Author : Satish Misra

Published on Mar 13, 2019 Updated 0 Hours ago

किसी भी शक्तिशाली नीति की सफलता में, विशेष रूप से उस देश के निवासियों से मिलने वाली समझ महत्वपूर्ण होती है। सेना और पुलिस पर अधिक निर्भरता राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक साबित हो सकती है।

पुलवामा आतंकवादी हमला: एक नई नीति का उदय या बचाव की कोशिश

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी को पाकिस्तान आधारित आतंकवादी संगठन-जैश-ए-मोहम्मद द्वारा किए गए हमले में 40 से अधिक सीपीआरएफ कर्मियों की मौत हो गई। इस हादसे से ऐसे कई गंभीर सवाल उठे हैं, जिन पर विस्तार से विचार किए जाने की जरुरत है।

पुलवामा आतंकवादी हमले के कारणों की यदि पड़ताल करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह खुफिया विफलता के साथ-साथ सुरक्षा तैयारियों में की गई गंभीर चूक का परिणाम है। कई सुरक्षा विशेषज्ञों ने मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) यानी आम तौर पर सुरक्षाकर्मियों की आवाजाही को लेकर जिस प्रक्रिया का पालन होता है, उसमें लापरवाही या चूक की ओर संकेत किया है जिसके अंतर्गत किसी सैन्य दस्ते के जाने से पहले मानक ड्रिल किए जाने का प्रावधान है। इसके अलावा और भी लापरवाहियां हुई हैं। एक सवाल जो ज़हन में उठता है वो ये है कि क्या सुरक्षा बलों पर हुए पिछले हमलों से पर्याप्त सबक लिया गया है या नहीं और संबंधित दोषियों को दंड दिया गया या नहीं?

क्या सुरक्षा बलों पर हुए पिछले हमलों से पर्याप्त सबक लिया गया है या नहीं और संबंधित दोषियों को दंड दिया गया या नहीं?

यद्यपि पठानकोट और उरी में आतंकवादी हमले हाल में हुए हैं, परंतु मुंबई और संसद पर हुआ आतंकी हमला किए ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें देखते हुए सरकार को इस चुनौती का सामना करने के लिए दीर्घकालिक नीति तैयार करना चाहिए थी। इससे पहले भी आतंकवादियों ने 2000 में लाल किला, 2001 में जम्मू-कश्मीर विधान सभा, 2003 में गुजरात के अक्षरधाम मंदिर को अपना निशाना बनाया था जिसमें बड़ी संख्या में आम लोग मारे गए थे।

भारत तीन दशकों से अधिक समय से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है और आतंकवाद का सामना करता रहा है। इस दौरान कश्मीर पर इस्लामाबाद का ध्यान बराबर बना रहा है। नई दिल्ली में अलग-अलग समय पर दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों की सरकारें रही हैं। आतंकवाद और उग्रवाद का सामना करने के लिए मौजूदा जमीनी वास्तविकताओं के आधार पर इस संकट ग्रस्त राज्य में नीतियां कभी एक तो कभी दूसरे पहलू पर जोर देते हुए लगभग समान रही हैं, लेकिन पुलवामा हमले को देखते हुए इन मिली-जुली नीतियों के बीच से एक नई नीति के जन्म के संकेत मिल रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली NDA सरकार द्वारा इस नई नीति को शुरु करने का निर्णय राजनीतिक है। इसलिए, यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या यह एक सुविचारित योजना का परिणाम है जिसके पीछे एक लंबी रणनीति है जिसके परिणामस्वरूप पूरी तरह से तो नहीं परंतु कम से कम जम्मू-कश्मीर या देश में किसी भी अन्य जगह पर आतंकवादी हमलों को दोहराए जाने से रोका जा सकता है।

इस नई नीति के कुछ पहलू इसके कुछ घटकों के रुप में दिखाई दे रहे हैं जबकि अन्य अभी तक सामने नहीं आए हैं। इस नीति से यह लगता है कि सरकार पत्थरबाज़ युवाओं सहित असंतुष्ट और नाराज़ कश्मीरी लोगों की अनदेखी करते हुए आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों को अलग-थलग करने पर ध्यान दे रही है। परस्पर बातचीत की कोई संभावना नहीं है चूंकि सरकार इन तत्वों से सख्ती से निपटने का मन बना चुकी है।

यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या यह एक सुविचारित योजना का परिणाम है जिसके पीछे एक लंबी रणनीति है जिसके परिणामस्वरूप पूरी तरह से तो नहीं परंतु कम से कम जम्मू-कश्मीर या देश में किसी भी अन्य जगह पर आतंकवादी हमलों को दोहराए जाने से रोका जा सकता है।

