Author : Mitu Sengupta

Published on Feb 04, 2019 Updated 0 Hours ago

दुनिया में बढ़ती ताक़त और एसडीजी के फ़ॉर्मूले की अहम भूमिका के चलते भारत का यह कर्तव्य बनता है कि वह सुनिश्चित करे कि इन लक्ष्य को उनकी परिणति तक पहुंचाया जाए।

एसडीजी इंडिया इंडेक्स: क्या दुनिया की महत्‍वाकांक्षा को ज़मीनी हक़ीक़त में बदला जा सकता है?

ग़रीबी, भुखमरी, महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, सभी को क़ानूनी पहचान मिले और दुनिया भर में लोगों की न्याय तक समान पहुंच हो, ऐसे लक्ष्यों लिए सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी यानी सस्‍टेनेबल डेवलपमेंट गोल्‍स) एक महत्‍वाकांक्षी घोषणा होती है। सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र के 193 देशों ने सर्वसम्मति से इसे स्वीकार किया, एसडीजी का मक़सद अगले 15 सालों तक (2015 से 2030 तक ) दुनिया भर में विकास की कोशिशों को रास्ता दिखाना है।

एसडीजी को निर्धारित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय बातचीत में भारत एक प्रभावी देश था। भारत ने न सिर्फ विकासशील देशों की चिंताओं को मजबूती से रखा बल्कि विकसित देशों पर भी दवाब डाला कि वे अपने दायित्‍व को स्‍पष्‍ट करें। भारत के दखल ने एसडीजी के कई पहलुओं को आकार दिया, जिसमें भागौलिक दायरा भी शामिल है। एसडीजी सभी देशों में लागू होता है जबकि इससे पहले से इस्‍तेमाल हो रहे मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्‍स (एक सदी के लिए तय किए गए विकास लक्ष्‍य) का निशाना बस विकासशील देश थे। इस लिहाज़ से ये विकास की अवधारणा में बड़ा बदलाव है ख़ासकर के टिकाऊ विकास के लिए, इसके अंदर न सिर्फ़ विकासशील देश हैं बल्कि सभी देश शामिल किए गए हैं चाहे वो ग़रीब हों या अमीर।

कई क्रांतिकारी ख़ासियतों के बावजूद एसडीजी में कुछ मूलभूत कमज़ोरियां हैं। एसडीजी स्वैच्छिक हैं न कि अनिवार्य। मतलब ये हुआ कि इसका पालन करना हमेशा एक समस्‍या रहेगी। ख़ासकर के जब तक शक्तिशाली देश इसे हासिल करने के लिए दृढ़तापूर्वक आगे नहीं बढ़ेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एसडीजी एक ऐसे सपने की तरह हो जाएगा जो बस कल्‍पना में है लेकिन व्‍यवहारिक नहीं है, ये वैश्विक सहयोग के नाकाम होने का प्रतीक बन जाएगा।

दुनिया में बढ़ती ताक़त और एसडीजी के फ़ॉर्मूले में की अहम भूमिका के चलते भारत का यह कर्तव्य बनता है कि वह सुनिश्चित करे कि इन लक्ष्य को उनकी परिणति तक पहुंचाया जाए। इस मामले में देखें तो प्रधानमंत्री की पहल प्रोत्साहन देने वाली है, जिसमें वो अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एसडीजी के लिए मज़बूत प्रतिबद्धता दिखाते आए हैं। नीति आयोग ने हाल ही में एसडीजी इंडिया इंडेक्स: बेसलाइन रिपोर्ट 2018 जारी की है, जो सतत विकास लक्ष्य यानी एसडीजी को पूरा करने की दिशा में भारत के राज्‍यों और केंद्र शासित प्रदेशों की प्र‍गति को ट्रैक करती है। ये अहम रिपोर्ट बड़ा कदम है जो बताती है कि एसडीजी को लागू करने की सरकार की प्रतिब‍द्धता को ज़मीन में कैसे उतारा जाए। हमें अब ऐसे विश्‍लेषण की ज़रूरत है।

