Published on Sep 29, 2020 Updated 0 Hours ago

मुस्लिम आबादी रचनात्मक प्रतिक्रियाओं में शामिल रही है, जिसमें कोई कानूनी, शैक्षिक और कम्युनिटी सर्विस भी हो सकती है, और जिसका भारत में जिहादी आतंकवाद की कमी के लिए सकारात्मक निहितार्थ हो सकता है.

भारतीय मुसलमान और जिहादियों की नाकामी: अतीत और भविष्य

आईएसआईएस द्वारा अपना ख़लीफ़ा घोषित करने के पांच साल बाद और अल-क़ायदा द्वारा दक्षिण एशियाई शाखा अल-क़ायदा इन इंडियन सबकॉन्टिनेंट (एक्यूआईएस) गठन के ऐलान, के बाद भी भारतीय जिहादी परिदृश्य में आमतौर पर कोई प्रगति नहीं हुई है. ज़्यादा से ज़्यादा, कुछ नाकाम योजनाएं और भर्ती अभियान हुए, जैसे कि 2019 में महाराष्ट्र में सुरक्षा एजेंसियों ने आईएसआईएस से प्रेरित दस लोगों को गिरफ़्तार किया जो बम धमाके की योजना बना रहे थे.[1] भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी— लगभग 20 करोड़— को देखते हुए यह कई वजहों से अचंभे की बात है. भारत में ख़ासकर बाबरी मस्जिद विध्वंस और 2002 के गोधरा दंगों के बाद स्थानीय स्तर पर हमलों की तैयारियों की लहर चली[2]. ऐसे हमले 2014 तक देखे गए जिनमें सबसे उल्लेखनीय 2014 में पश्चिम बंगाल में जमात उल मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) के सदस्यों की दुर्घटनाग्रस्त बमबारी थी [3].  वैसे भी, भारत में जिहादी नेटवर्क या उनके हमले कोई अनजाने नहीं थे. इससे भी बड़ी बात यह कि, भेदभाव, पूर्वाग्रह, इस्लामोफोबिया और इससे जुड़े दूसरे कारक दशकों से भारत में मौजूद हैं. इन मुद्दों में से कई को मौजूदा दक्षिणपंथी-झुकाव वाली सरकार द्वारा जानबूझकर बढ़ावा दिया जा रहा है. मॉब लिंचिंग की ख़बरें, अल्पसंख्यकों को कलंकित करने और अल्पसंख्यकों के लिए अभिव्यक्ति के घटते मौक़ों की ख़बरें [4] लोगों को इस तरह की नाइंसाफ़ी के लिए आतंकवादी गुटों में शामिल होने का बड़ा और मददगार कारक बनते हैं[5].

मॉब लिंचिंग की ख़बरें, अल्पसंख्यकों को कलंकित करने और अल्पसंख्यकों के लिए अभिव्यक्ति के घटते मौक़ों की ख़बरें लोगों को इस तरह की नाइंसाफ़ी के लिए आतंकवादी गुटों में शामिल होने का बड़ा और मददगार कारक बनते हैं

आईएसआईएस और एक्यूआईएस भारत से सदस्यों की भर्ती करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें लगातार ख़ामोशी भरी प्रतिक्रिया मिल रही है. हालांकि भारत से कम से कम 200 लोग [6] (आबादी के हिसाब से बहुत मामूली संख्या) सीरिया, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस में शामिल हुए, लेकिन भारत में बड़े हमले नहीं हुए. असल में, यह ख़ामोशी इतनी ज़्यादा है कि आईएसआईएस और एक्यूआईएस के भारत को लेकर बनाए गए कई प्रोपगेंडा वीडियो में भारतीय मुसलमानों की भागीदारी की कमी की निंदा की गई है[7]. भारत में इस तरह की सकारात्मक प्रवृत्ति की क्या व्याख्या हो सकती है? ख़ुफ़िया और सरकारी एजेंसियों द्वारा किए गए शानदार सुरक्षा कार्य [8] के प्रति कोई असम्मान जताए बिना मानना होगा कि मुसलमानों को इन गुटों में शामिल होने से रोकने की ज़िम्मेदारी बहुत हद भारत के मुस्लिम समुदाय के कंधों पर है.