155 राजनेताओं के साथ ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस (एएचपीसी) के 18 अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लेना इस नीति का एक ठोस सबूत है। कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों के 4,000 से अधिक छात्रों और व्यापारियों की वापसी अखिल भारतीय विद्यार्थीपरिषद (एबीवीपी) के युवकों द्वारा देहरादून में उन पर हमले के बाद या इसी तरह के हमले की आशंका के कारण हो सकती है लेकिन इस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी इतनी देर बाद तोड़े जाने से प्रश्न खड़े होते हैं। इसके परिणाम स्वरुप मोहभंग होने वाले युवाओं की संख्या में वृद्धि हो सकती है और इस से कश्मीरी जनता खासकर वहां के युवा और भी अलग-थलग पड़ जाएंगे।

ऐसा लगता है कि इस नए दृष्टिकोण ने उन नीतियों से बहुत कुछ लिया है, जो इजरायल में फिलिस्तीन समस्या से निपटने के लिए अपनाई जा चुकी है और अपनाई जा रही हैं। आक्रामकता और शक्ति-प्रयोग इस उभरती हुई नीति के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं जो पहले की नीति से भिन्न हैं। पूर्ववर्ती नीति में नरम और कठोर घटकों का समभाव था।

आम चुनाव के बाद मोदी सरकार की सत्ता में वापसी के बाद से अनुच्छेद 370 को हटाया जाना और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35 (क) की समाप्ति इस नीति के अन्य पहलू हैं जो कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करते है और यहां के स्थायी निवासियों को परिभाषित करते है। इससे राज्य में भूमि और संपत्ति की खरीद का रास्ता साफ हो जाएगा। अन्य राज्यों के नागरिक जमीन-संपत्ति खरीद सकेंगे। इस प्रकार से राज्य के मूल निवासियों के अनुपात में कमी आने लगेगी। जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी में भी बदलाव होगा और इसके दूरगामी परिणाम होंगे।

इस नीति का बाहरी आयाम पाकिस्तान को अलग-थलग करना और भारत के बूते में जो कुछ भी है, उससे दंडित करना है।

इसके कार्यान्वयन में अर्धसैनिक बल सहित सुरक्षा बलों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। भाजपा और उनके नेताओं को छोड़कर राज्य के अधिकांश राजनीतिक दलों को इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। इस बात का कोई संकेत नहीं है कि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों को विश्वास में लिया गया है या नहीं।

इस नीति का बाहरी आयाम पाकिस्तान को अलग-थलग करना और भारत के बूते में जो कुछ भी है, उससे दंडित करना है। पाकिस्तान से “सबसे पसंदीदा राष्ट्र” (एमएफएन) का दर्जा वापस लिया गया है और आयात पर उत्पाद शुल्क में 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है। उसके बाद, सिंधु जल संधि के अंतर्गत पाकिस्तान को मिलने वाले पानी को बाधित किए जाने का निर्णय लिया गया है। यह सिंधु जल संधि का स्पष्ट उल्लंघन है। यह दीगर बात है कि तकनीकी आधार पर ऐसा किया जाना संभव है या नहीं। भारत विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों और विभिन्न देशों में पाकिस्तान की संलिप्तता और आतंकवादी अपराधों को उजागर करने के लिए अत्यधिक प्रयास करने जा रहा है।

किसी भी शक्तिशाली नीति की सफलता में, विशेष रूप से उस देश के निवासियों से मिलने वाली समझ महत्वपूर्ण होती है। सेना और पुलिस पर अधिक निर्भरता राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक साबित हो सकती है। किसी छोटी लड़ाई को जीतना बहुत आसान है, परंतु व्यापक जन-समर्थन के बिना बनाई गई नीति के परिणाम आत्मघातक हो सकते हैं।

क्या वर्तमान कदम आने वाले चुनावी संघर्ष को ध्यान में रख्रकर उठाए जा रहे हैं, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। आगामी आम चुनाव पर पुलवामा के हमले का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसे लेकर राय काफी बंटी हुई है। यह दोधारी तलवार भी साबित हो सकती है।

चुनावी नतीजों के बावजूद, यह बड़ा सवाल है कि क्या यह नीति विशेष रूप से अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और मध्य एशिया में चीन की बढ़ती मौजूदगी की पृष्ठभूमि में समय की कसौटी पर खरी उतरेगी या नहीं यह। केवल आने वाला समय ही बता सकता है।

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