NITI Aayog का SDG इंडेक्स: बेसलाइन रिपोर्ट 2018 यहाँ पढ़े

इस सूचकांक की ख़ासियत है कि यह पारदर्शी है और उन लोगों के लिए भी उपलब्ध है जो विशेषज्ञ नहीं हैं। यह एकदम साधारण सी भाषा में लिखी गई है, जिसमें रंगीन चार्ट हैं, जिस विधि से विभिन्न लक्ष्यों के बारे में प्रगति दर्ज की गई, उन्हें एकदम स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है। इतना ही नहीं, रिपोर्ट के अंत में लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मंत्री या विभाग विशेष का उत्तरदायित्य दिया गया है। उदाहरण के लिए स्वास्थ्य से जुड़े एसडीजी-3 लक्ष्यों को पाने के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, आयुष और यहां तक कि गृह मंत्रालय को जिम्मेदारी दी गई है (मादक पदार्थों के सेवन की रोकथाम और उपचार से संबंधित)। विभागों और व्यक्तियों की ज़ि‍म्मेदारी तय करना इन लक्ष्यों को पाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है क्योंकि इससे हमें पता चलता है कि किसी लक्ष्य को पाने की असफलता के लिए किसे और क्यों ज़ि‍म्मेदार ठहराया जाना चाहिए। इसके अलावा हर एसडीजी के लिए विभागीय उत्तरदायित्य तय करना भी इस बात को दिखाता है कि कोई भी लक्ष्य भिन्न-भिन्न विभागों या मंत्रियों के बीच बिना समन्वय के हासिल नहीं किया जा सकता और इसीलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि सरकार के विभिन्न अंगों को यह याद दिलाया जाता रहे कि वे अकेले काम करने की अपेक्षा मिलकर काम करें।

इस रिपोर्ट की एक खासियत यह है कि पारदर्शी है और उन लोगों के लिए भी उपलब्ध है जो विशेषज्ञ नहीं हैं।

इंडेक्स इस बात की जानकारी भी देता है कि विभिन्न राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों ने तुलनात्मक रूप से एसडीजी को हासिल करने के लिए क्या-क्या किया है। उदाहरण के लिए, यदि हम भुखमरी ख़त्‍म करने की दिशा में देखें तो गुजरात और झारखंड की तुलना में मणिपुर और केरल अच्छा काम कर रहे हैं (पेज 31 देखें) या लैंगिक असमानता कम करने के लिए मणिपुर और बिहार से केरल और सिक्किम अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं (पेज 66)। ऐसी तुलानाएं न सिर्फ मीडिया को आकर्षित करती हैं बल्कि शिक्षाविदों और नीति-निर्माताओं में भी रुचि जगाती है कि वे जानें आखिर अच्छा करने वाला केरल क्या कर रहा है और जो पीछे छूट रहे हैं, उनके साथ कहां समस्या आ रही है।

इतनी खूबियों के बाद ऐसा नहीं है कि इस रिपोर्ट में सब कुछ अच्छा ही हो और कुछ भी कमी न हो।

इस मामले में देखा जाए तो इसमें कई कमियां हैं। इस इन्डेक्स में चार महत्वपूर्ण लक्ष्‍य शामिल नहीं किए गए हैं, जिसमें जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव भी शामिल है (एसडीजी-13)। इसमें हर लक्ष्‍य को कवर किया गया है लेकिन उन लक्ष्‍यों से जुड़े कुछ मक़सदों को शामिल नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए एसडीजी-11 में शहरों को सुरक्षित, समावेशी और लंबे समय तक चलने वाले शहरों के लिए इंडेक्‍स में 7 में से सिर्फ़ 2 लक्ष्‍यों को ही लिया गया है। ये एक ऐसे देश के लिए चिंता का विषय है जिसका तेज़ी से शहरीकरण हो रहा है, जहां 2050 तक शहरी आबादी 81.4 करोड़ हो जाएगी

