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भारत के लिए रूस से तेल आयात करने जैसा व्यावहारिक कदम उठाना कोई नई बात नहीं है. प्रथम खाड़ी युद्ध के दौरान भी ऊर्जा सुरक्षा और उस क्षेत्र मेंरहने वाले भारतीयों की सुरक्षा को देखते हुए भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने बगदाद में इराक़ी तानाशाह सद्दाम हुसैन से मुलाक़ातकी थी .
यूक्रेन संकट की शुरुआत के बाद से नई दिल्ली और पश्चिमी देशों के बीच मतभेद की सबसे शुरुआती वज़ह पश्चिमी देशों की यह मांग थी कि भारत रूस के साथ अपने संबंधों में कुछ कदम पीछे हटे. हालांकि, भारत से संबंधों को समाप्त करने के लिए नहीं कहा गया था लेकिन रूस द्वारा बाज़ार में सस्ते दामों में तेल बेचने और नई दिल्ली के इस अवसर का फ़ायदा उठाने और रूस से तेल ख़रीदने के फ़ैसले ने पश्चिमी मीडिया में ख़ूब सुर्खियां बटोरीं और उस पर इल्ज़ाम लगाया गया कि वह अप्रत्यक्ष रूप से रूस का साथ दे रहा है. ये चीज़ें इतनी ज़ोर-शोर से उछाली गईं कि भारत को आगे आकर सफ़ाई पेश करनी पड़ी, जहां भारतीय विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने यह बताने के लिए यूरोपीय राजधानियों का दौरा किया कि भारत ऊर्जा सुरक्षा के लिए तेल आयात पर निर्भर देश है और उसकी नाज़ुक अर्थव्यवस्था उसे यही सुविधा नहीं देती कि वह यह देखे कि तेल आपूर्ति नैतिक थी या नहीं. आख़िरकार, भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति को स्पष्ट करने में क़ामयाब रहा.
यह देखते हुए कि मॉस्को परंपरागत तौर पर कभी भी नई दिल्ली का आपूर्तिकर्ता नहीं रहा है, ऐसे में भारत द्वारा रूस से भारी मात्रा में तेल आयात करना वाकई में बेहद महत्त्वपूर्ण घटना थी.
यह देखते हुए कि मॉस्को परंपरागत तौर पर कभी भी नई दिल्ली का आपूर्तिकर्ता नहीं रहा है, ऐसे में भारत द्वारा रूस से भारी मात्रा में तेल आयात करना वाकई में बेहद महत्त्वपूर्ण घटना थी. साल-दर-साल के आंकड़ों को देखें, तो 2022 में अप्रैल और नवंबर के बीच भारत के रूस से तेल आयात में 768 प्रतिशत की भारी-भरकम वृद्धि हुई है. आलोचना का ज़वाब देते हुए, भारत ने इस तथ्य पर ज़ोर दिया कि भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय 2,000 अमेरिकी डॉलर है और वहीं इसकी तुलना में यूरोप और पश्चिमी देशों की प्रति व्यक्ति औसत आय 60,000 यूरो है. ऐसे में उसके पास व्यावहारिक होने के सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता.
भारत की चिंताएं न केवल व्यावहारिक हैं बल्कि अगले कुछ दशकों तक के लिए सकल घरेलू उत्पाद में 6 प्रतिशत से ज्यादा वृद्धि दर को बनाए रखना ज़रूरी है. नई दिल्ली ने कुछ साल पहले ईरान और उसके कथित परमाणु हथियार कार्यक्रम के खिलाफ़ व्यापक भू-राजनीतिक सहमति बनाने के लिए अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों को ताक पर रख दिया था. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत पर ईरानी पाइपलाइनों को बंद करने का दबाव डाला क्योंकि P5+1 देश (जिसमें रूस और चीन भी शामिल हैं) ऑस्ट्रिया में तेहरान के साथ पूरे एक महीने तक चली समझौता वार्ता में व्यस्त थे.
