Published on Jun 07, 2017 Updated 0 Hours ago

जीएसटी की सफलता मापने का आधार हो सकते हैं — खपत, उत्पादन, महंगाई का दबाव, अनुपालन और कर राजस्व में उछाल।

जीएसटी की सफलता-विफलता आंकने में चूक न करें

श्रीनगर में जीएसटी परिषद की बैठक में वित्त मंत्री जेटली।

स्रोत: अरुण जेटली/ट्विटर

जिस तरह से विमुद्रीकरण (नोटबंदी) की सफलता या विफलता का आकलन केवल सुनी-सुनाई बातों या किसी किस्‍से के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, ठीक उसी तरह से जीएसटी (वस्‍तु एवं सेवा कर) के वास्तविक असर का आकलन नीति नियामकों की लक्ष्य निर्धारण प्रथा के आधार पर नहीं, बल्कि वास्तविक आंकड़ों और अनुभवजन्य अवलोकनों के आधार पर किया जाएगा। इसके असर लगभग छह से आठ तिमाहियों में नजर आने लगेंगे। हालांकि, जीएसटी को लागू करने से पहले ही हमारे पास इसका सफलता को आंकने का एक पैमाना है और वह है ‘राजनीति’। संघवाद के क्षेत्र में जीएसटी परिषद के माध्‍यम से ‘श्रीनगर में आम सहमति’ का माहौल बना और इसके साथ ही केंद्र एवं राज्यों के संयुक्‍त प्रयासों से इस परिवर्तनकारी कर प्रणाली का मार्ग प्रशस्‍त हो गया। यही नहीं, इसके तहत आर्थिक विकास पर दांव लगाया गया। यह भारत में लोकतांत्रिक नीति निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर है।

भले ही हम फि‍लहाल इसकी सफलता के मजबूत एवं समेकित होने और इसकी विफलता की स्थिति में आवश्‍यक संशोधन किए जाने का इंतजार कर रहे हों, लेकिन हमें अवश्‍य ही इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि कराधान के प्रति इस दृष्टिकोण का मूल्यांकन हम कैसे करें? हमें उत्‍साहवर्धक एवं निराशाजनक परिदृश्यों और पूर्वानुमानों से अलग हटकर सोचने की जरूरत है। आशावादी विश्‍लेषक जीएसटी को एक ऐसे ‘सरल समाधान’ के रूप में देख रहे हैं जो गरीबी से लेकर विकास तक और महंगाई से लेकर बिजनेस करने तक से जुड़ी समस्‍त घरेलू आर्थिक समस्याओं से निजात दिला सकता है। वहीं, दूसरी ओर निराशावादी विश्‍लेषकों का कहना है कि जीएसटी पर बहुत सारे उद्देश्यों की पूर्ति का बोझ डाला जा रहा है और ऐसे में इस कर प्रणाली के अंतर्गत कोई जवाबदेही नहीं होगी। हालांकि, सच्‍चाई इन दोनों के बीच कहीं अवस्थित है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जीएसटी को लागू करने के बाद हमें इसका मूल्यांकन किस तरह से करना चाहिए? दरअसल, ऐसी पांच खिड़कियां (विंडो) हैं जिनके जरिए झांक कर हम इस प्रक्रिया पर अपनी करीबी निगाह रख सकते हैं और भरोसेमंद निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं जो ये हैं : खपत, उत्पादन, महंगाई का दबाव, अनुपालन और कर राजस्‍व में उछाल।

पहला, खपत। टैक्‍स दरों का असर अर्थव्यवस्था में कुल खपत या उपभोग पर पड़ता है और इसके घटकों यथा परिवारों, कंपनियों एवं सरकारों के साथ-साथ निर्यात के जरिये शेष दुनिया को भी कोई और आर्थिक विकल्प चुनने के लिए प्रेरित करता है। बाकी सब एक जैसे हों, तो वैसी स्थिति में किसी वस्तु पर जीएसटी की ऊंची दर उपभोक्ताओं को कम टैक्‍स दर वाले अन्‍य विकल्पों को चुनने के लिए प्रेरित करती है अथवा इसकी गैर-खपत को हाशिये पर ले जाती है। सभी निर्णय तर्कसंगत नहीं होते हैं और इस बात पर भरोसा करने के लिए नवशास्त्रीय अर्थशास्त्री हमसे बेशक कहेंगे। हालांकि, कुल मिलाकर यह दलील बिल्‍कुल सही है कि कीमतें कम रहने पर खपत बढ़ जाती है और कीमतें ज्‍यादा रहने पर खपत घट जाती है। अतीत में मौद्रिक नीति के मामले में हम ऐसा देख चुके हैं। दरअसल, इसके तहत जब ब्याज दरें बढ़ाई गई थीं, तो खपत घट गई थी और फि‍र इसके जरिए महंगाई दर भी घट गई थी। राजकोषीय मोर्चे पर जीएसटी विभिन्‍न वस्‍तुओं एवं सेवाओं की कीमतों को कम या ज्‍यादा करके और फि‍र उसी के जरिए उपभोग या खपत को प्रभावित करके कुछ ऐसे ही नतीजे दर्शाएगा। प्रश्न यह है कि कितना? अगर टैक्‍स दरें अपेक्षित रहती हैं, तो कुल खपत में बदलाव नहीं होगा; यदि टैक्‍स दरें घटा दी जाती हैं, तो वैसे में खपत बढ़ सकती है तथा यदि टैक्‍स दरें बढ़ा दी जाती हैं तो वैसे में खपत घट सकती है और तदनुसार, हम जीएसटी के प्रभाव का आकलन कर सकते हैं।