चिंता की बात ये भी है कि इंडेक्‍स शिक्षा से जुड़े 7 में से एक ही लक्ष्‍य को कवर करता है। एसडीजी-4 सभी के लिए। अच्‍छी गुणवत्‍ता की शिक्षा को सुनिश्चित करने का लक्ष्‍य है। जो लक्ष्‍य नज़रंदाज़ कर दिए गए हैं उनमें से एक है शिक्षा में लैंगिक असमानता को ख़त्‍म करना, ये एक ऐसा मुद्दा है जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता

इसके अलावा इस रिपोर्ट की एक कमी यह भी है कि यह ग़रीबी मिटाने, ग़रीबों के सशक्तिकरण और ज़रूरतमंदों तक पहुंचने में होने वाली परेशानी के पर ज़ोर नहीं दिया गया है। जबकि 2015 के बाद के एजेंडे को लेकर अंतरराष्‍ट्रीय विचार-विमर्श में इस बात पर ज़ोर है कि किसी को पीछे न छोड़ा जाए। यह बात एसडीजी की विशेषता है। यह बात कई लक्ष्‍यों में नज़र आती है, एसडीजी 17 और 18 में डेटा को आय, लिंग, आयु, नस्‍ल, जाति, प्रवासी स्थिति, विकलांगता, भौगोलिक स्‍थान और देश के संदर्भ में दूसरी विशेषताओं के तहत अलग-अलग करने को कहा गया है। किसी को पीछे न छोड़ने के सिद्धांत, दस्‍तख़त करने वाले भारत जैसे देशों में तभी पूरा हो सकता है जब आबादी के सभी वर्गों से संपर्क किया जाए। दुर्भाग्‍य है कि एसडीजी इंडिया इंडेक्स ने इस दिशा में ज़्यादा कुछ किया नहीं।

उदाहरण स्वरूप रिपोर्ट यह तो स्वीकार करती है कि तमाम मूलभूत असमानताओं (लैंगिक, जातीय, सामाजिक वर्गों के बीच) के कारण भारत में भुखमरी एक चुनौती है, लेकिन एसडीजी में भुखमरी को पूरी तरह मिटाने के लक्ष्य को पाने के लिए जिन इंडीकेटर्स को चुना गया है, उनमें इन सरंचनात्मक असमानताओं का ज़ि‍क्र नहीं मिलता (पेज 29)।

किसी को पीछे न छोड़ने के सिद्धांत, दस्‍तख़त करने वाले भारत जैसे देशों में तभी पूरा हो सकता है जब आबादी के सभी वर्गों से संपर्क किया जाए। दुर्भाग्‍य है कि एसडीजी इंडिया इंडेक्स ने इस दिशा में ज़्यादा कुछ किया नहीं।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ हंगर इंडेक्स (भुखमरी सूचकांक) ही कमज़ोर हो। इंडेक्‍स में शामिल कई इंडिकेटर (संकेतक) लक्ष्‍य से जुड़े इरादे या फि‍र बड़े बदलाव के एसडीजी के मक़सद को पकड़ पाने में नाकाम रहते हैं। उदाहरण के लिए लक्ष्य 5.2 में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में हर जगह महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ होने वाली सभी प्रकार की हिंसा को समाप्त करने के लिए जिन इंडिकेटर्स का उपयोग किया गया है, उसमें इंडिकेटर का दायरा 15-49 साल की शादीशुदा महिलाएं जिनके साथ उनके पार्टनर ने हिंसा की हो’ (पेज 65) बहुत सीमित है क्योंकि भारत में इस प्रकार की हिंसा बहुत ही कम दर्ज की जाती है। किसी को पीछे न छोड़ने के लिए इस तरह के इंडीकेटर्स पर फिर से गौर किए जाने की ज़रूरत है।

इसके अलावा एक समस्या यह है कि इंडेक्‍स किसी लक्ष्‍य को कैसे हासिल किया जाए, इस बारे में बहुत कम जानकारी देता है।

