Author : Niranjan Sahoo

Published on Oct 10, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या वाकई शहरी नक्सलवाद गंभीर समस्या है यां फिर इस समस्या को जबरन बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है?

शहरी जैनवाद पर लगाम

पिछले महीने महाराष्ट्र पुलिस ने पांच प्रमुख कार्यकर्ताओं को इसी वर्ष जनवरी में हुए भीमा कोरेगांव मामले में चल रही तफ्तीश के सिलसिले में गिरफ्तार किया। इससे पहले जून में महाराष्ट्र पुलिस ने पांच और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था जिनके नक्सलवादियों से गहरे संबंधों का दावा किया गया था और कहा गया था कि ये लोग भीमा कोरेगांव हिंसा के भड़कने से ऐन पहले एक सार्वजनिक रैली के आयोजन में कथित तौर पर शामिल थे। इसके साथ ही पुलिस ने तब एक सनसनीखेज चिट्ठी को भी सार्वजनिक किया था जिसमें सभी पांचों आरोपी देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने में शामिल नजर आ रहे थे। हालांकि इन मामलों की अदालतों में सुनवाई चल रही है और पुलिस की जांच भी जारी है लेकिन जिस तरह से और जिस तरीके से पुलिस ने ये छापेमारी की और इन प्रख्यात कार्यकर्ताओं को शहरी नक्सली का नाम देकर गिरफ्तार किया वो अपने आप में राज्य द्वारा इसे एक नया नाम देने और नक्सलियों तथा उनकी विचारधारा को निशाना बनाकर चलाई जा रही अतिवाद विरोधी योजनाओं की समझदारी पर सवालिया निशान खड़े करता है। आखिर ये शहरी नक्सली कौन हैं और वो कितना गंभीर खतरा है कि सरकार को ऐसे कदम उठाने पड़ रहे हैं।

शहरी नक्सलीः नयी बोतल में पुरानी शराब

वामपंथी अतिवाद या माओवाद जिसने 50 के दशक में दुनिया के कई हिस्सों को हिलाकर रखकर दिया था, आज एक चुकी हुई ताकत है। वास्तव में अब तो यह चीन से भी खत्म हो चुका है जहां से इसकी शुरुआत हुई थी। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में क्रांतिकारियों और इस विचारधारा के मानने वाले लोगों को इसका वैचारिक आकर्षण और चेयरमैन माओ की वो अपील खींचती है जिसमें अर्ध औपनिवेशिक बुर्जुआ राज्य को उखाड़ फेंकते हुए सर्वहारा राज्य की स्थापना की बात कही गई थी। भारत में वामपंथी अतिवाद 60 के दशक में अपने जन्म के साथ ही ज्यादातर गांवों में सीमित रहा, और विशेषतौर पर अच्छे पढ़े लिखे रोमांटिक और स्वप्नदृष्टा लोगों पर इसका प्रभाव रहा। मिसाल के तौर पर चारू मजूमदार और कानू सान्याल जो कि 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के असली कर्ताधर्ता थे, वो सम्पन्न परिवारों और गैर ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे। जहां एक ओर चारू मजूमदार एक धनाड्य बंगाली जमींदार परिवार से आते थे और पास के ही सिलिगुड़ी कस्बे से ताल्लुक रखते थे, वहीं कानू सान्याल एक उच्चवर्ण बंगाली शरणार्थी थे जिन्होने अपना ज्यादातर वक्त शहरों में बिताया था। मौजूदा कई नेता भी जैसे गणपति, मुप्पला लक्ष्मण राव, कोबाद गांधी, अनुराधा गांधी, साकेत राजन, श्रीधर श्रीनिवासन, रवि शर्मा और बी. अनुराधा भी शहरों से ताल्लुक रखते हैं और अपने सम्पन और सुविधायुक्त जीवन को छोड़कर वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते गरीबों और शोषित लोगों के संघर्ष में शामिल हुए हैं।

