Author : Sunjoy Joshi

Published on Sep 28, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर न सिर्फ़ भारत बल्कि समूची दुनिया के पास सीमित विकल्प है. तालिबान सरकार को मान्यता देने का सवाल ही पैदा नहीं होता. 

सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए साझे हित वाले देशों के साथ सहयोग व हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल एजुकेशन में निवेश ज़रूरी: संजय जोशी

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ़) के चेयरमैन संजय जोशी ने इंडिया-स्टैट की सीनियर जर्नलिस्ट महिमा शर्मा को दिए गये एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में भारत की बेहतरी के लिए अपने सुझाव दिए. उन्होंने भारत की सामरिक स्थिति, 2021 के अफ़ग़ानिस्तान संकट से लेकर देश की आर्थिक स्थिति, कोविड-19 महामारी और पिछले कुछ महीनों में पेट्रोल-डीज़ल की रिकॉर्ड कीमतों तक पर अपनी राय रखी. उन्होंने बताया कि अगर आने वाले दिनों में सामाजिक-आर्थिक संकट को रोकना है तो देश को किन चिंताओं को नियमित तौर पर दूर करना होगा. आइए, देखते हैं कि उन्होंने क्या सुझाव दिए, विशेष तौर पर वैसे सुझाव जो भविष्य में स्वास्थ्य क्षेत्र की किसी भी आपदा को रोकने में मददगार हो सकते हैं ताकि हमारी शिक्षा व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को झटका न लगे.

महिमा शर्मा: तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा हो गया है, जबकि आइसिस (ISIS) इस क्षेत्र में और आतंकवादी हमले करके अराजकता को बढ़ावा दे रहा है. इस वजह से अफ़ग़ानिस्तान संकट और गहरा रहा है. पाकिस्तान में ऐसी आवाजें उठ रही हैं, जो तालिबान से कश्मीर में दख़ल देने की अपील कर रही हैं. इन सबका भारत में सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों पर किस तरह से दूरगामी परिणाम दिख सकते हैं? भारत को ऐसी मुश्किलों से बचने के लिए कौन से कदम उठाने चाहिए?

संजय जोशी: अफ़ग़ानिस्तान को लेकर न सिर्फ़ भारत बल्कि समूची दुनिया के पास सीमित विकल्प है. अगर मैं समूची दुनिया कह रहा हूं तो इसका मतलब है हर कोई. एक हद तक पाकिस्तान भी. अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर रूस चिंतित है, चीन भी फिक्ऱमंद है. रूस इसलिए चिंतित है क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान के कारण मध्य एशिया में अस्थिरता पैदा हो सकती है. आप आतंकवाद, नार्को-आतंकवाद, हथियारों के व्यापार, हथियारों की तस्करी को इजाज़त नहीं दे सकते. इसलिए रूस मौजूदा हालात को लेकर बुरी तरह से चिंतित है. यही स्थिति चीन की भी है. अफ़ग़ानिस्तान में आज जो अस्थिरता है, उससे सिर्फ़ इस्लामिक स्टेट और पाकिस्तानी जनरल और उनकी खुफ़िया एजेंसी आईएसआई ही खुश हो सकते हैं. यहां तक कि इससे पाकिस्तान में और लोग भी खुश नहीं होंगे. पाकिस्तान के जनरल और आईएसआई इस वजह से खुश होंगे कि अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता से उनकी दुनिया में पूछ बढ़ेगी. वे प्रासंगिक बने रहेंगे. अगर भारत की बात करें तो हमें यह मानना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर हम मज़बूत स्थिति में नहीं हैं. दूसरी तरफ, तालिबान सरकार को मान्यता देने का सवाल ही पैदा नहीं होता. फिर भारत क्या कर सकता है? मुझे लगता है कि वह उन देशों के साथ बातचीत कर सकता है, जिनका हित अफ़ग़ानिस्तान को स्थिर देखने में है. रूस, ईरान और यहां तक कि चीन से भी वह इस सिलसिले में बातचीत कर सकता है. लंबी अवधि की बात करें तो अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान ने जिन ताकतों को शह दी है, उससे वह भी ख़तरा महसूस कर सकता है. अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता बनी रहती है तो इससे इस्लामिक स्टेट और उस जैसे दूसरे आतंकवादी संगठन को अपने पांव फैलाने का मौका मिलेगा. इस बीच, भारत को इस क्षेत्र में सहयोगियों की तलाश करनी चाहिए. जो अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता बनाए रखने के हक़ में हैं, भारत समान सोच वाले देशों और पक्षों के साथ मिलकर काम कर सकता है. यह काम कैसे किया जाए? क्या यह तालिबान पर दबाव बनाकर हो सकता है या उसके साथ बातचीत करके? इसका फैसला हमें दूसरे सहयोगियों के साथ मिलकर करना होगा.

