यूक्रेन युद्ध से कुछ वर्ष पूर्व लगे हुए प्रतिबंध और बाज़ार के एशिया की ओर स्थानांतरित होने के कारण रूस की यूरो-अटलांटिक क्षेत्र में चल रही गतिविधियों में रुचि कम हो गई थी. इसकी वज़ह से मास्को अपरिहार्य रूप से एशिया केन्द्रित होने लगा था. यूक्रेन युद्ध ने भी भू-राजनीतिक रूप से इंडो-पैसिफिक में रूस की प्राथमिकताओं को नए सिरे से आकार देने का काम किया. इस वज़ह से शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात उत्तर कोरिया के साथ प्रासंगिकता खो चुके संबंधों को रूस नए आयाम में देखने लगा. हालांकि, दोनों देशों के बीच बढ़ रही नज़दीकी के पीछे एक कारण यह भी था कि दोनों ही देशों में घरेलू राजनीतिक स्थिति कमज़ोर होती जा रही थी. लेकिन इसके पीछे एक कारण यह भी था कि उत्तरपूर्वी एशियाई क्षेत्र को आज नहीं तो कल सत्ता को लेकर चल रहे संघर्ष में ख़ुद को सूक्ष्म रूप से कहीं ना कहीं देखना ही होगा. जैसे-जैसे विभिन्न देश अलग-अलग भू राजनीतिक समीकरणों को उभरता हुआ देख रहे हैं, उन्हें अपनी रणनीति का नए सिरे से आकलन करने पर मजबूर होना पड़ेगा. जैसा की प्योंगयांग और मॉस्को के मामले में हुआ है. इस वर्ष दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को 75 वर्ष पूरे होने वाले हैं. ऐसे में 24 वर्षों बाद पहली बार रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन प्योंगयांग की आधिकारिक यात्रा पर जा सकते हैं. जैसे-जैसे पावर यानी सत्ता का झुकाव उत्तर पूर्वी एशिया की ओर हो रहा है, वैसे-वैसे रूस और उत्तर कोरिया के बीच सहयोग की प्रकृति को इस उभरती भू-राजनीतिक गठजोड़ के संदर्भ में देखना अहम होने लगा है.
जैसे-जैसे विभिन्न देश अलग-अलग भू राजनीतिक समीकरणों को उभरता हुआ देख रहे हैं, उन्हें अपनी रणनीति का नए सिरे से आकलन करने पर मजबूर होना पड़ेगा.
रूस और उत्तर कोरिया के संबंधों की उड़ान
उत्तर कोरिया और रूस (पूर्व के सोवियत संघ) इन दोनों देशों के बीच संबंध 1940 के दशकों से हैं. इन दोनों देशों के बीच संबंध जोसेफ स्टालिन और किम इल संग के नेतृत्व में मजबूत हुए. शीत युद्ध के दौरान रूस और उत्तर कोरिया के बीच संबंध दोनों देशों के कम्युनिस्ट राष्ट्र होने के नाते वैचारिक समानताओं की वज़ह से आगे बढ़ते थे. ये संबंध उस वक़्त और भी प्रगाढ़ हुए जब सोवियत यूनियन पर स्टालिन की सत्ता थी. लेकिन स्टालिन की मौत के बाद इन संबंधों में तेजी से गिरावट आई, क्योंकि किम इल संग के राजनीतिक रुतबे को प्रभावित करने की कोशिश की गई. इस धारणा के कारण प्योंगयांग और मॉस्को के बीच संबंध बदले और यह स्थिति 1957 तक बनी रही. इसके बाद सेकंड कैबिनेट फार्मेशन यानी दूसरे मंत्रिमंडल के गठन के स्वीकृत होने तक यह स्थिति ऐसी ही रही. इसके बाद से ही किम उत्तर कोरिया के अकेले शासक बने हुए हैं.
इस शताब्दी के आरंभ में पुतिन ने इन संबंधों को दोबारा स्थापित करने के गंभीर प्रयास किए, लेकिन इसमें ज़्यादा प्रगति नहीं हो सकी.
