Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

पिछले साल अगस्त महीने में EOS-3 का प्रक्षेपण विफल रहा था. नये साल की पहली तिमाही में इसी सीरीज के नये सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजने की तैयार की जा रही है. आख़िर इस तरह के सैटेलाइट सेना के लिए इतने ज़रूरी क्यों हैं?

भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए क्यों बेहद ज़रूरी है #Earth Observation Satellites
भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए क्यों बेहद ज़रूरी है #Earth Observation Satellites

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) अगस्त 2021 में अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट (EOS-3) को जियो ट्रांसफर ऑर्बिट (GTO) में पहुंचाने में विफल हो गया था. जियोसिंक्रोनस लांच व्हीकल यानी जीएसएलवी (GLSV) के क्रायोजेनिक ऊपरी चरण की विफलता के कारण ऐसा हुआ. इस सैटेलाइट की आख़िरी कक्षीय (orbital) मंज़िल जियोस्टेशनरी ऑर्बिट (GEO) थी. GLSV के क्रायोजेनिक चरण के प्रदर्शन का उतार-चढ़ाव भरा इतिहास देखते हुए अगर इस मिशन की विफलता को दरकिनार कर दें, तो EOS-3 को एक महत्वपूर्ण अर्थ ऑब्जरवेशन मिशन (earth observation mission) पूरा करना था. इसरो ने EOS-3 के पेलोड्स के बारे में कोई ब्योरा तो जारी नहीं किया, पर कोई हैरत नहीं होती अगर एजेंसी ने अंतरिक्ष में इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल क्षमताओं को स्थापित कर दिया होता, जो भारतीय सशस्त्र बलों की ज़रूरतों को पूरा करतीं. इस सैटेलाइट के 10 साल तक सेवा में रहने या काम करते रहने की उम्मीद थी.

भारतीय सेना को इन अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट्स की ज़रूरत इसलिए है कि चीन के पास ऐसे कई सैटेलाइट हैं. चीन गाओफेन (Gaofen) सीरीज़ को संचालित करता है, जो अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट्स का पूरा उपग्रह-समूह है. 

अतीत में, इसरो ने अपने ‘भरोसेमंद साथी’ पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल यानी पीएसएलवी (PSLV) और उसके विभिन्न प्रारूपों का इस्तेमाल कर कई अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट (EOS) सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किये हैं. अगर EOS-3 सफल रहा होता, तो यह सशस्त्र सेवाओं की इमेज संबंधी (ज़मीन के चित्र की) ज़रूरतों को पूरा करने में एक अहम भूमिका निभाता. इसकी विफलता न सिर्फ़ इसरो के लिए, बल्कि भारतीय सेना के लिए भी झटका है, क्योंकि चीन के ख़िलाफ़ भारतीय थलसेना (IA) और भारतीय वायुसेना (IAF) जिन अभियानगत चुनौतियों का सामना कर रही हैं उसे देखते हुए उन्हें इसकी ज़रूरत थी. चीन की अर्थ ऑब्जरवेशन (धरती पर नज़र रखने की) क्षमताओं की एक झलक पाठकों को यह समझाने के लिए काफ़ी होगी कि इस तरह के सैटेलाइट इतने अहम निवेश क्यों हैं.

