Author : Victoria Panova

Published on Dec 02, 2021 Updated 0 Hours ago

विभिन्न देशों और अलग-अलग इलाक़ों के बीच असमानता का स्तर बढ़ गया है. इतना ही नहीं एक ही देश के भीतर अमीर और ग़रीब के बीच की खाई भी पहले से ज़्यादा चौड़ी हो गई है

कोरोना महामारी: बढ़ती असमानता और बेइंसाफ़ी के बीच इंसानीयत के लिए करो या मरो की जंग!

ये लेख हमारी कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.


हम सबने उम्मीद लगाई थी कि कोविड-19 महामारी जल्द ही ख़त्म हो जाएगी. बहरहाल हक़ीक़त ये है कि कोरोना आज भी लोगों की जान ले रहा है. ये महामारी इंसानी आबादी को सामाजिक और आर्थिक रूप से तबाह कर रही है. 23 नवंबर 2021 तक लगभग 25.8 करोड़ लोगों में आधिकारिक रूप से कोरोना संक्रमण की पुष्टि हो चुकी थी. कोरोना दुनिया में तक़रीबन 52 लाख लोगों की जान ले चुका है. अर्थव्यवस्था की बात करें तो 2020 में वैश्विक जीडीपी में 4.3 फ़ीसदी का संकुचन दर्ज किया गया. चीन को छोड़कर बाक़ी तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर नकारात्मक रही. 1930 के दशक की महामंदी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में ये सबसे बड़ी गिरावट थी. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि अतीत के वित्तीय और आर्थिक संकट के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कभी भी इतनी बड़ी मार नहीं पड़ी थी. उस वक़्त अर्थव्यवस्था में केवल 1.7 प्रतिशत का संकुचन देखा गया था. हालांकि उस दौर के संकट ने एक नई वैश्विक प्रशासकीय व्यवस्था (जी20 शिखर गुट यानी आज के दौर की असली आर्थिक ताक़त) को जन्म दिया था.

ज़ाहिर है कि संसार में सभी अर्थव्यवस्थाओं के एक साथ महामारी के पहले वाली अवस्था तक पहुंचने के आसार नहीं हैं. ये बात ख़ासतौर से उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर लागू होती है. विश्व बैंक ने कोरोना वैक्सीन के असमान वितरण को इन हालातों का ज़िम्मेदार बताया है. 

महामारी की वजह से 2020 में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के आकार या परिमाण में क़रीब 7.6 प्रतिशत की गिरावट हुई. 2021 में अर्थव्यवस्था कुछ हद तक पटरी पर वापस लौटती नज़र आ रही है. आकलनों के मुताबिक इस साल आर्थिक विकास की दर 4.7 प्रतिशत से 5.6 प्रतिशत के आसपास रहने वाली है. हालांकि, दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि की ये रफ़्तार एक समान नहीं है. ज़ाहिर है कि संसार में सभी अर्थव्यवस्थाओं के एक साथ महामारी के पहले वाली अवस्था तक पहुंचने के आसार नहीं हैं. ये बात ख़ासतौर से उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर लागू होती है. विश्व बैंक ने कोरोना वैक्सीन के असमान वितरण को इन हालातों का ज़िम्मेदार बताया है. यही वजह है कि 2022 तक उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के केवल एक तिहाई हिस्से के ही महामारी से पहले वाले स्तर तक पहुंचने की संभावना है.

स्वास्थ्य के मोर्चे पर मौजूदा संकट की वजह से दुनिया के अनेक हिस्सों में लॉकडाउन समेत तमाम तरह की पाबंदियों का दौर जारी है. इससे मानव कल्याण समेत कई अहम क्षेत्रों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. इन परिस्थितियों की सबसे बड़ी मार सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्यमों पर पड़ रही है. आमने-सामने इंसानी संवाद, ताल्लुक़ातों और गतिशीलता की ज़रूरत वाले आर्थिक सेक्टरों के विकास में रुकावट आ गई है. मिसाल के तौर पर पर्यटन उद्योग को ले सकते हैं. विकासशील देशों (मिसाल के तौर पर कैरेबियाई राष्ट्रों) के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा पर्यटन से आता है. एक आकलन के अनुसार महामारी की वजह से पर्यटन क्षेत्र को अपनी निर्यात क्षमता के 70 फ़ीसदी हिस्से से हाथ धोना पड़ा है.

