Author : Rupa Subramanya

Published on Apr 17, 2020 Updated 0 Hours ago

अब ये बात पता है कि इस वायरस के संक्रमण से मृत्यु की दर बहुत अधिक नहीं है. ऐसे में नरेंद्र मोदी की सरकार को चाहिए कि वो लॉकडाउन की अपनी नीति पर फिर से विचार करे और इसमें आवश्यक परिवर्तन करे. कहीं ऐसा न हो कि इसमें बहुत देर हो जाए और देश को इसकी वजह से भयावह आर्थिक और मानवीय तबाही का सामना करना पड़े.

कोरोना वायरस और टोटल लॉकडाउन: एक आर्थिक एवं मानवीय आपदा

कोरोना वायरस की महामारी की रोकथाम के लिए भारत सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन का दूसरा चरण भी लागू कर दिया है. ये कोरोना वायरस प्रभावित अन्य सभी देशों के मुक़ाबले उठाया गया सबसे सख़्त क़दम है. कई मायनों में ये लॉकडाउन बेहद असामान्य है. पहली बात तो ये है कि एक अरब तीस करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश में 16 अप्रैल तक इस वायरस से संक्रमित लोगों की आधिकारिक संख्या लगभग तेरह हज़ार है. इनमें से 423 लोगों की इस वायरस के संक्रमण से जान चली गई थी. और एक अन्य महत्वपूर्ण बात ये है कि इस नए कोरोना वायरस से संक्रमित ज़्यादातर लोगों में इसके मामूली लक्षण ही पाए गए हैं. इसलिए किसी भी लिहाज़ से देखें, तो बहुत से विकसित और विकासशील देशों की तुलना में भारत में कोरोना वायरस की महामारी अभी काफ़ी नियंत्रित स्थिति में है.

मेरे साथ साथ बहुत से अन्य लोगों ने ये सुझाव दिया है कि भारत में संक्रमण के कम मामले सामने आने का एक कारण ये भी हो सकता है कि भारत में संक्रमण की जांच के लिए टेस्ट बहुत कम हो रहे हैं. अब तक भारत ने लगभग दो लाख 75 हज़ार लोगों का ही कोरोना वायरस टेस्ट किया है. जो भारत की प्रति दस लाख आबादी में 200 टेस्ट का अनुपात बताता है. इसकी तुलना अगर हम स्पेन से करें, तो वहां हर दस लाख आबादी में 600 टेस्ट किए गए हैं. जबकि, दक्षिण कोरिया में हर दस लाख लोगों में से छह हज़ार का टेस्ट किया जा चुका है.

इस बात की पूरी संभावना है कि भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले आधिकारिक आंकड़ों के अनुपात में बहुत अधिक हैं. लेकिन, अगर ये बात सच है तो एक और सवाल खड़ा होता है. और वो ये है कि अगर भारत में कोरोना वायरस का प्रकोप बहुत फैल चुका है, तो हमारी पहले से ही बुरी स्वास्थ्य व्यवस्था में कोरोना वायरस के मरीज़ों की बाढ़ उस अनुपात में क्यों नहीं दिख रही है? आख़िर भारत में हज़ारों लोग क्यों वेंटिलेटर पर नहीं हैं? चूंकि भारत में बुज़ुर्ग लोगों की आबादी भी काफ़ी अधिक है. और प्रदूषण जैसे कारणों से हमारे यहां सांस की बीमारियों के रोगी भी काफ़ी अधिक हैं, तो भी हज़ारों लोगों को वेंटिलेटर पर होना चाहिए था. लेकिन, अगर इनमें से कोई बात नहीं हो रही है, तो इसके पीछे राज़ क्या है? चीन जैसे तानाशाही देश में तो ये संभव है कि ऐसी बड़ी घटनाओं को दबा छुपा दिया जाए. लेकिन, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अगर ऐसी बात हो रही है, तो उसे छुपाया जाना करीब करीब असंभव है. भारत के मीडिया में लाख कमियां हों, लेकिन अगर देश में कोरोना वायरस के मरीज़ों की बाढ़ आई होती, तो मीडिया उसे फौरन लपक चुका होता. विदेशी मीडिया भी भारत के ऐसे राज़ को दुनिया के सामने उजागर करने में कोई क़सर नहीं छोड़ता. विदेशी मीडिया ये आरोप भी लगाता कि यहां कोरोना वायरस के संक्रमण की ख़बरों को छुपाया जा रहा है.

