Author : Shashank Mattoo

Published on Dec 31, 2020 Updated 0 Hours ago

पदत्याग करते वक्त आबे विरासत में काफी कुछ ऐसा छोड़ कर जा रहे हैं जो सचमुच क़ाबिले-तारीफ है.

जापान का नया सामरिक सवेरा कितना असली है?

इस साल अगस्त में शिंज़ो आबे ने जापान के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने की अपनी मंशा का एलान किया. आबे सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री के पद पर रहने वाले जापानी नेता हैं. लिहाजा पद छोड़ने के उनके एलान के फौरन बाद दुनिया भर से उनके लिए सम्मान भरे संदेश आने शुरू हो गए. आबे को उनकी प्रभावी नीतियों के चलते दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान के सबसे सफल प्रधानमंत्रियों में गिना जाता है. जापान की डूबती उतराती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उनकी बेजोड़ आर्थिक नीतियों को श्रेय दिया जाता है. आबे न सिर्फ जापान की उग्र नौकरशाही पर नियंत्रण पाने में सफल रहे बल्कि एक ऐसे समय में जब जापान में उथल-पुथल का माहौल था जापानी प्रधानमंत्री के कार्यालय को उन्होनें स्थिरता प्रदान की. कई लोग आबे को जापान की विदेश और सुरक्षा नीति में आमूलचूल बदलाव का श्रेय देते हैं. इन बदलावों का ही असर है कि एक सकुचाया और यथार्थवादी राष्ट्र समझा जाने वाला जापान विश्व मंच पर अब एक असली वैश्विक शक्ति बनने की क्षमता रखता है. अब जबकि विश्व पटल पर आबे युग का अंत हो रहा है तो यही माकूल समय है जब इस बात की पड़ताल की जाए कि आबे के शासन काल में जापान की रणनीतिक उपलब्धियां क्या रहीं और यह महत्वपूर्ण प्रश्न किया जाए कि– ये उपलब्धियां किस हद तक असली हैं?

कई लोग आबे को जापान की विदेश और सुरक्षा नीति में आमूलचूल बदलाव का श्रेय देते हैं. इन बदलावों का ही असर है कि एक सकुचाया और यथार्थवादी राष्ट्र समझा जाने वाला जापान विश्व मंच पर अब एक असली वैश्विक शक्ति बनने की क्षमता रखता है.

शिंज़ो आबे की विदेश नीति के स्तंभ

दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की विनाशकारी पराजय के बाद जापान की विदेश नीति योशिदा सिद्धांत पर आधारित रही. इस सिद्धांत पर चलते हुए जापान ने अपना ध्यान आर्थिक विकास की ओर लगाया जबकि सुरक्षा और सामरिक नीतियों से जुड़े मसले अमेरिका के हवाले कर दिए गए. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के जापानी संविधान की धारा 9 में यहां तक लिखा गया है कि “युद्ध को किसी देश का संप्रभु अधिकार नहीं माना जाना चाहिए”. इस सिद्धांत को युद्ध के नाम से ही ख़ौफ़ खाने वाली जापानी जनता की मंज़ूरी हासिल है. शीत युद्ध के कालखंड में योशिदा सिद्धांत पर चलते हुए जापान ने नई आर्थिक ऊंचाइयां हासिल कीं. इस दौरान जापान की सुरक्षा चिंताएं और सोवियत संघ के साथ तनाव जैसे मसलों से निपटने का दायित्व अमेरिका के हवाले रहा. बहरहाल जापान के ये खुशनुमा हालात शीतयुद्ध के ख़ात्मे के बाद ख़तरे में पड़ गए. शीत युद्ध के ख़त्म होने के बाद अमेरिका और उसके मित्र देशों का जापान पर दबाव बढ़ने लगा. साथ ही चीन में संशोधनवादी शासन के उदय ने जापान को दुनिया में अपने स्थान और अपनी शांतिवादी नीतियों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया

2006 में जबसे शिंज़ो आबे ने सत्ता संभाली तब से उनका रणनीतिक सिद्धांत यही रहा है कि “जापान के पहले दर्जे का देश होने पर तमाम शक-सुबहे ख़त्म हो जाएं”. शिंज़ो आबे जापान की शांतिवादी छवि को ख़त्म करने के पक्षधर रहे. सामरिक दृष्टि से उनकी विरासत तीन स्तंभों पर निर्भर करती है- घरेलू स्तर पर संवैधानिक ढांचे में तब्दीली लाना, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षा साझेदारी विकसित करना और सबसे अहम- जापानियों की सामूहिक मानसिकता को परिवर्तित करना.