1961 में उत्तर कोरिया ने मैत्री, समन्वय और आपसी सहयोग को लेकर बीजिंग तथा मास्को के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किए. इस संधि में उत्तर कोरियाई सरकार के ख़िलाफ़ किसी भी हमले की सूरत में दोनों देशों की ओर से उत्तर कोरिया के बचाव का वादा किया गया था. सोवियत संघ के विघटन तक ये संबंध सकारात्मक रूप से आगे बढ़ते रहे. लेकिन सोवियत संघ के विघटन की वज़ह से प्योंगयांग और उसकी अर्थव्यवस्था को भारी ख़ामियाजा भुगतना पड़ा और इस वज़ह से उत्तर कोरिया को अपने इतिहास के सबसे अभूतपूर्व मानवाधिकार संकट को झेलना पड़ा. रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के दौर में उत्तर कोरिया के साथ संबंधों की उपेक्षा की गई. इस शताब्दी के आरंभ में पुतिन ने इन संबंधों को दोबारा स्थापित करने के गंभीर प्रयास किए, लेकिन इसमें ज़्यादा प्रगति नहीं हो सकी. इसका कारण यह था कि प्योंगयांग इस दौरान यूनाइटेड स्टेट्स (US) के साथ लगातार बातचीत कर रहा था. हालांकि यह बातचीत उत्तर कोरिया के पहले परमाणु परीक्षण के चलते नाकाम हो गई. बाद में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों का मास्को एवं बीजिंग ने समर्थन किया, जिसके चलते संबंध बुरी तरह प्रभावित हुए. लेकिन यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद इस स्थिति में परिवर्तन हुआ. दोनों ही पक्षों ने इसे उत्तर पूर्वी एशिया में एक नई साझेदारी के विरुद्ध एकजुट होने का अवसर समझा.
यूक्रेन पश्चात रूस-कोरिया संबंध
2023 में रूसी रक्षा मंत्री ने प्योंगयांग की यात्रा के साथ इसकी शुरुआत की और बाद में किम जोंग उन, COVID-19 महामारी के पश्चात पहली मर्तबा किसी दूसरे देश की यात्रा पर रूस गए थे. किम की यात्रा के पश्चात उत्तर कोरिया के विदेश मंत्री चो सन-हुई ने मॉस्को का दौरा किया और बदले में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने भी दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने को लेकर बातचीत करने के लिए प्योंगयांग की यात्रा की. इन सारी यात्राओं की वज़ह से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और संगठनात्मक स्तर पर संबंधों को फास्ट-ट्रैक पर डाला जा सका है. हाल ही में रूसी विदेशी गुप्तचर सेवा के निदेशक सर्गेई नारीश्किन ने प्योंगयांग का दौरा किया था. इसके बाद ही UNSC में एक आश्चर्यजनक फ़ैसले में UNSCR 1718 के तहत उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों को जारी रखने के लिए UN पैनल ऑफ एक्सपर्ट्स यानी विशेषज्ञों के पैनल की सिफ़ारिश को रूस ने वीटो कर दिया था. उत्तर कोरिया को खुले आम समर्थन देने की वज़ह से रूस के US सहयोगियों जैसे दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भी संबंध बिगड़ गए हैं.
यूक्रेन संकट के पश्चात प्योंगयांग ने एक सुनहरा अवसर देखा और युद्ध में रूस का खुले तौर पर समर्थन करने की घोषणा कर दी. इसकी शुरुआत हालांकि एक अवसरवादी दांव के रूप में हुई थी, लेकिन बाद में यह समर्थन ठोस बन गया. रूस को उत्तर कोरिया की ओर से हथियारों की आपूर्ति की गई, जिसके चलते रूस-यूक्रेन युद्ध प्रभावित हुआ. इसके बदले में पिछले वर्ष प्योंगयांग को उसके स्पाय सैटेलाइट लांच यानी जासूसी उपग्रह प्रक्षेपण के लिए तकनीकी सहायता मिली.
कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स (CIS) के विस्थापित मजदूर जब रूस को छोड़ने लगे, तब से रूसी कंपनियां उत्तर कोरिया के श्रमिकों को काम देने में रुचि दिखाने लगी है.
अब जब उत्तर कोरिया अपनी सेना को नए सिस्टम्स के साथ आधुनिक बनाने की कोशिश कर रहा है, तब उसे नए रक्षा साझेदारों की बेसब्री से आवश्यकता महसूस हो रही है. रूस भले ही उत्तर कोरिया के साथ रक्षा साझेदारी में शामिल न हो, लेकिन वह उसकी गैर-परमाणु क्षमताओं को प्रोत्साहित कर सकता है. विगत कुछ वर्षों में उत्तर कोरिया और रूस के बीच पिपल-टू-पिपल यानी नागरिक-से-नागरिक संबंधों में सुधार हुआ है. रूस में सैकड़ों उत्तर कोरियाई काम करते हैं. कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स (CIS) के विस्थापित मजदूर जब रूस को छोड़ने लगे, तब से रूसी कंपनियां उत्तर कोरिया के श्रमिकों को काम देने में रुचि दिखाने लगी है. 2022 में उत्तर कोरिया से लगभग 31,000 श्रमिक रूस आए थे. इतना ही नहीं 2023 के अंत में उत्तर कोरिया से निर्माण क्षेत्र के 2000 नए श्रमिकों को काम देने का आवेदन किया गया था. यह श्रमिकों की संभवत: पहली ख़ेप होगी. इसके बाद भविष्य में श्रमिकों की आवाज़ाही में इज़ाफ़ा ही देखा जा सकता है.
