Author : Sandip Sen

Published on Apr 19, 2018 Updated 0 Hours ago
भारतीय कंपनियों ने जलवायु परिवर्तन में ट्रिलियन डॉलर अवसर गंवाया!

एपल द्वारा पहला स्मार्टफोन बनाने के महज दो साल बाद ही वर्ष 2010 में चीन ने 17 रेयर अर्थ मेटल्स (पृथ्वी में पाई जाने वाली दुर्लभ धातु) की कीमतें दोगुनी कर दीं। बड़ी मुश्किल से खनन की जाने वाली इन धातुओं को अत्‍याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उत्‍पादों के लिए अत्‍यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। चाहे मोबाइल फोन हों अथवा सौर बैटरियां, सेमीकंडक्‍टर, इलेक्ट्रोमैग्नेट्स, एयरोस्पेस या रक्षा उद्योग, ये रेयर अर्थ मेटल्स प्रौद्योगिकी हार्डवेयर क्षेत्र की रीढ़ हैं।

आज, विश्‍व भर में 95 फीसदी रेयर अर्थ मेटल्स का नियंत्रण चीन के हाथों में है। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि यह सोची-समझी रणनीति का नतीजा है। माओ के बाद के दौर में वर्ष 1978 के उपरांत चीन में आर्थिक पुनरुत्थान को पार्टी के मजबूत राजनेता डेंग जियाओ पिंग द्वारा विशिष्‍ट स्‍वरूप प्रदान किया गया था। इसने दो दशकों से भी अधिक समय तक 9.5 प्रतिशत की वार्षिक जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर सुनिश्चित की, जो वर्ष 1984 में बढ़कर 15 प्रतिशत से भी अधिक के जादुई आंकड़े को छू गई थी।

चीन हरित प्रौद्योगिकी में कैसे अग्रणी बना

मार्च 1986 में भौतिकविद एवं इंजीनियर Wang Ganchang के नेतृत्‍व में चार इंजीनियरों ने ‘द स्टेट हाई टेक डेवलपमेंट प्लान’ अथवा ‘सरकारी हाई टेक विकास योजना’ की परिकल्पना की, जिसे डेंग जियाओ पिंग द्वारा प्रमाणित किया गया और जिसमें प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चीन का नेतृत्व सुनिश्चित करने का ब्‍लू प्रिंट पेश किया गया। ‘863 कार्यक्रम’ के अंतर्गत परिभाषित सात प्रमुख क्षेत्रों में नई सामग्रियां या रेयर अर्थ सामग्रियां शामिल थीं। तभी से चीन खनन में निवेश कर रहा है और रेयर अर्थ सामग्रियों को औद्योगिक उपयोग में लगाने की प्रक्रिया सीख रहा है।

चीन ने सदी की शुरुआत से पहले ही दुनिया भर में ज्‍यादातर रेयर अर्थ खदानों को अत्‍यंत सस्‍ती कीमतों पर हासिल कर लिया था। इसके बाद चीन ने आर्थिक मूल्‍य वर्द्धन और पृथक्करण के लिए जटिल मध्यवर्ती प्रोसेसिंग केंद्रों की स्थापना की। इसके तहत हजारों रासायनिक पृथक्करण प्रक्रियाओं के माध्‍यम से व्यापक परीक्षण करने के बाद चीन रेयर अर्थ मेटल्‍स को अलग करने और औद्योगिक उपयोग के लिए उन्‍हें बिल्‍कुल सटीक बनाने में निपुणता या प्रवीणता हासिल कर ली। फि‍र इसके बाद चीन ने इन जटिल प्रक्रियाओं में से प्रत्येक के लिए पर्यावरण अनुकूल औद्योगिक क्षमताओं का निर्माण किया।