भारत में कोरोना वायरस के प्रकोप की एक अन्य प्रमुख बात ये है कि यहां संक्रमित लोगों की मृत्यु दर काफ़ी कम है. अगर हम सारे मामलों का अनुपात निकालें, तो ये 2.6 प्रतिशत के आस पास बैठता है. अगर इसकी तुलना इटली से करें, तो वहां कुल संक्रमित लोगों में से दस प्रतिशत की मौत हो गई. जबकि अमेरिका में इस वायरस से संक्रमित मरीज़ों की मौत का प्रतिशत केवल 1.5 ही है. इटली जैसे अपवादों को छोड़ दें, तो ज़्यादातर देशों में नए कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की मौत का प्रतिशत एक से दो प्रतिशत के आस पास ही है.

इन सच्चाइयों के अनुपात में भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के आंकड़े ये कहते हैं कि भारत को बहुत घबराने की ज़रूरत नहीं है. ख़ास तौर से तब और जब भारत ने अन्य देशों की तुलना में बहुत पहले ही उन विदेशी यात्रियों के लिए अपने दरवाज़े बंद कर दिए थे, जहां ये संक्रमण सबसे पहले फैला था. भारत ने ये क़दम अमेरिका और यूरोपीय देशों की तुलना में बहुत पहले ही उठा लिया था. ऐसे में कोरोना वायरस की महामारी का ख़ौफ़ उन मॉडलों पर आधारित है, जो ये अनुमान लगाते हैं कि अगर सख़्त क़दम न उठाए गए तो भारत में इस वायरस से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक होगी. लेकिन, ऐसा लगता है कि वायरस से मौत का संभावित आकलन करने वाले ये अधिकतर मॉडल ग़लत हैं. और इन सभी ने भारत में इस वायरस से मौत की संख्या को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा कर पेश किया है. जिससे डर का माहौल बना है.

रमनन लक्ष्मीनारायण ने न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने लेख में कहा कि उनके मॉडल के अनुसार अगर भारत अपने यहां लॉकडाउन नहीं करता, तो वहां इस वायरस से पचास करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हो सकते थे. ऐसे में इस महामारी से भारत में हालात बेहद भयानक होते

इन सभी जानकारों में से सबसे ख़राब मिसाल है रमनन लक्ष्मीनारायण की. आर. लक्ष्मीनारायण एक अर्थशास्त्री और महामारी के विशेषज्ञ हैं. उन्होंने भारत में लाखों लोगों की जान बचाने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की बहुत सराहना की है. रमनन लक्ष्मीनारायण ने न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने लेख में कहा कि उनके मॉडल के अनुसार अगर भारत अपने यहां लॉकडाउन नहीं करता, तो वहां इस वायरस से पचास करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हो सकते थे. ऐसे में इस महामारी से भारत में हालात बेहद भयानक होते. रमनन लक्ष्मीनारायण का दावा है कि उन्होंने भारत में वायरस के प्रकोप का एक मॉडल तैयार किया है. लेकिन इसकी जो रूप रेखा उन्होंने सबके सामने रखी है, वो उनकी बातों का ही लब्बो लुबाब है. ये मॉडल न तो सांख्यिकी पर आधारित है और न ही गणितीय फ़ॉर्मूले पर. ऐसे में बिना किसी आधार के वो एक भयंकर नतीजे पर कैसे पहुंच गए, ये बात समझ से परे है. इसके बावजूद रमनन लक्ष्मीनारायण के इस संदेहास्पद लेख और रिसर्च को भारत में बहुत अहमियत दी गई है. हमारे यहां इस वायरस के प्रकोप पर हो रही अधिकतर परिचर्चाओं में लक्ष्मीनारायण का बताया हुआ मॉडल ही केंद्र में है. जबकि इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. न ही इसके आधार पर कोरोना वायरस की महामारी से निपटने की नीतियां बनाई जा सकती हैं.

