Author : Rasheed Kidwai

Published on Jul 27, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत के पहला आम चुनाव में 2,24,000 मतदान केन्द्र बनाये गये थे यानि हर एक हजार उम्मीदवार पर एक। करीब 620,000,000 मतपत्र छापे गये थे।

पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने तय की थी भारत के चुनावों की रूपरेखा

1951 जब मतदाता सूची तैयार हो रही थी तो सुकुमार सेन और उनकी टीम के समक्ष ये खुलासा हुआ कि ऐसी महिला मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है।

अगले साल तय आम चुनावों के लिए उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और ऐसे मौके पर उस शख्स को याद करना बिल्कुल समयानुकूल है जो देश के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे और जिन्होंने 1951-52 में आजाद भारत का पहला आम चुनाव संचालित कराया था। ये शख्स थे सुकुमार सेन जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईसीएस) के अधिकारी थे।

सेन का जन्म 1899 में हुआ था और वे 1921 में आईसीएस के लिए चुने गये। वर्ष 1947-1950 के बीच बंगाल के मुख्य सचिव का दायित्व निभाने के पहले सेन ने जज के रूप में भी काम किया था। सेन को मार्च 1950, में आजाद भारत का पहला निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया गया था। पहले आम चुनाव के दौरान 1951 में उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के तहत विशाल चुनावी अभियान में महिलाओं को शामिल करना। जब मतदाता सूची तैयार हो रही थी तो सेन और उनकी टीम के समक्ष ये खुलासा हुआ कि ऐसी महिला मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है जिनके अपने नाम नहीं थे और पुरूषों के साथ के रिश्तों के आधार पर उनकी पहचान थी (उदाहरण के लिए ए की मां, बी की पत्नी या सी की बेटी)।

इसकी बड़ी वजह थी उत्तर और मध्य भारत के कई राज्यों में व्याप्त रीति रिवाज जिसमें महिलाएं किसी बाहरी व्यक्ति को अपना नाम नहीं बताती थीं। सेन ने तत्काल देश भर में मतदाता गणना कार्य में लगे कर्मचारियों को ये संदेश भेजा कि वे मतदाता सूची में सही नाम दर्ज करने पर पूरा जोर लगायें। इसी क्रम में ये भी निर्देश जारी किये गये कि जो महिला अपना सही नाम बताने से इंकार करती है उनका नाम मतदाता के रूप में दर्ज नहीं किया जाये और जिन महिलाओं का बगैर नाम के पंजीकरण हो चुका है उनकी प्रविष्टियों को हटा दिया जाये। इस फरमान का दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष ये सामने आया कि देश की करीब आठ करोड़ महिला मतदाताओं में से अमूमन 28 लाख महिलाएं अपना नाम बताने में विफल रहीं और इन्हें वोट डालने का मौका नहीं मिल पाया। इनमें बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा थी।

एक विशाल देश के हर इलाके में घर घर जाकर सर्वेक्षण करना और हर मतदाता का नाम मतदाता सूची में दर्ज करना व्यावहारिक तौर पर एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। मतदाताओं में से 70 फीसदी से भी ज्यादा मतदाता पढ़ लिख नहीं सकते थे इसलिए उम्मीदवारों की पहचान चुनाव चिन्हों के जरिये करने की व्यवस्था की गयी थी जो राजनीतिक दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को आबंटित किये गये थे। मतपेटियों पर ये चुनाव चिन्ह विभिन्न रंगों से बनाये जाते थे (बाद में मत पत्रों पर चुनाव चिन्ह प्रकाशित करने की व्यवस्था शुरू हुई)।

मतदाताओं को अपना मतपत्र किसी खास उम्मीदवार के लिए निर्धारित बॉक्स में डालना होता था और ये प्रक्रिया गोपनीय थी। उस दौरान देश भर में 2,24,000 मतदान केन्द्र बनाये गये थे यानि हर एक हजार उम्मीदवार पर एक। करीब 620,000,000 मतपत्र छापे गये थे। 25 अक्टूबर 1951 से लेकर 27 मार्च 1952 तक करीब चार महीने तक चले पहले आम चुनाव में करीब दस लाख अधिकारियों को लगाया गया था। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के तहत करीब 17 करोड़ तीस लाख पुरूषों एवं महिलाओं द्वारा मताधिकार का उपयोग विश्व का एक अनोखा प्रयोग था। इन मतदाताओं में से ज्यादातर गरीब और निरक्षर थे। पहले आम चुनाव में 45.7 फीसदी वोट पड़े थे। चुनाव में 53 राजनीतिक दलों के 1874 उम्मीदवारों ने अपनी दावेदारी पेश की थी। देश भर में 2,24,000 मतदान केन्द्रों में 56,000 पीठासीन अधिकारियों को लगाया गया था। निर्वाचन क्षेत्रों में निर्वाचन सूची तैयार करने और आंकड़े जुटाने में 16,500 क्लर्कों को संविदा के आधार पर नियुक्ति दी गयी थी।