चीन ने सदी की शुरुआत से पहले ही दुनिया भर में ज्‍यादातर रेयर अर्थ खदानों को अत्‍यंत सस्‍ती कीमतों पर हासिल कर लिया था। इसके बाद चीन ने आर्थिक मूल्‍य वर्द्धन और पृथक्करण के लिए जटिल मध्यवर्ती प्रोसेसिंग केंद्रों की स्थापना की। इसके तहत हजारों रासायनिक पृथक्करण प्रक्रियाओं के माध्‍यम से व्यापक परीक्षण करने के बाद चीन रेयर अर्थ मेटल्‍स को अलग करने और औद्योगिक उपयोग के लिए उन्‍हें बिल्‍कुल सटीक बनाने में निपुणता या प्रवीणता हासिल कर ली। फि‍र इसके बाद चीन ने इन जटिल प्रक्रियाओं में से प्रत्येक के लिए पर्यावरण अनुकूल औद्योगिक क्षमताओं का निर्माण किया।

चीन ने एक दशक से भी अधिक समय तक कड़ी मेहनत एवं निरंतर निवेश कर आखिरकार नियोडाईमियम, लांथानुम, डिडिमियम, सेरियम, एरबियम और एक दर्जन से अधिक रेयर अर्थ सामग्री का उत्पादन करने में कामयाबी हासिल कर ली। यह शानदार उपलब्धि एपल द्वारा पहला आईपैड और आईफोन बनाने के कई वर्ष पहले ही हासिल कर ली गई थी। आईफोन एवं आईपैड के मैग्नेट में नियोडाईमियम का उपयोग किया जाता है, जबकि आईपैड की लिथियम-आयन पॉलिमर बैटरी में लांथानुम का इस्‍तेमाल करने की संभावनाएं व्‍यक्‍त की जाती रही हैं। ज्‍यादातर सोलर पावर और हाई टेक कैमरों में लिथियम या लांथानुम बैटरियों का उपयोग किया जाता है। रेयर अर्थ सामग्रियों पर चीन के एकाधिकार की बदौलत नए जमाने की हरित प्रौद्योगिकियों में उसकी अगुआई सुनिश्चित होने के साथ-साथ उसे शानदार मुनाफा भी हो रहा है। लांथानुम ऑक्साइड की कीमत आज 15,000 आरएमबी प्रति एमटी है, जबकि नियोडाईमियम ऑक्साइड की कीमत 3,50,000 आरएमबी प्रति एमटी है।

क्‍या भारत का कॉरपोरेट जगत इलेक्ट्रिक बस बनाने का मौका गंवा रहा है

खनन में अपनी अगुआई से लाभ उठाते हुए चीन ने अपने एमएसएमई क्षेत्र को एक दशक पहले ही इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहनों के लिए खोल दिया था। एक बार फिर जब पूरी दुनिया बेसुध सो रही थी, तो चीन इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहनों का उत्पादन कर रहा था और यही उसके करोड़ों फैक्ट्री कामगारों के लिए मानक एवं गैर-सब्सिडी वाला परिवहन साधन था। किफायती कीमत पर व्‍यापक निर्माण क्षमता हासिल करने में चीन को 10 साल लग गए। शीघ्र ही 2000 चीनी निर्माता वर्ष 2010 तक हर साल 30 मिलियन इलेक्ट्रिक दुपहिया वाहनों का उत्पादन करने लगे थे। वहीं, दूसरी ओर भारत के दोपहिया एवं चौपहिया वाहन उद्योग ने इस ओर अपना ध्यान केंद्रित करना जरूरी नहीं समझा और वह जीवाश्म ईंधन चालित इंजनों में ही निवेश करता रहा। एमएसएमई क्षेत्र की एक कंपनी Reva एकमात्र भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता थी, जो वर्ष 2010 तक एक साल में सौ से भी कम वाहन बनाती थी।

