27 जून 2020 को कश्मीर के कुपवाड़ा ज़िले में सुरक्षा बलों ने क़रीब 64 करोड़ रुपयों की ड्रग्स का बड़ा ज़खीरा पकड़ा. ड्रग्स के साथ साथ सुरक्षा बलों ने दो पिस्तौल और चार ग्रेनेड भी बरामद किए. ये जम्मू-कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों का साझा अभियान था, जिसके तहत नार्को-टेरर नेटवर्क चलाने वाले दो लोगों को गिरफ़्तार किया गया था. कई दशक से जारी आतंकवाद और संघर्ष के चलते कश्मीर घाटी में ड्रग्स का इस्तेमाल और तस्करी बहुत बढ़ गई है. राज्य के युवा बड़ी संख्या में ड्रग्स की गिरफ़्त में आ रहे हैं. और सबसे ज़्यादा परेशानी की बात तो ये है कि ड्रग्स के शिकंजे में फंसने से कश्मीर घाटी का कोई भी सामाजिक तबक़ा नहीं अछूता है. ख़बरों के अनुसार, कश्मीर के श्रीनगर और अनंतनाग ज़िलों में हर दिन लगभग 3.7 करोड़ रुपए की ड्रग्स बेची जाती हैं. कश्मीर के इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरोसाइंस (IMHANS) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, इन दोनों ज़िलों में ड्रग्स का नशा करने वाले युवाओं की तादाद बढ़ कर 17 हज़ार पहुंच गई है. कश्मीर में नशेबाज़ी को लेकर उपलब्ध सबसे ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, कश्मीर में दिसंबर 2018 तक ड्रग्स लेने वालों की संख्या सत्तर हज़ार से भी ज़्यादा थी. इसमें चार हज़ार से ज़्यादा महिलाएं और कई बच्चे भी शामिल हैं. सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय (MoSJE) द्वारा किए गए एक सर्वे के हिसाब से फ़रवरी 2019 में पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य में छह लाख लोग अफीम से बनी ड्रग्स इस्तेमाल कर रहे थे. ये उस समय के राज्य की कुल आबादी का 4.6 प्रतिशत था. इस सर्वे के मुताबिक़, कश्मीर के 80 प्रतिशत नशेड़ी हेरोइन और मॉरफ़ीन का इस्तेमाल करते हैं.
कश्मीर में नशेबाज़ी को लेकर उपलब्ध सबसे ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, कश्मीर में दिसंबर 2018 तक ड्रग्स लेने वालों की संख्या सत्तर हज़ार से भी ज़्यादा थी. इसमें चार हज़ार से ज़्यादा महिलाएं और कई बच्चे भी शामिल हैं.
कभी कश्मीर घाटी पीरों और पंडितों की पुरसुकून धरती हुआ करता था, जो कश्मीर की ख़ास मिली-जुली संस्कृति की नुमाइंदगी करते थे. लेकिन, आज कश्मीर घाटी के सामाजिक नियम और पारंपरिक रीति रिवाज छिन्न भिन्न हो चुके हैं. लगातार हो रही हिंसा और उसकी वजह से पैदा होने वाले तनाव के चलते कश्मीर घाटी की सामाजिक संरचनाएं बिखर रही हैं. और इसी कारण से सामुदायिक स्तर पर ऐसी बुराइयों की रोकथाम करने वाली सामाजिक व्यवस्थाएं भी धराशायी हो चुकी हैं.