भारत के पहले आम चुनावों को लेकर विदेश में काफी उत्सुकता थी। नेपाल और इंडोनेशिया सहित कई देशों ने भारत में चुनाव प्रक्रिया का गवाह बनने के लिए अपने आधिकारिक दल भेजे थे। सूडान ने भी सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के तहत आम चुनाव कराने के लिए श्री सेन की सेवाएं मांगी थीं। वहां 1953 में आम चुनाव हुए थे।


लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने श्री सेन के बारे सही लिखा है “वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने चुनाव को संभव बनाया और वे भारतीय लोकतंत्र के गुमनाम हीरो थे। ये बहुत दुखद है कि हम श्री सुकुमार सेन के बारे में बहुत कम जानते हैं। वो अपना कोई संस्मरण नहीं छोड़ गये हैं और ऐसा लगता है कोई दस्तावेज भी नहीं।” पत्रकार और लेखक विकास लाथर के अनुसार, बंगाल के बर्दवान जिले में एक सड़क श्री सेन के नाम पर है। श्री लाथर ने कहा कि श्री सेन एक चिंतक भी थे जिन्होंने ये दलील दी थी कि प्राचीन भारत के कई भागों में सरकार का गणराज्य स्वरूप अस्तित्व में था।

कई अन्य लोग ऐसे भी थे जिन्होंने श्री सेन को सक्रिय सहयोग दिया था। युवा उद्योगपति पिरोजशाह गोदरेज ने प्रति उम्मीदवार एक मतपेटी यानि कुल दो करोड़ दस लाख से ज्यादा स्टील की मतपेटियां तैयार करके इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। श्री गोदरेज ने बम्बई के उपनगरीय इलाके विक्रोली में एक गांव लीज पर लिया था जहां 2,33,000 वर्ग फीट इलाके में छत डाल कर ये मतपेटियां बनवाई गयीं थीं। इस कारखाने में प्रति दिन 15,000 मतपेटियां तैयार होती थीं।

भारत में पहले आम चुनाव के बाद से चुनाव प्रक्रिया में उल्लेखनीय बदलाव आया है। पहले आम चुनाव में हर मतदान केन्द्र पर उतनी मतपेटियों की व्यवस्था की गयी थी जितने उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। इन मतपेटियों पर या तो उम्मीदवार के नाम, उनकी पार्टी और उनके चुनाव चिन्ह छपे कागज चिपका दिये जाते थे या मतपेटियों पर रंगों का इस्तेमाल करके हाथ से सूचनाएं अंकित की जाती थीं। मतदाता अपना वोट अपनी पसंद के उम्मीदवार को उसके लिए निर्धारित मतपेटी में डालता था। इस प्रक्रिया का पालन 1957 में दूसरे आम चुनावों में भी हुआ। मतपत्रों पर चिन्ह लगाकर वोट डालने की प्रक्रिया 1962 में तीसरे लोकसभा चुनावों से शुरू हुई।

अब एक मतपेटी का इस्तेमाल होने लगा और बहु मतपेटी व्यवस्था खत्म हो गयी। मतदाता पीठासीन अधिकारी से मतपत्र लेने के बाद कमरे में एक ओर घेर कर बनाये गये एकांत हिस्से में जाता था जहां टेबल में x चिन्ह वाला एक स्टांप और एक स्टांप पैड रखा होता था। मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवार के नाम के आगे स्टांप से चिन्ह लगाने के बाद मतपत्र को मतपेटी में डाल देता था। कोई भी मतदाता किसी दूसरे मतदाता के नाम पर दोबारा वोट नहीं डाल पाये इसके लिए पहले आम चुनावों के समय से ही ना मिटने वाली स्याही के उपयोग की व्यवस्था लागू की गयी थी।


