरिकता साबित की जा सके।

ऐसे कई अंतरराष्ट्रीय नियम और कानून हैं जो किसी राष्ट्रीय सरकार पर दबाव डालते हैं कि वे समान राष्ट्र से संबंध रखने वाले नागरिकों को स्वीकार करे। ऐसा विभाजन के समय भारत और पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच जबरन ‘विभाजन’ के बाद हुआ। 1971 के बांग्लादेश युद्ध के दशकों बाद बांग्लादेश ने विभाजन पूर्व भारत से आये तीन लाख मुजाहिरों या ‘बिहारियों’ को नागरिकता प्रदान कर दी जो पाकिस्तान बनने के बाद वहां चले गये थे। लेकिन उन लोगों के मामले में जो अब भारत में हैं, उनकी पूर्वी पाकिस्तान से जुड़ी पहचान साबित करने की जिम्मेदारी अब भारत की है, बांग्लादेश की नहीं। इस बात का अर्थ ये हुआ कि अगर बांग्लादेश या अन्य कोई देश इन्हें वापस नहीं लेता है तो ये विश्व भर में राज्यविहीन नागरिकों का सबसे बड़ा समूह बन सकता है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उपायुक्त कार्यालय (UNHCR) के मुताबिक इस समय विश्व में करीब एक करोड़ राज्यविहीन लोग हैं जिनमें से दस लाख म्यांमार के राखिने राज्य में हैं जो रोहिंग्या शरणार्थियों का मूल स्थान है।

राजनीतिक भूल?

मौजूदा सरकार की विदेश नीति के आलोचक भी ये स्वीकार करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बांग्लादेश के साथ द्विपक्षीय संबंधों में सकारात्मकता आई है। प्रधानमंत्री शेख हसीना की अवामी लीग सरकार के दस साल से सत्ता संभालने के कारण इसमें मदद मिली है।

आज के हालात में जबकि बांग्लादेश में आम चुनाव इस साल के अंत में संभावित है तो ये सवाल उठने लाजिमी हैं कि क्या जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया की विपक्षी बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) और भारत का एनआरसी संकट वहां के मतदाताओं के मूड पर कोई असर डाल सकते हैं। बेगम खालिदा जब सत्ता में थीं तो उन्हें भारत का मित्र नहीं माना जाता था। इससे बढ़कर बात ये कि शेख हसीना को दोनों देशों में भारत के मित्र के रूप में जाना जाता है और वो ऐसा साबित करने की कोशिश भी करती रही हैं। बांग्लादेश की घरेलू राजनीति की प्रतिद्वंद्वी प्रकृति और चुनावों को देखें तो ये कहना मुनासिब होगा कि एनआरसी उस देश में बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है खासकर ऐसे वक्त में जब बीएनपी चुनाव मैदान में कूदने को तैयार है। गौरतलब है कि बीएनपी ने पांच साल पहले हुए आम चुनावों का बहिष्कार किया था।

क्या इसका मतलब ये है कि भारत ने बांग्लादेश में चुनावों के ठीक पहले एनआरसी के मसौदे को जारी करने का ये समय तय करके कहीं राजनीतिक-कूटनीतिक चाल तो नहीं चली है? दूसरी बात ये कि, ढाका में किसी भी पार्टी की किसी के भी नेतृत्व वाली सरकार अगर भारत द्वारा राज्यविहीन घोषित किये गये लोगों को उसी समय या बाद में अपना मानने से इंकार कर दे तो क्या होगा? और इन लोगों का रूख तब क्या होगा? उनके साथ संबंध के मामले में भारत की स्थिति क्या रहेगी और राष्ट्रों के समूह का रूख भी क्या होगा जिसमें भारत हाल में ही शामिल हुआ है और इसने म्यांमार और अन्य संबंधित देशों से रोहिंग्या और ऐसे अन्य ‘राज्यविहीन’ लोगों को वापस लेने और उन्हें नागरिकता प्रदान करने को कहा है?