अफ़ग़ानिस्तान में आज जो अस्थिरता है, उससे सिर्फ़ इस्लामिक स्टेट और पाकिस्तानी जनरल और उनकी खुफ़िया एजेंसी आईएसआई ही खुश हो सकते हैं. यहां तक कि इससे पाकिस्तान में और लोग भी खुश नहीं होंगे. 

महिमा शर्मा: एक तरफ तो हम जानते हैं कि चीन के उभार में पश्चिमी देशों की क्या भूमिका रही और इस वजह से भारत ने खुद को कई बंदिशों से घिरा पाया. और अब चीन के लिए अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान काफी महत्वपूर्ण है. कुल मिलाकर, चीन का ख़तरा भी बढ़ गया है. भारत इस भौगोलिक और राजनीतिक ख़तरे को कम करने के लिए क्या कर सकता है, उसे कौन से कदम उठाने चाहिए?

संजय जोशी: जैसा कि ऊपर मैंने अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान को लेकर कहा है. आख़िर में ये सभी बातें आपस में जुड़ी हुई हैं. पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन, भारत और उसके सहयोगियों के लिए मुश्किलें पैदा करना चाहता है. भारत को इस क्षेत्र में नए सिरे से दूसरे मोर्चे बनाने होंगे और उन्हें मज़बूत करना होगा. ऐसे मोर्चे जिन पर शायद उसने पहले ध्यान न दिया हो. अमेरिकी सैनिकों के अफ़ग़ानिस्तान से लौटने के बाद हम देख सकते हैं कि इस दिशा में कई बातचीत शुरू हुई है. आपने देखा कि रूस और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बीच इस पर बातचीत हुई. भारत इस सिलसिले में अमेरिका से भी बात कर रहा है. मुझे इसका भी भरोसा है कि वह ईरान के साथ भी बात कर रहा होगा. ईरान भी सुन्नी बहुल तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में आने से चिंतित होगा. उसे इस क्षेत्र में इससे अपने हितों के प्रभावित होने की फिक्र होगी. ये देश अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता के लिए भारत के साथ मिलकर काम कर सकते हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान दूसरी जगहों पर आतंकवादी भेजने का ज़रिया न बने.

महिमा शर्मा: हाल ही आपने कहा था, ‘भारत-प्रशांत का उभार न सिर्फ एक सामरिक सच्चाई है बल्कि यह 21वीं सदी का भू-आर्थिक आयाम भी है.’ तालिबान और चीन की ओर से ख़तरे को देखते हुए भविष्य में क्वॉड के अलावा भारत-प्रशांत रणनीति क्या होनी चाहिए? क्वॉड में शामिल देश समुद्री बल की तैयारी कर रहे हैं.

