Author : Rashi Sharma

Published on Oct 20, 2020 Updated 0 Hours ago

कोविड-19 वैक्सीन और मेडिकल उपकरणों के लिए कई देश भारतीय बाज़ार में निवेश करने को तैयार हैं, ऐसे में भारत के पास मौक़ा है कि वो फार्मास्युटिकल के क्षेत्र में वाकई आत्मनिर्भर बन सके.

भारत में फार्मास्युटिकल उद्योग का भविष्य कितना बेहतर?

कोविड-19 महामारी न सिर्फ़ एक वैश्विक स्वास्थ्य त्रासदी है बल्कि ये कई अर्थव्यवस्थाओं के लिए ज़बरदस्त आर्थिक संकट भी बन गई है. मौजूदा समय आम तौर पर मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए मुश्किल भरा है और इसने भारत के लिए आत्मनिर्भर बनने की ज़रूरत के बारे में बताया है. वैसे तो अल्पकालीन विराम के बाद ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नारे के ज़ोर पकड़ने की उम्मीद थी लेकिन लगातार जारी महामारी ने ‘आत्मनिर्भरता’ के संवाद पर तुरंत असर डाला है. महामारी ने इस तथ्य का पर्दाफ़ाश कर दिया कि ज़रूरी मेडिकल उपकरणों के लिए भारत आयात पर निर्भर है. सप्लाई में अनियमितता की वजह से ना सिर्फ़ कुछ दवाओं की घरेलू क़ीमत आसमान पर पहुंच गई बल्कि निर्यात पर पाबंदी की वजह से विदेशी व्यापार पर भी असर पड़ा. भारत में की स्टार्टिंग मैटेरियल (KSM) की कम उपलब्धता ने भारत के फार्मास्युटिकल सेक्टर की कमज़ोरी को उजागर किया है.

ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता

भारतीय कंपनियों ने घरेलू ज़रूरत को पूरा करते हुए ख़ुद को ग्लोबल फार्मास्युटिकल परिदृश्य में अग्रणी भूमिका में स्थापित किया है. ख़बरों के मुताबिक़ अमेरिकी बाज़ार में सप्लाई होने वाली दवाई का पांचवां हिस्सा भारत से जाता है. अमेरिकी FDA के नियमों का पालन करने वाले सबसे ज़्यादा फार्मा प्लांट भारत में हैं. क़रीब 1400 WHO-GMP (गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस) स्वीकृत फार्मा प्लांट, 253 यूरोपियन डायरेक्टोरेट ऑफ क्वालिटी मेडिसिन्स (EDQM) स्वीकृत प्लांट के साथ भारत दवाओं की मात्रा के मामले में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है. लेकिन भारतीय फार्मा उद्योग अभी भी वैल्यू के मामले में 14वें पायदान पर है और दुनिया के कुल दवा निर्यात में भारत का योगदान सिर्फ़ 3.5 प्रतिशत है.

.भारतीय कंपनियों ने घरेलू ज़रूरत को पूरा करते हुए ख़ुद को ग्लोबल फार्मास्युटिकल परिदृश्य में अग्रणी भूमिका में स्थापित किया है. ख़बरों के मुताबिक़ अमेरिकी बाज़ार में सप्लाई होने वाली दवाई का पांचवां हिस्सा भारत से जाता है. अमेरिकी FDA के नियमों का पालन करने वाले सबसे ज़्यादा फार्मा प्लांट भारत में हैं. 

भारतीय दवा उद्योग ने फॉर्मूलेशन और देसी दवा के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन उदारीकरण के साथ दवा बाज़ार चीन से आयातित सामानों से भर गया. भारत दवा की ज़रूरत के लिए आयात पर काफ़ी हद तक निर्भर है. फार्मास्युटिकल उद्योग की ज़रूरत का क़रीब 70% चीन से पूरा होता है जिनमें कुछ बुनियादी कच्चा माल ख़ासतौर पर API (एक्टिव फार्मास्युटिकल इनग्रेडिएंट्स) शामिल हैं जिनसे दवाई बनती है. चीन से आयातित इन थोक दवाओं या API की क़ीमत भारत में उत्पादित API के मुक़ाबले एक-तिहाई है. चीन API उत्पादन और निर्यात में दिग्गज़ बन गया क्योंकि उसने सफलतापूर्वक कम लागत वाली तकनीक विकसित की. बड़े स्तर के उत्पादन, सस्ती और साझा यूटिलिटी और मददगार सरकारी नीतियों की बदौलत चीन फ़ायदेमंद हालात में पहुंच गया.