इस संदर्भ में भारत को उस स्थिति की कल्पना करने की जरूरत है जब एनआरसी अभियान के अंतिम चरण में बड़ी तादाद में लोगों को राज्यविहीन करार दिया जाता है लेकिन बांग्लादेश बॉर्डर गार्ड्स और अन्य सैन्य ताकतें अपनी सरकार की पहल और आदेश पर कड़ा प्रतिरोध करने के लिए आगे आती हैं। अगर भारत ऐसा नहीं करता है तो अभी या बाद में ये लोग भारतीय क्षेत्र में बने रहेंगे लेकिन ‘राज्यविहीन शरणार्थियों’ के रूप में, जिससे कई तरह की समस्याएं उत्पन्न होंगी मसलन उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता की, शिक्षा और रोजगार की और आसपास के इलाकों और राष्ट्र की सुरक्षा की।

इस बात से कोई इंकार नहीं है और सरकार ने भी बार बार ये आश्वासन दिया है कि एनआरसी का मसौदा सिर्फ मसौदा है और भावी सत्यापनों से इसकी कमियों, व्यक्तिगत शिकायतों और राजनीतिक और अन्य प्रकार की आलोचनाओं के समाधान में मदद मिलेगी। लेकिन कई राज्य सरकारों खासकर प्रधानमंत्री मोदी की बीजेपी द्वारा शासित सरकारों ने अपने अपने राज्यों में भी इसी तरह का अभियान चलाने का मुद्दा छेड़ दिया है। अगर इसे मान लिया जाता है तो इससे कोई समाधान नहीं निकलेगा और कई समस्याएं पैदा होंगी, भले ही इन मांगों का एक औचित्य हो।

निर्बाध आवाजाही

इस समय लाखों नहीं तो हजारों अवैध बांग्लादेशी शरणार्थी भारत के अलग अलग हिस्सों में काम कर रहे हैं। एनआरसी मसले पर ज्यादा जोर देने से उस तरह का सामाजिक संकट खड़ा हो सकता है जैसा कि अमेरिका में अवैध मेक्सिकी शरणार्थियों के मामले में खड़ा हुआ था। ये बात सर्वविदित है कि अमेरिका में मेक्सिकी शरणार्थियों को बाहर निकालने का मसला चुनावी मुद्दा बनता रहा है। रिपब्ल्किन पार्टी ने इस मुद्दे को लगातार उठाया है और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का हालिया रूख भी यही बताता है। हांलाकि इस विवाद को सुलझाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा सका है।

अगर ऐसा होता है कि भारत में रहने और काम करने वाले विदेशियों को निशाना बनाते हुए संदिग्ध व्यक्तियों की तलाश शुरू की जाती है और उनकी पहचान सिर्फ धर्म और भाषा के आधार पर करने की कोशिश होती है तो पश्चिम बंगाल और बिहार, उड़ीसा, असम, त्रिपुरा और अन्य राज्यों से सटे इलाकों के वास्तविक भारतीय नागरिकों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है जो संभवत: बंगलाभाषी हों या जन्म से मुस्लिम हों।

हमारे देश में भीड़ के हाथों गोमांस विक्रेताओं की हत्या के कई मामले सामने आये हैं जिसमें मुस्लिमों को ही ज्यादातर निशाना बनाया गया है। ऐसी स्थिति में जहां विदेशी पहले मताधिकार हासिल कर सकते हैं और उसके बाद आधार और पैन कार्ड (केन्द्र और राज्य में विभिन्न सरकारों के अंतर्गत) बनवा सकते हैं। यही नहीं वे गंवाई गयी नागरिकता को फिर से खरीद भी सकते हैं। इन सारी बातों से बांग्लादेश के साथ अच्छे पड़ोसी वाले संबंधों में तनाव आने के साथ साथ भारतीय राष्ट्रीयता भी प्रभावित हो सकती है।

मौजूदा संकट का विकल्प ये हो सकता है कि भारत और बांग्लादेश और इस क्षेत्र के अन्य पड़ोसी देश आपस में बात करें और ऐसी व्यवस्था तैयार करें जैसी भारत, नेपाल और भूटान के बीच में है जिसके तहत इन देशों के नागरिकों को तीनों देशों में निर्बाध आवाजाही की इजाजत मिली हुई है। साथ ही दो देश मौजूदा जनसंख्या और सुरक्षा संबंधी मुद्दों का भी समाधान कर सकते हैं लेकिन इसके लिए पृथक प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।

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