ईरान, लंबे समय तक लगातार भारत के शीर्ष तीन तेल आपूर्तिकर्ताओं में से एक रहा है. ऊर्जा का मसला कई दशकों तक भारत और ईरान के संबंधों काआधार रहा है, यहां तक कि मंगलोर रिफाइनरी जैसी महत्त्वपूर्ण अवसंरचना (MRPL) काफ़ी हद तक ईरान से आयात होने वाले 'हैवी क्रूड' को ध्यान मेंरखते हुए निर्मित की गई. इस दौरान, मंगलोर रिफाइनरी ने दूसरे विकल्पों को ढूंढ़ना शुरू किया लेकिन उसे संयुक्त राज्य अमेरिका से लगातार छूट मिलनेकी भी उम्मीद थी ताकि ताकि उसे और उसके जैसे दूसरी कंपनियों को ईरान से कच्चे तेल के आयात की सहूलियत मिल सके. रिफाइनरी के प्रबंधनिदेशक का कहना था, "ईरानी बैरल का दूसरा विकल्प ढूंढ़ना आसान नहीं है." इस बीच एक और महत्त्वपूर्ण घटना ये रही कि भारत का ओएनजीसीविदेश (OVL) ईरान के फ़ार्स प्रांत में फरज़ाद बी गैस क्षेत्र की खोज करने में कामयाब रहा, जो 2002 में हुए एक अन्वेषण समझौते के तहत उसके कामका हिस्सा था.
2015 तक आते-आते भारत जैसे देश के सामने ईरान से तेल आयात का भुगतान करने का कोई रास्ता नहीं बचा था क्योंकि वे अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए किए गए कई वित्तीय समझौतों के हस्ताक्षरकर्ता देश थे.
2015 में ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन या जेसीपीओए ((जिसे ईरान परमाणु समझौते के रूप में भी जाना जाता है) पर हस्ताक्षर के लिए मचीतेजी को 1979 की क्रांति के बाद ईरान के दशकों तक प्रतिबंध झेलने के बाद मुख्यधारा के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अर्थनीति में तेहरान की वापसी केतौर पर देखा जा रहा था, जिसे 2018 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गुस्से में समझौते से अपने हाथ पीछे खींच लिए और एकतरफाफ़ैसला लेते हुए अमेरिका अनौपचारिक रूप से इस समझौते से पीछे हट गया. हालांकि, नई दिल्ली और तेहरान ने तेल व्यापार को बनाए रखने कीकोशिश की, जिसके लिए उन्होंने भारत द्वारा कोलकाता के एक बैंक अकाउंट में भुगतान शुल्क को जमा करने जैसी कई रणनीतियां शामिल थीं, जो कुछसमय बाद 4 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक हो गया और ईरान के लिए इस रकम तक पहुंचना और ज्यादा कठिन हो गया क्योंकि उस दौरान तेहरान परसमझौते के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने का दबाव काफ़ी ज्यादा बढ़ गया था. 2015 तक आते-आते भारत जैसे देश के सामने ईरान से तेल आयात काभुगतान करने का कोई रास्ता नहीं बचा था क्योंकि वे अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए किए गए कई वित्तीय समझौतोंके हस्ताक्षरकर्ता देश थे. ईरान के लिए, एशियाई अर्थव्यवस्थाओं से आने वाले 'पेट्रो-डॉलर' बेहद ज़रूरी थे और तेहरान ने भी भारत जैसे देशों पर नएतरीकों से तेल आयात का भुगतान करने के लिए दबाव डाला, जिसमें मुंबई में ईरानी बैंक की शाखाएं खोलने का (असफ़ल) विचार शामिल था (भुगतानके आख़िरी रास्ते के तौर पर तुर्की के एक बैंक का इस्तेमाल किया जा रहा था, हालांकि, प्रतिबंधों के कारण वह रास्ता भी आख़िरकार बंद हो गया). भुगतान करने के अन्य पारदर्शी तरीकों का भी सुझाव दिया गया. उदाहरण के लिए किसी तीसरे देश के जरिए क्षेत्र में पैसे का हस्तांतरण करना. और कुछकंपनियों ने ईरान और भारत को समुद्री पाइपलाइन से जोड़ने का सुझाव सामने रखा लेकिन ये भी असफ़ल रहे.
नई दिल्ली के लिए, कच्चे तेल की आपूर्ति के लिए ईरान की बजाय दूसरे देशों जैसे सऊदी अरब, इराक और नाइजीरिया और अंगोला जैसे देशों परनिर्भर रहने का मतलब था कि उसे अपने ऊर्जा आयात जोख़िम का विस्तार करना होगा. हालांकि, भारत को जेसीपीओए लाभ का सौदा दिखाई दियाक्योंकि इसके कारण अमेरिका की नज़र में नई दिल्ली की सकारात्मक क्षवि बन रही थी क्योंकि तेहरान के साथ इस समझौते को संभव बनाने में उसकीभूमिका स्पष्ट दिखाई दे रही थी. इसके अलावा समग्र रूप से देखें, तो भारत भी मध्य-पूर्व में परमाणु हथियारों की प्रतिस्पर्धा शुरू करने के पक्ष में नहीं थाक्योंकि इसके संभावित परिणाम क्षेत्र की स्थिरता को भंग कर सकते थे, ख़ासकर यह देखते हुए कि क्षेत्र में 70 लाख से ज्यादा भारतीय नागरिक वहांरहकर काम कर रहे थे, जो 30 अरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा बड़ी राशि वापिस अपने देश में भेज रहे थे और ऊर्जा सुरक्षा से जुड़ा बहुत बड़ा हिस्सा क्षेत्रमें स्थित था.