चीन की बेहद सस्ती API की वजह से भारत में घरेलू API उत्पादन करने वाले प्लांट बंद हो गए. भारतीय कंपनियां धीरे-धीरे API के उत्पादन से पीछे हटने लगीं क्योंकि इसमें पूंजी का निवेश ज़्यादा मुनाफ़ा नहीं दे रहा था. भारत में API की लागत ज़्यादा होने के कई कारण हैं जिनमें महंगी तकनीक और इसके उत्पादन के लिए बुनियादी ढांचे की ज़रूरत शामिल हैं.

भारत में दवाओं की क़ीमत दुनिया में सबसे कम मानी जाती है. लेकिन क़ीमत नियंत्रण को लेकर सरकार की सख़्त नीति की वजह से ना तो उत्पादक दवा के नये फॉर्मूलेशन की रिसर्च और डेवलपमेंट पर ख़र्च कर पाते हैं, ना ही इससे सभी लोगों तक दवा की पहुंच हो पाती है. देश भर में बिना जांच-परख वाले उत्पादन प्लांट, सस्ते आयात पर निर्भरता ने दवा फॉर्मूलेशन के उत्पादन की स्थानीय क्षमता बढ़ा दी है. लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा ये उत्पादन कई बार ग्लोबल स्टैंडर्ड को पूरा नहीं कर पाता है. इसका असर ये होता है कि किसी दूसरे उत्पादक से दवा ख़रीदकर निर्यात करने वालों के लिए नये बाज़ार को खोजना मुश्किल हो जाता है.

फार्मास्युटिकल इकलौता सेक्टर है जहां 100% विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) की इजाज़त है और ये अमेरिकी बाज़ार के लिए माकूल है लेकिन भारत के लिए दूसरे देशों को निर्यात करने की गुंजाइश सीमित रही है. ये भारतीय उत्पादकों के लिए लंबे वक़्त में जोख़िम है. हाल के दिनों में ट्रंप प्रशासन ने जेनरिक फार्मास्युटिकल के आयात पर रोक लगाने और स्थानीय उत्पादन को बढ़ाने का एलान किया है. ऐसे में ‘अमेरिका फर्स्ट’ का एजेंडा भारत के अग्रणी निर्यात सेक्टर में से एक के लिए बड़ा झटका साबित हो सकता है.

भारत में दवाओं की क़ीमत दुनिया में सबसे कम मानी जाती है. लेकिन क़ीमत नियंत्रण को लेकर सरकार की सख़्त नीति की वजह से ना तो उत्पादक दवा के नये फॉर्मूलेशन की रिसर्च और डेवलपमेंट पर ख़र्च कर पाते हैं, ना ही इससे सभी लोगों तक दवा की पहुंच हो पाती है. 

इसकी वजह से भारतीय फार्मा उद्योग के आगे के रास्ते पर कई सवाल खड़े होते हैं. क्या API का उत्पादन (या इसकी कमी) भारतीय बाज़ार के प्रदर्शन को प्रभावित कर रहा है या घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए नीतियां क्या हैं. इस बात की काफ़ी ज़्यादा ज़रूरत है कि इन मुद्दों का समाधान किया जाए क्योंकि इनकी वजह से वैश्विक संभावनाओं के बावजूद भारतीय फार्मा कंपनियां आगे नहीं बढ़ रही हैं.