शिंज़ो आबे जापान की शांतिवादी छवि को ख़त्म करने के पक्षधर रहे. सामरिक दृष्टि से उनकी विरासत तीन स्तंभों पर निर्भर करती है- घरेलू स्तर पर संवैधानिक ढांचे में तब्दीली लाना, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षा साझेदारी विकसित करना और सबसे अहम- जापानियों की सामूहिक मानसिकता को परिवर्तित करना.

जहां तक घरेलू नीतियों की बात है तो आबे के कार्यकाल से पहले जापानी सरकार का मत था कि हालांकि उसके पास अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक आत्मरक्षा के पूरे अधिकार हैं लेकिन उनका संविधान आत्मरक्षा के सामूहिक प्रयासों की मनाही करता है. सीधे शब्दों में इसका मतलब ये हुआ कि जापान अपने ऊपर होने वाले किसी भी सीधे हमले का तो जवाब दे सकता है लेकिन अपने मित्र देशों जैसे अमेरिका आदि पर होने वाले किसी आक्रमण का जवाब देना उसके अधिकारक्षेत्र के बाहर है.

यूं तो आबे की सरकार परंपराओं से बंधी हुई थी, इसके बावजूद उनका तर्क था कि आज दुनिया का सुरक्षा वातावरण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है और सामने मौजूद ख़तरों में सामूहिक विनाश के हथियार शामिल हैं. ऐसे में कोई भी राष्ट्र अकेले अपनी सुरक्षा नहीं कर सकता और किसी मित्र देश पर हुआ हमला जापान पर हुए हमले के बराबर ही है. घरेलू राजनीति में भारी विरोध झेलते हुए भी आबे ने युद्ध विरोधी कोमितो पार्टी के साथ जैसे-तैसे गठबंधन किया ताकि सामूहिक आत्मरक्षा की मंज़ूरी के लिए वो संविधान की फिर से व्याख्या के अपने प्रयासों को कामयाब कर सकें.

2015 में जापानी संसद ने सामूहिक प्रतिरक्षा के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी थी और उस समय इसको बड़ी रणनीतिक कामयाबी के तौर पर सराहा गया था. इसका अमेरिका के साथ जापान के सामरिक रिश्तों पर भी तत्काल असर हुआ था. तब अमेरिका और जापान ने दो दशक में पहली बार अपने रक्षा सहयोग पर फिर से बातचीत शुरू की थी. इसके ज़रिए अमेरिका-जापान गठजोड़ की भौगोलिक सीमा के विस्तार का रास्ता भी खुला था. इतना ही नहीं रक्षा रसद आपूर्ति, नौसैनिक कार्रवाई और मिसाइल प्रतिरक्षा में जापान की भूमिका को भी विस्तार मिला था. बहरहाल, संवैधानिक बाधाओं की समीक्षा के आबे के प्रयास चाहे जितने भी महत्वपूर्ण हों, लेकिन अपना आखिरी मकसद हासिल करने में सफल नहीं हो सके. वो मकसद था जापान के शांतिवादी संविधान की पूरी तरह से समीक्षा करना.

आबे को संविधान की समीक्षा के लिए जापानी संसद में पर्याप्त वोट हासिल नहीं हुए और न ही उन्हें जनता से ज़रूरी समर्थन मिल पाया. इस वजह से आबे जापान की शांतिवादी संविधान की पूर्ण समीक्षा की बजाए केवल पुनर्व्याख्या ही कर पाए. इस नाकामयाबी का असर रणनीतिक मोर्चे पर एक नई शुरुआत करने के जापानी प्रयासों पर पड़ना तय है. संविधान की पुनर्व्याख्या के आबे के प्रयासों के तहत भी जापानी फौज का कब प्रयोग करना है इसको लेकर तीन महत्वपूर्ण चेतावनियां साथ थीं. ये चेतावनियां मुख्य तौर पर आबे की अति-शांतिवादी सहयोगी दलों द्वारा प्रस्तावित थीं. हालांकि आबे ने तर्क दिया था कि सामूहिक आत्म-रक्षा पर जारी पाबंदी हटाने से जापान को मध्य पूर्व एशिया जैसे क्षेत्रों में भी सक्रियता के अधिकार हासिल हो सकते हैं. उनके सहयोगी दलों इसपर रज़ामंद नहीं हुए. उनके मुताबिक आत्मरक्षा के क़ानूनों में किसी भी किस्म के बदलाव का दायरा जापान के आस-पड़ोस तक ही सीमित रहना चाहिए.