जैसे रिपोर्ट उन तमाम सरकारी योजनाओं का ज़ि‍क्र तो करती हैं जो भुखमरी को समाप्त (पेज 35) करने से जुड़ी हैं, इनमें साल 1970 में शुरु की गई एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस), 2017 में शुरु किया गया पोषण अभियान शामिल हैं लेकिन यह नहीं बताया गया कि ये योजनाएं कैसे भुखमरी समाप्त करने के लक्ष्य को हासिल करेंगी। यह भारत जैसे देश में लाख टके का सवाल बन जाता है, जहां मंहगी योजनाओं को दोहराव गंभीर चिंता का विषय है। ऐसे ही इसके बारे में भी कम ही जानकारी मिलती है कि इन लक्ष्यों को पाने के लिए पैसे का इंतजाम कैसे किया जाएगा, ख़ासकर राज्यों के स्तर पर। निश्चित रूप से यह चिंता की बात है कि निर्धारित 15 वर्षों में इन एसडीजी लक्ष्यों का हासिल करने के लिए भारत को करीब 533 लाख करोड़ रुपयों की जरूरत होगी। (लक्ष्यों को पाने के लिए धन की आवश्यता के लिए पेज 13 देखिए)

यह इंडेक्स इस बारे में बहुत कम जानकारी देता है कि एसडीजी के अलग-अलग लक्ष्यों को कैसे हासिल किया जाएगा।

ईमानदारी से कहा जाए तो इंडेक्स की सीमाएं इसकी शुरुआत में ही स्वीकार की गई हैं। तमाम लक्ष्यों को हासिल न कर पाने का उत्तरदायित्व निश्चित किया गया है। उदाहरण के लिए विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच तुलनात्मक डेटा की अनुपलब्धता (पेज 4)। सच कहा जाए तो इस रिपोर्ट ने डेटा सिस्टम के मामले में भारत की कमज़ोरी को उजागर कर दिया है। यह दोनों ही मामलों में देखने को मिलता है, सामान्य मसलों पर भी और किसी विशेष लक्ष्य के मामले में भी (जैसे जलवायु परिवर्तन का मामला)। इस रिपोर्ट से हमें पता चलता है कि समय रहते हुए, विश्वसनीय, लगातार और सबसे ज़रूरी तुलनात्मक डेटा इकट्ठा करने के लिए किस हद तक निवेश करने की ज़रूरत है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो नीति आयोग ने भारत के लिए जो एसडीजी इंडेक्‍स पेश किया है, वो सतत विकास लक्ष्‍य यानी एसडीजी को हासिल करने के भारत के दायित्‍व को पूरा करने की तरफ अच्‍छा कदम है लेकिन भविष्य में होने वाली प्रगति को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाना चाहिए। सरकार ने यह वादा किया है कि वह आगे आने वाली रिपोर्ट्स में इंडिकेटर्स में सुधार करेगी, डेटा कलेक्शन, रिपोर्टिंग की प्रक्रिया को बेहतर बनाएगी और डेटा को अलग-अलग करने की संभावनाओं को तलाशेगी (पेज 1)। इन सभी क्षेत्रों में होने वाली प्रगति पर बहुत सावधानी से नज़र रखने की ज़रूरत है और इस मामले में तरीकों और स्‍पष्‍टता का हमेशा ध्यान रखना होगा।

सरकार को सराहना तब मिलनी चाहिए जब वो आसान लक्ष्‍यों से आगे बढ़कर मुश्किल लक्ष्‍यों को हासिल करे, इन्‍हीं मुश्किल लक्ष्‍यों को हासिल करने से बदलाव आएगा।


मिठू सेनगुप्‍ता कनाडा की रायरसन यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ़ पॉलिटिक्‍स एंड पब्लिक एडमिनिस्‍ट्रेशन में प्रोफ़ेसर हैं। उनके ऐकेडमिक वर्क का फोकस इंटरनेशनल एथिक्‍स और डेवलेपमेंट एथिक्‍स के क्षेत्र में है। उन्‍होंने बड़े पैमाने पर एसडीजी यानी सतत विकास लक्ष्‍य पर काम किया है।

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