शहरीकरण से तमाम देशों में ज़्यादा आर्थिक समृद्धि आती है. ये बात आमतौर पर मानी जाती है. लेकिन, शहरों की कई ऐसी कमज़ोरियां होती हैं. और इनमें से एक चुनौती जो बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है वो है शहर के नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा. इसे हम शहर की बीमारियां कह सकते हैं. ये बीमारियां ख़ास तौर से शहरी बस्तियों के माहौल में ही पैदा होती हैं. और ये किसी भी शहर में जीवन स्तर की गुणवत्ता पर गहरा असर डालती हैं. शहरों में इंसानों की बड़ी आबादी बसती है. जिससे उनका आकार बढ़ता जाता है. बेहद कम जगह में घनी बस्तियां बस जाती हैं. जिनके अंदर अलग-अलग तरह की आर्थिक गतिविधियां संचालित की जाती हैं. इन सभी गतिविधियों से परिवहन की, वायु और ध्वनि प्रदूषण, समय के प्रबंधन की समस्याएं उत्पन्न होती हैं. इनके कारण तनाव और शहरों की अन्य विशेष चुनौतियां उठ खड़ी होती हैं जो केवल शहरों में ही पायी जाती हैं. दुर्भाग्य से ये सभी समस्याएं किसी भी शहर के बाशिंदों की सेहत पर बहुत बुरा असर डालती हैं. इनसे, जनता के स्वास्थ्य की ऐसी चुनौतियां उठ खड़ी होती हैं, जिनसे निपटने के लिए ख़ास रणनीति बनाने की ज़रूरत होती है.
शहरों में रहने वाले ग़रीब तबक़े के लोगों की बस्तियां अक्सर उन्हीं जगहों पर होती हैं, जो नियोजित रूप से विकसित किए गए इलाक़ों से बाहर होती हैं. चूंकि, ग़रीबों की ये बस्तियां योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं बसायी गई होतीं, तो वो स्लम के रूप में विकसित हो जाती हैं
शहरी बस्तियों की सेहत की इन चुनौतियों को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहली तो वो बीमारियां हैं, जो स्लम और शहरों में रहने वाले ग़रीबों की बस्तियों में पनपती हैं. इसके बाद वो बीमारियां आती हैं, जो बैठकर या एक जगह खड़े होकर काम करते हैं. उनके काम के घंटे भी बेतरतीब होते हैं. और तीसरा दर्जा उन बीमारियों का है, जो सामाजिक आर्थिक बंदिशों के दायरे से बाहर होती हैं. और शहर के हर नागरिक को प्रभावित करती हैं. यहां ये बात जोड़ना भी ज़रूरी है कि अब सामाजिक आर्थिक वर्गीकरण करने वाली ये दीवारें बड़ी तेज़ी से ढह रही हैं. और अब बीमारियां, सामाजिक आर्थिक पाबंदियों को लांघ कर फैल रही हैं. इसकी मिसाल इस वक़्त तेज़ी से पांव पसार रही कोविड-19 की महामारी है.
