Author : Ritu Sharma

Published on Oct 06, 2017 Updated 0 Hours ago

ग्लोबलाइज़ेशन और विभिन्न समुदायों के आपसी मेल-जोल के इस दौर में राष्ट्र दूसरों को जाने और उनका सम्मान किए बिना खुद को परिभाषित नहीं कर सकते।

इतिहास से खिलवाड़ की खतरनाक कोशिश

भारत भले ही महज 70 की उम्र का एक युवा मुल्क हो, लेकिन इतिहास को एक नया आयाम देने की कोशिश में जुट गया है। किसी भी राष्ट्र-राज्य के लिए शिक्षा और खास कर आधिकारिक इतिहास अपने लोगों की साझा स्मृति को आकार देने का एक महत्वपूर्ण औजार रहा है। उधर, राष्ट्र-राज्य के उदय के साथ ही स्कूली शिक्षा की व्यवस्था भी मजबूत होती गई है।

शुरुआत से ही शिक्षा राष्ट्र-राज्य के राष्ट्रवादी लक्ष्य को पूरा करती रही है।

उन्नीसवीं और 20वीं सदी में आधिकारिक इतिहास इसलिए लिखा गया कि राष्ट्र-राज्य स्वयं की एक चमकीली तस्वीर पेेश कर सके और जिसमें दूसरे देशों और अल्पसंख्यक समूहों की छवि धूमिल सी दिखाई देती हो। यहां तक कि राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने के लिए पहाड़ों, नदियों और समुद्रों तक का इस्तेमाल किया जाता है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद के काल में जा कर दुनिया को यह समझ में आया कि शिक्षा के जरिए फैलाए जा रहे संकुचित राष्ट्रवाद का क्या नुकसान है। इसके बाद से राष्ट्रीय पाठ्यक्रमों को ज्यादा व्यापक स्वरूप दिया गया और इसमें विदेशी भाषाओं और संस्कृतियों को शामिल किया गया।

किसी समाज की राष्ट्रीय पहचान को आकार देने के लिए इतिहास के उपयोग को देखते हुए भारतीय दक्षिणपंथ पुरजोर कोशिश में जुटा है कि वह भारत की एक ऐसी उथली छवि तैयार कर सके जिसमें देश की संस्कृति के निर्माण में एक खास समुदाय के योगदान को लोक स्मृति से पूरी तरह मिटा दिया जाए।

इतिहास को बदलने की कोशिश में जुटे इन इतिहासकारों के मुताबिक ताज महल को शाह जहां ने नहीं बनवाया था, बल्कि उससे पहले यह एक हिंदू मंदिर था। इसी तरह राजपूत राजा महराणा प्रताप को हल्दीघाटी की लड़ाई में सम्राट अकबर के हाथों पराजय हासिल नहीं हुई थी। और तो और लोककथाओं को इतिहास की मान्यता दी जा रही है जिनके मुताबिक आसमान में किसी भी दिशा में उड़ सकने वाले विमानों की खोज हिंदू महामनाओं ने की थी।

उदारवादियों और धर्मनिरपेक्ष लोगों की ओर से जो चेतावनी दी जा रही है कि भारत को ‘हिंदू-पाकिस्तान’ बनाने की कोशिश की जा रही है, उसे तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तक कि आप पाकिस्तानी पाठ्यक्रम की किताबों को नहीं देख लें। यहां के पाठ्यक्रम के साथ समाज में मौजूद धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरपन और हिंसा पर गौर कीजिए। उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान अध्ययन की माध्यमिक, इंटरमीडिएट और जीसीई ‘ओ’ स्तर के पाठ्यक्रम का उदाहरण लीजिए। इनमें देश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की शुरुआत इस्लाम के अध्यायों से होती है। इन किताबों में पाकिस्तान का इतिहास 711 ईस्वी में भारत पर मुहम्मद बिन कासिम के हमले से शुरू होता है। जिस क्षेत्र में आज पाकिस्तान बसा है, उसके बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक इतिहास से यह पूरी तरह अनजान दिखाई देती है।

