Author : Ramanath Jha

Published on Sep 24, 2018 Updated 0 Hours ago

केंद्र सरकार द्वारा जारी ‘जीवनयापन में आसानी की तालिका’ शीर्ष शहर पुणे में प्रति व्यक्ति ₹18,787 का बजट स्थानीय निकायों के पास है जबकि इस रैंकिंग में नीचे से तीसरे शहर पटना में यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति ₹4,702 है।

जीवनयापन में आसानी के लिए शहरों में मौलिक बदलाव जरूरी

कुछ समय पहले केंद्रीय आवास और शहरी विकास मंत्रालय ने भारत की पहली “जीवनयापन में आसानी की तालिका (ईज ऑफ लीविंग इनडेक्स)” जारी की है। यह “देश के 111 शहरों में जीवनयापन के स्तर के आकलन का प्रयास” था। इसके तहत स्मार्ट सिटी मिशन में शामिल शहरों के अलावा कुछ राज्यों की राजधानियां और दस लाख से अधिक आबादी वाले कुछ शहर शामिल किए गए थे। अंतिम आंकड़ों तक पहुंचने के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमानों के साथ ही सेवा के स्तर संबंधी पैमानों, संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (एसडीजी) और व्यापक विमर्श से सामने आए पैमानों को शामिल किया गया था।

मंत्रालय की ओर से तैयार किए गए अंतिम ढांचे में 78 भौतिक, सांस्थानिक, सामाजिक और आर्थिक पैमानों को शामिल किया गया था। ये इन 15 विभिन्न श्रेणियों में हैं — शासन, पहचान और संस्कृति, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और संरक्षा, अर्थव्यवस्था, सस्ते घर, भूमि उपयोग योजना, सार्वजनिक स्थल, परिवहन और यातायात, सुनिश्चित जल आपूर्ति, गंदे जल का प्रबंधन, ठोस कचरा प्रबंधन, बिजली और पर्यावरण की गुणवत्ता। इसके लिए प्रारंभिक आंकड़े डिपस्टिप सर्वे से जुटाए गए और दूसरे स्तर के आंकड़े शहरी निकायों के जरिए जमा किए गए। इन आंकडों के मिलान के लिए भी व्यापक ढांचा तैयार किया गया था।

इस सर्वे में महाराष्ट्र के पुणे को सबसे पहले पायदान पर रखा गया। नवी मुंबई दूसरे और मुंबई तीसरे स्थान पर रहा। चौथा और पांचवां स्थान तिरुपति और चंडीगढ़ को मिला। इस सूची में उत्तर प्रदेश का रामपुर, नगालैंड की राजधानी कोहिमा, बिहार की राजधानी पटना और दो अन्य शहर बिहारशरीफ और भागलपुर को सबसे नीचे जगह मिली है। महानगरों में चेन्नई 14वें स्थान पर, अहमदाबाद 23वें स्थान पर, हैदराबाद 27वें स्थान पर, बेंगलूरू 58वें स्थान पर और दिल्ली 65वें स्थान पर रहे। कोलकाता को इसमें कोई स्थान नहीं मिला, क्योंकि पश्चिम बंगाल ने इस सर्वे में भाग लेने से ही इंकार कर दिया है।

कुछ विशेषज्ञ आंकड़ों और इसकी गणना की विधि को ले कर भी संतुष्ट नहीं। इनका कहना है कि भारत में नगर पालिकाओं के आंकड़े बहुत सतही होते हैं और कई शहर तो विभिन्न पैमानों पर विश्वसनीय आंकड़ों के लिए अभी संघर्ष ही कर रहे हैं।

