Author : Sanjay Ahirwal

Published on Jan 17, 2018 Updated 0 Hours ago

ग्लोबल पावर ऐक्सिस अब अटलांटिक रीजन से दूर भारतीय महासागर की ओर शिफ़्ट कर चुका है।

भारतीय महासागर नयी वैश्विक शक्ति का कार्यक्षेत्र बन चुका है
फोटोलेब्स@ORF

जैसे जैसे राजनीतिक और आर्थिक ताकतें एशिया की बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं की तरफ शिफ्ट हो रही हैं, इससे पुराने इंटरनैशनल ऑर्डर पर सवाल खड़े होने लगे हैं। बल्कि पश्चिम में तो लोकतंत्र और फ्री मार्केट के ‘ग्लोबल’ मूल्य भी दवाब में हैं। एशिया के उदय के आर्थिक फायदे तो साफ हैं लेकिन इन बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं का ग्लोबल ऑर्डर के आधार पर असर कम दिखता है। तो क्या भारत का उदारवाद और लोकतंत्र एशिया के युग का बड़ा हिस्सेदार बनेगा?

भारत का ग्लोबल प्रोफाइल बढ़ रहा है। ऐसे में भारत को इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की सुरक्षा और निगरानी के लिए बड़ी जिम्मेदारी भी उठानी होगी। इसके लिए भारत को अपनी क्षेत्रीय सुरक्षा की क्षमता बढ़ानी होगी।

इस मुद्दे को आगे बढ़ते हुए बीजेपी के राष्ट्रीय महा सचिव ने भारत की प्राथमिकताओं का ज़िक्र किया और कहा की विश्व को अब समझना चाहिए की ग्लोबल पावर ऐक्सिस अब आंग्लो अटलांटिक रीजन से दूर भारतीय महासागर की ओर शिफ़्ट कर चुका है। यह भी तय है की चीन की बढ़ती ताक़त एक ऐसी सच्चायी है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। भारत मूक दर्शक नहीं बना रह सकता। हम नए वर्ल्ड ऑर्डर के हितधारक बनेंगे। हमें ग्लोबल प्लेअर बनना ही होगा। और इसके लिए हमारी ज़िम्मेदारी होगी की पूर्व की तरफ़ भारत के नेतृत्व में नया ऑर्डर बने जब की पश्चिम की तरफ़ नए ऑर्डर में भारत भागीदार हो।

इंडो पसिफ़िक क्षेत्र के देश सिर्फ़ जीअग्रैफ़िकल एंटिटीज़ नहीं है। यहाँ सभ्यताएँ हैं। जिस तरह से पश्चिमी या अमरीकी तरीक़े पहले आज़माए जाते थे उन सब रीति रिवाजों को अब बदलना पड़ेगा। इंडो-पैसिफिक की ग्लोबल अहमियत बढ़ने के साथ बहुत जरूरी हो गया है कि सभी हिस्सेदार साथ आएं और क्षेत्र के सुरक्षा आर्किटेक्चर को मजबूत करें। ग्लोबल समानताओं को कैसे कंट्रोल किया जाए, यह तय करने के लिए वक्त की मांग पूरी करने वाले नए गठबंधन और नई पॉलिसी भी बनानी होगी। वो समय आ गया है जब एशिया और पश्चिम के उदारवादी लोकतंत्र साथ आएं और नेविगेशन की आज़ादी जैसे मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय नियम तैयार कर सकें।

अमरीकी दिशा के बारे में बोलते हुए नादिया सशदलोव ने कहा की ट्रम्प सरकार की नीतियों से साफ़ है की अमरीका भारत को अपना सामरिक दोस्त मानता है, ख़ास कर रक्षाक्षेत्र में। हमारी विश्व व्यवस्था के विज़न में भारत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। और इसलिए रक्षा सौदे भारत अमरीकी रिश्तों को नयी ऊँचायी पर ले जा रहे हैं।

इंडो-पैसिफिक की ग्लोबल अहमियत और भी बढ़ जाती है चूँकि इस क्षेत्र में छह परमाणु ताक़तें और दो सबसे बड़ी सेना रखने वाले देश हैं। इस क्षेत्र में अमरीका की मौजूदगी भी कम नहीं है। इस लिए ज़रूरी है कि सभी हिस्सेदार साथ आएं और क्षेत्र के सुरक्षा आर्किटेक्चर को मजबूत करें। ग्लोबल समानताओं को कैसे आगे बढ़ाएँ और चुनौतियों को कैसे कंट्रोल किया जाए, यह तय करने के लिए वक्त की मांग पूरी करने वाले नए गठबंधन और नई पॉलिसी भी बनानी होगी।

 एशिया-पैसिफिक में कनेक्टिविटी की रेस चल रही है। अपने पड़ोसी देशों से जुड़ने और दूर के देशों से कनेक्ट होने की दौड़ में साफ होता जा रहा है कि बंदरगाहों, सड़कों, रेलवे और पाइपलाइनों में की जा रही इन्वेस्टमेंट न तो मधुर है और न ही स्वार्थ से दूर। खासकर इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी कनेक्टिविटी से एशिया में समुद्र और जमीन दोनों जगहों पर टकराव और प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है। पारदर्शिता, राजकोषीय जिम्मेदारी और नेविगेशन की आजादी पर बढ़ रही चिंताएं भी सामने आ रही हैं। ऐसे में विकल्प खोजने की जरूरत भी बढ़ रही है। इस लिए आर्थिक गतिविधियों के राजनीतिक मकसद और उभरते एशियन आर्किटेक्चर के संभावित असर पर चर्चा करने की ज़रूरत है।

कानून के आधार पर इंडो-पैसिफिक का फ्री और ओपन होना ताकतवर रणनीतिक कॉन्सेप्ट बन गया है। इससे विकासशील और उभरते देशों में व्यापार के अवसरों, इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश के लिए न मिटने वाली भूख दिखाई है। इन जरूरतों को देखते हुए क्षेत्रीय भागीदार कनेक्टिविटी बढ़ाने और मजबूत समुद्री सहयोग को महत्वपूर्ण मान रहे हैं। नियमों के आधार पर ऑर्डर बनाने, स्थाई निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को बढ़ाने में उदारवादी लोकतंत्र जैसे भारत, जापान और आसियान देश मिलकर काम कर सकते हैं। और यह तय है की यह सदी ऐशिया के नेतृत्व के नाम पर ही होगी।

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