विविधता में छिपा है जवाब

कई विश्लेषक सभी भारतीय मुसलमानों की धार्मिक और राजनीतिक मान्यताओं को एक मानते हैं, लेकिन वे धार्मिक या राजनीतिक एकांगी इकाई नहीं हैं[9] . भारतीय मुसलमान मान्यताओं (उदाहरण के लिए, बरेलवी या देवबंदी), आर्थिक और जातीय अंतर (अशरफ, थंगल, सैयद, अफ़ज़ल और अरज़ल), विधिशास्त्र की मान्यताओं (शफ़ई, हनफ़ी, अहले हदीस/सलाफ़ी), सुधार आंदोलनों (उदाहरण के लिए, तब्लीग़ी जमात, जमात ए-इस्लामी या देवबंदी) और भाषा व भूगोल (उदाहरण के लिए, बंगाली, उर्दू, तमिल, गुजराती, मलयालम) में बंटे हुए हैं. ये सारे गुट और इनके सदस्य नियमित रूप से एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं और मिश्रित समाज का निर्माण करते हैं. विविधता एक वजह है जिससे भारतीय मुसलमान संघर्षों में हिस्सा नहीं लेते— हर समूह के स्थानीय संदर्भ, आकांक्षाएं और समस्याएं हैं. बहुराष्ट्रीय आतंकवादी गुट अपने इस्तेमाल किए जाने वाले प्रोपेगेंडा की भाषा के आधार पर सिर्फ़ छोटे उप-वर्गों को संबोधित करने में सक्षम हुए हैं. अभी हाल तक प्रोपेगेंडा मटीरियल उर्दू तक ही सीमित था, लेकिन अब मलयालम और तमिल का भी इस्तेमाल करने की कोशिश की गई है.[10]

बहुराष्ट्रीय आतंकवादी गुट अपने इस्तेमाल किए जाने वाले प्रोपेगेंडा की भाषा के आधार पर सिर्फ़ छोटे उप-वर्गों को संबोधित करने में सक्षम हुए हैं. अभी हाल तक प्रोपेगेंडा मटीरियल उर्दू तक ही सीमित था, लेकिन अब मलयालम और तमिल का भी इस्तेमाल करने की कोशिश की गई है.

 मुस्लिम राजनीतिक चिंतन का विकास

एक और मज़बूत कारण राजनीतिक रुझान है जो भारतीय मुसलमानों (भारत भर में उनके सभी अलग-अलग समुदायों में) ने सदियों से जताया है. इतिहासकार मुज़फ़्फ़र आलम ने बताया है कि विद्रोहों को रोकने के लिए, मुग़लकाल से पहले भारतीय मुस्लिम शासकों ने (बड़े पैमाने पर) हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए धार्मिक औचित्य को प्रोत्साहित किया, जो आज़ादी तक जारी रहा. [11]  जब भारत एक राष्ट्र बना, तो तमाम मुस्लिम आंदोलन, जैसे देवबंदी, अहले हदीस (सलाफ़ी) और जमात-ए-इस्लामी, दो प्रमुख गुटों में बंट गए— एक जिसने भारत में ही रहने का फ़ैसला लिया और दूसरे ने धार्मिक रूप से अलग देश— पाकिस्तान का पक्ष लिया.[12] इन आंदोलनों के भारतीय गुटों ने भारत में बने रहने के लिए अपने तर्क को मज़बूत करने के लिए धार्मिक तर्कों का इस्तेमाल किया, जिसमें इस विचार पर ज़ोर दिया गया कि भारत मुसलमानों का घर है. इस तरह, मुस्लिम विद्वानों और समुदाय के नेताओं ने विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ मिलकर भारतीय राजनीति के भीतर अपनी जड़ें जमाईं. उदाहरण के लिए, देवबंद ऐतिहासिक रूप से अलग-अलग समय पर कांग्रेस पार्टी से जुड़ा रहा या कम से कम उसके नज़दीक रहा है. [13].