आगे का रास्ता

बेहतर सप्लाई चेन को सुनिश्चित करने के लिए भारत में साफ़ और सक्रिय हस्तक्षेप की ज़रूरत है. ऐसा करने से ना सिर्फ़ स्थानीय उत्पादन बढ़ेगा बल्कि बाहरी साधनों पर निर्भरता भी कम होगी. भारत की “लुक ईस्ट” नीति का लक्ष्य अमेरिका और यूरोपियन यूनियन पर व्यापार की निर्भरता को कम करना है. उस नीति के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए सरकार फार्मा उद्योग की संरचना में बदलाव करे. सरकार ने कच्चे माल के उत्पादन को बढ़ावा देने और API के उत्पादन के बड़े हिस्से को भारत लाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन की शुरुआत की. केंद्रीय कैबिनेट ने साझा यूटिलिटी वाले तीन API पार्क की स्थापना का निर्णायक फ़ैसला लिया, 53 API की पहचान कर चीन पर निर्भरता कम की गई, प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव (PLI) योजना की शुरुआत की जिससे भारत के आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को एक बार फिर से दोहराया जा सके.

बेहतर सप्लाई चेन को सुनिश्चित करने के लिए भारत में साफ़ और सक्रिय हस्तक्षेप की ज़रूरत है. ऐसा करने से ना सिर्फ़ स्थानीय उत्पादन बढ़ेगा बल्कि बाहरी साधनों पर निर्भरता भी कम होगी. 

क़रीब 35-40% उत्पादन क्षमता बेकार पड़ी है. सरकार के लिए ज़रूरी है कि वो मौजूदा API यूनिट का कुशलता से इस्तेमाल करे. मैकेंज़ी की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में घरेलू बाज़ार के बढ़ने के पीछे बीमारी का ज़्यादा बोझ ज़िम्मेदार है. API के स्थानीय उत्पादन को देश की तेज़ी से बढ़ती आबादी से प्रोत्साहन मिलता है. इससे फार्मा कंपनियों के लिए ना सिर्फ़ घरेलू बाज़ार बल्कि अपेक्षाकृत ज़्यादा उम्र वाली आबादी के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में प्रवेश करने का भी रास्ता खुलता है.

डिलीवरी प्वाइंट का अभाव और दवाओं तक पहुंच में कमी अभी भी फार्मा कंपनियों के लिए घरेलू बाज़ार के पूरी तरह इस्तेमाल की राह में बाधा हैं. आमदनी में लगातार बढ़ोतरी और ज़्यादा लोगों के बीमा के दायरे में आने से दवा ख़रीदने की क्षमता बढ़ेगी. सेहत पर ज़्यादा ख़र्च और सरकार प्रायोजित कार्यक्रम ग्रामीण बाज़ार तक पहुंच के लिए ज़रूरी हैं. आर्थिक विकास में बेहतरी स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए ज़रूरी है.

डिलीवरी प्वाइंट का अभाव और दवाओं तक पहुंच में कमी अभी भी फार्मा कंपनियों के लिए घरेलू बाज़ार के पूरी तरह इस्तेमाल की राह में बाधा हैं. आमदनी में लगातार बढ़ोतरी और ज़्यादा लोगों के बीमा के दायरे में आने से दवा ख़रीदने की क्षमता बढ़ेगी. 

टिकाऊ बाज़ार और मज़बूत विकास दर के लिए नये तरह के बिज़नेस मॉडल का विकास करना चहिए ताकि दवा की क़ीमत के नियंत्रण और स्थानीय उत्पादन की लागत के बीच संतुलन स्थापित किया जा सके. हालांकि, सरकार ने अपनी संरक्षणवादी नीतियों को आसान बनाया है लेकिन फार्मा सेक्टर की चुनौतियों के समाधान के लिए समय पर असरदार ढंग से उसे लागू करना महत्वपूर्ण है. कोविड-19 वैक्सीन और मेडिकल उपकरणों के लिए कई देश भारतीय बाज़ार में निवेश करने को तैयार हैं, ऐसे में भारत के पास मौक़ा है कि वो फार्मास्युटिकल के क्षेत्र में वाकई आत्मनिर्भर बन सके.

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