कश्मीर में हथियारबंद आतंकवाद की शुरुआत 1989 से हुई थी. इसमें अब तक हज़ारों आम लोग मारे जा चुके हैं. इनके अलावा बड़ी संख्या में सुरक्षा कर्मियों और आतंकवादियों की भी जान गई है. जो अपने पीछे कश्मीर घाटी में बेवाओं और अनाथ बच्चों को छोड़ गए हैं. लगातार जारी हिंसा, सीमा पार से फैलाए जा रहे आतंकवाद और इससे निपटने के लिए, घाटी में भारी तादाद में सैन्य बलों की तैनाती से घाटी में बड़ी तादाद में सामाजिक ध्रुवीकरण हो रहा है. कश्मीर की सड़कों पर कम-ओ-बेश हर रोज़ हिंसक घटनाएं होती हैं. इसी कारण से कई सदियों से चले आ रहे नैतिक मूल्यों वाली व्यवस्था का पतन हो गया है. घाटी की सांस्कृतिक विरासत छिन्न-भिन्न हो गई है. और इसने, कश्मीर की मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान का ख़ात्मा कर दिया है. इसके नतीजे में जो उथल-पुथल मची है, उससे घाटी की सामाजिक व्यवस्था की बुनियाद हिल गई है. जिसके कारण सामाजिक उठा-पटक हो रही है. हिंसक वारदातों के चलते राज्य के आर्थिक संस्थान भी बेहद कमज़ोर हो गए हैं. इन बातों के कारण, पहले से ही पक्षपात के आरोप झेलने वाली राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा भी टूट गया है. कश्मीर घाटी की विशिष्ट पहचान रही कश्मीरियत वाली संस्कृति, जो कभी कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों को एक साथ जोड़े रखने का काम करती थी. दोनों समुदायों को एक दूसरे के साथ मिलकर अमन से रहने का पैग़ाम देती थी. वो कश्मीरियत वाली संस्कृति भी 1990 में कश्मीरी पंडितों के बड़े पैमाने पर हुए पलायन के साथ ख़त्म हो गई. उसके बाद घाटी में जो मुसलमानों की बहुमत वाली आज़ादी बची, उसे अपनी सामाजिक पूंजी में बड़ा नुक़सान होते हुए देखने को विवश होना पड़ा. आतंकवाद और हिंसा के चलते घाटी के स्कूल कॉलेज भी नियमित रूप से नहीं चलते. बात यहीं तक सीमित नहीं, घाटी में जो पारंपरिक रूप से संवाद की अनौपचारिक परंपरा थी. जिसे कश्मीर की ख़ास जीवन शैली का हिस्सा माना जाता था, उसे भी आतंकवादी घटनाओं से ऐसी क्षति पहुंची है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती.
तीन दशक से भी ज़्यादा वक़्त से जारी हिंसा के चलते कश्मीर घाटी के समाज पर, यहां के बाशिंदों के ऊपर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है. तबाही की बुरी यादें, अपने प्रियजनों की हत्या और हमेशा संगीनों के साये में रहने के ख़ौफ़ ने कश्मीर घाटी की जनता के बीच, डिप्रेशन की समस्या को बहुत व्यापक बना दिया है. अलगाववादियों और आतंकवादियों द्वारा नियमित रूप से हड़ताल का आह्वान करने, और सरकार की ओर से लंबे समय तक कर्फ्यू लगाए जाने के कारण, स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई का नियमित रूप से नुक़सान होता रहा है. इस कारण से बच्चों और युवाओं में चिंता और तनाव बढ़ा है. वो कुछ ज़्यादा ही अवसाद के शिकार हो रहे हैं. इसका एक नतीजा ये भी हो रहा है कि कश्मीर के युवा ड्रग की लत के शिकार बड़ी आसानी से बन जाते हैं.
तीन दशक से भी ज़्यादा वक़्त से जारी हिंसा के चलते कश्मीर घाटी के समाज पर, यहां के बाशिंदों के ऊपर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है. तबाही की बुरी यादें, अपने प्रियजनों की हत्या और हमेशा संगीनों के साये में रहने के ख़ौफ़ ने कश्मीर घाटी की जनता के बीच, डिप्रेशन की समस्या को बहुत व्यापक बना दिया है.