संजय जोशी: अगर अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में अमेरिका की बात करें तो पाकिस्तान के साथ उसका रिश्ता, भारत के साथ किसी भी रिश्ते से बढ़कर था. क्या अगस्त 2021 के बाद यह बदल जाएगा? अगर पाकिस्तान अभी भी अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण बना रहता है, जैसा कि पहले था और वह पाकिस्तान की बदनीयती को देखने से मना कर देता है, और उसे रोकने के लिए कदम नहीं उठाता तो भारत और अमेरिका और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के क्वॉड सहयोगियों के बीच समस्या खड़ी हो सकती है. ऑस्ट्रेलिया ने मित्र देशों के लिए सेना भेजी है ताकि वे उनके जवानों के साथ मिलकर लड़ सकें. अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई में भी वह भागीदार रहा है, लेकिन यह सब अमेरिकी हितों की ख़ातिर हुआ. अमेरिका को लेकर ऑस्ट्रेलिया की नीति नाटो सहयोगियों जैसी रही, जिनके लिए भारत के मुकाबले पाकिस्तान अधिक महत्वपूर्ण बना हुआ था. भारत ऐसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र की कल्पना नहीं कर सकता, जिसमें उसके पश्चिमी सहयोगी शामिल न हों. और अमेरिका की वापसी के बाद यह और भी ज़रूरी हो गया है, जिसका उसके सामरिक हितों पर असर पड़ना तय है.

अगर अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में अमेरिका की बात करें तो पाकिस्तान के साथ उसका रिश्ता, भारत के साथ किसी भी रिश्ते से बढ़कर था. क्या अगस्त 2021 के बाद यह बदल जाएगा? अगर पाकिस्तान अभी भी अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण बना रहता है, जैसा कि पहले था और वह पाकिस्तान की बदनीयती को देखने से मना कर देता है

महिमा शर्मा: क्या भारत कोविड-19 की तीसरी लहर के लिए तैयार है, ख़ासतौर पर अगर बच्चे इसकी चपेट में आते हैं, जिन्हें लेकर इस ख़तरे की आशंका है? अगर भारत इसके लिए तैयार नहीं है तो तीसरी लहर से नुकसान को कम से कम रखने के लिए तुरंत क्या उपाय किए जा सकते हैं?

संजय जोशी: : मुझे नहीं पता कि तीसरी लहर आएगी या नहीं आएगी या हम कोविड के साथ जीने की आदत डाल लेंगे. यह वायरस बना रहेगा और इसलिए हमें इसके साथ जीना सीखना होगा. मुझे लगता है कि जब हम चिकित्सा क्षेत्र की नीतियों की बात करते हैं तो उसका संदर्भ तैयारी ही होती है. अब हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि मजबूत हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत न सिर्फ़ कोविड से निपटने के लिए है बल्कि भारत में आज जो स्थितियां हैं, उसे देखते हुए यह एक ज्वलंत सच्चाई भी है. कोविड के अलावा डेंगू से होने वाले बुखार और दूसरी बीमारियों के कारण भी बच्चों की मौत हो रही है. इसलिए हमारे सामने बड़ी चुनौती कमज़ोर हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर है. इसे रातों-रात ठीक नहीं किया जा सकता. क्या 21वीं सदी में देश को आगे ले जाने के लिए सेहतमंद युवा आबादी, बेहतर मानव संसाधन नहीं होने चाहिए? हमें कोविड-19 महामारी से सबक लेते हुए इसके लिए बेहतर योजना बनानी चाहिए. क्यों न हम एक मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करें, जिससे न सिर्फ़ कोविड से निपटने में मदद मिले बल्कि वह भविष्य में भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों से निपटने में मददगार हो.

क्या 21वीं सदी में देश को आगे ले जाने के लिए सेहतमंद युवा आबादी, बेहतर मानव संसाधन नहीं होने चाहिए? हमें कोविड-19 महामारी से सबक लेते हुए इसके लिए बेहतर योजना बनानी चाहिए. क्यों न हम एक मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करें, जिससे न सिर्फ़ कोविड से निपटने में मदद मिले बल्कि वह भविष्य में भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों से निपटने में मददगार हो. 

महिमा शर्मा: भारत कोविड-19 महामारी से निपटने में संघर्ष करता हुआ दिख रहा है. उसकी एक वजह अनियमित और अनिश्चित आर्थिक रिकवरी है. इस बारे में आपका क्या कहना है, ख़ासतौर पर इस दिशा में स्थिति को सुधारने के लिए कौन से उपाय फौरन किए जाने चाहिए?

