Published on Apr 01, 2019 Updated 0 Hours ago

2018 में पूर्वी एशिया के शिखर सम्‍मेलन में आसियान (दक्षिण-पूर्व एशिया का संगठन) की तरफ़ से हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसेफ़ि‍क) पर सकारात्‍मक विचार-विमर्श हुआ, इस दिशा में पहल इंडोनेशिया ने की।

इंडो-पैसफ़ि‍क के निर्माण में भारत की जगह

फिलीपींस सागर में गश्त करती अमेरिकी नौसेना। स्रोत: US Navy/Getty

इं‍डोनेशिया ने आसियान के सदस्‍य देशों को हिंद-प्रशांत को लेकर नज़रिए का कॉन्‍सेप्‍ट पेपर दिया, जिस पर वो आगे अपने सुझाव देंगे। इंडोनेशिया का हिंद-प्रशांत का ख़ाका हिंद महासागर में शांति और उसकी सुरक्षा के साथ-साथ प्रशांत महासागर पर ज़ोर देता है जो आर्थिक गतिविधियों के लिए बेहद ज़रूरी है।

इसके अलावा समंदर से जुड़े मामलों में सहयोग बढ़ाने और बुनियादी ढांचा विकसित करने को लेकर द्वीपों वाले देशों का ज़ोर, पारदर्शिता के सिद्धांत, सबको साथ लेकर चलने और अंतरराष्‍ट्रीय क़ानून का सम्‍मान करने पर है। इस क्षेत्र को संस्थागत बनाने की कोशिश के बीच जकार्ता नहीं चाहता है कि इस पूरे इलाक़े के मसलों का हल निकालने के लिए कोई नई संस्था बने। जकार्ता चाहता है कि पूर्वी एशिया का शिखर सम्‍मेलन ही एक धुरी का काम करे।

आसियान की हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसेफ़ि‍क) अवधारणा को शक्ल देने की इच्‍छा तो है लेकिन वो इसे अपनी तरह ढालना चाहता है। ये सब ऐसे वक़्त में हो रहा है जब कई देश हड़बड़ी में कदम उठा रहे हैं। इनमें सबसे महत्‍तवपूर्ण है जापान और अमेरिका की फ़्री एंड ओपन इंडो-पैसेफ़ि‍क (FOIP) की रणनीति।

इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में ये भी महसूस किया गया कि जैसे इंडो-पैसेफ़ि‍क एक बंद और विशेष इलाक़ा हो और उस पर ताक़तवर देशों की सियासत हावी हो रही हो। ऐसा भी लगा कि क्षेत्रीय मसलों को हल करने के मामले में जैसे आसियान को ड्राइवर की सीट से नीचे उतार दिया गया हो।

कई देशों को ऐसा तब लगा जब अमेरिका के उपराष्‍ट्रपति माइक पेंस ने खुले तौर पर चीन को चेतावनी देते हुए कहा कि साम्राज्‍यवादी सोच और आक्रामकता के लिए हिंद-प्रशांत में कोई जगह नहीं है। इसके साथ-साथ ये इतिहास में पहली बार हुआ कि एपेक (एशिया पैसेफ़ि‍क इकोनॉमिक कोऑपरेशन) जिसमें आसियान के 10 में से 7 देश सदस्‍य हैं, ने संयु‍क्‍त विज्ञप्ति जारी न की हो। ये सब ऐसे समय हो रहा है जब अमेरिका और चीन के बीच सुरक्षा और व्‍यापार के मुद्दे पर टकराव है। इलाक़े के बीच में होने के चलते आसियान देश चाहते हैं कि वो ड्राइविंग सीट पर मज़बूती से बैठें। इंडो पैसेफ़ि‍क शब्‍द का इस्‍तेमाल सबसे पहले भारतीय इतिहासकार कालिदास नाग ने 1941 में किया और फि‍र 2007 में जापानी पीएम शिंजो आबे के भारतीय संसद में दिए गए मशहूर भाषण “कॉन्फ्लूअन्‍स ऑफ द टू सी” (दो समंदरों का मिलन) के बाद इसे फि‍र से इस्तेमाल किया गया।