2009 के वित्तीय संकट के चलते पैदा हुई बेरोज़गारी के मुक़ाबले मौजूदा संकट चार गुणा बड़ा है. नौकरियां या रोज़गार छिन जाने की मार पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर कहीं ज़्यादा पड़ी है. पुरुषों में नौकरियां गवाने वालों का आंकड़ा 3.9 प्रतिशत है जबकि महिलाओं में 5 प्रतिशत. 

पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा बेरोज़गार महिलायें

श्रम बाज़ार में भी संकट तेज़ी से गहरा रहा है. कोरोना की वजह से 2020 में तक़रीबन 11.4 करोड़ लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा. इसी कड़ी में अगर हम काम के घंटों में गिरावट (क़रीब 25.5 करोड़ नौकरियां जाने के बराबर) से जुड़े आंकड़ों को देखें तो और भी अफ़सोसनाक तस्वीर सामने आती है. 2009 के वित्तीय संकट के चलते पैदा हुई बेरोज़गारी के मुक़ाबले मौजूदा संकट चार गुणा बड़ा है. नौकरियां या रोज़गार छिन जाने की मार पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर कहीं ज़्यादा पड़ी है. पुरुषों में नौकरियां गवाने वालों का आंकड़ा 3.9 प्रतिशत है जबकि महिलाओं में 5 प्रतिशत. इसी तरह युवाओं (24 साल से कम आयु वाले) को अपेक्षाकृत बड़ी उम्र वाले लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा (क्रमश: 8.7 प्रतिशत और 3.7 प्रतिशत) नौकरियां गंवानी पड़ी है. इतना ही नहीं अनुमानों के मुताबिक 2021 में महिलाओं के लिए नई नौकरियों की संख्या कोविड-19 महामारी से पहले के कालखंड की अपेक्षा 1.3 करोड़ कम होगी. हालांकि पुरुषों में ये आंकड़ा दोनों ही अवधियों के दौरान समान रहने की उम्मीद है.

दुनिया ने टिकाऊ विकास के तमाम लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करने का लक्ष्य रखा था. महामारी ने हमें इस लक्ष्य से और भी दूर कर दिया है. विभिन्न देशों और अलग-अलग इलाक़ों के बीच असमानता का स्तर बढ़ गया है. इतना ही नहीं एक ही देश के भीतर अमीर और ग़रीब के बीच की खाई भी पहले से ज़्यादा चौड़ी हो गई है. गिनी गुणांक (Gini coefficient) पर कोविड-19 के प्रभावों का आकलन होना अभी बाक़ी है. हालांकि प्रारंभिक अनुमानों में महामारी से प्रभावित वर्षों में इसमें सालाना तक़रीबन 2 फ़ीसदी तक की बढ़ोतरी होने की आशंका जताई गई है. दुनिया के देशों ने अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं में जान फूंकने और अपने नागरिकों की मदद के लिए प्रोत्साहन पैकेजों के तौर पर अभूतपूर्व रूप से राजकोषीय स्रोतों का इस्तेमाल किया. इस सिलसिले में लगभग 12.7 खरब अमेरिकी डॉलर ख़र्च किए गए. इसमें से क़रीब 80 प्रतिशत रकम उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित और आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं ने अपने घरेलू मकसद से ख़र्च किए. विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने में इनका बेहद मामूली प्रभाव रहा. यही वजह है कि सरकारी कर्ज़ में शांति काल के दौरान अब तक की सबसे बड़ी बढ़त (15 प्रतिशत) देखने को मिली है. कमिटी फ़ॉर द कोऑर्डिनेशन ऑफ़ द स्टैटिस्टिकल एक्टिविटिज़ के रिसर्च के मुताबिक कोरोना महामारी के चलते 2020 का अंत होते-होते दुनिया की 7.1 करोड़ से 10 करोड़ की अतिरिक्त आबादी बेहद ग़रीबी वाले हालात में पहुंच गई. मोटे तौर पर देखें तो महामारी के चलते नए ग़रीबों की तादाद में तक़रीबन 13.1 करोड़ की बढ़ोतरी हुई.