संजय जोशी: कोविड न सिर्फ़ भारत बल्कि दुनिया के लिए भी ऐसा तजुर्बा रहा है, जिससे काफी सबक मिले हैं. इसने मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में ग्लोबल सप्लाई चेन की खामियों की पोल खोल दी. स्वास्थ्य और टीकाकरण के क्षेत्र में सप्लाई चेन की कमियां सामने आईं. कोविड ने हमें मजबूत हौसले के साथ डटे रहने का सबक भी सिखाया. इसने बताया कि दुनिया को चीन पर हद से ज्य़ादा आश्रित नहीं होना चाहिए. ग्लोबल सप्लाई चेन के मामले में दुनिया चीन पर आश्रित थी. इस गलती को दूर करने के लिए क्वॉड की ओर से एक पहल हुई है. इस सिलसिले में हमें तैयार रहना होगा और किसी भी संभावित जोख़िम से बचने के उपाय करने होंगे.

महिमा शर्मा: भारत को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में किस तरह के बदलाव करने चाहिए? कोविड महामारी के दौरान संसाधनों के अभाव में जो छात्र पीछे छूट गए हैं, उसकी भरपाई के लिए तकनीक और कोर्स के स्तर पर क्या किया जा सकता है?

संजय जोशी: कई अन्य देशों के साथ भारत के सामने भी पहली चुनौती डिजिटल खाई को भरने की है, जो कि बहुत बड़ी है. इस अंतर के बने रहने पर आप ऑनलाइन शिक्षा या पत्राचार के मामले में सफल नहीं हो सकते. अगर आपको इन क्षेत्रों में सफल होना है तो पहले इस खाई को भरना होगा. शिक्षा पर गरीबी का काफी असर होता है. अगर कोई गरीब है तो उसकी पहुंच अच्छी शिक्षा तक नहीं हो पाएगी. अगर आप शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाना चाहते हैं तो इसके लिए आपको और अधिक निवेश करने के लिए तैयार रहना होगा. हमें ऐसे प्रोत्साहन देने होंगे, जिससे डेटा और सेवाएं सबसे कम लागत पर उपलब्ध हों. भारत में आज दूरसंचार सेवाएं दुनिया में सबसे सस्ती हैं. भारत में डेटा सर्विस जिस कीमत पर मिल रही है, वह भी दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में सबसे कम है. भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि ये सेवाएं सिर्फ महानगरों तक सीमित न रहें बल्कि दूरदराज के गांवों तक पहुंचें. और जिन लोगों के पास बेसिक फोन हो, उनकी डेटा और शिक्षा तक समान पहुंच हो. इसके साथ यह कहना भी ज़रूरी है कि क्लासरूम शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है. शिक्षा असल में सामाजिकरण भी है, यह कोई तकनीकी प्रक्रिया नहीं है. इसलिए तकनीक से सारे हल मिलने की उम्मीद करना ठीक नहीं है. ना ही इसे लेकर बहुत आशावादी होना चाहिए. हमें एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जहां ये दोनों माध्यम साथ-साथ बने रहें.

क्लासरूम शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है. शिक्षा असल में सामाजिकरण भी है, यह कोई तकनीकी प्रक्रिया नहीं है. इसलिए तकनीक से सारे हल मिलने की उम्मीद करना ठीक नहीं है. ना ही इसे लेकर बहुत आशावादी होना चाहिए. हमें एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जहां ये दोनों माध्यम साथ-साथ बने रहें. 

महिमा शर्मा: भारत में अभी जो स्मार्ट सिटी प्रॉजेक्ट चल रहे हैं, उनसे हरियाली कम हो रही है और आपदाएं बढ़ रही हैं. यह स्थिति तब है, जबकि ब्रिक्स के जानकार लगातार ग्रीन एनर्जी की क्षमता बढ़ाने की बात कह रहे हैं. इस मामले में आपकी सलाह क्या होगी?