भारतीय सेना को इन अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट्स की ज़रूरत इसलिए है कि चीन के पास ऐसे कई सैटेलाइट हैं. चीन गाओफेन (Gaofen) सीरीज़ को संचालित करता है, जो अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट्स का पूरा उपग्रह-समूह है. इमेजरी इंटेलीजेंस (IMINT), तस्वीरों के ज़रिये दुश्मन के इलाके की टोह लेने (photo reconnaissance), सिंथेटिक अपर्चर रडार (SAR), और इलेक्ट्रो ऑप्टिकल फंक्शन्स के लिए अर्थ ऑब्जरवेशन (ईओ) सैटेलाइट बेहद अहम हैं. ईओ गाओफेन सैटेलाइट कम-से-कम धारणात्मक रूप से चीन के हाई-रेजोल्यूशन अर्थ ऑब्जरवेशन सिस्टम (CHEOS) का हिस्सा हैं. CHEOS ऐसे कई काम करता है, जिससे भूमि सर्वेक्षण, शहरी योजना (urban planning), आपदा राहत, रोड नेटवर्क के डिजाइन और कृषि जैसे विभिन्न मामलों में मदद मिलती है. CHEOS के नागरिक उपयोग और उद्देश्यों के बावजूद, गाओफ़ेन सीरीज़ के साथ ऐसे पेलोड, उपकरण और प्लेटफार्म संबद्ध हैं जिनका इस्तेमाल निश्चित रूप से सैन्य टोही अभियानों के लिए हो सकता है. चीन ने गाओफेन-13 सैटेलाइट अक्टूबर 2020 में लांच किया था, जो जियोस्टेशनरी ऑर्बिट (GEO) में काम करता है. इस सैटेलाइट के बारे में बहुत कम जानकारी है, क्योंकि चीन ने इसके पेलोड्स और उपकरणों के बारे में बहुत कम बातें उजागर की हैं. इससे पहले इसी ऑर्बिट में चीन ने अपना पिछला सैटेलाइट गाओफेन-4 साल 2004 में प्रक्षेपित किया था. हालांकि, चीन ने इसी सीरीज के गाओफेन-11 जैसे दूसरे सैटेलाइट्स के ब्योरे के बारे में मुंह नहीं खोला है. गाओफेन सैटेलाइट इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट माने जाते हैं, जो सैन्य टोह के लिहाज़ से अहम हैं. निश्चित रूप से चीन ने भी अपने रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट कार्यक्रम के अंग के रूप में कुछ झटके झेले हैं, उदाहरण के लिए, सितंबर 2020 में जिलिन या गाओफेन-02सी ऑप्टिकल अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट का विफल परीक्षण. माना जाता है कि इस सैटेलाइट में 40 किलोमीटर चौड़ी पट्टी को कवर करते हुए 0.76 मीटर का रेजोल्यूशन था. इसे Sun Synchronous Orbit (SSO) या Low Earth Orbit (LEO) में रखा जाना था.

 गाओफेन सैटेलाइट इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट माने जाते हैं, जो सैन्य टोह के लिहाज़ से अहम हैं. निश्चित रूप से चीन ने भी अपने रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट कार्यक्रम के अंग के रूप में कुछ झटके झेले हैं

दुश्मन देश के हलचल से सतर्क रहने की क़वायद

इन विफलताओं को परे रखते हुए, गाओफेन सीरीज़ जैसे रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स के बहुत से फ़ायदे हैं. पहला, रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट दुश्मन द्वारा चलायी जा रही सैन्य गतिविधियों के स्थान और संभावनाओं के बारे में इमेजिंग डाटा मुहैया करा सकते हैं. दूसरा, हमले के बाद दुश्मन के नुक़सान का आकलन करने के लिए भी ये बेहद अहम हैं. यह आकलन भविष्य में दुश्मन के ठिकानों पर हमलों को ज्य़ादा सटीक बनाने में सक्षम बनाता है और इसका अवसर प्रदान करता है. धरती की सतह की तस्वीरें हासिल करने के लिए केवल ड्रोन और टोही विमानों पर निर्भर रहने के अपने नुक़सान हैं. अगर चीन या यहां तक कि पाकिस्तान में सैन्य स्थापनाओं (installations) और सुविधाओं के ऊपर टोही अभियान चलाया जाता है, तो ड्रोन या टोही विमान मार गिराये जा सकते हैं. इसके अलावा, किसी दुश्मन के सैनिकों की हलचल नज़र में आने से बच सकती है, जैसा कि 2020 में चीन के लद्दाख में घुस आने के मामले में हुआ. यह मुख्यत: इसलिए पकड़ में नहीं आ सका, क्योंकि अर्थ ऑब्ज़रवेशन सैटेलाइट जैसे या दूसरी तरह के भी रिमोट सेंसिंग स्पेसक्राफ्ट पर्याप्त संख्या में नहीं थे. इस वजह से, EOS-3 और गाओफेन-13 जैसे सैटेलाइट सेना की इमेजिंग और टोही ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. हालांकि, निचली कक्षाओं (lower orbits) के सैटेलाइट भी रिमोट सेंसिंग के लिए आवश्यक हैं, लेकिन जैसा कि हम आगे पढ़ेंगे, उनकी सीमाएं हैं.