शहरों में रहने वाले ग़रीब तबक़े के लोगों की बस्तियां अक्सर उन्हीं जगहों पर होती हैं, जो नियोजित रूप से विकसित किए गए इलाक़ों से बाहर होती हैं. चूंकि, ग़रीबों की ये बस्तियां योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं बसायी गई होतीं, तो वो स्लम के रूप में विकसित हो जाती हैं. इन्हें उचित पर्यावरण से वंचित रिहाइशी इलाक़े कहा जा सकता है. जैसे जैसे शहर की आबादी बढ़ती है, ऐसी स्लम बस्तियों की तादाद भी बढ़ती जाती है. ये वो इलाक़े होते हैं, जहां बहुत ही कम इलाक़े में घनी बस्तियां आबाद होती हैं. उनके पास पीने के पानी, हाजत, साफ सफाई और अन्य बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी होती है. इसका नतीजा ये होता है कि उनके स्वास्थ्य के सूचकांक, ग्रामीण क्षेत्र के लोगों से भी काफ़ी बुरे होते हैं. घनी इंसानी बस्तियों और हवा गुज़रने की व्यवस्था न होने के कारण स्लम में संक्रामक बीमारियों जैसे कि टीबी के फैलने का ख़तरा बढ़ जाता है. कभी ये माना जाता था कि टीबी पर काबू पा लिया गया है. लेकिन, अब ये झुग्गी झोपड़ियों में बड़े चिंताजनक तौर पर उभर रही है. इसके अलावा पानी और दूसरे जीवों के ज़रिए होने वाली बीमारियां, जैसे कि डेंगू का ताल्लुक़ असुरक्षित पानी के इस्तेमाल और कचरे का ठीक से प्रबंधन न होने से बताया जाता रहा है. शहरी बस्तियों में ये चुनौतियां आम होती हैं. इसके अतिरिक्त घर के भीतर के प्रदूषण से सांस की भयंकर बीमारियां होती हैं. और पीने का अशुद्ध पानी पीने और साफ़ सफ़ाई न होने से डायरिया जैसी बीमारियां होती हैं.
मध्यम वर्ग के बीच, उनके मौजूदा रहन-सहन का एक पहलू ये भी है कि उनके काम काज का एक बड़ा हिस्सा एक ही जगह ठहर कर काम करने वाला होता है. मध्यम वर्ग के लोग ऐसे कई काम करते हैं, जिसमें बहुत तनाव होता है. इस दौरान उनके खान पान की ऐसी आदतें बन जाती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाती हैं.
चौंकाने वाली बात ये है कि भारत की झुग्गी झोपड़ियों में अब रहन-सहन की कमियों से जुड़ी बीमारियां भी पनपने लगी हैं. कभी इन बीमारियों को अमीरों के रोग कहा जाता था. ये बीमारियां शहरों में रहने वाले ग़रीब तबक़े के लोगों को नहीं हुआ करती थीं. हालांकि, अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है. क्योंकि स्लम में रहने वाले लोगों में इस सोच को ग़लत साबित करने वाले सबूत सामने आने लगे हैं. कुछ अध्ययनों में ये पाया गया है कि झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों में से एक चौथाई वयस्कों को हाइपरटेंशन, डायबिटीज़ और मोटापे की बीमारियां होती हैं.
मध्यम वर्ग के बीच, उनके मौजूदा रहन-सहन का एक पहलू ये भी है कि उनके काम काज का एक बड़ा हिस्सा एक ही जगह ठहर कर काम करने वाला होता है. मध्यम वर्ग के लोग ऐसे कई काम करते हैं, जिसमें बहुत तनाव होता है. इस दौरान उनके खान पान की ऐसी आदतें बन जाती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाती हैं. दुनिया के अन्य शहरों के मुक़ाबले, भारत के शहरों में आमतौर पर प्रति वर्ग किलोमीटर अधिक लोग आबाद होते हैं. इससे, वर्ज़िश और मनोरंजन के लिए खुली जगह की भारी कमी हो जाती है. ये सभी कारण कुल मिलाकर, ऐसा माहौल तैयार कर देते हैं, जिनमें मोटापे, डायबिटीज़ और हाइपरटेंशन की बीमारियां पनपती हैं. काम का तनाव, सेहत को नुक़सान पहुंचाने वाला रहन सहन और प्रदूषित खाना खाने से भी अलग तरह का कैंसर होता है. भारत के लोगों पर अलग-अलग के कैंसर का शिकंजा कसता नज़र आ रहा है. हर साल भारत में कैंसर के दस लाख से अधिक मामले सामने आ रहे हैं. इससे भी बड़ी चिंता की बात ये है कि वर्ष 2025 तक भारत में कैंसर के मामलों में पांच गुना तक के इज़ाफ़े की आशंका जताई गई है.
