Published on Sep 28, 2019 Updated 0 Hours ago

ग्रामीण भारत के औद्योगिकरण के लिए छोटे शहरों को केंद्र में रखकर कृषि आधारित शहरीकरण का रोडमैप तैयार करना जरूरी है, तभी उन क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ेगा.

ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ाने के लिए छोटे शहरों का हो विकास

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने पहले बजट भाषण में भारत की सुस्त पड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विविधता लाने के लिए कई उपायों की घोषणा की थी. इनमें 100 नए आर्टिसनल क्लस्टर बनाने, 80 लाइवलीहुड इनक्यूबेटर की स्थापना और 75 हजार लोगों को कृषि कारोबार के हुनर सिखाने के लिए 20 टेक्नोलॉजी बिज़नेस इनक्यूबेटर की स्थापना जैसी बातें शामिल थीं. उन्होंने 10 हजार नए फार्मर-प्रोड्यूसर संस्थान बनाने की भी बात कही थी. इसके अलावा, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना (PMGSY) के तहत 1.25 लाख किलोमीटर नई सड़कों का निर्माण करके उनकी कनेक्टिविटी सुधारने का भी प्रस्ताव रखा गया था.

प्रति व्यक्ति ज़मीन के अनुपात में कमी आने से कृषि क्षेत्र से और रोज़गार पैदा करने में दिक्कत हो रही है, जबकि इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. कृषि जनगणना (एग्रीकल्चर सेंसस) 2010-11 में बताया गया था कि एक व्यक्ति के पास औसत 1.15 हेक्टेयर ज़मीन रह गई है. ऐसे में 70 प्रतिशत उन ग्रामीण परिवारों का जीवनयापन सिर्फ खेती से नहीं चल सकता, जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है. वहीं, नेशनल सैंपल सर्वे (70वें दौर) के मुताबिक, ऐसे सीमांत किसान खेती से जितना कमाते हैं, हर महीने उससे वे खपत यानी कंजम्पशन पर खर्च कर रहे हैं.

इस बीच, ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती आबादी से प्रति व्यक्ति लैंड होल्डिंग में और कमी आ सकती है. यूनाइटेड नेशंस वर्ल्ड अर्बनाइजेशन प्रॉस्पेक्ट्स (2018) के मुताबिक, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी 2011 के 85.6 करोड़ से बढ़कर 2027 में 90.9 करोड़ के शिखर पर पहुंच सकती है और इसके बाद इसमें धीरे-धीरे गिरावट शुरू होगी. वैसे तो साल 2045 तक 50 प्रतिशत भारत शहर में बदल चुका होगा, लेकिन संख्या के लिहाज से तब भी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक लोग रह रहे होंगे. खासतौर पर बिहार और यूपी में ग्रामीण क्षेत्रों में तब अधिक लोगों के रहने के आसार हैं.

आर्थिक नीति के लिहाज से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अतिरिक्त मज़दूरों के लिए गैर-कृषि रोज़गार के मौके बढ़ाने की जरूरत है. इस दिशा में बजट में ग्रामीण औद्योगिकरण की पहल अच्छी है, लेकिन अभी तक इसका कोई खाका पेश नहीं किया गया है.

इन हालात में देश की आर्थिक नीति के लिहाज से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अतिरिक्त मज़दूरों के लिए गैर-कृषि रोज़गार के मौके बढ़ाने की जरूरत है. इस दिशा में बजट में ग्रामीण औद्योगिकरण की पहल अच्छी है, लेकिन अभी तक इसका कोई खाका पेश नहीं किया गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रोथ बढ़ाने के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेशनल रर्बन मिशन के तहत पहले 300 क्लस्टर्स या 42 मेगा फूड पार्क्स शुरू किए गए थे, लेकिन अभी तक इनमें तेजी नहीं आई है. क्लस्टर और कनेक्टिविटी योजनाओं पर काम राज्य सरकारों की प्लानिंग और गवर्नेंस क्षमता पर निर्भर करता है, जैसे- संविधान के तहत ज़मीन राज्यों के अधिकारक्षेत्र में आता है. इसलिए योजनाओं की ख़ातिर ज़मीन राज्यों को मुहैया करानी होगी. श्रम, पूंजी और ज़मीन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए राज्य मजबूत सांस्थानिक प्लेटफॉर्म बनाएं, इसके लिए केंद्र को उन्हें प्रोत्साहित करना होगा. उसे इस मामले में सक्रिय भूमिका अदा करनी होगी. इससे प्रशासनिक स्तर पर शहर और गांव का भेद खत्म होगा.

ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिकरण को बढ़ावा देने, रोज़गार पैदा करने और ग्रोथ तेज करने के लिए, फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशंस, एग्रीबिज़नेस उद्यमियों और आर्टिसनल क्लस्टर्स की रणनीतिक लोकेशन काफी मायने रखती है. इन्हें छोटे शहरों में स्थापित करना अच्छा रहेगा, जहां से बड़े बाजारों तक आसानी से पहुंचा जा सके (बेहतर कनेक्टिविटी). खासतौर पर अगर इन्हें वैसे शहरों में स्थापित किया जाता है, जहां मंडियां हैं तो बिज़नेस को बड़ा करने में मदद मिलेगी और उसका व्यापक असर होगा. इससे ऐसे बिज़नेस को बेहतर सप्लाई-चेन लॉजिस्टिक्स यानी बड़े बाजारों तक माल पहुंचाने की ट्रांसपोर्ट सुविधा भी मिलेगी.

दूसरी तरफ, अगर ऐसे कारोबार को दूरदराज के इलाकों और छिटपुट तरीके से स्थापित किया जाता है तो व्यापक असर नहीं होगा और कई संभावित फायदे नहीं मिल पाएंगे. बिहार में आरा और कर्नाटक में बिदर जैसे मंडी वाले शहरों की कृषि अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका रही है और वे आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग, किसानों के लिए बने सहकारी बैंकों, माइक्रो फ़ाइनेंस संस्थानों और कृषि उपकरणों के कारोबार से जुड़े हुए हैं. वे ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली पैदावार को शहरी बाजार तक पहुंचाने में पुल का काम करते हैं और इस लिहाज से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में उनकी बड़ी भूमिका है. वे ग्रामीण क्षेत्रों को पूंजी, श्रम, कच्चा माल और सूचनाएं पहुंचाने में भी मदद दे रहे हैं.

अगर रणनीति बनाकर मंडी वाले शहरों के आसपास के क्षेत्रों में सरकार निवेश करती है तो इससे वहां कृषि आधारित उद्योग पनपेंगे और पास के ग्रामीण क्षेत्रों पर कम से कम तीन तरह से बड़ा असर होगा. पहला, अगर हस्तकरघा और छोटी एग्रो प्रोसेसिंग यूनिटें आसपास हों तो वे एक दूसरे से कारोबारी कौशल सीखेंगी और इससे करीब के क्षेत्रों में लोग ऐसा करने को प्रेरित होंगे. किसी यूनिट को अगर बड़ा ऑर्डर मिलता है, तो वह दूसरी यूनिटों की मदद लेकर उसे पूरा कर सकेगी. वे महंगी मशीनें साझा कर सकेंगी, जिनसे उनकी लागत घटेगी. इसी तरह से कच्चा माल खरीदने और डिलीवरी प्रक्रिया में भी आपस में भागीदारी करके वे लागत घटा सकेंगी. दूसरा, अगर कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़ी गतिविधियां किसी खास क्षेत्र में केंद्रित होती हैं तो उससे वहां पैकेजिंग, ट्रांसपोर्टेशन और लॉजिस्टिक्स कंपनियों, कृषि उपकरणों के डीलरों और मेंटेनेंस वर्कशॉप जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ेंगे. साथ ही, ऐसे कामकाज में मदद देने वाले शिक्षा, स्वास्थ्य, आवासीय और रिटेल गतिविधियों में भी तेजी आएगी.

तीसरा, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विकास से इन छोटे शहरों में कंस्ट्रक्शन एक्टिविटी तेज हो सकती है, जिससे आसपास के गांवों में खेत में काम करने वाले सरप्लस मज़दूरों को रोज़गार मिलेगा. कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में मज़बूरी शुरू करने के लिए बहुत कौशल की जरूरत नहीं होती. इसलिए यह ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले ग़रीबों के लिए रोज़गार का बड़ा जरिया बन सकता है.

भारत में प्रशासनिक स्तर पर कामकाज शहर और गांव के द्वंद्व में फंसा हुआ है. इसलिए कृषि आधारित गतिविधियों में तेजी से होने वाले शहरीकरण का यहां फायदा नहीं उठाया जा सका है. नीतिगत स्तर पर समर्थन न मिलने के बावजूद ग्रामीण भारत में स्थानीय प्रक्रियाओं और अनौपचारिक बदलाव हो रहा है.