संजय जोशी: विकास और सस्टेनेबिलिटी के बीच हमेशा एक द्वंद्व चलता रहता है. कोई भी प्रॉजेक्ट, जिसमें अधिक ऊर्जा की जरूरत होगी, उससे पर्यावरण में कार्बन डायॉक्साइड भी बढ़ेगा. इसलिए चाहे स्मार्ट सिटी हों, मैन्युफैक्चरिंग क्षमता, सेवा क्षेत्र और स्वास्थ इंफ्रास्ट्रक्चर का विस्तार हो, सब पर यही बात लागू होती है. अभी एनर्जी इकॉनमी की जो स्थिति है, उसमें किसी भी तरह के विस्तार से कार्बन फुटप्रिंट बढ़ेगा. इसलिए पहले तो हमें प्रोडक्शन में जितनी बिजली लगती है, उसमें कमी लानी होगी. इसके साथ ऊर्जा की खपत में कटौती करनी होगी. यह काम भी रातोरात नहीं हो सकता. इसमें वक्त़ लगेगा. बेहतर होगा कि हम इस बदलाव के लिए एक योजना बनाएं. ऊर्जा के क्षेत्र में होने वाले इस बदलाव के लिए देशों के बीच आपस में बातचीत भी होनी चाहिए. बदकिस्मती की बात यह है कि यह बातचीत नहीं हो रही है. इस बारे में हम अभी भी या तो सब कुछ या कुछ भी नहीं की तर्ज पर बात करते हैं. इस क्षेत्र में संभावित बदलाव पर चर्चा होनी चाहिए. इसे कैसे लागू किया जाए, इस पर भी विमर्श होना चाहिए. इसमें जो समस्याएं आ सकती हैं, पहले उनकी पहचान की जाए, उसके बाद इन पर चर्चा हो. उसके बाद इन समस्याओं को हल किया जाए, न कि इन्हें खारिज किया जाए.

महिमा शर्मा: अक्षय ऊर्जा के लिहाज़ से बिम्सटेक देशों में बिजली की सप्लाई और मांग में अंतर बढ़ रहा है. इन हालात में आपके हिसाब से भारत की क्या रणनीति होनी चाहिए? भारत को बेहतर तरीके और तेजी से आगे बढ़ने के लिए क्या करना होगा?

संजय जोशी: भारत के पास आज इंटरनेशनल सोलर अलायंस है और उसे उसका लीडर का दर्जा मिला हुआ है. भारत तेज़ी से अपनी फोटोवोल्टेइक क्षमता बढ़ा रहा है. लेकिन वक्त आ गया है, हम आगे की सोचें. पहली बात तो इसके लिए तकनीक को लेकर संदेह को छोड़ना होगा. यह बात सिर्फ़ भारत पर ही लागू नहीं होती. यह उन सभी देशों के लिए है, जिन्हें इस बदलाव से गुज़रना है. बिजली के क्षेत्र में आज उथलपुथल मची ही है. इस क्षेत्र में हार-जीत का फैसला सरकारी नीतियों की बदौलत नहीं होना चाहिए. बिजली की खपत के लिए हम किन संसाधनों पर आश्रित होंगे, इसका फैसला हमेशा तकनीक के ज़रिये होता आया है. अक्षय ऊर्जा को अपनाने या दिखावे के लिए इसे अपनाने में फर्क है. जब तक हमारा ग्रिड कोयले से बनने वाली बिजली पर आधारित है, जब तक हम हरित ऊर्जा को अपनाने और उसे ग्रिड में खपाने की भरोसेमंद रास्ता तय नहीं कर लेते, बिजली से चलने वाली गाड़ियां हमारी समस्या और बढ़ाएंगी. वे हमारा कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाएंगी. यही बात हाइड्रोजन आधारित ईंधन पर भी लागू होती है. बिजली और हाइड्रोजन दोनों असल में ऊर्जा के सिर्फ़ कैरियर (वाहक) हैं, वे उसका प्राथमिक ज़रिया नहीं हैं. इसलिए अगर वाकई हमें हरित ऊर्जा को अपनाना है तो बिजली या हाइड्रोजन का माध्यम भी ऐसा होना चाहिए, जो प्रदूषण न फैलाए. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम हरित ऊर्जा के नाम पर दिखावा ही करेंगे और यह विंडो ड्रेसिंग के अलावा कुछ और नहीं होगी.