शहरीकरण से सामाजिक संरचना और पारिवारिक जीवन के पैटर्न में भी बहुत बड़े बदलाव आ जाते हैं. इसका एक बड़ा नतीजा ये होता है कि शहरों में सामाजिक सहयोग का दायरा बहुत सीमित हो जाता है. जोकि ग्रामीण क्षेत्र में बड़ी सहजता से उपलब्ध होता है. छोटे परिवारों की बढ़त के कारण, शहरों में रहने वाले लोग मनोवैज्ञानिक तकलीफ़ और अन्य मानसिक बीमारियों के ज़्यादा शिकार होते हैं. इनके कारण भूल जाने की बीमारी, डिप्रेशन, हिंसक बर्ताव, शराबनोशी और पारिवारिक विघटन जैसी चुनौतियां पैदा हो जाती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की द मेंटल हेल्थ कॉन्टेक्स्ट नाम की रिपोर्ट में ये अनुमान लगाया गया है कि दुनिया की कुल बीमारियों में से बारह प्रतिशत हिस्सा मानसिक अस्वस्थता का होता है. 2020 के अंत तक इस बात की आशंका है कि लोगों की ज़िंदगी में बीमारी के कारण क़रीब पंद्रह प्रतिशत समय की कमी आएगी. मानसिक बीमारियों की संख्या सबसे अधिक युवा वयस्कों में देखी जा रही है. यानी लोगों को ये समस्या उस वक़्त हो रही है, जब सबसे अधिक काम करने की उम्र होती है. माना जाता है कि भारत में पंद्रह करोड़ लोगों को सक्रिय मानसिक चिकित्सा की ज़रूरत है. ऐसे उर्वर हालात को देखते हुए, आने वाले दशक में विश्व की स्वास्थ्य समस्याओं में भारत के शहरों का एक बड़ा हिस्सा होगा.
छोटे परिवारों की बढ़त के कारण, शहरों में रहने वाले लोग मनोवैज्ञानिक तकलीफ़ और अन्य मानसिक बीमारियों के ज़्यादा शिकार होते हैं. इनके कारण भूल जाने की बीमारी, डिप्रेशन, हिंसक बर्ताव, शराबनोशी और पारिवारिक विघटन जैसी चुनौतियां पैदा हो जाती हैं.
भारत के बहुत से शहरों में वायु प्रदूषण की समस्या भी बढ़ती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2016 में दुनिया के सबसे प्रदूषित बीस शहरों की जो लिस्ट तैयार की थी, उनमें से 14 शहर भारत के थे. बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण भारत के बहुत से शहरों में सांस की अलग-अलग तरह की बीमारियां पैदा हो रही हैं. जैसे ही लोग सांस लेते हैं, तो बारीक कण पहले उनके फेफड़ों तक पहुंचते हैं. और फिर वहां से उनके ख़ून में मिल जाते हैं. इन प्रदूषित रसायनों से अस्थमा, फेफड़ों में संक्रमण, फेफड़ों के कैंसर और दिल की बीमारियां पैदा हो जाती हैं. इनका बच्चों के विकास और यहां तक कि उनके दिमाग़ पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है. आज वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि ये भारत भयंकर रूप से प्रदूषित शहरों में रह रहे लोगों को छुपकर मारने का काम कर रहा है. वायु प्रदूषण आज भारत के शहरों में स्वास्थ्य की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है.