26 मार्च को ब्रिटेन ने कोरोना वायरस की महामारी को डाउनग्रेड कर दिया. ब्रिटिश सरकार का कहना था कि ये ऐसी संक्रामक बीमारी नहीं है, जिसका बहुत अधिक प्रभाव (HCID) पड़ने की आशंका है. ब्रिटेन की सरकार ने अपने इस क़दम के पीछे का कारण ये बताया था कि इस महामारी से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक नहीं है. ब्रिटिश सरकार की इस घोषणा पर प्रतिक्रिया देते हुए व्हाइट हाउस कोरोना वायरस टास्क फ़ोर्स की प्रमुख डेबोराह बिर्क्स ने तो ये तक कह दिया कि कोरोना वायरस के प्रकोप को लेकर जो मॉडल क़यामत की भविष्यवाणी कर रहे हैं, वो ग़लत साबित होंगे. बिर्क्स ने ख़ास तौर पर ये कहा कि या तो संक्रमण की दर या फिर बिना लक्षण वाले लोगों की संख्या हमारे अनुमान से काफ़ी अधिक है. लेकिन अब तक इसके प्रकोप के तेज़ी से फैलने का कारण पूरी तरह से समझ में नहीं आया है. इससे भी आगे बढ़ कर डेबोराह बिर्क्स ने ये तक कह दिया कि, ‘कोरोना वायरस के जो मॉडल इस महामारी से भारी संख्या में लोगों की जान जाने का आकलन कर रहे हैं, वो चीन, दक्षिण कोरिया या इटली के ज़मीनी हालात से मेल नहीं खाते.’

और कोरोना वायरस के बारे में असल बात यही है. जैसा कि स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में मेडिसीन के प्रोफ़ेसरों एरन बेनडेविड और जय भट्टाचार्य ने वॉल स्ट्रीट जर्नल में 24 मार्च को प्रकाशित अपने लेख में तर्क दिया था कि कोरोना की महामारी से भारी संख्या में मौत के मॉडल तैयार करने में एक बुनियादी ग़लती की जा रही है. भट्टाचार्य और बेनडेविड का ये लेख ब्रिटिश सरकार के फैसले से कुछ दिनों पहले प्रकाशित हुआ था. इसमें दोनों विशेषज्ञों का कहना था कि मौत के आंकड़े का आकलन, कुल ऐसे मामलों के अनुपात में होता है, जिनमें वायरस के संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है. भट्टाचार्य और बेनडेविड का कहना था कि ये मॉडल पक्षपात पूर्ण हैं, जो मौत की संख्या को बढ़ा कर बताने में विश्वास कर रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो कोरोना वायरस के संक्रमण की पुष्टि वाले मामले वही हैं, जिनमें इस वायरस के संक्रमण के लक्षण दिखे हैं. जिन्हें इलाज के लिए अस्पतालों में भर्ती कराया गया है. लेकिन, मौत का अनुपात लगाने का सही आधार केवल वही केस नहीं हो सकते, जिनमें वायरस के संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है. बल्कि वो संख्या होनी चाहिए, जिनमें ये वायरस पहुंच चुका है. जबकि कई लोगों में इसके लक्षण नहीं दिखते. यानी वायरस के प्रकोप का दायरा काफ़ी बड़ा है. लेकिन मौत का आकलन केवल उन्हीं मामलों पर आधारित है, जिनकी पुष्टि हो चुकी है. इसी कारण से मौत की संख्या का आकलन बहुत अधिक किया जा रहा है, जिसका आधार ही ग़लत है.

अब अगर ऐसे बहुत से लोग नए कोरोना वायरस से संक्रमित हैं, जिनमें इसके संक्रमण के लक्षण नहीं दिखते, तो ज़ाहिर है संक्रमित लोगों की संख्या आबादी में बहुत अधिक है. जिन मामलों की पुष्टि हो चुकी है, वो संख्या इससे काफ़ी कम है. तो, अगर हम कुल संक्रमित मामलों को आधार मानेंगे, तो मौत का अनुपात काफ़ी कम हो जाएगा. भट्टाचार्य और बेनडेविड के अनुमान कहते हैं कि इस वायरस से मौत की जिस संख्या का दावा किया जा रहा है, वो बहुत अधिक है. जैसे कि अमेरिका में नए कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की मौत का प्रतिशत 1.5 बताया जा रहा है. जबकि वास्तव में ये तादाद 0.01 प्रतिशत ही होनी चाहिए. अब अगर हम ये मान लें कि भट्टाचार्य और बेनडेविड का आकलन भारत पर भी लागू होता है, तो भारत में भी इस वायरस से मरने वालों की संख्या तो 0.017 प्रतिशत यानी नगण्य ही होगी. जिसका शायद आकलन भी न किया जा सके.

अब अगर ग़लत मॉडल के आधार पर जनता से जुड़ी नीति बनाई जा रही है, तो उसके बुरे नतीजे स्पष्ट हैं.