 बिजली और हाइड्रोजन दोनों असल में ऊर्जा के सिर्फ़ कैरियर (वाहक) हैं, वे उसका प्राथमिक ज़रिया नहीं हैं. इसलिए अगर वाकई हमें हरित ऊर्जा को अपनाना है तो बिजली या हाइड्रोजन का माध्यम भी ऐसा होना चाहिए, जो प्रदूषण न फैलाए. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम हरित ऊर्जा के नाम पर दिखावा ही करेंगे और यह विंडो ड्रेसिंग के अलावा कुछ और नहीं होगी. 

महिमा शर्मा: भारत में पेट्रोल, डीजल जीएसटी के दायरे से बाहर हैं. ऐसे में इनकी मौजूदा कीमतों के अर्थशास्त्र और भविष्य की संभावनाओं पर आप क्या कहेंगे?

संजय जोशी:  2015 के बाद से, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) के दाम में गिरावट शुरू हुई, भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शामिल था, जिसने पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के दाम को काफी ऊंचे स्तर पर बनाए रखा. उसकी वजह यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में जब भी तेल सस्ता होता है, भारत की इन पर टैक्स से आमदनी बढ़ती है. यह एक विवादास्पद नीतिगत फैसला है क्योंकि जब ईंधन की लागत में इजाफा होता है तो मैन्युफैक्चरिंग भी महंगी हो जाती है और सामान लाने ले जाने की लागत भी बढ़ती है. इससे महंगाई दर में बढ़ोतरी होती है, जिसका आखिरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर असर होता है. ये सब चीजें आर्थिक विकास दर पर असर डालती हैं और इस लिहाज से सरकार की टैक्स से आमदनी घटती है. इसलिए ईंधन पर अगर इस तरह से टैक्स लगाया जाए, जिससे कि आर्थिक विकास दर पर असर पड़े तो वह एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होता. भारत में यह समस्या इसलिए बढ़ गई है क्योंकि यहां तेल और गैस को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है. इसका मतलब क्या है?  इसका मतलब यह है कि एनर्जी किसी भी मैन्युफैक्चरिंग के लिए एक अहम संसाधन है या कच्चा माल है और इतने अहम कच्चा माल पर आप इनपुट टैक्स क्रेडिट नहीं देते. इससे सर्विस की लागत बढ़ती है, मैन्युफैक्चरिंग की लागत में इजाफ़ा होता है, जो बिजनेस की बुनियाद के खिलाफ़ है. इससे वैश्विक बाजार में भारतीय निर्यातकों को दूसरे देशों से मुकाबला करने में दुश्वारी पेश आती है. इसलिए हमें पेट्रोलियम गुड्स और टैक्स नीति में बदलाव करना चाहिए. अगर आप एक देश, एक टैक्स की बात कर रहे हैं तो अर्थव्यवस्था के इतने बड़े हिस्से पेट्रोल, डीजल को उस टैक्स के दायरे से बाहर नहीं रख सकते.

महिमा शर्मा: आपने एक बार लिखा था- सरकारों के लिए विरोध ज़रूरी है. यह किसी भी लोकतंत्र की जीवनरेखा है. मौजूदा किसान आंदोलन, जिसका कोई समाधान नहीं दिखता, उसके और नए सोशल मीडिया और मीडिया कानूनों के मद्देनज़र आप अपने बयान पर क्या कहेंगे?

संजय जोशी: मैंने एक सहज बात कही. लोकतंत्र में कानून बनाने को लेकर चर्चा होनी चाहिए. संसद और विशेष रूप से बनाई गई कई संसदीय समितियों में उन पर बहस हो. अगर हम यह काम अच्छी तरह कर पाए तो उन्हें लेकर सड़कों पर चर्चा की नौबत नहीं आएगी. अफ़सोस की बात यह है कि ऐसा नहीं हो रहा. कानूनों पर या तो कार्यपालिका बंद कमरे में चर्चा कर रही है या उनके खिलाफ़ सड़कों पर गुस्सा दिख रहा है. दोनों पक्षों के बीच कोई बातचीत नहीं हो रही. सरकार और विपक्ष के बीच संसदीय लोकतंत्र की बुनियादी बातों पर सहमति नहीं बन पा रही. जहां तक कानून बनाने की बात है, संसद की केंद्रीय भूमिका उस लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण है.

