Published on Jan 20, 2021 Updated 0 Hours ago

आज हमारे सामने सबसे बड़े सवाल ये हैं कि डिजिटल युग में क्या लोकतंत्र बचेगा? क्या होगा उसका स्वरूप? क्या प्रजातांत्रिक व्यवस्था इस दौर से उभर पाएगी?

सत्ता की होड़ में झूठ की सहकारिता — डिजिटल युग में लोकतंत्र पर मंडराता खतरा

6 जनवरी 2021 को कैपिटॉल हिल पर ट्रंप समर्थकों का अप्रत्याशित हमला हुआ॰ पर उस हमले के बाद शुरू सिर-फुट्टवल के बीच ज्य़ादा शोर किसका रहा?

अमेरिकी संसद पर हिंसक हमला का, या फिर ट्वीटर द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप पर लगी आजीवन पाबंदी का?

वास्तव में सच्चाई यह है कि आज सबसे बड़े सवाल ये हैं कि डिजिटल युग में क्या लोकतंत्र बचेगा? क्या होगा उसका स्वरूप? क्या प्रजातांत्रिक व्यवस्था इस दौर से उबर पाएगी? सोशल मीडिया के चलते आज दो प्रकार की सत्ताओं के हाथ में असीम ताक़त आ गयी है – एक तरफ है सर्व-साधन संपन्न शासन तो दूसरी ओर हैं टेक्नोलॉजी कंपनियाँ.

एक ओर चीन जैसे तानाशाही देश, अमेरिका की संसद यानी कैपिटॉल हिल पर हुए हमले पर ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे हैं. उनकी नज़र में अमेरिकी संसद में हुई हिंसा साबित करती है  कि सोशल मीडिया सरीख़े बेलगाम शैतान को क़ाबू करना प्रजातांत्रिक ताकतों के बस की बात नहीं है. यदि टेक्नोलॉजी को समाज के हित में उपयोग किया जाना है तो चीनी सत्ता तंत्र ही एक मात्र साधन है. पर दूसरी ओर सत्य यह है कि चाहे देश के राष्ट्रपति की करतूतों पर उत्पन्न विवाद हो या फिर और ट्वीटर के सीईओ द्वारा उन पर लगा प्रबंध – क्या सही क्या गलत – दोनों पक्ष अपने को सही गलत साबित करने में लगे हैं. जर्मनी की चांसलर एंजेला मरकेल ने तो स्पष्ट कर दिया है कि जैक डोरसे ट्रंप पर प्रतिबंध लगाकर प्रजातंत्र कि मूल व्यवस्थाओं को चुनौती दे रहे हैं.  सचमुच – यह बहस अमरीका, जर्मनी, भारत जैसे प्रजातंत्र में ही संभव है, चीन जैसे निरंकुश शासन में ऐसे बहस होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता. यह है प्रजातंत्र की शक्ति.

इन दोनों मुद्दों को लेकर आज अमेरिका जिस तरह से बंटा हुआ है, उससे ज़ाहिर है कि लोकतंत्र ही वह व्यवस्था है, जो नागरिकों और संस्थाओं से बनती है न कि सत्ता पक्ष के अनुष्ठानों से.

पर दूसरी ओर सत्य यह है कि चाहे देश के राष्ट्रपति की करतूतों पर उत्पन्न विवाद हो या फिर और ट्वीटर के सीईओ द्वारा उन पर लगा प्रबंध – क्या सही क्या गलत – दोनों पक्ष अपने को सही गलत साबित करने में लगे हैं. जर्मनी की चांसलर एंजेला मरकेल ने तो स्पष्ट कर दिया है कि जैक डोरसे ट्रंप पर प्रतिबंध लगाकर प्रजातंत्र कि मूल व्यवस्थाओं को चुनौती दे रहे हैं.  सचमुच – यह बहस अमरीका, जर्मनी, भारत जैसे प्रजातंत्र में ही संभव है, चीन जैसे निरंकुश शासन में ऐसे बहस होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता. यह है प्रजातंत्र की शक्ति.