दुनिया में ऐसे भी कई उदाहरण मिले हैं जिनसे  पता चलता है कि महिलाओं की अगुवाई वाले देशों ने कोविड 19 के ख़िलाफ़ अपेक्षाकृत अधिक कामयाबी से लड़ाई लड़ी है. इस सिलसिले में हम फ़िनलैंड की मिसाल ले सकते हैं. 

सीधे तौर पर महामारी की सबसे बड़ी मार महिलाओं पर पड़ी है. दुनिया में कोविड-19 ने सबसे ज़्यादा चोट आधी आबादी पर की है. समाज और अर्थव्यवस्थाओं में पहले से ही महिलाओं के लिए अनेक तरह की रुकावटें रही हैं. कोविड महामारी ने इन बाधाओं को और ठोस रूप दे दिया. नतीजतन स्वास्थ्य से लेकर आर्थिक हालात तक के क्षेत्रों में महिलाओं की तरक्की रुक गई. स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत अधिक है. सामाजिक कार्यकर्ता, असंगठित क्षेत्र के रोज़गार और बिना वेतन वाले देखभाल के काम में महिलाओं की सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी है. यही वजह है कि महामारी का संयोजित सामाजिक-आर्थिक प्रभाव भी महिलाओं को ही ज़्यादा झेलना पड़ा. महिलाओं पर कोरोना महामारी के प्रभावों को समझने के लिए पिछले 2 वर्षों में अनेक सर्वेक्षण और शोध कार्य किए गए हैं. इनसे पता चला है प्रत्येक चार में से कम से कम एक महिला या तो पूरी तरह से नौकरी छोड़ने या फिर अपने काम के घंटों में भारी कमी लाने पर विचार कर रही है. दरअसल कोविड-19 के चलते महिलाओं पर काम का दबाव और बोझ बढ़ गया है. बच्चों की देखभाल और घरेलू कामकाज से जुड़ी उनकी ज़िम्मेदारियां बढ़ गई हैं. हालांकि महिलाओं के संदर्भ में इन परेशान करने वाले आंकड़ों के बीच कुछ सुखद तस्वीरें भी देखने को मिली हैं. दुनिया में ऐसे भी कई उदाहरण मिले हैं जिनसे  पता चलता है कि महिलाओं की अगुवाई वाले देशों ने कोविड 19 के ख़िलाफ़ अपेक्षाकृत अधिक कामयाबी से लड़ाई लड़ी है. इस सिलसिले में हम फ़िनलैंड की मिसाल ले सकते हैं. फ़िनलैंड की प्रधानमंत्री सना मरीन ने समानता, पर्यावरण से जुड़े टिकाऊ तौर-तरीक़ों और सामाजिक सुरक्षा की पक्षपात रहित व्यवस्था को अपनी नीतियों के केंद्र में रखा. यही वजह रही कि फ़िनलैंड में कोविड-19 के मामले बेहद कम रहे. हालांकि दुनिया में सियासी रूप से अगुवाई वाले पदों पर महिलाओं की संख्या काफ़ी कम है. आंकड़े बताते हैं कि वैश्विक रूप से महिला सांसदों की तादाद इस साल 25.5 प्रतिशत (चौथाई हिस्से) के “अब तक के सर्वोच्च” स्तर तक पहुंच गई है.

फिर से कई हिस्सों में बंट गई है दुनिया

आकलन के मुताबिक तीन में से कम से कम एक महिला को अपने जीवनकाल में किसी न किसी तरह की हिंसक वारदात का सामना करना पड़ा है. कोविड-19 महामारी और ख़ासतौर से लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के प्रति हिंसा के मामले और गंभीर हो गए. हालांकि अनेक वजहों से इस बारे में सटीक आंकड़ा देना बेहद कठिन है. दरअसल, हिंसा की शिकार महिलाओं में से केवल एक तिहाई महिलाओं ने ही इन वारदातों के बारे में आधिकारिक दफ़्तरों में शिकायत दर्ज कराई है. इसके अलावा इन घटनाओं पर निगरानी रखने वाले ग़ैर-सरकारी संगठनों (NGO) और आधिकारिक आंकड़ों में भी भारी अंतर पाया गया है.