कश्मीर की जनता के बीच बढ़ते तनाव और मनोवैज्ञानिक बीमारियों की सबसे बड़ी वजह तो लंबे समय से चला आ रहा हिंसक संघर्ष और इसके कारण हो रहा नुक़सान है. इसके अलावा, इस समस्या का एक पहलू सीमा पार से भी जुड़ा हुआ है. पिछले कई वर्षों से पाकिस्तान लगातार कश्मीर घाटी के बिगड़ते हालात का फ़ायदा उठाने की कोशिश करता रहा है. इसीलिए, पाकिस्तान की मदद से कश्मीर घाटी में ड्रग्स की तस्करी का बड़ा नेटवर्क संचालित किया जा रहा है. जिसकी मदद से घाटी के युवाओं को नियमित रूप से ड्रग्स की आपूर्ति की जा रही है. 29 जुलाई 2019 को अमृतसर की अटारी सीमा पर कस्टम अधिकारियों ने 2700 करोड़ रुपए की हेरोइन पकड़ी थी. ये हेरोइन कश्मीर घाटी ले जायी जाने वाली थी. एक वक़्त में नियंत्रण रेखा पर उरी सेक्टर से ड्रग्स की तस्करी का बड़ा नेटवर्क संचालित किया जाता था. लेकिन, पुलवामा के आतंकवादी हमले के बाद, भारत ने न सिर्फ़ पाकिस्तान पर पलटवार की कार्रवाई की. बल्कि, सीमा पर चौकसी भी बढ़ा दी. जिसके कारण अब पाकिस्तान अटारी सीमा के रास्ते ड्रग्स की तस्करी करने को मजबूर है. भारत द्वारा 1985 के नारकोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंस एक्ट (NDPS Act) को सख़्ती से लागू न करने का भी पूरा फ़ायदा पाकिस्तान उठा रहा है. क्योंकि, ड्रग्स की तस्करी करने वाले भले ही एनडीपीएस एक्ट के तहत ग़ैर ज़मानती धाराओं में गिरफ़्तार किए जाते हैं. मगर, उन्हें अक्सर पांच से दस दिनों मे छोड़ दिया जाता है.
कश्मीर घाटी में आतंकवादी हिंसा के चलते, सरकार द्वारा जो सामाजिक नियंत्रण वाली व्यवस्था लागू की जाती थी, वो भी बिखर चुकी है. 1989 से लगातार जारी हिंसा के चलते, राज्य का आधुनिक प्रशासनिक हिस्सा आतंकवाद से निपटने और अन्य सुरक्षा संबंधी प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है. इसका नतीजा ये हुआ है कि राह से भटकने वाले जवानों की जो ज़िम्मेदारी राज्य की प्रशासनिक मशीनरी उठा सकती है, वो ऐसा कर पाने में असमर्थ है. कभी कश्मीर घाटी में सामाजिक बुराइयों पर क़ाबू पाने एक पारंपरिक और अनौपचारिक व्यवस्था थी. ये व्यवस्था एक दूसरे पर विश्वास करने पर आधारित थी. इसे गांवों के बड़े बुज़ुर्ग संचालित करते थे और राह से भटकने वाले नौजवानों को समझा-बुझाकर रास्ते पर लाया करते थे. कश्मीरी समाज में ऐसे बुज़ुर्गों का बहुत सम्मान हुआ करता था. लेकिन, हिंसा के चलते आज युवा अपने बुज़ुर्गों की भी सुनने को तैयार नहीं हैं. वो आतंकवादी संगठनों के इशारों पर नाचते हैं.
कश्मीर घाटी में आतंकवादी हिंसा के चलते, सरकार द्वारा जो सामाजिक नियंत्रण वाली व्यवस्था लागू की जाती थी, वो भी बिखर चुकी है. 1989 से लगातार जारी हिंसा के चलते, राज्य का आधुनिक प्रशासनिक हिस्सा आतंकवाद से निपटने और अन्य सुरक्षा संबंधी प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है.