यूक्रेन संघर्ष से जुड़ा मामला कई स्तरों पर अलग है, जिसे भारत के ईरान के साथ अनुभवों और जिस दौरान जेसीपीओए समझौता वार्ताएं हो रही थीं, केसाथ नहीं जोड़ा जा सकता. शुरुआत के लिए, रूस एक बड़ा देश है और उसके साथ भारत के, विशेष रूप रक्षा क्षेत्र में, ऐतिहासिक संबंध रहे हैं. हालांकिभारत ने रूस ज्यादा आयात नहीं किया है, लेकिन रूसी ऊर्जा में उसने बड़े स्तर पर निवेश किया है. ऊर्जा में भारत ने अब तक का अपना सबसे पहलाअंतर्राष्ट्रीय निवेश देश के सुदूर पूर्व में रूस के सखालिन-I क्षेत्र में किया था. 2009 में, ओवीएल ने रूस-केंद्रित इंपीरियल एनर्जी कंपनी का भी अधिग्रहणकिया, जिसके लिए उसने दस हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा खर्च किया. इनमें से ज्यादातर निवेश अभी भी जारी हैं, और नई दिल्ली वहां अपनीउपस्थिति जारी रखने और शायद अपनी पहुंच का विस्तार करने का इरादा रखती है.
वर्तमान में भारतकी भू-राजनीतिक रणनीति पश्चिम, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ़ झुकाव रखती है, और हालिया समय में भारत ने अपने रक्षा आयातों में पश्चिमी उपकरणों को प्राथमिकता दी है और घरेलू स्तर पर उनके निर्माण पर ज़ोर दिया है. लेकिन तात्कालिक रूप से भारतीय सेना के पास हथियारों का ज़खीरा है, वह सोवियत और उसके रूसी
हालांकि, इस समय, परिस्थितियां और भू-राजनीतिक वास्तविकताएं उस समय से बिल्कुल अलग हैं, जो कुछ सालों पहले ईरान के साथ मौजूद थीं. वर्तमान में भारत की सैन्य तैयारी पर बात करें तो 2020 में चीन के साथ हुए सीमापार संघर्ष के बाद जबकि चीन से ख़तरे का डर काफ़ी बढ़ गया है, ऐसेमें उच्च-स्तर की तैयारी बनाए रखने के लिए मॉस्को के साथ गहन साझेदारी की ज़रूरत है. जबकि यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान में भारत कीभू-राजनीतिक रणनीति पश्चिम, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ़ झुकाव रखती है, और हालिया समय में भारत ने अपने रक्षा आयातों मेंपश्चिमी उपकरणों को प्राथमिकता दी है और घरेलू स्तर पर उनके निर्माण पर ज़ोर दिया है. लेकिन तात्कालिक रूप से भारतीय सेना के पास हथियारों काज़खीरा है, वह सोवियत और उसके रूसी समकक्षों से भरा पड़ा है. उनका रख-रखाव, जो रूस के सैन्य औद्योगिक परिसर पर हमले के साथ ही काफ़ीचुनौतीपूर्ण हो गया है, भारत की तात्कालिक सैन्य ज़रूरतों के लिए महत्त्वपूर्ण है. इसके अलावा, परमाणु पनडुब्बियों और ऐसे ही अन्य उपकरणों के मुद्देपर, वर्तमान में रूस नई दिल्ली को समान स्तर की प्रौद्योगिकियों को साझा करने वाला एकमात्र देश बना हुआ है.