अमेरीका आज बँटा है अमेरीकी राष्ट्रवाद के मूल सिद्धांतों को लेकर. पारंपरिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रवाद की जड़ें अमेरिकी संविधान में निहित हैं. अमेरिका का संविधान एक ऐसा संविधान है जिसमें दुनिया भर के देशों से आए प्रवासियों को कानून के अंतर्गत समान अधिकार और बराबरी कि स्वतंत्रता प्रदान की गयी है. किंतु राष्ट्रवाद कि इस परिभाषा को अमेरीका के ही अंदर आज से नहीं बल्कि काफी समय से चुनौतियां भी मिलती रहीं हैं. पर 60 के दशक में डेमोक्रेटिक पार्टी के ही जॉर्ज वॉलेस ने राष्ट्रवाद के इस विचार पर चुनौती खड़ी कर दी थी. हालांकि, उनको उतनी सफलता नहीं मिली. फिर भी वे 1968 में राष्ट्रपति जॉनसन के खिलाफ़ तृतीय पक्ष बन खड़े हुए और पहले ऐसे उम्मीदवार निकले जिन्होंने कई राज्यों के इलेक्टोरल वोट्स पर कब्ज़ा कर लिया. इस प्रकार संवैधानिक राष्ट्रवाद के खिलाफ़ समय-समय पर अमेरीकी दक्षिण चरमपंथियों ने कई बार सवाल खड़े कर प्रयास किया कि वे अमेरीकी राष्ट्रवाद कि परिभाषा को अपने स्वरूप में ढालें. यही कुछ करने में ट्रंप अंततः सफल हुए और आज हम एक बुरी तरह बंटे हुए अमेरीका को देख रहे हैं. 

सोशल मीडिया और अभिव्यक्ति की आज़ादी

डोनाल्ड ट्रंप के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर लगी पाबंदियों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी की बहस को पुनः घेरे में ला खड़ा किया है. क्या आज सोशल मीडिया कंपनियों के पास इतनी अथाह ताक़त है कि उनके सेठ जब चाहे जिसकी आवाज बंद कर सकते हैं. सवाल उठ रहे हैं कि  सोशल मीडिया की शक्ति को नियंत्रित कैसे किया जाए?

सच तो यह है कि इस मुकाम पर पहुंचते बहस के पहिए ने एक चक्कर पूरा कर लिया है. एक ज़माना था जब इंटरनेट कंपनियां और सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म ये बात ज़ोर देकर कहते थे कि वे मात्र खुले मंच हैं. उनके मंच पर आकर कौन क्या लिखता है, क्या पोस्ट करता है, वो पोस्ट करने वाला जाने – वे इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते. इसी बहस के चलते 1996 में पास किए गए अमेरिका के कम्युनिकेशन डीसेंसी एक्ट (CDA)की धारा 230 के तहत उनको विशेष संरक्षण देकर एक तरह से अभय दान मिल गया कि उनकी साईट पर कुछ भी ऊल-जलूल टीका टिप्पणी के लिए सोशल मीडिया कंपनी पर किसी प्रकार का कि दावा नहीं ठोका जा सकता.

फिर सामने आया 2001 और 9/11 से प्रारम्भ हुआ अमेरीका का आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध. इसके बाद सरकारों और जनता ने मिलकर इंटरनेट कंपनियों पर ये दबाव बनाना शुरू किया कि कैसे ऑनलाइन दुनिया से जिहादी कंटेंट तुरंत हटाया जाए ताकि उनको अपना प्रचार-प्रसार करने का मौका न मिले. सभी ओर से शोर था कि ऐसी सामग्री पोस्ट होने से रोकना और उसे तुरंत हटाना उन्हीं की ज़िम्मेदारी है और वे इस ज़िम्मेदारी से पल्लू नहीं झाड सकते. जिहादियों के खिलाफ़ तो सब पक्ष एक मत थे, पर कुछ ही समय बाद जब दक्षिणपंथी चरमवाद का प्रश्न आया तो एमटी विभाजित था. साडा कुत्ता टौमी त्वाडा कुत्ताकुत्ता का सिद्धांत दिखने लगा. कुछ लोगों को अभिव्यक्ति कि आज़ादी फिर याद आने लगी.  जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने कट्टर दक्षिणपंथी सामग्रियों को अपने मंच से हटाना शुरू किया, तो वो रूढ़िवादी गोरे नस्लवादियों के निशाने पर आ गए.

आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध के दो दशक के भीतर अमरीका में हुए अधिकांश आतंक स्वरूप हिंसक वारदातों में हाथ इस्लामिक जिहादियों के नहीं बल्कि दक्षिण पंथियों के पाये गए. और अंततः 6 जनवरी 2021 कि कैपिटॉल हिल पर हिंसा के रूप में अंजाम सामने आया. अमेरिकी संसद पर हमला इस्लामिक आतंकवादियों ने नहीं बल्कि ख़ुद वहीं के नागरिकों ने किया.

आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध के दो दशक के भीतर अमरीका में हुए अधिकांश आतंक स्वरूप हिंसक वारदातों में हाथ इस्लामिक जिहादियों के नहीं बल्कि दक्षिण पंथियों के पाये गए. और अंततः 6 जनवरी 2021 कि कैपिटॉल हिल पर हिंसा के रूप में अंजाम सामने आया.

इस बात का सीधा सबक़ ये है: वास्तव में सोशल मीडिया तो मात्र माध्यम है. माध्यम और संदेश में अंतर होता है. बंटवारा सोशल मीडिया नहीं कराता बल्कि वास्तव में जो बंटवारा सोशल मीडिया पर दिखता है वह दरअसल हमारे समाज में स्थित है. यही वास्तविक रूप है इस विघटन का. नफ़रत की बाढ़ तो हमारे समाज में आई हुई है, इसलिए, पहले हम संदेश और माध्यम – दोनों के बीच की भिन्नता पहचाने, उसके बाद ही इस विघटन, इस बँटवारे का इलाज हो पाएगा.

यदि सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की बात आयी तो भी बड़ा सवाल अब भी यही है कि,  किस पर, कब और कैसी पाबंदी लगे – यह निर्णय करने वाले पंच की भूमिका कौन निभाएगा? किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी को नियंत्रित करने का अधिकार किसे है? मूल में यही सवाल प्रासंगिक है. वास्तव में यह प्रश्न सिर्फ सोशल मीडिया नहीं बल्कि पारंपरिक मीडिया के संदर्भ में भी उठता रहा है पर इसे बार-बार पर्दे के पीछे धकेल दिया गया. आज जब सोशल मीडिया कि शक्ति के सामने सब कठघरे में खड़े हैं इस प्रश्न का हल निकालना और भी आवश्यक हो जाता है.

अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की सीमाएं निर्धारित करने का अधिकार सत्ता को नहीं दिया जा सकता. क्योंकि, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार मूलतः सत्ता के खिलाफ़ ही प्रदान किया गया था. नागरिक हुकूमत की गतिविधियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें – अमेरिका के संविधान में पहले संशोधन का सार यही था. हुकूमत कभी भी इतने शक्ति ना अर्जित कर ले कि वह अपने खिलाफ़ उठाने वाली आवाजों को दबा सके. और चीन में ही नहीं, प्रजातंत्रों में भी ऐसा संभव है. भारत के प्रजातंत्र ने भी 1975 का आपातकाल देखा है.