पिछले तीस वर्षों से कश्मीर में आतंकवादी हिंसा के चलते एक तरफ़ सामाजिक ताना-बाना बिखर गया. तो, दूसरी ओर उसकी जगह इस्लामिक धार्मिक विचारधाराओं वाले संगठनों ने ले ली है. जैसे कि जमात-ए-इस्लामी, सलाफी और तब्लीग. डिजिटल मीडिया की आमद के साथ ही कट्टरपंथियों विचारधाराओं के लिए लोगों तक पहुंच बनाना बेहद आसान हो गया. इससे कश्मीर घाटी में कट्टरपंथ और तेज़ी से फैलने लगा. आपस में संघर्ष में उलझी रहने वाली इन विचारधाराओं के अलावा सोशल मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ और कट्टरपंथी विचारों की बाढ़ सी आ गई. जिन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है. इसी कारण से गांव के बड़े बुज़ुर्गों और समुदाय के नेताओं की समझाने बुझाने वाली बातों को तवज्जो देना बंद कर दिया गया. इसका नतीजा ये हुआ है कि आम लोग और ख़ास तौर से युवाओं के बीच पारंपरिक सामाजिक नियम क़ायदों और पहचान की आलोचना लगातार बढ़ रही है. इससे सामाजिक रोक-थाम की पारंपरिक व्यवस्था को और चोट पहुंची है. जिसके चलते युवा बड़ी तादाद में राह से भटक रहे हैं. वो आतंकवादी और कट्टरपंथी संगठनों के प्रभाव में आ रहे हैं. आज कश्मीर के युवा उग्रवाद के हाथों की कठपुतली बन चुके हैं. इसीलिए वो बड़ी मात्रा में ड्रग्स लेने के आदी हो रहे हैं.
पिछले साल जब अगस्त में जम्मू-कश्मीर से संविधान की धारा 370 को हटाया गया था. तो, स्थानीय प्रशासन ने वादा किया था कि वो राज्य के ड्रग माफिया के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करेगा. लेकिन हक़ीक़त इसके बिल्कुल उलट होने का इशारा करती है. आज कश्मीर के बहुत से राजनेता और अलगाववादी ड्रग्स की तस्करी के नेटवर्क में शामिल हैं. उनकी सरपरस्ती का नतीजा ये हुआ है कि आज ड्रग तस्करी करने वाले माफिया बड़े आराम और आत्मविश्वास के साथ कश्मीर घाटी में अपना काला धंधा चला रहे हैं. बल्कि, सच तो ये है कि धारा 370 हटाए जाने के बाद सरकार की ओर से संचार पर लगाई कई बेहद सख़्त पाबंदियों और लॉकडाउन के चलते इंटरनेट सेवाएं ठप हो गई थीं. मोबाइल नेटवर्क भी बंद हो गए. इसके अलावा शिक्षण संस्थाएं भी अनिश्चित काल के लिए बंद हो गईं. इन सबके कारण भी युवाओं की और बड़ी तादाद ड्रग्स की लत की शिकार हो गई. धारा 370 हटाए जाने के बाद, कई महीनों की बोरियत, मनोवैज्ञानिक तनाव, मनोरंजन के साधनों की कमी ने युवाओं के ड्रग्स की लत के शिकार होने के लिए बिल्कुल मुफ़ीद माहौल तैयार कर दिया. जिसके चलते अच्छे खाते-पीते और शिक्षित परिवारों के युवा भी ड्रग्स के आदी बन गए.
डिजिटल मीडिया की आमद के साथ ही कट्टरपंथियों विचारधाराओं के लिए लोगों तक पहुंच बनाना बेहद आसान हो गया. इससे कश्मीर घाटी में कट्टरपंथ और तेज़ी से फैलने लगा. आपस में संघर्ष में उलझी रहने वाली इन विचारधाराओं के अलावा सोशल मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ और कट्टरपंथी विचारों की बाढ़ सी आ गई.