इन शहरों में रहने वालों में इस सर्वेक्षण के नतीजों को ले कर मिश्रित प्रतिक्रिया देखी गई है। इसमें भारी हैरानी से ले कर जश्न और शोक तक शामिल हैं। पुणे की जीत को पुणे के रहने वालों ने शहर के काम-काज में अपनी भागीदारी का सकारात्मक प्रभाव माना। कुछ ने इसके लिए मजबूत शैक्षणिक आधार, सांस्कृतिक समृद्धि, खुशनुमा मौसम, औद्योगिक क्षेत्र और कारपोरेट, एनजीओ व कार्यकर्ताओं के बीच आपसी साझेदारी को भी श्रेय दिया है। कुछ मुंबईवासी रैंकिंग को मुंबई की विभिन्न सकारात्मक बातों का नतीजा मानते हैं, जैसे कि पर्याप्त जल आपूर्ति, अबाधित बिजली आपूर्ति, चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था। जबकि कुछ इस बात से हैरान भी हैं कि बदहाल सड़कों और यातायात जैसी समस्याओं के बावजूद मुंबई को शीर्ष तीन में जगह मिल गई। इसके बीच बहुत से लोग यह भी कह रहे हैं, “अगर मुंबई तीसरे पर है तो सोचिए कि बाकी शहरों की बदहाली का क्या आलम होगा।”

इसलिए ऐसा कोई कार्यक्रम शुरू करने से पहले डेटा कल्चर (आंकड़ों की स्वीकार्यता की संस्कृति) तैयार करना होगा। हालांकि इस संबंध में हमें यह ध्यान रखना होगा कि शहरी स्थानीय निकायों की ओर से जमा किए गए आंकड़ों के अतिरिक्त सार्वजनिक दस्तावेजों, शहरों में की गई भौतिक जांच और 60,000 नागरिकों के बीच किए गए सर्वे भी इस गणना में शामिल हैं। इन सबको आधार बना कर ही अंतिम रैंकिंग तैयार की गई है।

सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी, लेकिन शहरों में जीवनयापन की आसानी को ले कर शुरू की गई यह रैंकिंग सही दिशा में उठाया गया अच्छा कदम है। मर्कर और द इकनोमिस्ट की इकनोमिक इंटेलिजेंस यूनिट जैसी बहुत सी एजेंसियां वैश्विक स्तर पर शहरों की रैंकिंग करती रही हैं। जीवन यापन की गुणवत्ता को ले कर अन्य रैंकिंग भी की जाती हैं। भारत में जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, शहरी जीवनयापन को बेहतर करने के प्रयासों को बढ़ाना होगा। शहरों को इस बात को ले कर जागरुक करना होगा कि वे दूसरों के मुकाबले किस स्थिति में हैं। इस तरह की प्रक्रिया शहरों को अपनी समस्याओं को दूर करने का मौका देगी और साथ ही सेवाओं को मुहैया करवाने में बेहतर करने की भी जरूरत महसूस होगी।

यहां, हमें भारतीय शहरों की रेटिंग को ले कर पहले किए जा चुके प्रयासों के बारे में भी चर्चा करनी चाहिए। इनमें से एक पिछले दशक के दौरान क्रिसिल की ओर से शुरू किया गया था, जो भारत की शीर्ष रेटिंग एजेंसी है। ये वार्षिक रेटिंग कई साल तक चली। लेकिन जल्दी ही एक बात सामने आई कि हर साल लगभग वही-वही शहर पुरस्कारों के लिए चुने जाते रहे। यह बहुत छोटा समूह था और इसमें पश्चिम और दक्षिण भारत के कुछ शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी) ही हावी रहते थे। मानकों को बदलने या घटाने के प्रयासों के बावजूद दूसरे शहर इस चुनिंदा यूएलबी के समूह में शामिल नहीं हो पाए।

स्पष्ट तौर पर भारतीय नगरों के नियोजन में आधारभूत कमजोरियां हैं और अगर हमें शहरों को बेहतर बनाना है तो इनको दूर करना होगा। ये मुख्य रूप से शासन और वित्त से जुड़ी हैं।

भारत सरकार की ओर से किए गए इस ताजा सर्वेक्षण के विश्लेषण से भी पता चलता है कि इस स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है। जीवनयापन की आसानी के इस सर्वे में शीर्ष 25 स्थान पर रहे शहरों को अगर देखें तो इनमें पश्चिम और दक्षिण के ही राज्य हावी हैं। 16 शहर भारत के पश्चिमी राज्यों (महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) से हैं और 7 दक्षिण (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना) से हैं। भुवनेश्वर और चंडीगढ़ ही इसमें अपवाद हैं।

