Author : Harsh V. Pant

Published on Apr 03, 2024 Updated 0 Hours ago

वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया, प्रक्रिया और प्रकृति में सुधार वक्त की जरूरत हो चले हैं

भारत के हितों को सुरक्षित नहीं रख सकता वैश्विक ढांचा, तो तलाशने होंगे नए विकल्प

संयुक्त राष्ट्र यानी यूएन की स्थापना के हीरक जयंती (60 वर्ष) के उपलक्ष्य में आयोजित हो रहे कार्यक्रमों के बीच यह बात ख़ासी अखरती है कि विश्व को बहुपक्षीय बनाने की कवायद अधर में लटकी हुई है. तमाम देश बहुपक्षीयता में भरोसे की पैरवी तो करते हैं, लेकिन वह उनके आंतरिक अंतर्विरोधों का ही शिकार होकर रह गया है. यह बहुपक्षीय ढांचा दिन प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा है. यह संभवत: कोविड-19 के बाद बना सबसे अहम वैश्विक ढांचा है. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने यह कहकर इस विडंबना को दर्शाया कि जब बहुपक्षीयता की सबसे अधिक मांग थी तो अवसर गंवा दिया गया. अब चूंकि पूरी दुनिया एक बड़ी महामारी से जूझ रही है तो यह समय बहुपक्षीयता के अवमूल्यन के बजाय एक समग्र समाधान की दिशा में उसके उन्नयन का पड़ाव बनना चाहिए.

कुछ मामलों में बहुपक्षीयता का संकट हैरान नहीं करना चाहिए. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बना वैश्विक ढांचा अपने समय की परिणति ही था. ढांचागत वास्तविकताओं में बदलाव का दबाव प्रत्यक्ष दिख रहा है. संस्थान, प्रावधान और प्रक्रियाओं को विभिन्न मोर्चों पर चुनौतियों से दो-चार होना पड़ रहा है. केवल चीन ही इस ढांचे को चुनौती नहीं दे रहा, जो यह मानता है कि इसका निर्माण तब हुआ, जब वह ख़ुद परिदृश्य से बाहर था, बल्कि इसे उस अमेरिका से भी चुनौती मिल रही है, जिसके साये में यह बना और फला-फूला. अमेरिका का भी यथास्थिति से मोहभंग होता जा रहा है.

एक ऐसा उदार ढांचा जो करीब सात दशकों से अधिक समय तक दुनिया भर में शांति एवं समृद्धि का मूल रहा, उसमें आज की साझा चुनौतियों के लिहाज़ से प्रभावी समाधान उपलब्ध कराने में बढ़ती अक्षमता एक बड़ा विचलन है.

संयुक्त राष्ट्र में प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन रहा बहुत महत्वपूर्ण

एक ऐसा उदार ढांचा जो करीब सात दशकों से अधिक समय तक दुनिया भर में शांति एवं समृद्धि का मूल रहा, उसमें आज की साझा चुनौतियों के लिहाज़ से प्रभावी समाधान उपलब्ध कराने में बढ़ती अक्षमता एक बड़ा विचलन है. इससे भारत जैसे देशों के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो गया है कि वे एक ऐसी दुनिया में जहां विश्व की महाशक्तियों के बीच शक्ति संघर्ष और तीखा हो गया है, वहां अपने हितों के लिए किसी वैकल्पिक रणनीति पर विचार करें. इस दृष्टिकोण से संयुक्त राष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन बहुत महत्वपूर्ण रहा. यह केवल इसी कारण महत्वपूर्ण नहीं था कि इसमें बहुपक्षीय ढांचे के मौज़ूदा स्वरूप के समक्ष कुछ चुनौतियों का उल्लेख था, बल्कि यह इस वजह से भी अहम था कि उसमें भारत के नजरिये में बदलाव का संकेत भी समाहित था. अब नई दिल्ली न केवल वैश्विक ढांचे को आकार देने में अपनी महत्ता को दर्शा रही है, बल्कि यह भी स्पष्ट कर रही है कि भारत के बिना संयुक्त राष्ट्र और बहुपक्षीय ढांचे की साख और विश्वसनीयता ही दांव पर है.

पीएम मोदी ने बहुपक्षीयता के नए ढ़ाचे की पैरवी की

मोदी ने संयुक्त राष्ट्र को ‘विश्वास के संकट’ के आलोक में आत्मविश्लेषण की चुनौती दी. उन्होंने संस्थान को उसकी कमजोरियों को लेकर चेताते हुए बहुपक्षीयता के ऐसे नए ढांचे की पैरवी की, जो मौज़ूदा वास्तविकताओं को दर्शाए, जिसमें सभी पक्षों को आवाज उठाने का अवसर मिले, जहां समकालीन चुनौतियों का समाधान निकले और मानवीय कल्याण पर ध्यान केंद्रित हो. अगले साल की शुरुआत से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के चयनित गैर-स्थायी सदस्य के रूप में भारत का दो वर्षीय कार्यकाल शुरू होने जा रहा है. इस प्रकार नई दिल्ली ने अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से सामने रख दिया है.