वहीं, स्थानीय लोगों की भावनाओं की पूरी तरह उपेक्षा करते हुए, 20 जून 2020 को आबकारी आयुक्त ने एक अधिसूचना जारी की. इसमें, ‘जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित क्षेत्र में शराब की 187 नई दुकानें खोलने का फ़ैसला किया गया है. जिसमें से शराब की 67 दुकानें कश्मीर घाटी में खोली जानी हैं.’ सरकार द्वारा जारी इस अधिसूचना का कश्मीर के सभी धार्मिक और सामाजिक नेताओं द्वारा कड़ी आलोचना की गई. कश्मीर के ग्रैंड मुफ़्ती नसीर-उल-इस्लाम ने सरकार की शराब की दुकानें खोलने की अधिसूचना को कश्मीर की संस्कृति पर सरकार की ओर से नया हमला बताया गया. इस्लाम ने कहा कि कि इससे कश्मीर का युवा शहादत के रास्ते की ओर और अधिक झुकेगा. जनता के बीच कड़ी आलोचना के एक दिन बाद प्रशासन ने अपने पांव पीछे खींचते हुए कहा कि कश्मीर में शराब की नई दुकानें खोलने के लिए कोई नया लाइसेंस नहीं जारी किया जाएगा. सरकार ने कश्मीरियों से अपील की कि वो, ‘अफ़वाहों और आधी अधूरी ख़बरों पर ध्यान न दे.’
कश्मीर के समाज के सभी तबक़ों, फिर चाहे वो प्रशासन हो, सामाजिक संगठन हों, आम जनता हो, अभिभावक हों या फिर औपचारिक व अनौपचारिक सामाजिक रोकथाम की व्यवस्थाएं और आपस में मुक़ाबला करने वाली धार्मिक विचारधाराएं हों, उन सबको ये सोचना होगा कि लंबे समय से चल रही आतंकवाद की समस्या और हिंसक उग्रवाद से कश्मीर की मिली जुली संस्कृति पर कितना बुरा प्रभाव पड़ा है. इन सभी साझेदारों को मौजूदा हालात को इतिहास के नज़रिए से नहीं देखना चाहिए. बल्कि, उन्हें बेहतर भविष्य के लिहाज़ से हालात का विश्लेषण करना चाहिए. आज जब उग्रवाद और अगलाववाद कमज़ोर हुए हैं, तो ये केंद्र और राज्य स्तर की सरकार के लिए भी अच्छा अवसर है कि वो औपचारिक सामाजिक नियंत्रण को बढ़ावा दे. और साथ ही साथ कश्मीर के गांवों के बुज़ुर्गों की पारंपरिक अनौपचारिक रोक-थाम वाली व्यवस्था को प्रोत्साहित करे. जिससे कि सामुदायिक स्तर पर कश्मीर घाटी को ड्रग की लत, आतंकवाद और निरंतर हिंसक संघर्ष के दुष्प्रभावों से उबारा जा सके. अगर सरकार की ओर से ऐसे क़दम उठाए जाते हैं, तो ये कश्मीरी जनता का विश्वास जीतने के लिए बढ़ाया गया वो क़दम होगा, जिसका लंबे समय से इंतज़ार है. पिछले साल जब कश्मीर से धारा 370 हटाई गई थी, तब सरकार ने कश्मीर के अवाम का भरोसा जीतने की पुरज़ोर कोशिश करने का वादा किया था, जिससे कश्मीर के बेहतर भविष्य की योजना बनाकर उस पर अमल किया जा सके.
अब चूंकि, ड्रग का कारोबार, हथियारबंद आतंकवाद और लंबे समय से चला आ रहा हिंसक संघर्ष एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. तो, कश्मीर के भविष्य से जुड़े सभी वर्गों को एक साथ आकर काम करना होगा. तभी कश्मीर में अमन क़ायम करने का रास्ता सुगम बनाया जा सकेगा.
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