जब 1951-52 में चुनाव हुए उस समय देश का नया संविधान अस्तित्व में आ चुका था। इस संविधान में एक स्वतंत्र चुनाव आयोग का प्रावधान था। स्वतंत्र होने से मतलब था कि निर्वाचन निकाय कार्यपालिका, संसद या सत्ताधारी दल से स्वतंत्र होगा।


भारत के बहु धार्मिक, जातिवाद से ग्रसित, निरक्षर और पिछड़े समाज के मतदाता कितनी राजनीतिक परिपक्वता दिखा पायेंगे, उस समय इस पर संदेह करने वालों की कोई कमी नहीं थी। भारत के पहले आम चुनाव को पश्चिमी मीडिया ने ‘अंधेरे में एक छलांग’, ‘शानदार’ और ‘भरोसे की कार्यवाही’ माना था।

ब्रितानी शासनकाल में 1937, 1942 और 1946 में हुए चुनाव, सीमीत मताधिकार वाले मतदान थे क्योंकि उसमें लोगों को संपत्ति, कर भुगतान की क्षमता के आधार पर वोट डालने का अधिकार मिला था। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे इंडियन नेशनल कांग्रेस ने बहुत पहले 1928 में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार उसका लक्ष्य है और देश को ये हर हाल में मिलना चाहिए। भारत के संविधान के सिद्धांतों की रूपरेखा तैयार करने वाली पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता वाली समिति ने वयस्क मताधिकार के पक्ष और विपक्ष की विभिन्न दलीलों पर सावधानी पूर्वक विचार करने के बाद इसका अनुमोदन किया था।

वयस्क मताधिकार के खिलाफ दो मुख्य तर्क दिये गये थे। पहला तर्क चुनाव कार्य की व्यापकता से संबंधित था। यह दलील दी गयी थी कि वयस्क मताधिकार के दायरे में मतदाताओं की तादाद इतनी ज्यादा हो जायेगी कि नयी सरकार के लिए इतने बड़े पैमाने पर चुनाव कार्य को संचालित करना बेहद कठिन होगा। वयस्क मताधिकार के खिलाफ दूसरा तर्क मतदाताओं की निरक्षरता से संबंधित था। उस समय इस बात का भय था कि 70 फीसदी निरक्षरता वाले देश में चुनाव एक तमाशा बन जायेगा अगर ऐसी चुनावी प्रणाली विकसित नहीं की जाती जिसमें एक निरक्षर मतदाता भी बुद्धमानी से गोपनीयता बरकरार रखते हुए अपना वोट डाल सके।

देश का संविधान रचने वाली भारत की संविधान सभा ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर गहनता से विचार विमर्श किया था। संविधान सभा ने प्रक्रियागत कठिनाइयों को संज्ञान में लेने के बावजूद बगैर किसी संकोच के वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को स्वीकार किया था। लोकसभा का पहला आमचुनाव और 18 राज्य विधानसभाओं के चुनाव संचालित करने वाले श्री सेन के मुताबिक मतदान का अधिकार एक को और सभी को प्रदान करना भरोसे की कार्यवाही थी। श्री सेन ने पहले आम चुनावों पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट में कहा “ये भरोसा था भारत के आम आदमी में और उसके व्यावहारिक सामान्य ज्ञान में। इस फैसले ने एक बड़ा और सौभाग्यशाली प्रयोग शुरू किया जो अपनी विलक्षणता और जटिलता के मामले में बेजोड़ था।”

उस समय 14 राष्ट्रीय और 63 क्षेत्रीय या स्थानीय पार्टियों के साथ साथ बड़ी तादाद में निर्दलीय उम्मीदवारों ने लोकसभा की 489 सीटों और राज्य विधानसभाओं की 3283 सीटों के लिए चुनाव लड़ा था। अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवारों के लिए लोकसभा चुनाव में 98 और विधानसभा चुनावों में 669 सीटें आरक्षित की गयी थीं।। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के लिए करीब 17,500 उम्मीदवार मैदान में थे। मजेदार बात ये थी कि देश भर के तीन हजार थियेटरों ने एक डॉक्यूमेंटरी दिखाई थी जिसमें मताधिकार के बारे में और मतदाताओं के कर्तव्यों के बारे में जानकारी दी गयी थी।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.