ऐसे गठबंधनों ने इस्लामी राजनीतिक चिंतन को बड़े पैमाने पर भारतीय रूप देने में मदद की है, जिसमें इस्लामी नज़रिये के बजाय धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल मुसलमानों के लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने में किया गया. जैसा कि इरफ़ान अहमद ने पूर्व में कहा है, इसका कारण यह है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का विलोम इस्लामवाद नहीं  (जैसा कि तुर्की, मिस्र और पाकिस्तान जैसी जगहों पर है) बल्कि हिंदुत्व है (जैसा कि मौजूदा संदर्भ में देखा जा रहा है), और मुसलमानों ने धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के साथ ज़्यादा रचनात्मक ढंग से जीना सीखा है[14]. भारतीय मुस्लिम समुदाय ने इस तरह धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे पर अपना भरोसा जताया और इसमें उत्साह से हिस्सा लिया और अक्सर गैर-मुस्लिम राजनेताओं के लिए मतदान किया, जो उनकी समस्याओं को उठाते हैं. समग्र आर्थिक स्थिरता, उचित सामुदायिक भाईचारा, और बीते वर्षों में क़ानून का सहारा लेकर— हाल के वर्षों को छोड़कर जब कई बार अन्याय हुआ— मुसलमानों को अहिंसक ढांचे के भीतर रहने और इसका फ़ायदा उठाने का मौका दिया है. चूंकि यह ढांचा उन्हें आगे बढ़ने की गतिशीलता का मौक़ा देता है, इसलिए यह अन्य साधनों की तुलना में पसंदीदा विकल्प है.

मुस्लिम विद्वानों और समुदाय के नेताओं ने विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ मिलकर भारतीय राजनीति के भीतर अपनी जड़ें जमाईं. उदाहरण के लिए, देवबंद ऐतिहासिक रूप से अलग-अलग समय पर कांग्रेस पार्टी से जुड़ा रहा या कम से कम उसके नज़दीक रहा है.

यही वजह है कि प्रमुख संगठन और आंदोलन, जैसे देवबंद, जमात-ए-इस्लामी, अहले हदीस और बरेलवी ने पाकिस्तान और बांग्लादेश में अपने समकक्षों द्वारा हिंसा के कुछ स्तरों के प्रति सहनशीलता दिखाने के बावजूद बार-बार आतंकवाद की निंदा की है[15]. इस महत्व के बावजूद कि विश्लेषक (और यह लेख) कट्टरता की व्याख्या में धर्म को कारक मानता है, लेकिन इसके अलावा भी कई कारक हैं, और धर्म पहेली का एक छोटा सा हिस्सा भर है. [16]  रिश्तेदारी, राजनीतिक माहौल, हमलों का अंजाम देने की क्षमता और/या जिहादी हॉटस्पॉट की यात्रा करने की क्षमता इनमें से चंद हैं. इसके बाद जो सवाल बार-बार उभर कर सामने आता है, वह यह है कि क्या भारतीय मुसलमानों के लिए मुश्किल राजनीतिक हालात भर्ती को आसान बनाएंगे? यह समझना कि किसी भी हालत में आतंकवाद की क्या वजहें होती है, इस पर एक संक्षिप्त सैद्धांतिक दृष्टि डालने की ज़रूरत है.

क्या भारतीय मुसलमान समर्पण कर देंगे?

आतंकवाद और उसके कारणों पर बारीक़ नज़र रखने वाले, टोरे बोर्गो ने बताया है कि आतंकवाद के कारणों के कुछ स्तर होते हैं— संरचनात्मक कारण जैसे लंबे समय से भेदभाव और समुदाय के उत्थान के प्रति सरकार की निष्क्रियता; सुविधा का कारण जैसे कि मीडिया और इंटरनेट; प्रेरक कारण जैसे कि निजी वजहें; और उकसाने वाले कारण जैसे बड़ी घटनाएं और मौतें [17]. बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात सामूहिक हत्याकांड दोनों ही उकसाने वाले कारण थे, जिससे स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) की हिंसक गतिविधियों का जन्म हुआ और इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) बना. 1980 के दशक में हिंदू चरमपंथ के उदय जैसे संरचनात्मक कारणों के साथ मिलकर, मुसलमानों पर आरोप लगाने का दौर सितंबर 2001 के अमेरिकी हमलों के बाद दुनिया भर में बढ़ा है, और मुस्लिम समुदाय के बीच ग़रीबी और बेरोजगारी की बढ़ती घटनाएं, जिन्हें समाचार संस्थानों ने उठाया है (संरचनात्मक और सुविधाजनक कारक), यह अपरिहार्य था कि इस तरह की घटनाओं से एक बड़ी जिहादी लपट पैदा होती. मौजूदा समय में, अधिकांश संरचनात्मक, सहायक और निजी कारण मौजूद हैं. असल में, शायद एक चिंगारी एक और जिहादी लहर पैदा कर सकती है, जो कि बहुराष्ट्रीय आतंकवादी गुटों की मदद से स्थानीय स्तर पर पैदा होगी. हालांकि, 2020 के दिल्ली दंगे, [18]  असरदार चिंगारी का काम कर सकते थे, लेकिन एक और हिंसक जिहादी लहर नहीं फैली. तर्क दिया जा सकता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस तरह की लामबंदी में समय लगता है और चूंकि घटना के बाद जल्द ही कोविड ​​-19 महामारी आ गई, इस तरह की साज़िशें कमज़ोर पड़ गईं.