आबे की रणनीतिक सोच

आबे ने अपनी रणनीतिक सोच को संस्थागत रूप देने में भी कामयाबी पाई और जापान का पहला राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद गठित किया. नवगठित एनएससी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में चलता है और सुरक्षा और संरक्षा से जुड़ी नीतियों के लिए मुख्य केंद्र के रूप में काम करता है. इसके ज़रिए एक केंद्रीकृत और कारगर निर्णय की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाया गया है. एनएससी के गठन के फौरन बाद 2013 में जापान की पहली राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) का गठन किया गया. एनएसएस ने आबे की छाप वाली विदेश नीति के उद्देश्यों को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया. इनमें अमेरिका के साथ फ़ौजी रिश्तों को आधुनिक रूप देना, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ सुरक्षा के क्षेत्र में साझेदारी बनाना और चीन के सामरिक उदय की काट निकालना शामिल है. इन मकसदों को हासिल करने के लिए आबे ने जापान की राजकोषीय मुश्किलों के बावजूद अपने कार्यकाल के दौरान प्रतिवर्ष जापान के रक्षा खर्चों में इज़ाफा किया. 2013 में लागू किए गए जापान के नए राजकीय गोपनीयता कानून के तहत संवदेनशील खुफ़िया जानकारियों पर सरकारी नियंत्रण को और पुख्ता किया गया. सरकार द्वारा गोपनीय करार दी गई सूचनाओं को उजागर करने पर नौकरशाहों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ कड़े दंडात्मक प्रावधान किए गए. जापान की जनता ने इन क़ानूनों को सिरे से नापसंद किया मगर फिर भी आबे इनको लागू करने पर अड़े रहे. उनका तर्क था कि सन 2000 के बाद जापान को कई बार खुफ़िया सूचनाओं के लीक होने पर शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा. समय समय पर संवेदनशील खुफ़िया जानकारियों के सार्वजनिक होते रहने से जापान की छवि दुश्मन देशों के जासूसों के सुरक्षित पनाहगाह के रूप में बनती गई. इस छवि से बाहर निकलने के लिए और जापान के मित्र देशों को ये विश्वास दिलाने के लिए कि जापान संवेदनशील और ज़रूरी खुफ़िया जानकारियों को सुरक्षित रख सकता है, ऐसे कड़े कदम उठाए जाने आवश्यक हो गए थे. आबे के शासनकाल में जापान ने हथियारों और फ़ौजी तकनीक के निर्यात पर लंबे समय से लगी पाबंदी को भी ख़त्म कर दिया. हालांकि निर्यात के साथ ये शर्त रखी गई कि इन हथियारों का इस्तेमाल वैश्विक शांति और जापान के सुरक्षा हितों की पूर्ति के लिए किया जाएगा.

2013 में जापान की पहली राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) का गठन किया गया. एनएसएस ने आबे की छाप वाली विदेश नीति के उद्देश्यों को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया. इनमें अमेरिका के साथ फ़ौजी रिश्तों को आधुनिक रूप देना, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ सुरक्षा के क्षेत्र में साझेदारी बनाना और चीन के सामरिक उदय की काट निकालना शामिल है.