चीन और भारत के कॉरपोरेट जगत के नजरिए में अंतर इतना ज्‍यादा है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। चीन ने नई सदी के आगमन के समय ही एक इलेक्ट्रिक वाहन नीति बाकायदा बना ली थी। वहीं, भारत में अब भी इस तरह की कोई नीति नहीं है। यहां तक कि निजी क्षेत्र भी इलेक्ट्रिक वाहनों में निवेश करने के लिए कोई खास इच्‍छुक नहीं है। बीएसई में सूचीबद्ध नई बस निर्माता कंपनी Goldstone Infratech ने भारत में इलेक्ट्रिक बसें बनाने का ऑर्डर पाने में TATA Motors, अशोक लेलैंड और महिंद्रा को मात दे दी है। Goldstone द्वारा पिछले वर्ष चीन की सबसे बड़ी इलेक्ट्रिक बस निर्माता कंपनी BYD के साथ करार करने के बाद बीएसई में इसके शेयर जोरदार उछाल के साथ आसमान छू रहे हैं। पिछले साल HP Transport कॉरपोरेशन और बेस्ट को 31 बसों की डिलीवरी करने के बाद हैदराबाद स्थित इस कंपनी को इस साल 290 इलेक्ट्रिक बसों के ऑर्डर मिले हैं। 190 इलेक्ट्रिक बसों के ऑर्डर के साथ TATA Motors और 40 इलेक्ट्रिक बसों के ऑर्डर के साथ अशोक लेलैंड इस मामले में Goldstone से काफी पीछे हैं।

चीन और भारत के कॉरपोरेट जगत के नजरिए में अंतर इतना ज्‍यादा है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। चीन ने नई सदी के आगमन के समय ही एक इलेक्ट्रिक वाहन नीति बाकायदा बना ली थी। वहीं, भारत में अब भी इस तरह की कोई नीति नहीं है। यहां तक कि निजी क्षेत्र भी इलेक्ट्रिक वाहनों में निवेश करने के लिए कोई खास इच्‍छुक नहीं है।

क्या यह अजीब नहीं है कि गोल्डस्टोन, जिसे ऑटोमोबाइल निर्माण का कुछ भी अनुभव नहीं था, ने दुनिया की सबसे बड़ी बस निर्माता कंपनी के साथ करार किया है? कंपनी 1,500 बसों की वार्षिक क्षमता वाला एक नया संयंत्र हैदराबाद के बाहर स्थापित कर रही है। कंपनी के प्रबंध निदेशक एन के रावल ने यह दावा किया है कि कंपनी के नए संयंत्र में निर्मित होने वाली एसी युक्‍त बसें एक बार चार्ज हो जाने पर 300 किमी की लंबी यात्रा करने में सक्षम होंगी।

चीन में दर्जनों ऐसे इलेक्ट्रिक बस निर्माता और बैटरी निर्माता हैं जो भारत में प्रवेश या निर्माण करने को इच्‍छुक हैं। अत: वास्‍तविक समस्या भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग से जुड़ी हुई है। भारतीय कंपनियां अब भी सही साझेदार ढूंढ़ने के लिए पहल करने के बजाय अपनी शर्तों पर चीन की कंपनियों के यहां आने का इंतजार कर रही हैं। चीनी कंपनियों के साथ सौदेबाजी करना अत्‍यंत मुश्किल है। हालांकि, इलेक्ट्रिक वाहन और बैटरी तकनीक पर चीन के एकाधिकार को ध्‍यान में रखते हुए क्या भारत यह मौका गंवाने का जोखिम उठा सकता है?

प्रदूषण एक चुनौती और अवसर दोनों ही है

भारत की राजधानी दिल्ली पिछले दो दशकों से गंभीर वायु प्रदूषण की समस्याओं से जूझ रही है। वर्ष 1998 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक ऐसा अहम फैसला सुनाने के बाद सीएनजी चालित बसें और ऑटो अब एक वास्तविकता बन गए हैं जिसमें वाणिज्यिक वाहनों के अनिवार्य सीएनजी रूपांतरण के लिए अप्रैल 2001 की अवधि निर्दिष्ट की गई थी। शहर में चलने वाली सभी बसों, ऑटो और कारों को उस निर्दिष्ट तारीख तक स्वच्छ ईंधन अर्थात सीएनजी में परिवर्तित करना अथवा सीएनजी चालित करना अनिवार्य कर दिया गया था। हालांकि, वाहनों के सीएनजी रूपांतरण के बाद भी दिल्ली से प्रदूषण दूर नहीं हुआ। इसके बजाय, 20 साल बाद, वायु प्रदूषण की समस्‍या पहले से भी कहीं ज्यादा गंभीर हो गई है।