मुझे नहीं लगता कि आज कोई भी इससे इनकार करेगा कि सोशल मीडिया को रेगुलेट करने की ज़रूरत है. अब यहां यह सवाल आता है कि यह रेगुलेशन किस तरह का होना चाहिए?  निरंकुशता और रेगुलेशन के बीच सही संतुलन बनाना जरूरी है. यह बहुत ज़रूरी है. इसके लिए सिविल सोसायटी और सरकार के बीच बातचीत होनी चाहिए, जो कि एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है. 

जहां तक सोशल मीडिया की बात है, जो इस सवाल का दूसरा हिस्सा है, मुझे नहीं लगता कि आज कोई भी इससे इनकार करेगा कि सोशल मीडिया को रेगुलेट करने की ज़रूरत है. अब यहां यह सवाल आता है कि यह रेगुलेशन किस तरह का होना चाहिए?  निरंकुशता और रेगुलेशन के बीच सही संतुलन बनाना जरूरी है. यह बहुत ज़रूरी है. इसके लिए सिविल सोसायटी और सरकार के बीच बातचीत होनी चाहिए, जो कि एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है. अभी इस मामले में एक भरोसेमंद दृष्टि या प्रस्ताव हमारे सामने नहीं है. इसलिए हमें देखना होगा कि आगे यह क्या शक्ल-ओ-सूरत अख्त़ियार करता है.


संजय जोशी के बारे में —  संजय जोशी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ़), नई दिल्ली के प्रमुख हैं. वह इस संस्थान के चेयरमैन और चीफ एग्जिक्यूटिव हैं. उनके नेतृत्व में ओआरएफ़ पिछले 10 वर्षों में देश का प्रीमियर थिंकटैंक बना और इसके ज़रिये लोगों को वैश्विक मामलों की जानकारी मिल रही है.

उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा के मध्य प्रदेश काडर को 1983 में जॉइन किया था. 2009 में उन्होंने अपनी अकादमिक दिलचस्पी की वजह से समयपूर्व रिटायरमेंट ली. वह इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ स्ट्रैटिजिक स्टडीज़, लंदन में विज़िटिंग एसोसिएट और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी, अमेरिका में एनर्जी और सस्टेनेबल डेवेलपमेंट प्रोग्राम के विशिष्ट विज़िटर भी हैं. वह तकनीक, ऊर्जा, विकास जैसे विषयों पर वैश्विक बदलावों के मद्देनज़र के संदर्भ में उन्हें देखते, लिखते और उनपर व्याख्यान देते हैं. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को विकास और रोज़गार के मोर्चे पर जो दिक्कतें पेश आती हैं, वह उन पर भी लिखते-पढ़ते रहे हैं. वह यूट्यूब पर नियमित तौर पर वैश्विस और समसामयिक मामलों पर अपनी बात रखते हैं, जिसका नाम है ‘इंडियाज वर्ल्ड’, जो पॉडकास्ट के रूप में भी उपलब्ध है.

इंटरव्यू करने वाले के बारे में

महिमा शर्मा दिल्ली एनसीआर में रहती हैं और वह स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह 2005 से टीवी, प्रिंट और ऑनलाइन पत्रकारिता करती आई हैं. इससे पहले वह तीन साल तक अलायड मीडिया के साथ भी जुड़ी रही हैं. अपने करियर के दौरान वह CNNNews18, ANI – एशियन न्यूज इंटरनेशनल (रॉयटर्स के साथ मिलकर), वॉयस ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और कई अन्य जाने-माने ब्रांड्स के साथ काम कर चुकी हैं. हाल में उन्होंने डिजिटल मीडिया मार्केटिंग और कंटेंट स्ट्रैटिजिस्ट के तौर पर भी काम करना शुरू किया है. महिमा से [email protected] ईमेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.