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पाकिस्तान को लेकर इन दिनों भारत भारी कशमकश से गुज़र रहा है। भारतीय नीति निर्माताओं के सामने सवाल है कि पाक की तरफ़ से पेश आने वाले गंभीर ख़तरों का सामना किस तरह से किया जाए।
पाकिस्तान को लेकर सत्तारूढ़ भारतीय सरकार की असंगत नीतियों के चलते वह रणनीतिक विशेषज्ञों, विपक्ष और मीडिया के निशाने पर है। ताज़ा विवाद तब पनपा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तानी हुक्मरानों को ग़रीबी की बीमारी के खिलाफ़ संयुक्त रुप से युद्ध छेड़ने की पेशकश की। इसी क्रम में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष के साथ साल के आख़िर में बैंकॉक को गुप्त बैठक के लिए चुना, जहां दोनों के बीच काफ़ी सकारात्मक माहौल में दोस्ताना बातचीत हुई। यह दोनों घटनाक्रम दर्शाते हैं कि भारत सरकार की पाक विदेश नीति किस हद तक असंगत है।
हालांकि, यह असंगति कोई नई नहीं है। भारत अक्सर पाकिस्तान की तरफ से पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान की दिशा में अपने प्रयासों को लेकर असमंजस में रहा है। लेकिन इसके चलते पाक के साथ हमारे रिश्तों में गतिहीनता बनी रही। मगर शायद नई दिल्ली की असंगत पाक नीति इतनी बुरी भी नहीं है जिसमें मौक़े-बेमौक़े संगत उतार-चढ़ाव दर्ज होते रहे हैं।
पाकिस्तान की तरफ़ से हिंदुस्तान को पेश आने वाला मुख्य ख़तरा छद्दम युद्ध है। पाक चाहता है कि ‘भारत को हज़ारों घाव देकर खून रिसने दें’ का एजेंडा कश्मीर में अंजाम दिया जाए। अलगाववादियों का समर्थन करने के अलावा, पाकिस्तान कथित तौर पर समूचे भारत में बड़े आतंकी हमले करने की फिराक़ में लगा हुआ है, जिसकी मिसाल हैं दिसंबर 2011 में भारतीय संसद, नवंबर 2008 में मुंबई, जनवरी 2016 में पठानकोट एयरफोर्स पर हुए हमले। जहां पाकिस्तान आतंकवाद को अपनी राज्य-नीति के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है, वहीं इन तमाम आतंकी हमलों से मालूम चलता है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा और खुफिया एजेंसीयों के बीच तालमेल की ख़ासा कमी है। एक तरफ़ छद्दम युद्ध के ज़रिये इन आतंकी हमलों को अंजाम देने का श्रेय पाकिस्तान को जाता है, दूसरी तरफ भारत के हिस्से इन्हें रोकने की नाकामी आती है।
पाकिस्तान की तरफ़ से हिंदुस्तान को पेश आने वाला मुख्य ख़तरा छद्दम युद्ध है। पाक चाहता है कि ‘भारत को हज़ारों घाव देकर खून रिसने दें’ का एजेंडा कश्मीर में अंजाम दिया जाए।
गौरतलब है कि पाकिस्तान हिंदुस्तान के खिलाफ़ लगातार आतंकवाद का इस्तेमाल करता रहा है, पर इस नीति से पाकिस्तान को कश्मीर एजेंडे के लिए कुछ हासिल नहीं हो सका है। पाकिस्तान की इस नीति के कारण सिर्फ कश्मीर में अशांति पनपी, जिसके लिए भारत की अंदरूनी राजनीति भी ज़िम्मेदार है। पाकिस्तान का समर्थन पाने वाले अलगाववादी शायद ही नई दिल्ली बैठे हुक्मरानों के लिए विशेष चिंता का सबब बन पाए हों। उल्टा भारत ने कश्मीर में सेना की भारी तैनाती कर दी। इसका पाकिस्तान को कोई लाभ नहीं हुआ। हां, यह प्रशंसनीय ज़रूर रहा कि इन सबके बीच अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान कश्मीरी आवाम की दुर्दशा पर गया। ज़्यादातर देशों का यही मानना रहा कि कश्मीर मसले का हल भारत पाकिस्तान द्विपक्षी बातचीत से निकाला जाए। और हाल के सालों में इसका असर ये रहा कि आतंकवाद को शासकीय नीति के तौर पर उपयोग करने के चलते पाकिस्तान विश्व समुदाय के निशाने पर रहा।