दूसरा, उत्‍पादन। किसी भी उद्यमी के लिए जीएसटी कोई खास परेशानी भरा नहीं है क्‍योंकि टैक्‍स दर चाहे कुछ भी रहे, उद्यमी उसे अपने उत्‍पाद की कुल कीमत में समाहित कर देगा और फि‍र यह बोझ अपने ग्राहकों पर डाल देगा। हालांकि, यदि किसी उत्पाद या सेवा की कीमत उस बिंदु तक बढ़ जाती है जिससे खपत काफी घट जाती है, तो वैसी स्थिति में उद्यमी के पास केवल दो ही विकल्प रह जाते हैं। वह या तो अपने मार्जिन में कटौती कर सकता है या कोई वित्‍तीय लाभ न होता देख अपना बिजनेस बंद कर सकता है। एक अच्छी टैक्‍स नीति देश की उत्‍पादन यूनिटों को राष्ट्र के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकती है। उदाहरण के लिए, किसी लक्जरी उत्पाद की कीमत आवश्‍यक उत्‍पाद के मूल्‍य से ज्‍यादा होगी और ऐसी स्थिति में भारत जैसा एक गरीब एवं ज्‍यादा आबादी वाला देश उसे किफायती रहने के लिए भारी-भरकम टर्नओवर पर मामूली मार्जिन से संतुष्‍ट रहने के लिए प्रेरित करेगा। वहीं, दूसरी ओर यदि विलासिता की वस्‍तुओं पर टैक्‍स बहुत अधिक हो जाता है, तो उद्यमियों के उस बिजनेस से निकल जाने और किसी अन्य उत्‍पाद के बिजनेस में अपना संसाधन लगाने का खतरा रहता है। यही नहीं, खपत के लिए आयात का रास्‍ता अपना लिया जाएगा। इस पर करीबी नजर रखने के लिए एक संबंधित सूचक ‘रोजगार’ होगा। इसके अलावा और किसी भी तरीके से इसका आकलन सही ढंग से करना संभव नहीं है।

तीसरा, महंगाई का दबाव। भारत के लोगों में कीमतों को लेकर सहिष्णुता बहुत कम है। यही कारण है कि महंगाई आर्थिक मसला कम और राजनीतिक मुद्दा कहीं ज्‍यादा है। वैसे तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और राज्यों के वित्त मंत्रियों ने बार-बार विशेष जोर देते हुए कहा है कि जीएसटी के कारण महंगाई नहीं बढ़ेगी, लेकिन इसकी पुष्टि के लिए हमें संबंधित डेटा की प्रतीक्षा करनी होगी। पहली दो तिमाहियां तो नई कर व्यवस्था को स्थिर करने में ही गुजर जाएंगी। तीसरी तिमाही और उसके बाद ही हमें स्पष्ट रूप से यह जानकारी मिल पाएगी कि क्‍या महंगाई का दबाव बन रहा है और इसका स्‍वरूप वास्‍तव में क्‍या है। हालांकि, इस मामले में हमें व्‍यापक तस्‍वीर पर करीबी नजर रखनी होगी। दरअसल, कर राजस्‍व में उछाल को बनाए रखना होगा और इस बारे में जीएसटी परिषद का कहना है कि वह विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं पर उपकर (सेस) बढ़ाकर कुल टैक्‍स में वृद्धि कर देगी। इसका मतलब यही हुआ कि यदि कर राजस्व अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा तो टैक्‍स बढ़ा दिया जाएगा। चूंकि सभी करों का बोझ ग्राहकों पर ही डाल दिया जाता है, अत: इसका नतीजा महंगाई के रूप में सामने आ सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीएसटी परिषद इसे लागू करने के समय महंगाई के असर को मामूली रखने की कोशिश कर रही है और इसके साथ ही कर राजस्‍व में अपेक्षित वृद्धि नहीं होने पर वह उपकर (सेस) के विकल्प को खुला रखेगी।