ये किताबें बताती हैं कि इस्लाम ने भारत के “हिंदुओं” के समाज, संस्कृति, शासन और स्थापत्य को कैसे प्रभावित किया; और इसके साथ ही दूसरों से इसे क्या हासिल हुआ उसे भुला दिया जाता है।

पाकिस्तान की इतिहास की किताबों में सम्राट अशोक और उनके शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्म की लोकप्रियता जिस तरह गायब कर दी गई है, वह साफ दिखाई देता है। इन किताबों में बाबर की जीत को इस उप-महाद्वीप और इस तरह पाकिस्तान में इस्लाम के स्वर्ण युग की शक्ल दे कर गौरवान्वित करने की भी जम कर कोशिश की गई है। इस तथ्य को भी पूरी तरह भुला दिया गया है कि बाबर ने दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के लिए एक अन्य मुस्लिम शासक इब्राहिम लोधी को पराजित किया था। उस काल के राजा और शासक अपनी सल्तनत को कायम रखने के लिए अपने सधर्मी शासकों से लड़ने में भी परहेज नहीं करते थे। लेकिन इतिहास को जब घृणा पर आधारित विचारधारा के अनुकूल बनाने की कोशिश होती है तो संदर्भ सबसे पहले पंगु हो जाता है।

इसके साथ ही दूसरों को घृणा का पात्र बनाने की कोशिश भी होती है। पाकिस्तानी इतिहास की किताबों ने सार्वजनिक जीवन से सिखों और हिंदुओं की मौजूदगी को पूरी तरह मिटा दिया है। हिंदुओं और सिखों के बारे में पाकिस्तानी छात्रों को जो पढ़ने को मिलता है वह सिर्फ इतना कि उन्होंने 1947 के विभाजन के दौरान मुसलमानों का नरसंहार किया। अगर एक संतुलित नजरिए के तहत यह बताया जाए कि दोनों ही तरफ के लोगों को भारी हिंसा का सामना करना पड़ा तो यह नव-निर्मित देश के लोगों को राष्ट्रीयता की घुट्टी पिलाने में सहायक नहीं होगा। हिंदुओं और सिखों के बारे में एक झूठी छवि बनाई जा रही है। साथ ही यह भी भुला दिया जा रहा है कि इस उप-महाद्वीप के मुसलमान यहां के हिंदुओं से ज्यादा साम्य रखते हैं, बनिस्पत कि किसी दूर-दराज के क्षेत्र के मुसलमानों के। ऐसे में अगर वहां के युवाओं में देश के प्रति महज एक-आयामी नजरिया पैदा हो जाए तो उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

भारत के दक्षिणपंथी पाकिस्तान की निंदा तो करते हैं, लेकिन उनकी इतिहास की किताबों से सबक लेने में झिझकते नहीं। अब इनकी कोशिश है कि भारतीय पाठ्यक्रम भी ज्यादा से ज्यादा एकतरफा और विभाजनकारी हो जाए। भारतीय पाठ्यपुस्तकों को कट्टरपंथी विचारधारा पर लाने का अभियान शुरू हो चुका है, जिसके तहत मुसलमानों के बारे में आने वाले हर सकारात्मक उल्लेख को हटाने की कोशिश हो रही है, ताकि “हिंदू” गौरव को जिंदा किया जा सके, ‘जिन्हें सदियों से शिकार बनाया जाता रहा है’। सतत पीड़ित की आत्म निर्मित छवि कई बड़े उद्देश्यों में मददगार साबित होती है। इससे देश या समाज में मौजूद सभी बुराइयों के लिए दूसरे पक्ष (मुसलमानों/पाकिस्तान) पर या फिर किसी बाहरी ताकत (ब्रिटिश) पर दोष मढ़ा जा सकता है।