इस समय, पाकिस्तान कश्मीर एजेंडे पर पारंपरिक माध्यमों से काम नहीं कर पा रहा है। पाकिस्तान का दबा हुआ यही आक्रोश कारगिल संघर्ष की वजह बना। हालांकि, इससे भी पाकिस्तान को कश्मीर एजेंडे के लिए कुछ हासिल नहीं हो सका, चूंकि उसके पास सैन्य स्तर पर भारतीय फौज का मुक़ाबला करने की क्षमता नहीं है।
क्या नई दिल्ली के पास ऐसे भरोसेमंद विकल्प हैं, जिनसे पाकिस्तानी चुनौतियों का पुख़्ता इलाज किया जाए? हर बार पाकिस्तान की तरफ से हुए किसी बड़े आतंकी हमले के बाद नई दिल्ली पर जवाबी हमला करने का दबाव बनता है। लेकिन ये रास्ता, तीन वजहों से संदेहास्पद है। पहली ये कि आम धारणा के बावजूद यह साफ़ नहीं है कि भारत सैन्य ऑपरेशन में पाक को परास्त कर ही देगा। उदाहरण के लिए, मुंबई के आतंकी हमलों के बाद, नई दिल्ली ने सैन्य विकल्प को तवज्जो देने पर विचार किया, लेकिन सैन्य रणनीतिकारों ने, कथित तौर पर असरदार हमले को लेकर असमर्थता जता दी। दूसरा, जानकारों की माने तो एक ज़बरदस्त हमला दोनों मुल्कों को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की ओर भी धकेल सकता है। पाकिस्तान पहले भी परमाणु शक्ति का इस्तेमाल करने की धमकियां दे चुका है, वहीं भारत इस बात का आज तक कोई माकूल जवाब नहीं दे पाया है। तीसरा, युद्ध के हालत में भारत की अर्थव्यवस्था कुछ दशक पीछे चली जाएगी।
हर बार पाकिस्तान की तरफ से हुए किसी बड़े आतंकी हमले के बाद नई दिल्ली पर जवाबी हमला करने का दबाव बनता है।
भारत में राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान के साथ बातचीत नई दिल्ली में सरकार के हिसाब से बदलती रही है। लेकिन पाक दो तरफ़ा संवाद को लेकर बेअसर इसलिए भी लगता है क्योंकि वहां सेना और हुकूमत के बीच अक्सर टकराव जैसी स्थिति बनी रहती है। दोनों देशों के बीच संबंधों का एक पहलू यह भी है कि दो तरफ़ा बातचीत कारगर होने पर भारतीय सरकार और नेतृत्व की देश के अंदर राजनीति भी प्रभावित होती है।
यानि, हिंदुस्तान निरंतर रुप से पाकिस्तान की तरफ़ से समस्याओं से जूझता रहेगा। इनका जवाब देने के लिए उसके पास विकल्प भी कम ही हैं। यहां तक कि अमेरिका इतना समय वहां देने के बाद आख़िर में पाकिस्तानी सरज़मीं पर आतंकियों का पोषण होने से रोकने में असमर्थ रहा।
नई दिल्ली को पाकिस्तान जैसे देश के लिए मिलाजुला रूख अख़्तियार करना होगा। मतलब, जब जैसी ज़रूरत हो, उसके साथ उसी तरह व्यवहार किया जाए।
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Arka Biswas is currently associated with Wells Fargo’s Enterprise Incident Management, wherein he leads intelligence and assessment operations for EIM and coordinates enterprise incident response, involving ...
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