शिक्षा और समाज सेवा कट्टरता को रोकने वाली चहारदीवारी 

एक दूसरी व्याख्या यह है कि मुस्लिम समुदाय अपनी ख़राब सामाजिक-आर्थिक दशा के बावजूद, साक्षरता के अपने उच्चतम बिंदु पर है—  2011 में 68 फ़ीसद, 2021 की जनगणना तक यह संख्या और बढ़ जाने की उम्मीद है. [19]  2001-2011 की अवधि में मुस्लिम साक्षरता दर अन्य समुदायों की तुलना में तेज़ी से बढ़ी, जिसके नतीजे में जनसंख्या वृद्धि दर कम हुई और सामाजिक-आर्थिक हालत मामूली तौर पर बेहतर हुई.[20] इसके अलावा इस्लामोफोबिया, जो कोविड ​​-19 के दौरान जैसे चरम पर था, के प्रति मुसलमानों की प्रतिक्रिया सधी हुई और माफ़ करने वाली थी. उदाहरण के लिए, गुजरात जैसे राज्यों में हेट स्पीच पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी कार्रवाई करने वाले मुसलमानों की संख्या बढ़ी है, जिससे इस तरह के संवादों में कमी आई है.  [21] इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कोविड-19 से निपटने के लिए देश भर में संबंधित इलाकों और शहरों में वालंटियर सेवा में मुसलमानों की समन्वित भागीदारी रही. विभिन्न संस्थानों और मुसलमानों द्वारा संचालित एनजीओ ने लोगों को खाना खिलाया, वायरस को लेकर शिक्षित किया, मृतकों का अंतिम संस्कार किया, और राहत उपायों में मदद के लिए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ तालमेल बिठाया. [22]  दरअसल, महामारी के पहले से चल रही परोपकारी गतिविधियों ने महामारी के दौरान प्रभावी, त्वरित और समन्वित कार्रवाई का आधार तैयार किया.

मौजूदा समय में, अधिकांश संरचनात्मक, सहायक और निजी कारण मौजूद हैं. असल में, शायद एक चिंगारी एक और जिहादी लहर पैदा कर सकती है, जो कि बहुराष्ट्रीय आतंकवादी गुटों की मदद से स्थानीय स्तर पर पैदा होगी.

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि वालंटियर और कम्युनिटी सर्विस के कई फ़ायदे हैं. वे मुसलमानों को (और किसी शख़्स को) मदद का माध्यम मुहैया कराती हैं वो अपनी समस्याओं को कम करने और अपने समुदाय की मदद करने में लगा हुआ महसूस करते हैं. इसके अलावा, वे नौजवानों को मक़सद मिलने का एहसास दिलाने और जुड़े रहने का एहसास दिलाने में मददगार हैं, और स्थानीय माहौल में अंतर-धार्मिक और समुदाय-सरकार– संबंधों को बेहतर बनाने में मदद करते हैं. इस तरह, समाजसेवा कट्टरता बढ़ने और आतंकवादी गुटों में लोगों की भर्ती को रोकने की एक महत्वपूर्ण दीवार के रूप में काम करती है क्योंकि लोगों को इससे मिलने वाले बहुत से फ़ायदे वही हैं, जो कुछ दूसरे लोगों को आतंकवादी गुटों में शामिल होने के लिए प्रेरित करते हैं. विश्लेषकों को समझना चाहिए कि ऐसा कोई नीर-क्षीर विभाजन नहीं है जो बताता हो कि भारतीय मुसलमानों ने जिहादी गतिविधियों से क्यों परहेज़ किया है. न ही कोई इकलौता कारण है जो सिमी और आईएम जैसी आतंकवाद की नई लहर को प्रेरित करेगा. मुस्लिम आबादी रचनात्मक प्रतिक्रियाओं में शामिल रही है, जिसमें कोई कानूनी, शैक्षिक और कम्युनिटी सर्विस भी हो सकती है, और जिसका भारत में जिहादी आतंकवाद की कमी के लिए सकारात्मक निहितार्थ हो सकता है.