भारत में वायु प्रदूषण पिछले दो दशकों से एक अत्‍यंत पुरानी और न सुलझने वाली समस्या के रूप में निरंतर कहर ढा रहा है। CPCB के मुताबिक, न केवल महानगर, बल्कि पूरे भारत में यहां तक कि छोटे शहर भी वायु प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित हैं। लेकिन वायु प्रदूषण को मापने वाला उद्योग स्थानीय स्‍तर पर अब तक विकसित नहीं हो पाया है।

भारत में वायु प्रदूषण पिछले दो दशकों से एक अत्‍यंत पुरानी और न सुलझने वाली समस्या के रूप में निरंतर कहर ढा रहा है। CPCB के मुताबिक, न केवल महानगर, बल्कि पूरे भारत में यहां तक कि छोटे शहर भी वायु प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित हैं। लेकिन वायु प्रदूषण को मापने वाला उद्योग स्थानीय स्‍तर पर अब तक विकसित नहीं हो पाया है।

पिछले 20 वर्षों में वायु प्रदूषण से जुड़े उपकरणों का वैश्विक बाजार बढ़कर 15 अरब डॉलर के आंकड़े को छू गया है। ‘ग्लोबल एयर पॉल्यूशन कंट्रोल इक्विप्मेंट एंड टेक्नोलॉजीज रिपोर्ट 2017’ के अनुसार, वर्ष 2016 से वर्ष 2021 तक की अवधि के दौरान यह बाजार 7.8 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ेगा। लेकिन भारतीय शहरों ने सिर्फ एक साल पहले ही नियमित आधार पर वायु प्रदूषण को मापना शुरू किया है। हम अक्सर सरकार को ही दोषी मानने लगते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि अंतर्निहित मांग के बावजूद भारत का कॉरपोरेट जगत बाजार में मापक और उपशमन या अल्पीकरण यंत्रों की आपूर्ति करने में विफल रहा है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारत का कॉरपोरेट जगत इस दिशा में सक्रि‍य या सचेत क्‍यों नहीं था? दरअसल, यह समस्या पिछले दो दशकों से विद्यमान है। हमारे देश में वायु प्रदूषण मापक और उपशमन यंत्रों का निर्माण करने वाले निर्माता हजारों की संख्‍या में क्यों नहीं हैं? गुजरात और तमिलनाडु जैसे विनिर्माण राज्यों में महज एक ही CPCB प्रदूषण निगरानी केंद्र क्यों है? नॉक्स (उच्च प्रतिक्रियाशील गैसें जिनमें नाइट्रोजन और ऑक्सीजन होती हैं) या अन्य ऐसी हानिकारक गैसों को मापने के लिए कोई यंत्र क्यों नहीं है जो धीरे-धीरे हममें जहर भर रही हैं?

यह समस्या महज वायु प्रदूषण से ही जुड़ी नहीं है। जल प्रदूषण और शोधन भी पूरे भारत में एक बड़ी समस्या है। जल स्त्रोत या क्षेत्र प्रदूषित हैं और अपशिष्ट जल को मापना, शुद्धिकरण एवं रीसाइक्लिंग करना अत्‍यंत आवश्‍यक है।

यह समस्या महज वायु प्रदूषण से ही जुड़ी नहीं है। जल प्रदूषण और शोधन भी पूरे भारत में एक बड़ी समस्या है। जल स्त्रोत या क्षेत्र प्रदूषित हैं और अपशिष्ट जल को मापना, शुद्धिकरण एवं रीसाइक्लिंग करना अत्‍यंत आवश्‍यक है। लेकिन भारतीय निर्माताओं की संख्‍या बेहद कम है। यही नहीं, प्रौद्योगिकी को अपडेट नहीं किया जाता है और भारतीय निर्माताओं द्वारा उत्पादित उपकरण भी काफी महंगे हैं। इसके ठीक विपरीत, चीन में हजारों वायु प्रदूषण निर्माता और सैकड़ों जल शोधन उपकरण निर्माता हैं।

अत: अब समय आ गया है कि भारत का कॉरपोरेट जगत प्रदूषण की निगरानी और नियंत्रण के इस ट्रिलियन डॉलर अवसर से लाभ उठाने के लिए ठोस पहल करे क्‍योंकि यह भारत के 1.3 अरब निवासियों के लिए अत्‍यंत गंभीर या संकटमय है।

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