जापान से बाहर आबे की कूटनीति

जापान से बाहर आबे ने अपनी ऊर्जावान कूटनीति के ज़रिए एक अमिट छाप छोड़ी. वो शुरू से ही ‘स्वतंत्र और मुक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ की वकालत करते रहे जिसके ज़रिए बेरोकटोक व्यापार, कानून का राज और संप्रभुता का सम्मान सुनिश्चित किया जा सके. इन लक्ष्यों का भारत और अमेरिका ने उत्साहपूर्वक समर्थन किया. आबे भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ क्वॉड सुरक्षा साझेदारी के शुरुआती प्रस्तावकों में से रहे हैं. भारत के साथ भी आबे बिना देर लगाए रिश्ते मज़बूत करने में जुट गए. आबे ने एक परमाणु शक्ति के तौर पर भारत की पहचान की और पूर्वोत्तर भारत में जापानी कंपनियों द्वारा निवेश किए जाने का समर्थन किया. ऑस्ट्रेलिया के साथ उनकी निगरानी में कई साझा समझौते हुए जिनमें रक्षा तकनीकी हस्तांतरण और रक्षा सहयोग से जुड़े समझौते शामिल हैं. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया के साथ जापान ने 2014 में एक मुक्त व्यापार समझौता भी किया. रही बात अमेरिका के साथ रिश्तों की, तो आबे दुनिया के उन चंद नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के साथ कामकाज में बेहद सूझबूझ का परिचय दिया. इस कड़ी में उन्होंने जापान का रक्षा खर्च बढ़ाने की अमेरिकियों की मांग पर भी बहुत ही चतुराई के साथ बीच का रास्ता निकाला. आबे ने आसियान देशों के साथ रिश्तों के महत्व को समझा और उनसे अपने संबंध मज़बूत करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी. अपने कार्यकाल के पहले ही साल में उन्होंने आसियान के सभी सदस्य देशों की यात्राएं कर डालीं. तबसे लेकर अबतक उन्होंने आसियान के सदस्य राष्ट्रों की मदद के लिए अरबों डॉलर खर्च किए और दक्षिण चीन सागर में चीन का बढ़ते रसूख को पर काबू पाने की दिशा में साझा मोर्चा बनाने की भरसक कोशिश की.

जापानी राजसत्ता का स्वरूप बदलने की आबे की इस वृहत रणनीति का आखिरी दांव उनके शासन काल की कई विरासतों के लिए ख़तरे की घंटी है. आबे और उनके दक्षिणपंथी राजनीतिक सहयोगी दूसरे विश्वयुद्ध की दबंगई से भरी ऐतिहासिक विरासत को लेकर लंबे समय से असहज रहे हैं. उस कालखंड में जापान पर ढेर सारे युद्ध अपराधों में संलग्न होने के आरोप लगे. जापानी जनता के जेहन में उस समय जापान द्वारा चीन और कोरिया जैसे देशों पर ढाए गए गए जुल्मोसितम के साथ-साथ ख़ुद उनके द्वारा सही गई तकलीफों की यादें आज भी ताज़ा हैं. लिहाजा आम जनता एक दबंग और आक्रामक जापान के निर्माण के आबे के दर्शन के सख्त ख़िलाफ है. आबे और उनके जैसी रूढ़ीवादी विचारधारा वाले नेताओं को लगता है कि आज की विश्व व्यवस्था में अपना सही मुकाम हासिल करने के लिए जापान को इतिहास की इन खौफज़दा यादों को भुला देना चाहिए. आबे के नेतृत्व में जापान के अनुदारवादी नेताओं ने इसी मकसद से दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध अपराध में सज़ायाफ्ता लोगों के लिए याशुकुनी मठ में एक स्मारक बनाने की पहल की थी. इतना ही नहीं जापानी इतिहास की पुस्तकों को फिर से लिखा गया जिसमें दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान द्वारा किए गए अत्याचारों को हल्के तौर पर दिखाया गया और युद्ध अपराध के लिए जापान द्वारा अतीत में मांगी गई क्षमायाचनाओं पर सार्वजनिक रूप से सवाल खड़े किए गए.

आबे भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ क्वॉड सुरक्षा साझेदारी के शुरुआती प्रस्तावकों में से रहे हैं. आबे अविलंब इन देशों के साथ क़रीबी रिश्ते बनाने में जुट गए.