Endnotes

[1] Another arrest in case of Islamic State conspiracy”, The Hindu, January 27, 2019.

[2] Shishir Gupta, The Indian Mujahideen: Tracking The Enemy Within. (New Delhi: Hachette India, 2011)

[3] JMB operative wanted in 2014 Burdwan blast case held,” Business Standard, January 29, 2019.

[4] Priya Chacko, “Why Modi’s India has become a dangerous place for Muslims,” The Conversation, March 2, 2020.

[5] Isabelle Duyvesteyn and Bram Peeters, “Fickle Foreign Fighters? A Cross-Case Analysis of Seven Muslim Foreign Fighter Mobilisations (1980-2015),” Hague: International Center for Countering Terrorism, 2015.

[6] Mohammed Sinan Siyech. “Understanding the Indian foreign fighter lacuna,” Observer Research Foundation, January 31, 2020.

[7] Animesh Roul, “Al-Qaeda in Indian Subcontinent’s Propaganda Campaign Continues Despite Digital Disruptions and Stifled Operational Capability,” Jamestown Foundation, January 28, 2020.

[8] Mohammed Sinan Siyech, “Understanding the Indian foreign fighter lacuna,” Observer Research Foundation, January 31, 2020.

[9] Hilal Ahmed, Siyasi Muslims: A Story of Political Islams in India, (New Delhi: Penguin, 2019)

[10] Krishnadev Calamur, “ISIS’s Newest Recruiting Tool: Regional Languages,” The Atlantic, April 24, 2019.

[11] Muzaffar Alam, The Languages of Political Islam: India, 1200–1800 (Chicago, IL: University of Chicago Press, 2004), pp. 1–40.

[12] Ali Usman Qasmi and Megan Eaton Robb, ‘Introduction’, in Ali Usman Qasmi and Megan Eaton Robb (eds), Muslims against the Muslim League: Critiques of the Idea of Pakistan (New York: Cambridge University Press, 2017) pp. 1-35; and Shamsul Islam, Muslims against the Partition: Revisiting the Legacy of Allah Baksh and Other Patriotic Muslims, (New Delhi: Pharaoh Publishers, 2015).

[13] Arshi Saleem Hashmi, “The Deobandi Madrassas in India and Their Elusion of Jihadi Politics: Lessons for Pakistan,” thesis submitted to Quad-E-Azam University, Islamabad, Pakistan, 2014.

[14] Irfan Ahmed, Islamism and Democracy in India: The Transformation of Jamaat-e-Islami, (Princeton, NJ: Princeton University Press, 2009) pp. 120–2, 148.

[15] Mohammed Sinan Siyech, “Salafism in India, Diversity and Challenges,” Counter Terrorism Trends and Analysis, April 2017, Vol 9. No. 4 pp. 18-23.

[16] Faiza Patel, “Rethinking Radicalization,” Brennan Center for Justice, 2011.

[17] Tore Bjorgo, Root Causes of Terrorism: Myths, Reality and Way Forward. (New York: Routledge, 2004) pp. 1-16.

[18] Mira Kamdar, “What Happened in Delhi Was a Pogrom,” The Atlantic, February 28, 2020.

[19] Aditi Phadnis, “Story in numbers: Muslim literacy rates rising faster than work participation,” Business Standard, August 1, 2016.

[20] Ibid.

[21] Rajeev Khanna, “In Gujarat, Muslims counter hate with police complaints against media and individuals,” The National Herald, April 26, 2020.

[22] Musaddiq Thange, “How Indian Muslims Engaged in COVID-19 Relief Efforts Are Countering Hate With Love,” The Wire, 27 April 2020.

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