मुगल शासकों के मंदिरों व अन्य पूजा स्थलों को नष्ट करने और लोगों के जबरन धर्म परिवर्तन करने को संदर्भ से हटा कर पेश किया जाएगा ताकि उन्हें सिर्फ बुरी ताकत के तौर पर ही पेश किया जा सके। हिंदू शासकों के बुरे कामों को पूरी तरह उपेक्षित कर भुला दिया जाता है।

दक्षिणपंथ के प्रभाव से आ रही किताबों में हिंदुओं को ही भारत की विरासत का हकदार बताया जा रहा है, जहां मुसलमान हमलावर हैं यानी हिंदुस्तानी संस्कृति के पतन के जिम्मेवार।

सीमा के उस पार की तरह अपने देश में भी विभाजन का गहराई से विश्लेषण करने की बजाय इसके लिए महज मोहम्मद अली जिन्ना को जिम्मेदार ठहरा कर छुट्टी कर ली जाती है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एकमात्र खलनायक के तौर पर मुस्लिम लीग का ही नाम लिया जाता है, जबकि हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की भूमिका को पूरी तरह गौण कर दिया जाता है।

विरोधी इसे भी उदारवादियों और धर्मनिर्पेक्ष लोगों की ओर से दिखाया जा रहा गैर-जरूरी भय करार दे सकते हैं, लेकिन जैसा कि जेम्स एच विलियम्स और वेंडी डी बोखोर्स्ट हेंग ने ‘री कंस्ट्रक्टिंग मेमरी: टेक्सटबुक, आइडेंटिटि, नेशन एंड स्टेट’ पुस्तक में कहा है, पाठ्य पुस्तकें उन तथ्यों, आंकड़ों, तिथियों और ब्योरों की शरण स्थली होती हैं, जिनको कोई समाज अपने बच्चों की जानकारी में लाना जरूरी समझता है। पाठ्य पुस्तकें वह कथन भी स्थापित करती हैं जो यह बताते हैं कि घटनाएं कैसे घटीं, क्या हुआ और अब जो मौजूद है, उसने कैसे आकार लिया। किसी समूह की ओर से अपने भूत के प्रस्तुतिकरण का उसकी मौजूदा पहचान से सीधा संबंध है। “हम” क्या हैं (और क्या नहीं) इसी तरह “वे” कौन हैं। यानी पाठ्य पुस्तकें किसी देश के छुपे हुए सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को भी पेश करती है। शैक्षणिक पाठ्यक्रम में होने वाला बदलाव अक्सर इसकी वैधता को मिल रही चुनौती से निपटने की कोशिश भी होता है।


इस तरह पाठ्य पुस्तकें किसी देश के छुपे हुए सामाजिक और राजनीतिक ढाचे में झांकने का मौका देता है और शैक्षणिक पाठ्यक्रम में बदलाव अक्सर सत्ता की वैधता को मिल रही चुनौती का सामना करने की कोशिश भी होता है।


लंबे समय से भारतीय अपनी पहचान ऐसे देश के तौर पर करते रहे हैं जहां बहुलवाद पर जोर है, लेकिन अभी अगर उन्होंने इसे एक खास धर्म के साथ जोड़े जाने की कोशिशों का विरोध नहीं किया तो ‘विविधता में एकता’ महज इतिहास में दर्ज एक नारा बन कर रह जाएगा। अभी तो यह भी तय नहीं कि आने वाली किताबों में यह दर्ज भी होगा या नहीं। खगौलीकरण और विभिन्न समुदायों के आपसी मेल-जोल के इस दौर में राष्ट्र दूसरों को जाने और उनका सम्मान किए बिना खुद को परिभाषित नहीं कर सकते।


रितु शर्मा लगभग एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। रक्षा और संरक्षा के मुद्दों पर सक्रिय रही हैं। उन्होंने जर्मनी से कंफ्लिक्ट स्टडीज में मास्टर किया है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.