रूस की बड़े पैमाने पर वैश्विक उपस्थिति और भारत के मॉस्को के साथ संबंधों से इतर, वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलगाव या प्रतिबंध कितनी गहराईसे काम करते हैं, इसकी समीक्षा तेजी से की जा रही है. शुरुआत में, यह तर्क दिया जा सकता था कि प्रतिबंधों के कारण ही ईरान जेसीपीओए से जुड़ीवार्ताओं ने शामिल होने को बाध्य हुआ और अंततः उसका गठन हुआ, लेकिन इसे एक उदाहरण मानते हुए इसे विधि के तौर पर संस्थागत स्वीकृति नहींदी जा सकती. ईरान काफ़ी छोटा देश था, हो मुख्यधारा में लौटना चाहता था और पश्चिम के साथ तुलनात्मक रूप से कम जुड़ना चाहता था. जबकिउसका परमाणु कार्यक्रम चिंता की एक बहुत बड़ी वजह बना हुआ था, लेकिन सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल जैसे अरब देशों ने क्षेत्रसे जुड़ी चिंताओं के मद्देनज़र बढ़ती सुरक्षा समस्याओं के प्रति पश्चिम का ध्यान खींचा और उसमें तात्कालिकता की भावना पैदा की. एक तरफ़ वैश्विकभू-राजनीति और ऊर्जा क्षेत्र में मॉस्को की भूमिका और उसकी उपस्थिति काफ़ी व्यापक है; दूसरी तरफ़, संघर्ष की शुरुआत से पहले पश्चिम के साथ उसकेव्यापारिक संबंध और चीन के साथ बढ़ती रणनीतिक साझेदारी को देखते हुए कहा जा है कि रूसी संकट किसी भौगोलिक सीमारेखा तक सीमित नहीं है. इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महंगाई, खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा और वैश्विक दक्षिण के विकासशील देशों को समान रूप से प्रभावित किया है. जबकि रूसीकार्रवाई बहुत बड़ी चिंता का कारण है, ख़ासकर जब संप्रभुता का सवाल हो और एशिया के कई देश, मध्य-पूर्व और अफ्रीका इस संघर्ष का सीधा हिस्सानहीं हैं और उनके लिए भविष्य में बड़ी ताकतों के बीच राजनीतिक संघर्ष से ज्यादा अपनी अर्थव्यवस्थाओं और आबादी से जुड़े हित प्राथमिक दर्जा रखतेहैं.
भारत के लिए रूस से तेल आयात करने जैसा व्यावहारिक कदम उठाना कोई नई बात नहीं है. प्रथम खाड़ी युद्ध के दौरान भी ऊर्जा सुरक्षा और उस क्षेत्र मेंरहने वाले भारतीयों की सुरक्षा को देखते हुए भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने बगदाद में इराक़ी तानाशाह सद्दाम हुसैन से मुलाक़ातकी थी और बाद में उनके साथ वे गले लगते दिखाई पड़े जबकि उसी दौरान उन्होंने कुवैत पर कब्ज़ा जमाया था. लेकिन इसके बाद संघर्ष क्षेत्र से आमनागरिकों को सुरक्षित वापिस निकालने की सबसे बड़ी मुहिम शुरू की गई और क्षेत्र से आवश्यक तेल आपूर्ति के सुरक्षित पारगमन को तरजीह दी गई. जिस तरह से भारतीय अधिकारी 1990 के दशक में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में भारत की मदद के लिए सद्दाम हुसैनकी कोशिशों को याद करते हैं, ठीक उसी तरह भारतीयों को आज़ादी के बाद हुए संघर्षों जैसे 1971 के युद्ध जैसी परिस्थितियों में रूस की सहायता यादहै. हालांकि, वर्तमान में रूस अगर अलग-थलग पड़ता है तो उसे रूसी कार्रवाईयों और उसके अपने फ़ैसलों के संदर्भ में ही देखा जाएगा.
लंबे समय तक, भारत ने किसी भी एक शक्ति का पक्ष लेने या समूहों का हिस्सा बनने से बचते हुए अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा है.
आख़िरकार, लंबे समय तक, भारत ने किसी भी एक शक्ति का पक्ष लेने या समूहों का हिस्सा बनने से बचते हुए अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा है. हालांकि, एक नए दौर में, जहां भारत खुद को बहुध्रुवीय वैश्विक शक्ति संरचना के एक अहम हिस्सेदार के तौर पर पेश करता है, और G20 जैसे मंचों परवैश्विक दक्षिण के हितों की "आवाज़" बनने के साथ-साथ भविष्य में वैश्विक शक्ति संरचना (ख़ासकर चीन-अमेरिका जैसी बड़ी शक्तियों के दृष्टिकोण से) कैसी होगी, इसकी मौन स्वीकृति देता है, ऐसे में अतीत की तुलना में पश्चिमी साझीदारों और उनके हितों के खिलाफ़ गुटबंदी की संभावना काफ़ी कम होजाएगी. और ईरान और जेसीपीओए से लेकर रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसे वैश्विक अनुभव भारत की विदेश नीतियों के अगले चरण को प्रभावित करेंगे.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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