इंडियन रिमोट सेंसिंग (IRS) सैटेलाइट समूह दुनिया के सबसे बड़े नागरिक रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट समूहों (constellations) में से एक है. लेकिन चीन में लद्दाख के घुस आने ने साफ़ तौर पर साबित कर दिया है कि और ज्यादा रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स के विकास और प्रक्षेपण की ज़रूरत है. इसरो द्वारा प्रक्षेपित कुछ दूसरे सैटेलाइट्स, जैसे कार्टोसैट (CARTOSAT) सीरीज़, सिर्फ़ सैन्य उपयोग के लिए हैं. इसके अलावा, रिसैट (RISAT) सीरीज के स्पेसक्राफ्ट, जो रडार इमेजिंग से लैस टोही सैटेलाइट हैं, ने भी भारत की रिमोट सेंसिंग ज़रूरतों को पूरा करने में मदद की है. इसरो ने बीते सालों में भी EOS सीरीज के हिस्से के रूप में रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट प्रक्षेपित किये हैं. उदाहरण के लिए, EOS-1, जिसे Low Earth Orbit (LEO) में पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (PSLV) द्वारा प्रक्षेपित किया गया था. इसके बारे में इसरो ने सार्वजनिक तौर ऐलान किया था कि यह वानिकी (forestry), कृषि, और आपदा प्रबंधन से जुड़े काम पूरे करने के लिए है. यह ब्योरा उससे ज्यादा अलग नहीं है जो चीन ने गाओफेन सैटेलाइट्स के इस्तेमाल के पीछे का असल मक़सद छिपाने के लिए किया है.

इंडियन रिमोट सेंसिंग (IRS) सैटेलाइट समूह दुनिया के सबसे बड़े नागरिक रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट समूहों (constellations) में से एक है. लेकिन चीन में लद्दाख के घुस आने ने साफ़ तौर पर साबित कर दिया है कि और ज्यादा रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स के विकास और प्रक्षेपण की ज़रूरत है. 

हालांकि, रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स के प्रक्षेपण और संचालन में ‘कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ने वाला’ हिसाब भी है और इसे EOS-3 की विफलता के संदर्भ में हमें ज़रूर देखना चाहिए. आइए, इसे समझते हैं. इसमें टेम्पोरल रिजोल्यूशन (धरती की किसी एक जगह का डाटा सैटेलाइट को दोबारा लेने में लगने वाला समय) के रूप में समय से जुड़ी कमजोरियां हैं, जिन्हें स्पेशियल रिज़ोल्यूशन (यह ज़मीन पर एक पिक्सल का आकार बताता है, जिससे तय होता है कि कितनी छोटी चीज़ की तस्वीर ली जा सकती है) के रूप में टारगेट रिजोल्यूशन की कमजोरियों द्वारा और बढ़ा दिया जाता है. स्पेसक्राफ्ट जितनी ज्यादा ऊंचाई पर होगा, टेम्पोरल रिज़ोल्यूशन और साथ ही सैटेलाइट का जीवन उतना ही ज्यादा होगा. लेकिन इसके साथ ही उतनी ही ज्यादा मांग शक्तिशाली स्पेशियल रिजोल्यूशन की होती है. इस वास्ते टारगेट एरिया का इमेज लेने के लिए स्पेसक्राफ्ट को ज्यादा शार्प ऑप्टिकल पेलोड्स (optical payloads) की ज़रूरत होती है. इनमें से कुछ समस्याएं कई छोटे सैटेलाइट्स निचले कक्षीय समतलों (low orbital planes) में प्रक्षेपित करके दूर की जा सकती हैं, लेकिन यह एक सीमा तक ही संभव है. कम ऊंचाई पर स्थित सैटेलाइट्स उच्च वातावरणीय खिंचाव के ख़तरे में रहते हैं, जिससे स्पेसक्राफ्ट का कक्षीय जीवन घट जाता है. इसलिए, EOS-3 जैसे खर्चीले इमेजिंग सैटेलाइट्स आवश्यक होते हैं, जो टिकाऊ साबित होते हैं.

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