ऐसा नहीं है कि जापानी राजनीति में किए जा रहे इस तरह के प्रयोगों का सिर्फ घरेलू राजनीति पर ही असर हो रहा हो. प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सुरक्षा गठजोड़ का एक प्रमुख स्तंभ है कोरिया और उसी कोरिया की जनता जापान द्वारा इतिहास को फिर से लिखे जाने की कोशिशों का भारी विरोध करती रही है. यहां तक कि कोरिया और जापान के बीच द्विपक्षीय रिश्तों में अभी जो खटास देखने को मिल रही है वो इतिहास को लेकर दोनों देशों के विचारों में इसी मतभेद का परिणाम हैं. चाहे वो दोनों देशों के बीच छिड़े व्यापार युद्ध का प्रश्न हो या 2019 में कोरिया द्वारा जापान के साथ महत्वपूर्ण खुफ़िया करार से बाहर निकलने का फैसला हो, इन सबसे दोनों देशों के हितों का नुकसान हुआ है. जिसका सीधा लाभ उत्तर कोरिया और चीन उठा रहे हैं.

चीन तो मौके का लाभ उठाते हुए जापान और कोरिया के बीच की खाई को और चौड़ा करने की फिराक में है. उसने कोरिया को जापान के ख़िलाफ ऐतिहासिक मुद्दों पर एक साझा मोर्चा बनाने का प्रस्ताव दिया है. अमेरिका पर अपने प्रभावों के चलते कोरिया को इतनी क्षमता हासिल है कि वो आबे की सामरिक नीतियों के क्रियान्वयन के रास्ते में अड़ंगा डाल दे. अतीत में भी कोरिया प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा में जापान की बढ़ती भूमिका के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करता रहा है. कोरिया चाहता है कि पहले इस बात की तस्दीक हो जाए कि दूसरे विश्वयुद्ध में अपने कारनामों के लिए जापान को सचमुच का पछतावा है. अमेरिका भी इस इलाके के इतिहास की जटिलता को देखते हुए इन मुद्दों पर अक्सर गंभीर रुख रखता रहा है. इन मुद्दों पर जापान के साथ समय-समय पर उसकी भिड़ंत भी होती रही है. यहां तक कि उसने याशुकुनी मठ का दौरा करने के लिए आबे की सीधे तौर पर आलोचना भी की थी. कुछ लोगों का विचार था कि आबे के सत्ता से हटने के बाद इन ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर गाहे-बगाहे जो तनाव पैदा होते रहते हैं वो थम जाएंगे लेकिन नए प्रधानमंत्री सुगा ने भी लगता है आबे की ही राह चुनी है. उन्होंने पद संभालने के बाद याशुकुनी मठ में पारंपरिक भेंट अर्पित किए. उनके इस कदम की चीन और कोरिया ने तत्काल भर्त्सना की. इस मामले में अमेरिकी कूटनीति भी अबतक कारगर नहीं हो सकी है जिससे अमेरिका-जापान-कोरिया गठजोड़ के भविष्य पर सवाल खड़ा होना लाज़िमी है.

कुछ लोगों का विचार था कि आबे के सत्ता से हटने के बाद इन ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर गाहे-बगाहे जो तनाव पैदा होते रहते हैं वो थम जाएंगे लेकिन नए प्रधानमंत्री सुगा ने भी लगता है आबे की ही राह चुनी है. उन्होंने पद संभालने के बाद याशुकुनी मठ में पारंपरिक भेंट अर्पित किए.

पदत्याग करते वक्त आबे विरासत में काफी कुछ ऐसा छोड़ गए हैं जो सचमुच क़ाबिले-तारीफ है. विश्व पटल पर एक सक्रिय भूमिका वाले जापान को लेकर उनका दर्शन वहां के प्रमुख रूढ़ीवादी दलों को खूब पसंद आया है और ऐसा लगता है कि आगे भी इसी विचारधारा को अमली जामा पहनाने का काम जारी रहेगा. अपने कार्यकाल की स्थिरता और ऊर्जा से भरी अपनी कूटनीति के ज़रिए आबे ने विश्व बिरादरी में वो कमाल की विश्वसनीयता हासिल की जो हाल-फिलहाल शायद ही किसी दूसरे जापानी नेता को हासिल हुई हो. फिर भी उनके उग्र राष्ट्रवाद और इतिहास को फिर से लिखने की उनकी कोशिशों ने इलाके में पहले से जारी तनाव और खाई को और चौड़ा किया है. बहरहाल, आबे की सामरिक विरासत क्या है इसको लेकर बहस का दौर अभी जारी है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.