ये शब्‍द बाद में शिक्षा से जुड़ी बातचीत में आया और आगे के साल में औपचारिक होता गया, जैसे ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 2013 में रक्षा क्षेत्र के श्‍वेत पत्र में इसका इस्‍तेमाल किया। इंडोनेशिया के पूर्व विदेश मंत्री मा‍र्टी नतालेगावा ने उसी साल इंडो-पैसेफ़ि‍क की सुरक्षा के लिए एक क्षेत्र व्‍यापी समझौते की मांग की, वहीं 2018 की शुरुआत में इं‍डोनेशिया ने आसियान के मंच पर बातचीत के लिए इंडो-पैसेफ़ि‍क के मुद्दे को रखा। पीएम मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद “इंडो-पैसेफ़ि‍क” शब्‍द का आधिकारिक तौर पर इस्‍तेमाल होने लगा। हांलाकि ओबामा प्रशासन ने इस शब्‍द का इस्‍तेमाल शुरू किया लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्‍प ने अमेरिका के आधिकारिक बयान में एशिया-प्रशांत को हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसेफ़ि‍क) से बदला।

ये दो विशेषण आम विशेषण नहीं हैं बल्कि चीन को ये बताने के लिए हैं कि इस इलाक़े में जहाज़ों और विमानों की आवाजाही को लेकर उसकी दादा‍गीरी बर्दाश्‍त नहीं की जाएगी।

पिछले कुछ सालों में अमेरिका और जापान ने हिंद-प्रशांत के आगे मुक्त और खुला जैसे विशेषण लगाकर इसका खूब इस्‍तेमाल किया। इस तरह हिंद और प्रशांत महासागर के बीच विकसित भौगोलिक कम्‍पास को आदर्श अर्थ दिया गया।

सभी द्विपक्षीय और बहुपक्षीय साझा समझौतों में क्षेत्रीय अखंडता का ज़ि‍क्र किया गया ताकि हर देश की राष्‍ट्रीय कल्‍पना के साथ धूर्त देश को भी संदेश दिया जा सके।

इन सिद्धांतों में नियम आधारित (रूल बेस्ड) ऑर्डर, समावेशिता, पारदर्शिता, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का पालन करना, नेवीगेशन और ओवरफ्लाइट की स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखंडता आदि ऐसे मसले हैं जो दादागीरी करने वाले देशों से राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए द्विपक्षीय बल्कि बहुपक्षीय बातचीतों में भी शामिल रहते हैं।

ऐसे में मुक्त और खुले (Open and Free) को ऊपर लिखे उन सभी मूल्यों का प्रतिनिधि माना जा सकता है जो इंडो-पैसिफिक देशों की आर्थिक सफलता के लिए महत्‍तवपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

ये वे सिद्धांत हैं जिनको आधार बनाकर समावेशी और धारणीय इंडो-पैसिफिक क्षेत्रीय मॉडल का निर्माण किया जा सकता है। हालांकि ऐसा करना थोड़ा मुश्किल होगा क्योंकि एक तो यह बहुत बड़ा है और इसमें उप-क्षेत्रीय पहचान के साथ बहुत विविधता है।

इससे आगे ये वे सिद्धांत हैं जो सुरक्षा और आर्थिक सहयोग में प्रतिलक्षित होते हैं और यही दोनों (सुरक्षा और आर्थिक) इंडो-पैसिफिक क्षेत्रीय सहयोग के दो मुख्य आधार स्तंभ हैं। इसके साथ ही अमेरिका द्वारा इससे बाहर निकलने बाद क्षेत्रीय सहयोग को जो झटका लगा, उसके बावजूद बाद भी कंप्रेहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (CPTPP) और रीज़नल कंप्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) ऐसे समझौते हैं जो क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग में अग्रदूत सिद्ध हो रहे हैं। अगर सुरक्षा क्षेत्र की बात की जाए तो इस इलाक़े के देशों के बीच चतुर्पक्षीय और त्रिपक्षीय सहयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इस प्रकार इंडो-पैसिफिक एक ऐसे इलाके के रूप में उभरने जा रहा है जिसमें उप-क्षेत्रीय सहयोग की पहलें फलने-फूलने वाली हैं।

भारत की स्थिति क्या है?