रूस और इंडो-पैसिफिक कारक
सेना के लिए नए उपकरणों की तत्काल आवश्यकता के अलावा दोनों देशों के बीच संबंधों पर एशिया-पैसिफिक का एक और कारक दबाव डाल रहा है. प्योंगयांग को लगता है कि उसके बेहद नज़दीक पनप रहे US गठजोड़ के कारण उसकी सुरक्षा ख़तरे में पड़ गई है. ऐसे में इस ख़तरे का मुकाबला करने के लिए वह मॉस्को के साथ एक ऐसी समग्र साझेदारी को प्रोत्साहन देना चाहता है, जो भरोसेमंद सहयोगी के रूप में सबसे ऊपर हो. उत्तर कोरिया ऐसा इसलिए भी चाहता है क्योंकि इस वक़्त वह पश्चिमी देशों की ओर से रणनीतिक तौर पर अलग-थलग किया जा रहा है. इसके विपरीत मास्को के लिए यह एक ऐसा दांव है जो उत्तर पूर्वी एशिया, जहां उसके महत्वपूर्ण रणनीतिक हित जुड़े हैं, में उभर रहे राजनीतिक खेल में उसे एक अहम खिलाड़ी बनाता है. रशियन फेडरेशन की 2023 विदेश नीति अवधारणा में भी एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में विभाजन पैदा करने वाली गतिविधियों का मुकाबला करने के लिए एक वृहद अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को विकसित करने की बात कही गई थी. इस वज़ह से भी एशिया-पैसिफिक रणनीति को लेकर उत्तर कोरिया की अहमियत स्पष्ट हो जाती है. हालांकि मास्को की तत्कालिक प्राथमिकता ईर्स्टन यूरोप में उसका वेर्स्टन फ्लैंक हैं, लेकिन वह US तथा जापान की बढ़ती साझेदारी की चुनौती को अनदेखा भी नहीं करना चाहता है. इसके अलावा मॉस्को इस बात को भी भली भांति जानता है कि यह नई साझेदारी जापान के साथ उसकी रक्षा साझेदारी को कैसे प्रभावित करेगी, क्योंकि मास्को तथा जापान के बीच मैरीटाइम टेरिटोरियल डिस्प्यूट्स यानी समुद्री क्षेत्र विवाद चल रहे हैं. ऐसे में रूस और उत्तर कोरिया के बीच एक रणनीतिक साझेदारी दोनों ही देशों के हितों में है. यह साझेदारी इन दोनों देशों की सुरक्षा के लिए ख़तरा बनने वाले किसी भी सिक्योरिटी आर्किटेक्चर अर्थात सुरक्षा घेरे को कम करने का काम करेगी.
इसके साथ ही यह साझेदारी रूस को एशिया-पैसिफिक (जिसे इंडो-पैसिफिक भी कहा जाता है) क्षेत्र के भू-राजनीतिक समीकरणों में एक सामायिक हितधारक भी बनाती है. रूस हमेशा से इस क्षेत्र को संदेहास्पद निगाहों से देखता आया है. एशिया-पैसिफिक क्षेत्र के साथ रूस के लंबी अवधि के हित मेल खाते हैं. रूस इस क्षेत्र में किसी भी एक खिलाड़ी को विशेषत: उत्तरी पैसिफिक क्षेत्र में, बहुत ज़्यादा प्रभावशाली बनता नहीं देख सकता. इस रणनीति में उत्तर कोरिया एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में रूस को उसकी रणनीतिक संबंधों में विविधता लाने में सहायक साबित होता है, क्योंकि इसमें रूस को बेहद कम निवेश करने से भी भविष्य में अच्छा लाभ मिल सकता है. रूस के लिए उत्तर कोरिया इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि रूस के पास इस वक़्त कोई ख़रीददार नहीं है. और फिर रूस के संबंध जिन देशों के साथ अच्छे हैं, वे भी इस वक़्त चीन और US के बीच हेजिंग अर्थात प्रतिरक्षा रणनीति बनाने में जुटे हुए है. ऐसे में प्योंगयांग के लिए यह साझेदारी उसे एशिया-पैसिफिक की सुरक्षा में ज़्यादा सामायिक बनाते हुए उसे मॉस्को के साथ-साथ बीजिंग से भी कुछ अन्य लाभ मुहैया करवाती है. यदि सब कुछ ठीक-ठाक या बीजिंग के हिसाब से नहीं हुआ तो बीजिंग भी अपने दो पड़ोसियों के साथ देर से नहीं, बल्कि जल्द ही इस क्षेत्र में एक दृश्यात्मक भूमिका अदा करेगा.
बीजिंग भले ही इस चर्चा में एक आम विषय बन गया है, लेकिन फिर भी उसकी ओर वह तवज्जो नहीं दी जा रही जो उसे दी जानी चाहिए.