दूसरी तरफ, अगर हम रैंकिंग के सबसे निचले पायदान पर मौजूद 25 शहरों को लें तो आठ उत्तर-पूर्व (नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, सिक्किम, त्रिपुरा और असम) के हैं, आठ उत्तर (उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा) के हैं और पांच पूर्व (बिहार और ओडिशा) के हैं। यह एक स्पष्ट विभाजन को प्रदर्शित करता है। कुछ अपवादों को छोड़ कर यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारतीय शहर आम तौर पर खराब स्थिति में हैं और वैश्विक मानकों पर खरे नहीं उतरते। उत्तर-पूर्व, पूर्व और उत्तर के शहर भारत के दूसरे शहरों के मुकाबले सबसे बुरी स्थिति में हैं।

जहां इसका प्रभाव हर भारतीय शहरों पर पड़ रहा है, लेकिन सभी पर इसका प्रभाव एक समान नहीं है। पश्चिम के शहरी स्थानीय निकाय अपेक्षाकृत काम-काज के लिहाज से राज्य सरकारों से ज्यादा स्वायत्त हैं। जहां सभी भारतीय शहर गंभीर वित्तीय संकट से गुजर रहे हैं, लेकिन पश्चिम और दक्षिण के निकाय अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। उदाहरण के तौर पर, शीर्ष शहर पुणे जिसकी आबादी 31.2 लाख (2011 की जनगणना) है, उसका बजट 5,870 करोड़ (2018-19) है, जिसका मतलब है कि प्रति व्यक्ति इसके पास ₹18,787 का बजट है। पटना जो इस रैंकिंग में नीचे से तीसरा शहर है और जिसकी आबादी 16.8 लाख है (2011 की जनगणना), उसका बजट (2018-19) ₹792 करोड़ का है। यानी इसके पास प्रति व्यक्ति ₹4,702 उपलब्ध हैं। यह पुणे के मुकाबले एक चौथाई होता है, मुंबई के मुकाबले पांचवां हिस्सा और नवी मुंबई के मुकाबले छठा हिस्सा। उत्तर- पूर्व के शहरों के पास तो राजस्व का जैसे अकाल है। बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तर-पूर्व के शहर एक तो ग्रामीण राज्यों के हैं और दूसरा इनकी राजनीतिक रूप से अहमियत भी कम है। इन राज्यों से बड़ी संख्या में आबादी पश्चिम और दक्षिण के शहरों और दिल्ली की ओर पलायन कर चुकी है, जिसकी वजह से इन शहरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसलिए यह देश के हित में होगा और शहरीकरण की प्रक्रिया को संतुलित भी रख सकेगा, अगर हम उत्तर, पूर्व और उत्तर-पूर्व के शहरों को खास तौर पर बेहतर बना सकें। इससे वे बड़ी आबादी को वहां थाम सकेंगे।

यह सच है कि ऐसे संवाद से नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा मिलेगा और इसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे शासन में सुधार होगा। लेकिन शहरी स्थानीय निकायों की मूलभूत समस्याओं को दूर करने में यह अपने आप में काफी नहीं होगा।

‘जीवनयापन में आसानी की तालिका’ 2018 के घोषित लक्ष्यों में से एक है, “नागरिकों को अपने शहरों के प्रदर्शन के बारे में उपयोगी और व्यवहारिक सूचना उपलब्ध करवाना।” उम्मीद की जाती है कि यह सूचना “नागरिकों को अपने शहर में ‘जीवनयापन’ की स्थिति’ को ले कर समझने और अपने इलाके के दूसरे शहरों से उसकी तुलना करने में मदद करेगी। यह नागरिकों और निर्णय करने वालों के बीच उन मुद्दों को ले कर संवाद का आधार बन सकता है जिन पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।”

इन निकायों को शासन और वित्तीय संसाधनों की संजीवनी की तुरंत जरूरत है। यह संजीवनी भारत सरकार और राज्य सरकारों के पास है और अगर उन्होंने यह उपलब्ध नहीं करवाई, तो हो सकता है कि हम हर साल इस तरह की रैंकिंग करते रहें और आखिरकार कोई नया शहर शीर्ष स्थान पर आने में नाकाम रहे और किसी शहर के अंक में कोई खास बढ़ोतरी भी नहीं हो सके।

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