2018 के शंग्रीला डायलॉग में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडो-पैसिफिक को लेकर भारत के विज़न को सामने रखा। भारत का यह विज़न ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, अमेरिका, जापान और केंद्रीय आसियान सहित सभी क्षेत्रीय सहयोगियों द्वारा तय किए गए मूल्यों के मुताबिक ही है। उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत किसी एक का पक्ष नहीं लेता बल्कि वह उन मूल्यों और सिद्धांतों का पक्ष लेता है जो आसियान द्वारा सर्वसम्मति से अपनाए गए हैं। इस प्रकार इंडो-पैसिफिक को लेकर भारत का विजन आसियान और इसके द्वारा बुने गए लक्ष्यों के इर्द-गिर्द ही घूमता है।

आसियान को महत्व देते हुए भारत क़ानून के राज के साथ आसियान के मुक्त और खुले इंडो-पैसिफिक के विचार को आगे बढ़ाने पर बल दे रहा है। ऐसा नहीं है कि भारत सिर्फ कहने के लिए इन बातों को कह देता हो बल्कि अन्य देशों के साथ संबंधों के मामले में वह इन्हें हक़ीक़त में सिद्ध भी कर देता है। इसका एक उदाहरण हम तब देख सकते हैं जब उसने बांग्लादेश के साथ शांतिपूर्वक साल 2014 में लैंड-बाउंड्री एग्रीमेंट किया। यही वह चीज़ है जो भारत को उन देशों से अलग खड़ा करती है जिनकी कथनी और करनी में अंतर होता है। परिणाम स्वरूप आसियान के प्रति भारत का यह दृष्टिकोण भारत को अपने सहयोगियों के बीच ऐसे देश के रूप में रखता है जो क्षेत्रीय सहयोगी हैं न कि एक ऐसा देश जो धन या बल के ज़ोर पर इलाक़े में अपनी दादागीरी चलाना चाहता है।

भारत हमेशा इस बात पर जोर देता है कि भूसामरिक संतुलन बनाए रखने के लिए, जिससे चीन की ओर पलड़ा न झुकने पाए, आसियान देशों की एकता सबसे महत्वपूर्ण है। भारत द्वारा आसियान को केंद्रीय महत्व देना इसे (आसियान) अधिक से अधिक सशक्त संगठन बनाता है, जो वर्तमान समय में बिखरा-बिखरा सा लग रहा है।

भारत एक ऐसी एकजुट आसियान को देखना चाहेगा जो इसके सदस्य देशों के बीच उठने वाले विवादों के बीच भी अपने मूल सिद्धांतों को संरक्षित रख सके। अंतिम रूप से देखा जाए तो चीन के साथ भारत का सीमा विवाद है जो इसे दक्षिण चीन आसियान सदस्य देशों के अधिकारों की रक्षा करने में बाधा उत्पन्न करते हैं। हालांकि भारत का ज़ोर इस बार पर हमेशा रहा है कि मित्र राष्ट्र द्वारा अप्रत्यक्ष सहयोग के साथ एकजुट आसियान भविष्य में किसी अप्रिय घटना से निपटने के लिए पर्याप्त होगा इसलिए भारत को इस इलाक़े से जुड़े किसी मसले पर अपने रुख़ से समझौता करने की ज़रूरत नहीं है, जब तक वह व्यापक रूप इंडो-पैसिफिक सहयोग के सिद्धांतों में विश्वास जताता है। और यह नीति भारत के लिए कई बार फायदेमंद भी रही है। सबसे पहले देखा जाए तो भारत को एक विश्वसनीय क्षेत्रीय सहयोगी के रूप में पहचान मिली है जो भरोसेमंद सुरक्षा दे सकता है। दूसरा, अमेरिका और इसके सहयोगियों के साथ घनिष्ट संबंध भारत को आधुनिक तकनीक, दुर्लभ संसाधन और सैन्य उपकरण उपलब्ध कराने में मदद करते हैं, जो पहले संभव नहीं था। तीसरा, क्षेत्रीय निर्माता के रूप में महत्वपूर्ण भाग के रूप में भारत को एक महत्वपूर्ण अवसर मिला है कि वह न सिर्फ नियमों का पालन करें बल्कि उन्हें तय भी करे। और आखिर में ये जुड़ाव भारत को चीन के साथ डील करने का एक सशक्त मंच प्रदान करता है। इस तरह इस दिशा में होने वाले कोई प्रयास भारत के लिए फ़ायदेमंद ही हैं।

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