लोकतंत्र बुनियादी तौर पर सत्ता का विकेंद्रीकरण करता है. तकनीक ने एक ओर सत्ता के इस विकेंद्रीकरण को और बढ़ाने का काम किया है तो दूसरी ओर चीन जैसे निरंकुश सत्ता धारियों के हाथों नागरिकों पर निगरानी रखने के कई साधन दे दिये हैं. एक ओर जानकारी कि ऐसी बाढ़ है कि अथाह जानकारी के समुद्र में गोते लगाकर, हम सही-गलत का निर्णय करने में अक्षम होते आ रहे हैं. यह है अथाह असीमित अनियंत्रित जानकारी से भरे एक नए डिजिटल तमस युग में प्रवेश. चुनौती है कि हम इस अथाह सागर में कैसे अपनी नौका को पार लगा पाएंगे.

सोशल मीडिया ने अफवाह, झूठ और फरेब के प्रवाह को एक नयी शक्ति दे दी है. आज फरेब और अजीबोगरीब षडयंत्रों कि अफवाहों को हवा देने के लिए जैसे आपसी सहयोग कि सहकारी समितियों कि भरमार खड़ी हो गयी है. और हर पक्ष अपना पलड़ा ऊपर रखने के लिए इनका बखूबी इस्तेमाल करने में लगा है. ये हैं आपसी सहयोग से चलने वाले सोशल नेटवर्क जो लगे रहते हैं झूठ की बमबारी में.

सोशल मीडिया ने अफवाह, झूठ और फरेब के प्रवाह को एक नयी शक्ति दे दी है. आज फरेब और अजीबोगरीब षडयंत्रों कि अफवाहों को हवा देने के लिए जैसे आपसी सहयोग कि सहकारी समितियों कि भरमार खड़ी हो गयी है. और हर पक्ष अपना पलड़ा ऊपर रखने के लिए इनका बखूबी इस्तेमाल करने में लगा है. ये हैं आपसी सहयोग से चलने वाले सोशल नेटवर्क जो लगे रहते हैं झूठ की बमबारी में. अफ़वाहों का बाज़ार गर्म किया जाता है. आज ये दुष्प्रचार के नए औज़ार बन गए हैं.

विभाजित समाज का हर वर्ग, मुक्त रूप से इनका इस्तेमाल करता है. ऐसे झूठ फैलाने वाले नेटवर्क के ज़रिए, साज़िश की ऐसी तमाम कहानियां, चर्चा की मुख्य़धारा में जगह बना लेती हैं, अंततः अपने द्वारा फैलाये गयी साज़िशों और षडयंत्रों कि गाथाओं के भय से त्रस्त लोग खुद अपनी दहशतों के परवान चढ़ स्वयं साज़िशों के प्रणेता और कर्णधार बन जाते है. और यही 6 जनवरी 2021 को कैपिटॉल हिल पर हुआ.

वास्तव में यह झूठ और फ़रेब, यह षडयंत्रों और समाज को विभाजित करने वाली गाथाएँ समाज की गहरी दरारों का प्रतिबिंब मात्र हैं. सही मायने में यदि प्रजातंत्र को बचाना है तो अब समय आ गया है कि समाज की इन गहरी खाइयों को पाटने की कोशिश कि जाए. इस सब में ट्रंप कारण नहीं थे, बल्कि सामाजिक विभाजन का वे स्वयं एक नतीजा थे. बाइडेन के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी उन कारणों को उबरने की जिनकी वजह से ट्रंप सरीके राजनीति का अमेरीका में उदय हुआ. आशा है वे विभाजित वर्गों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने में सफल होंगे.

मात्र सोशल मीडिया के प्रतिबंधों से ये दरारें पाटी नहीं जा सकती. ट्रंप, लोगों से संवाद करने में उस्ताद हैं. संभवत: इन प्रतिबंधों के फलस्वरूप उनके अनुयायियों की तादाद और बढ़ ही जाए. कैपिटॉल हिल की हिंसा पर मचे बवाल के चलते उन कारणों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता जिनसे ट्रंपवाद और उनके जैसे आंदोलनों का जन्म हुआ है.

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