भारत में डेंगू और चिकनगुनिया के मामले भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं. ये दोनों ही बीमारियां एडीज़ मच्छर फैलाते हैं. इन मच्छरों ने ख़ुद को शहरी इलाक़ों में रहने के लिए बख़ूबी ढाल लिया है. हालिया अनुमान बताते हैं कि भारत में इन बीमारियों का सबसे ज़्यादा प्रकोप देखा जा रहा है. भारत में डेंगू के 3.3 करोड़ मामले तो स्पष्ट रूप से हैं. और कम से कम दस करोड़ लोग ऐसे हैं, जो हर साल डेंगू के शिकार होते हैं. हालांकि, उनमें इनके लक्षण नहीं दिखते हैं. कुछ अध्ययन ये इशारा करते हैं कि भारत की राजधानी दिल्ली में लगभग चालीस फ़ीसद लोग अपनी ज़िंदगी में कभी न कभी डेंगू वायरस के शिकार होते हैं. अब चूंकि शहर के तमाम हिस्से आपस में अच्छी तरह से जुड़े होते हैं. तो, डेंगू जैसी बीमारियां अमीर और ग़रीब, दोनों को बराबरी से प्रभावित करती हैं. चिकनगुनिया के मामले ज़रूर कम होते हैं. 2016 में भारत में चिकनगुनिया के 64 हज़ार 57 मामले सामने आए थे. जबकि 2015 में चिकनगुनिया के मरीज़ों की तादाद केवल 27 हज़ार 553 थी.
शहरों की अन्य समस्याओं की तरह, स्वास्थ्य की चुनौती पर भी सरकार का ध्यान कम ही जाता है. इसका नतीजा ये होता है कि शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे के संस्थागत और योजनाबद्ध विकास की अनदेखी की जाती रही है. इसके चलते शहरों में रहने वालों को व्यापाक स्वास्थ्य सेवाएं देने में भी नाकामी ही हाथ लगी है. इस कमी को पूरा करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रायोजित इंडिया पॉपुलेशन प्रोजेक्ट्स जैसे छोटे मोटे क़दम भर उठाए गए हैं. और इनके सीमित परिणाम ही सामने आए हैं. इसकी एक वजह ये भी है कि शहरों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है. ये बात सही है कि सरकार द्वारा ध्यान न देने के कारण अमीर लोगों के ऊपर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, क्योंकि भारत के शहरों में देश की एक तिहाई आबादी भले रहती हो. फिर भी यहां पर देश की 75 प्रतिशत डिस्पेंसरी, 60 प्रतिशत और 80 फ़ीसद डॉक्टर रहते हैं. और इन सबकी सुविधाएं शहरों की एक तिहाई आबादी को ही उपलब्ध होती हैं. हालांकि, शहरों में बढ़ती ग़रीबी और ग़रीब बस्तियों में सामने आ रही अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याओं के चलते, शहरों की स्वास्थ्य समस्या पर अलग से ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. इन बीमारियों पर स्थायी रूप से क़ाबू पाने के लिए शहरी विकास की योजनाओं में यहां के लोगों की सेहत को प्रमुखता दिए जाने की ज़रूरत है.
शहरों की अन्य समस्याओं की तरह, स्वास्थ्य की चुनौती पर भी सरकार का ध्यान कम ही जाता है. इसका नतीजा ये होता है कि शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे के संस्थागत और योजनाबद्ध विकास की अनदेखी की जाती रही है
2002 में आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (NHP) ने शहरी आबादी की सेहत पर ज़ोर देने की इस ज़रूरत को स्वीकार किया था. इसी के बाद 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM) की शुरुआत की गई थी. लेकिन, इस कार्यक्रम को लागू करने की रफ़्तार धीमी रही है. फिर चाहे शहरी ग़रीब बस्तियों पर ज़ोर देने के लिए राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन का दायरा बढ़ाने की ज़रूरत हो. या फिर, शहरों द्वारा अपने स्थानीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में बदलाव करने सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने का प्रयास हो. अगर ऐसा नए सिरे से किया जाए, तो इसके लिए सरकार को बड़े पैमाने पर धन व्यय करना पड़ेगा. अब चूंकि शहरी स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति ख़ुद में ख़राब है, तो उनकी ओर से शहरी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को सुधारने की दिशा में कोई बड़ा क़दम उठाया जाएगा, इसकी संभावना कम ही है. साफ़ है कि शहरों की स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को ही बड़ी भूमिका निभानी होगी.
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