हालांकि इस बात में शक नहीं है कि इस यूटोपियन अंदाज की विचारधारा की ओर पढ़े लिखे शहरी युवाओं का आकर्षण रहता है लेकिन ये भी देखना चाहिए कि आखिर शहरी क्षेत्रों में इसका कितना दखल है। जो भी वामपंथी अतिवाद पर नजर रखते हैं वो जानते हैं कि संसाधनों की कमी और सुरक्षा बलों के शिकंजे में फंसने के डर से माओवादी लंबे वक्त से शहरों में कुछ भी करने से बचते रहे हैं। हालांकि पिछले दशक में और खासतौर पर 2004 में लगभग 40 नक्सली गुटों के एक साथ आने के बाद, जिसके चलते भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन हुआ, इस नये संगठन ने दो ऐसे दस्तावेज जारी किये जिसमें शहरी क्षेत्रों में भी गतिविधि बढाने की आकांक्षा थी। ‘द स्ट्रेटेजीज़ एंड टैक्टिक्स ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन इन 2004 और अरबन पर्सपेक्टिवः अवर वर्क्स इन अरबन एरियाज इन 2007 में उन रणनीति और योजनाओं का जिक्र किया गया था जिसमें शहरी क्षेत्रों में विस्तार और ओवरग्राउंड और अंडरग्राउंड समर्थन का पूरा नेटवर्क तैयार करने की बात थी।

अगर उनकी सफलता के बारे में कहें तो शायद ही कोई उल्लेखनीय कामयाबी इतने सालों में उन्हें मिल पाई हो। ज्यादा से ज्यादा माओवादी कुछ शहरों जैसे रायपुर, सूरत, दुर्ग, फरीदाद और बस्तर की औद्योगिक पट्टियों में अपने सेल बना पाये हैं। इसके साथ ही कुछ रिपोर्ट्स ऐसी भी आई थीं कि कई अर्ध शहरी इलाकों जैसे कि यमुना नगर में जहां कई चीनी, लकड़ी और शराब की फैक्ट्रियां हैं और मजदूरों में असंतोष है, वहां पर भी उनको मजबूती मिली है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावी और नजर आने वाला असर दिखता है विरोध प्रदर्शनों या आंदोलनों में जो कि शहरी इलाकों में सरकार के खिलाफ किये जाते हैं। इनकी साफ तौर पर मजबूत मौजूदगी पश्चिमी बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम इलाकों में नजर आई जहां कहा जाता है कि उन्होंने आंदोलन और असंतोष को भड़काने का काम किया। हालांकि माओवादियों ने सीधे तौर पर किसी शहरी ठिकाने पर हमला नहीं किया लेकिन शहरी क्षेत्रों के आस-पास कई हमले हुए हैं। मिसाल के तौर पर उड़ीसा के नयागढ़ और दासपल्ला कस्बों में 15 फरवरी 2008 को हुए हमले और गजपति जिले के आर. उदयगिरी कस्बे में 24 मार्च 2006 को उड़ीसा राज्य पुलिस बल पर हुए हमले को इसके कुछ उदाहरण माना जा सकता है। हालांकि इस तरह के हमले काफी कम हैं और बिखरे हुए हैं और नक्सली सारा ध्यान शहरी क्षेत्रों में छिपकर गतिविधियां चलाने पर केन्द्रित किये हुए हैं। इसी तरह से बिहार के औरंगाबाद या जहानाबाद जेल में हुए हमले शहरी इलाकों में नक्सली खतरे की याद दिलाते हैं। हालांकि शहरी क्षेत्रों में उनकी गतिविधि खुद उन्हीं के लिए घातक साबित हुई है क्योंकि इसमें उन्हें अपने कई चोटी के नेताओं को खोना पड़ा है। उनके विचारक जैसे कि नारायण सान्याल, अमिताभ बागची, कोबाद गांधी को उनके शहरी ठिकानों से सुरक्षा बलों ने गिरफ्तार कर लिया। विश्वस्त सूत्रों जिनमें हथियार डालने वाले माओवादी और सुरक्षाबल भी शामिल हैं, के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में ठीक से काम न कर पाने और अपने कब्जे वाले इलाकों में हाल के दिनों में हुए भारी नुकसान की वजह से माओवादियों को पीछे हटना पड़ा है और उन्होंने इस मुश्किल हालात के बीच अपने शहरी विस्तार की आकांक्षाओं को विराम दे दिया है।