भारत में प्रशासनिक स्तर पर कामकाज शहर और गांव के द्वंद्व में फंसा हुआ है. इसलिए कृषि आधारित गतिविधियों में तेजी से होने वाले शहरीकरण का यहां फायदा नहीं उठाया जा सका है. नीतिगत स्तर पर समर्थन न मिलने के बावजूद ग्रामीण भारत में स्थानीय प्रक्रियाओं और अनौपचारिक बदलाव हो रहा है. साल 2011 की जनगणना में सेंसस टाउन की संख्या बढ़कर 3,894 हो गई थी, जो इससे पिछली जनगणना में 1,362 थी. सेंसस में किसी क्षेत्र को शहर घोषित करने की आबादी, उसके घनत्व (डेंसिटी) और पेशे से जुड़ी शर्तों को ये शहर पूरा करते हैं. कृषि क्षेत्र से होने वाली आमदनी और स्थानीय मज़दूरों के लिए खेती से बाहर रोज़गार के मौके पनपने से इन इलाकों में शहरीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के संकेत मिले हैं. इसका फायदा उठाने और खेती की ज़मीन के अनियंत्रित ढंग से शहरी रियल एस्टेट में बदलने से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को रोकने की ख़ातिर इन क्षेत्रों का योजनाबद्ध विकास जरूरी है. इस योजना में इनके आसपास के इलाकों को भी शामिल किया जाना चाहिए. अगर एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयों और आर्टिसनल क्लस्टर को उनके सप्लाई के स्रोत से जोड़ने के लिए PMGSY के तहत मिलने वाले फंड का इस्तेमाल किया जाए तो उससे हर किलोमीटर की सड़क पर अधिक वैल्यू क्रिएट होगी.

इस तरह की एकीकृत योजना बनाने में हम दक्षिण अफ्रीका से बहुत कुछ सीख सकते हैं. वहां नेशनल डिवेलपमेंट प्लान विजन 2030 में छोटे शहरों में विकास तेज करके गरीबी घटाने की पहल हो रही है. इसे ध्यान में रखते हुए देश के 44 जिलों में से हरेक में एक एग्रो-पार्क क्लस्टर विकसित किया जा रहा है. खासतौर पर ज़मीन के इस्तेमाल को रेगुलेट करने के लिए SPLUMA नाम का कानून बनाया गया है. इसमें इन क्षेत्रों के विकास के लिए बनी योजनाओं को लागू करने में सभी संबंधित विभागों का सहयोग सुनिश्चित किया गया है. एग्रो क्लस्टर की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए जिला प्रशासन को नोडल एजेंसी बनाया गया है. उस पर व्यापक बिज़नेस प्लान और मार्केटिंग, ज़मीन के इस्तेमाल के लिए मास्टर प्लान तैयार करने, इंफ्रास्ट्रक्चर में कमियों का पता लगाने और स्थानीय लोगों को स्किल सिखाने की ज़िम्मेदारी डाली गई है. इससे न सिर्फ विकास योजना को स्थानीय लोगों का सहयोग मिल रहा है बल्कि उससे देश के व्यापक लक्ष्य भी हासिल हो रहे हैं.

1992 में लोकल गवर्नमेंट रिफ़ॉर्म के जरिये भारत में संविधान के आर्टिकल 243ZD के तहत ऐसी एकीकृत योजना के लिए डिस्ट्रिक्ट प्लानिंग फ्रेमवर्क मौजूद है, लेकिन उस पर पूरी तरह से अमल नहीं हुआ है. यूं तो 29 में से 20 राज्यों ने योजना आयोग (इस संस्था का अब वजूद नहीं है) के दबाव में डिस्ट्रिक्ट प्लानिंग कमेटी का गठन कर दिया था, लेकिन उनमें से कइयों ने उन्हें पैसा और पर्याप्त स्टाफ नहीं दिया है. इस बीच, एक के बाद एक केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से शुरू की जा रही योजनाओं को अलग-थलग रूप में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट्स काम कर रहे हैं. योजना आयोग के खत्म होने के बाद राज्य स्तर पर इंटीग्रेटेड प्लानिंग पर फोकस शिफ्ट हो गया है, लेकिन अभी तक इसका कोई सांस्थानिक ढांचा तैयार नहीं हो पाया है. ग्रामीण भारत के औद्योगिकरण के लिए छोटे शहरों को केंद्र में रखकर कृषि आधारित शहरीकरण का रोडमैप तैयार करना जरूरी है, तभी उन क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ेगा. छोटे मंडी शहरों को रणनीति के तहत क्लस्टर बनाकर और बड़े बाजारों से जोड़ना होगा. हालांकि, इसके लिए केंद्र सरकार को राज्यों से इंटीग्रेटेड प्लानिंग के लिए सांस्थानिक ढांचा तैयार करने को प्रोत्साहित करना होगा. अगर वह इसके लिए अपने फंड का इस्तेमाल करे तो शायद इसमें सफलता मिल सकती है.

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