चौथा, अनुपालन। जीएसटी एक ऐसी कर प्रणाली है जिसमें टैक्‍स अनुपालन कहीं ज्‍यादा होगा। यह बुनियादी ढांचे एवं प्रक्रियाओं से लेकर टैक्‍स रिटर्न दाखिल करने एवं क्रेडिट प्राप्त करने तक एक असाधारण हाई-डिजिटल प्रणाली भी है। इसमें मौजूदा उद्यमियों पर दबाव बढ़ जाएगा। इसी तरह जो उद्यमी अपनी क्षमता बढ़ाने अथवा नए आउटलेट खोलने की योजना बना रहे हैं वे तब तक ऐसा नहीं कर पाएंगे जब तक कि इस कर प्रणाली में स्थिरता नहीं आ जाएगी। यही नहीं, जब तक इस क्षेत्र में परिदृश्‍य स्पष्ट नहीं हो जाएगा, तब तक नए उद्यमी अपने निवेश को टाल सकते हैं। जब अमल को लेकर अनिश्चितता है तो कोई आखिरकार क्यों निवेश करेगा? बेशक, किसी भी नई प्रणाली में ये समस्याएं होंगी। इस मामले में स्‍पष्‍ट रूप से फर्क वह उत्साह है जिसके साथ जीएसटी परिषद ने नौकरशाहों को नियमों एवं प्रावधानों को आउटसोर्स किया है और इसके साथ ही उसने उद्यमियों पर सहज (डाउनस्ट्रीम) अनुपालन सुनिश्चित करने का भार डाल दिया है। इस तरह प्रभावकारी रूप से एक ‘बिग ब्रदर’ सोसायटी का सृजन किया गया है। चार्टर्ड अकाउंटेंट्स और वकीलों को छोटी से लेकर मध्‍यम अवधि, यहां तक कि संभवत: लंबी अवधि त‍क भी अपने पेशे में व्‍यापक अवसर मिलेंगे। हालांकि, एक राष्ट्र के रूप में यदि कर अनुपालन का बोझ हमारे उद्यमों पर बहुत ज्‍यादा बढ़ गया तो हमें कई कदम वापस जाने पर विवश होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में जीएसटी लागू होने के बाद शुरुआती कुछ तिमाहियों के दौरान परिषद नियमों को संशोधि‍त एवं दुरुस्‍त करने पर बाध्य हो जाएगी, ताकि कारोबार करने में मुश्किलें बढ़ने के बजाय और ज्‍यादा आसानी सुनिश्चित हो सके।

पांचवां, कर राजस्‍व में उछाल। जीएसटी लागू करना सफल एवं कारगर साबित हुआ या नहीं, इसकी आखिरी एवं स्थायी परीक्षा यह होगी कि क्‍या कर राजस्‍व छोटी अवधि (दो साल) में स्थिर रहता है और मध्यम अवधि (तीन से पांच साल) से लेकर लंबी अवधि (पांच साल और उसके बाद भी) में बढ़ जाता है। यहां कर राजस्‍व में उछाल के आंकड़े को ध्‍यान में रखना होगा, अर्थात क्‍या जीडीपी (सकल घरेलू उत्‍पाद) में हर 1% वृद्धि होने पर कर राजस्व में 1% से अधिक की वृद्धि करने की प्रवृत्ति इस कर प्रणाली में है अथवा नहीं। एक दूसरा संबंधित आंकड़ा जो जीएसटी की सफलता या विफलता को दिशा प्रदान करेगा, वह कर राजस्‍व में उछाल का एक डेरिवेटिव (व्युत्पन्न) ‘कर-जीडीपी अनुपात’ है जो यदि बढ़ता है, तो इसका मतलब यही है कि कर प्रणाली एकदम दुरुस्‍त है, अन्‍यथा नहीं। तीसरा आंकड़ा जो इन दोनों आंकड़ों को समर्थन देगा, वह है करदाताओं की संख्या में वृद्धि या कमी। तीनों संकेतक आपस में संबंधित हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस मामले में कोई भी प्रत्‍यक्ष असर नहीं होगा, क्योंकि कई आर्थिक नीतिगत प्रकरण एक साथ काम करते हैं और टैक्स को प्रभावित करते हैं।

इन पांचों पैमानों पर ही जीएसटी परिषद के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। इस बात का अंदेशा है कि परिषद कहीं जवाबदेही की भूलभुलैया में ही न खो जाए। क्या होगा यदि महंगाई दर निम्‍न स्‍तर पर ही बनी रहे, लेकिन बेहतर कर प्रणाली के कारण नहीं, बल्कि खपत घट जाने के चलते ऐसा हो? अथवा खपत स्थिर ही रहे, लेकिन कंपनियों का मुनाफा गिर जाए और ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष करों में कमी के चलते कर राजस्व प्रभावित हो? अथवा कर अनुपालन का ज्‍यादा बोझ उद्यमियों को कर चोरी, आवश्‍यक जानकारियां न देने या अतीत के खतरनाक लाइसेंस राज की प्रत्‍यक्ष रिश्वतखोरी की दिशा में आगे बढ़ने के लिए विवश कर दे? ये ऐसे सवाल हैं जिनके बारे में परिषद को अवश्‍य ही सोचना चाहिए।

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