एक समय ऐसा आएगा जब अस्पताल में बेड और वेंटिलेटर की राशनिंग करनी पड़ेगी. यानी सबको भर्ती करने के बजाय मरीज़ों का चुनाव करके उनका इलाज किया जाएगा. जैसा कि हम अमेरिका में होता हुआ देख भी रहे हैं. इसीलिए इस बात में ज़्यादा दम है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का टेस्ट किया जाए

कोई बीमारी जिसके संक्रमण की दर बहुत ज़्यादा है. लेकिन, जिससे संक्रमित लोगों के बीच इसके लक्षण बेहद मामूली होते हैं. और जिस वायरस की मृत्यु दर सामान्य सर्दी ज़ुकाम से भी कम है, उसे इतना गंभीर मसला तो नहीं माना जाना चाहिए. ऐसे में आज भारत समेत पूरी दुनिया में भय और दहशत का जो माहौल है, वो नहीं दिखना चाहिए था. यहां जो मुद्दा साफ़ है वो ये है कि अगर किसी बीमारी के लक्षण बेहद मामूली हैं मगर संक्रमण की दर इतनी अधिक है कि इन मामूली लक्षणों वाले मरीज़ों को भी डॉक्टरी मदद की ज़रूरत होगी, तो इससे किसी भी देश की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा जाएगी. एक समय ऐसा आएगा जब अस्पताल में बेड और वेंटिलेटर की राशनिंग करनी पड़ेगी. यानी सबको भर्ती करने के बजाय मरीज़ों का चुनाव करके उनका इलाज किया जाएगा. जैसा कि हम अमेरिका में होता हुआ देख भी रहे हैं. इसीलिए इस बात में ज़्यादा दम है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का टेस्ट किया जाए. संदिग्धों की स्क्रीनिंग  हो. और जिन लोगों में कोरोना वायरस की महामारी के लक्षण हों, उन लोगों को कहा जाए कि वो ख़ुद से ही आइसोलेशन में अपने घर में 14 दिनों तक रहें. हालांकि, भारत में जिस तरह का लॉकडाउन लागू है, उस जैसे बेहद सख़्त क़दम को आगे भी जारी रखने का कोई ठोस तर्क दिखाई नहीं देता. क्योंकि ऐसे क़दम से संक्रमण की रोकथाम जैसे छोटे व अनिश्चित क़िस्म के लाभ के लिए भारी आर्थिक, सामाजिक और मानवीय क़ीमत वसूलने वाले लॉकडाउन को जारी रखना उचित नहीं होगा. क्योंकि इसके बुरे प्रभाव दिखने पहले से ही शुरू हो गए हैं.

अच्छी जननीति वही होती है, जो बेहतरीन वैज्ञानिक और सबसे भरोसेमंद ताज़ा साक्ष्यों पर आधारित हो.

पर दुर्भाग्य से भारत में जो लॉकडाउन लागू किया गया है, वो किसी वैज्ञानिक तर्क अथवा ठोस सबूत पर आधारित नहीं दिखता. अच्छी ख़बर ये है कि कि हमारे पास अभी भी समय है कि हम नए रिसर्च के आधार पर अपनी नीतियों का पुनर्निधारण कर सकते हैं. जैसा कि ब्रिटेन और अमेरिका की सरकारें पहले से ही कर रही हैं. भारत की सरकार कम से कम लॉकडाउन के नफ़ा और नुक़सान का तो एक विश्लेषण कर ही सकती है. ख़ासतौर से इससे होने वाले स्वास्थ्य क्षेत्र के लाभ और आर्थिक क्षेत्र की हानि का मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है. आज हमें ये पता होना चाहिए कि महामारी की रोकथाम के लिए अर्थव्यवस्था की जो तालाबंदी कर दी गई है, उसका देश के ग़रीब तबक़े पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है. उनकी कमर टूट रही है. क्योंकि ये तबक़ा पहले से ही आर्थिक सुस्ती की वजह से परेशानियों का सामना कर रहा था.

आज देश को पूरी तरह से लॉकडाउन करना तभी वाजिब लग सकता है, जब कोरोना वायरस की महामारी से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक हो. लेकिन, हमें अब ये बात पता है कि इस वायरस के संक्रमण से मृत्यु की दर बहुत अधिक नहीं है. ऐसे में नरेंद्र मोदी की सरकार को चाहिए कि वो लॉकडाउन की अपनी नीति पर फिर से विचार करे और इसमें आवश्यक परिवर्तन करे. कहीं ऐसा न हो कि इसमें बहुत देर हो जाए और देश को इसकी वजह से भयावह आर्थिक और मानवीय तबाही का सामना करना पड़े.

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