पिछले चार सालों में केन्द्र में मौजूद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सफलतापूर्क माओवादी गतिविधियों को महज 30 जिलों तक सीमित कर दिया है। सरकारी सूत्रों के मुताबिक 2011 में जहां माओवादी गतिविधियां 180 जिलों में फैली हुई थीं वहीं अब सिर्फ दो राज्यों छत्तीसगढ़ और झारखंड में उनकी मौजूदगी व्यावहारिक तौर पर नजर आती है। मोटे शब्दों मं कहें तो माओवादियों को मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के सटे त्रिकोणीय इलाके में सीमित कर दिया गया है। इसका परिणाम हुआ है कि इस साल अप्रैल में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने माओवादी गतिविधियों से प्रभावित जिलों की सूची में से 44 जिलों को निकालने का फैसला किया है। इसके साथ ही कई अन्य कदम भी उठाये गये हैं जैसे कि भीतरी इलाकों में सड़कों का निर्माण, बेहतर चौकसी, लगातार चलने वाले कॉम्बिंग ऑपरेशन और प्रभावित इलाकों में ज्यादा सुरक्षा बलों की मौजूदगी। इन सबसे माओवादियों को तगड़ा झटका लगा है। अकेले इस साल ही सुरक्षाबलों ने 140 माओवादियों को मार गिराया है जबकि पिछले चार सालों में सैकड़ों माओवादियों ने हथियार डाले हैं।

नक्सली हिंसा का तुलनात्मक अध्ययन (2005-2018)

Years Civilians Security Force Personnel LWE/CPI-Maoists Total
2005 281 150 286 717
2006 266 128 343 737
2007 240 218 192 650
2008 220 214 214 648
2009 391 312 294 997
2010 626 277 277 1180
2011 275 128 199 602
2012 146 104 117 367
2013 159 111 151 421
2014 128 87 99 314
2015 93 57 101 251
2016 120 66 244 430
2017 109 74 150 333
2018 80 57 179 316
Total* 3137 1983 2846 7966

स्रोत — साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल, डाटा 9 सितंबर 2018 तक

इसलिए जब वैश्विक तौर पर माओवादी विचारधारा अपना प्रभाव खो रही हो (जिसका प्रमाण कोलंबिया शांति प्रक्रिया है) और सुरक्षाबल माओवादियों के नेताओं और उनके काडर पर हावी हों, तो क्या सरकार को कुछ मुट्ठी भर कार्यकर्ताओं को शहरी नक्सली बताकर उनके पीछे लगना चाहिए। सरकार के इस तरह के जल्दबाजी में और बिना सोचे विचारे उठाये गये कदम से माओवादियों के विस्तार और उनकी प्रासंगिकता के मिथक को ही बल मिलेगा। इस आंदोलन के एक प्रसिद्ध चिंतक ने कहा कि जो भी भूमिगत उग्रवादी होता है उसे एक मिथकीय आवरण की जरूरत होती है। अतिवाद भी उतना ही सत्य है जितना इसके मिथक जो कि समाज उस अतिवादी के इर्दगिर्द बुनता है। यही वक्त है कि भारतीय राज्य को किसी मर चुकी विचारधारा के भूत को जगाने से बचना चाहिए इस पांच दशक पुराने उग्रवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने का मौका नहीं गंवाना चाहिए।

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