महामारी ने शिक्षा पर भी बड़ा भारी असर डाला है. बताया जाता है कि अलग-अलग देशों में लॉकडाउन की घोषणाओं के चलते 1.58 अरब छात्रों को शिक्षा हासिल करने के लिए ऑनलाइन माध्यमों का सहारा लेना पड़ा है. इस वजह से भी कई तरह की गंभीर समस्याएं पैदा हो गई हैं. ज़ाहिर है कि इससे विकसित अर्थव्यवस्थाओं और निर्धन देशों के बीच की विषमता और बढ़ गई है. इस सिलसिले में एक बुनियादी मुद्दा ज़रूरी इंफ़्रास्ट्रक्चर के अभाव से जुड़ा है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक दक्षिण पश्चिम एशिया और सब-सहारा अफ़्रीका के महज़ 20 फ़ीसदी घरों में ही इंटरनेट की सुविधा मौजूद है. इन इलाक़ों में बहुत कम लोगों के पास अपने निजी कंप्यूटर हैं. अमीर देशों के भीतर भी असमानता में बढ़ोतरी हुई है. इस कड़ी में रूस की मिसाल ले सकते हैं. वैसे तो रूस में आमतौर पर मज़बूत ICT इंफ़्रास्ट्रक्चर मौजूद है, लेकिन कई बच्चों वाले कामकाजी परिवारों को इस दौरान केवल एक कंप्यूटर से ही काम चलाना पड़ा है. परिवार के वयस्कों को अपने कामकाज और स्कूल से जुड़ी ज़िम्मेदारियों को इसी तरीक़े से बांटकर पूरा करना पड़ा है.

वैश्विक स्तर पर नए सिरे से जो विभाजन दिख रहा है उससे दुनिया और अधिक ग़रीब और असुरक्षित हो गई है. ऐसी दुनिया में ताज़ा ताज़ा ग़रीबी झेल रहे लोगों की हालत और खस्ता होने की आशंका है. वहीं अपेक्षाकृत सुखद हालात में रह रहे लोगों को भी इन परिस्थितियों में किसी तरह के फ़ायदे की उम्मीद नहीं है.

महामारी से जुड़ी और भी अनेक तरह की समस्याएं हैं. बहरहाल ग़ौर करने वाली बात ये है कि कोविड-19 ने एक प्रकार से मानवता की परीक्षा ली है. दुर्भाग्यवश इंसानी समाज इस इम्तिहान में खरा नहीं उतर सका है. महामारी से निपटने में एकजुटता दिखाने की बजाए हम एक-दूसरे के प्रति अलगाव भरे रवैए के गवाह बने. दुनिया के देशों ने मेल-मिलाप की बजाए अपने अहम को तवज्जो दिया. राष्ट्रों के बीच भू-राजनीतिक होड़ और रस्साकशी तेज़ हो गई. अंतरराष्ट्रीय और घरेलू वातावरण में अविश्वास और सामाजिक अशांति का बोलबाला देखने को मिला. इस कड़ी में एक बात सबको स्वीकार करनी होगी कि अल्पकालिक फ़ायदे अल्पकाल के लिए ही होते हैं. वैश्विक स्तर पर नए सिरे से जो विभाजन दिख रहा है उससे दुनिया और अधिक ग़रीब और असुरक्षित हो गई है. ऐसी दुनिया में ताज़ा ताज़ा ग़रीबी झेल रहे लोगों की हालत और खस्ता होने की आशंका है. वहीं अपेक्षाकृत सुखद हालात में रह रहे लोगों को भी इन परिस्थितियों में किसी तरह के फ़ायदे की उम्मीद नहीं है.

कोविड-19 महामारी का अभी अंत होता नहीं दिखता और न ही ये इंसान पर पड़ने वाली आख़िरी चोट है. ऐसे में इस पूरे मामले में सियासत के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. या तो इस जंग में हम सब साथ हैं या फिर जल्दी ही सब कुछ ख़त्म हो जाने वाला है.

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