प्रकृति में सुधार वक्त की हो चली है जरूरत

मौज़ूदा कोरोना महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया उससे जूझ रही थी, तब संयुक्त राष्ट्र की अक्षमता के लिए मोदी ने संस्था को आड़े हाथों लिया. उन्होंने पूछा भी कि महामारी के ख़िलाफ एकजुट लड़ाई में संयुक्त राष्ट्र कहां खड़ा है? उसकी आवश्यक एवं प्रभावी प्रतिक्रिया कहां है? वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया, प्रक्रिया और प्रकृति में सुधार वक्त की ज़रूरत हो चले हैं. इसके साथ ही उन्होंने मौज़ूदा कार्यसंचालन में एक ऐसे देश की सक्रियता-सहभागिता की संभावनाओं को लेकर भी सवाल किया, जिसने दुनिया में शांति स्थापना के लिए सबसे ज्यादा सैनिकों की शहादत दी और जिस देश के 130 करोड़ नागरिकों का संयुक्त राष्ट्र के प्रति अपार सम्मान होने के साथ ही उस पर अटूट विश्वास भी है.

वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया, प्रक्रिया और प्रकृति में सुधार वक्त की ज़रूरत हो चले हैं. इसके साथ ही उन्होंने मौज़ूदा कार्यसंचालन में एक ऐसे देश की सक्रियता-सहभागिता की संभावनाओं को लेकर भी सवाल किया, जिसने दुनिया में शांति स्थापना के लिए सबसे ज्यादा सैनिकों की शहादत दी और जिस देश के 130 करोड़ नागरिकों का संयुक्त राष्ट्र के प्रति अपार सम्मान होने के साथ ही उस पर अटूट विश्वास भी है.

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है भारत

इस सवाल का मर्म यही था कि आखिर संयुक्त राष्ट्र की निर्णय प्रक्रिया से कब तक भारत को दूर रखा जाएगा? एक ऐसे देश को, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां विश्व की 18 फीसद आबादी रहती है, जहां कई भाषाएं-बोलियां हैं, विभिन्न धर्म और मतावलंबी हैं, जो सदियों तक दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्था था और सैकड़ों वर्ष तक विदेशी शासन के साये में रहा.

वैश्विक बहुपक्षीय ढांचा में आवश्यक सुधार

मोदी ने यह भी पूछा कि उस देश को आखिर कितना इंतजार करना पड़ेगा, जहां ख़ुद ऐसे आधारभूत बदलाव आकार ले रहे हों, जो दुनिया को प्रभावित कर रहे हैं. इससे उनका आशय यूएन में सुधारों को लेकर भारत में बढ़ती बेचैनी से था. वैसे भी भारत में तमाम लोग यही मानते हैं कि यदि वैश्विक बहुपक्षीय ढांचा स्वयं में आवश्यक सुधार करता भी है तो क्या वह नए भू-राजनीतिक तनाव और नई सुरक्षा चुनौतियों के समाधान में सक्षम होगा

इस प्रकार मोदी की टिप्पणी संयुक्त राष्ट्र के लिए दो-टूक चेतावनी है कि वैश्विक बहुपक्षीय ढांचे में भारत के विश्वास के बावजूद निर्णय प्रक्रिया में उसकी अनुपस्थिति और वास्तविक सुधारों के अभाव में नई दिल्ली को दूसरे विकल्पों पर विचार करना पड़ सकता है.

पीएम मोदी की टिप्पणी संयुक्त राष्ट्र के लिए दो टूक चेतावनी

इस प्रकार मोदी की टिप्पणी संयुक्त राष्ट्र के लिए दो-टूक चेतावनी है कि वैश्विक बहुपक्षीय ढांचे में भारत के विश्वास के बावजूद निर्णय प्रक्रिया में उसकी अनुपस्थिति और वास्तविक सुधारों के अभाव में नई दिल्ली को दूसरे विकल्पों पर विचार करना पड़ सकता है. इसकी शुरुआत भी होने लगी है. आज बहुपक्षीय ढांचा खंडित है. द्वितीय विश्व युद्ध के तत्काल बाद सुरक्षा तानेबाने का संबंध मुख्य रूप से यूरोप और उसके आसपास के इलाकों की सुरक्षा पर केंद्रित था.

संयुक्त राष्ट्र के चलते कई भिन्न-भिन्न किस्म के मंच ले रहे हैं आकार

आज हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक आर्थिक एवं राजनीतिक एजेंडे को तय कर रहा है. वैश्विक संस्थागत ढांचे में भी यह संदर्भ एवं तर्क प्रतिबिंबित होना चाहिए, ख़ासतौर से ऐसे समय में जब कमजोर होते संयुक्त राष्ट्र के चलते कई भिन्न-भिन्न किस्म के मंच आकार ले रहे हैं. ये मंच न केवल पारंपरिक सुरक्षा मसलों से निपटने में, बल्कि कोरोना महामारी जैसे गैर-परंपरागत मुद्दों से निपटने में कहीं अधिक कारगर और प्रभावी साबित हो रहे हैं.

भारत जैसा देश जो अपनी भूमिका के दायरे में विस्तार का आकांक्षी है, उसके लिए यह निर्णायक पड़ाव है. यदि कोई बहुपक्षीय-वैश्विक ढांचा भारत के हितों को सुरक्षित नहीं रख सकता तो नई दिल्ली को नए विकल्प तलाशने होंगे. यह प्रक्रिया पहले से शुरू भी हो गई है


यह लेख मूलरूप से जागरण में प्रकाशित हो चुका है. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.