एक और अन्य महत्वपूर्ण कारक जो इन दो देशों के बीच संबंधों को बढ़ावा दे रहा है वह है इस क्षेत्र में नए खिलाड़ियों विशेषतः NATO का उदय. यूक्रेन युद्ध के बाद US तथा जापान की ओर से, विशेषतः जापान की ओर से, एक नई अवधारणा को बढ़ावा दिया जा रहा है. यह अवधारणा 'सुरक्षा की अविभाज्यता' से संबंधित है. इसका सीधा अर्थ यह है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की सुरक्षा, यूरोप की सुरक्षा से जुड़ी हुई है. दोनों क्षेत्रों की सुरक्षा के बीच एक रणनीतिक संबंध ने उत्तरी कोरिया और रूस को स्टैंडबाय यानी आपातकालीन तैयारी की स्थिति में लाकर रख दिया है. NATO की वार्षिक बैठक, जिसमें दक्षिण कोरिया और जापान अब नियमित रूप से निमंत्रित हैं, में यह साफ़ दिखाई देता है. NATO के जनरल सेक्रेटरी जेन्स स्टोल्टेनबर्ग ने दबंग सरकार अथवा दबंग शक्तियों के ख़िलाफ़ खड़े दोनों पक्षों के बीच ज़्यादा समन्वय पर बल दिया है. इस वज़ह से दोनों राजधानियों में रूस और उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ उभरने वाले किसी भी इंटर-कॉन्टिनेंटल एलाइंस यानी अंतर महाद्वीपीय गठजोड़ को लेकर सतर्कता देखी जा रही है. बीजिंग भले ही इस चर्चा में एक आम विषय बन गया है, लेकिन फिर भी उसकी ओर वह तवज्जो नहीं दी जा रही जो उसे दी जानी चाहिए. ऐसे में इन संबंधों को छोटी और लंबी अवधि के कारक ही प्रोत्साहन दे रहे हैं.
बीजिंग कारक और आगे की राह
एक ओर जहां रूस और उत्तर कोरिया के बीच संबंधों में उम्मीद से ज़्यादा तेज गति से सुधार हो रहा है, वही हम प्योंगयांग को लेकर बीजिंग के रवैये में भी एक परिवर्तन देख रहे हैं. रूस-उत्तर कोरिया संबंधों को लेकर बीजिंग ने अब तक ठंडी प्रतिक्रिया ही दी है, लेकिन इसके साथ ही उसने प्योंगयांग के साथ बातचीत भी बढ़ा दी है. बीजिंग की ठंडी प्रतिक्रिया इस बात का संकेत है कि उसने उत्तर कोरिया और रूस के संबंधों को स्वीकार कर लिया है. इसका कारण यह है कि वह इन संबंधों को अपने रणनीति के समीकरणों के साथ जुड़ता हुआ देखता है. उसके राजनीतिक समीकरण का लक्ष्य इस क्षेत्र में उसकी प्रधानता को चुनौती देने वाले त्रिस्तरीय सुरक्षा तंत्र को कमज़ोर करना है. यदि इंडो-पैसिफिक में विस्तारित हो रहे US फ्रेमवर्क के जाल से इस क्षेत्र में भूराजनीतिक स्थिति बीजिंग के लिए चुनौती बन जाती है तो संभावना है कि वह उत्तर कोरिया के साथ नज़दीकी संबंध स्थापित करने पर मजबूर हो जाएगा. ऐसे में रूस और चीन, दोनों की ओर से उत्तर कोरिया की अर्थव्यवस्था को मिलने वाले सहयोग के कारण 2009 से US तथा उसके सहयोगियों की ओर से उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों से होने वाला सारा लाभ ख़त्म हो जाएगा. और इसकी वज़ह से एक नए सक्रिय शीत युद्ध की शुरुआत भी हो जाएगी जैसा की 1950 के दशकों में कोरियाई युद्ध के वक़्त हुआ था. यूक्रेन युद्ध ने एक बटरफ्लाई इफेक्ट डाला है (यानी छोटी घटना होने के बावजूद व्यापक प्रभाव डालना), जिसकी वज़ह से उत्तर पूर्वी एशिया की सुरक्षा रचना में परिवर्तन हो सकता है. इसके आरंभिक लक्षणों को रूस और उत्तर कोरिया के संबंधों में आ रही मजबूती का निरीक्षण करते हुए समझा जा सकता है. आने वाले वर्षों में उत्तर-पूर्व एशिया की भू-राजनीतिक घटनाओं की ट्रैजेक्टरी यानी उड़ान का निरीक्षण करना मजेदार हो सकता है. हालांकि यहां संघर्ष की संभावना एकदम कम है.
अभिषेक शर्मा तथा राजोली सिद्धार्थ जयप्रकाश ORF की स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट है.
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