Author : Mohua Mukherjee

Published on Jan 22, 2022 Updated 0 Hours ago

महासागरों में सैन्य अभ्यासों से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर तेजी से ख़तरा मंडराने लगा है, ऐसे में भारत युद्धाभ्यास में स्थिरता सुनिश्चित करने को लेकर पहल उठा सकता है.

इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन और भू-सामरिक महासागर शासन

इंडो-पैसिफ़िक मैरिटाइम क्षेत्र में वर्चस्व की लड़ाई के चलते संघर्ष की तैयारी में जुटे सैन्य नेताओं को यह समझना चाहिए कि वो एक से अधिक तरह के युद्ध से निपट रहे हैं; यह पारंपरिक युद्ध के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से भी जंग है. इन दोनों जंग से जीतने के लिए ज़रूरी है कि अलग विशेषज्ञता वाले गैरपारंपरिक संसाधनों तक पहुंच बनानी होगी. इस प्रकार का अंतःविषय समन्वय और सहयोग ख़ुद से पैदा नहीं होता है. इसे बेहद ध्यानपूर्वक स्थापित किया जाना चाहिए, शुरुआत से लेकर इसके अमल करने तक. यहां तक कि इसके लिए अपनी तरह की कूटनीति और घरेलू राजनीति की आवश्यकता होती है. इस लेख में यह बताने का प्रयास किया गया है कि हिंद-प्रशांत देशों के बीच भारत इस तरह के समन्वय और राजनयिक नेतृत्व की भूमिका निभाने की पेशकश करने के लिए एक अच्छा उम्मीदवार क्यों हो सकता है.

 इस लेख में यह बताने का प्रयास किया गया है कि हिंद-प्रशांत देशों के बीच भारत इस तरह के समन्वय और राजनयिक नेतृत्व की भूमिका निभाने की पेशकश करने के लिए एक अच्छा उम्मीदवार क्यों हो सकता है.

इंडो-पैसिफ़िक में जलवायु परिवर्तन

इंडो-पैसिफिक में ग्लोबल वार्मिंग के ख़िलाफ़ लड़ाई पहले से ही जारी है. इस क्षेत्र में अक्सर ख़तरनाक मौसम के चलते नुकसान होता है जिससे कई लोगों की मौत भी हो जाती है [1]. रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट के अंतर्राष्ट्रीय संघ के मुताबिक, एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र में सिर्फ़ 2021 में 57 मिलियन लोग पर्यावरण संकट के चलते प्रभावित हुए. अनगिनत जीवित बचे लोगों, उनकी आजीविका, आश्रय, बचत, भोजन की आपूर्ति, और बची संपत्ति पलक झपकते ही नष्ट हो गई, ठीक उसी तरह जैसे एक पारंपरिक संघर्ष में आसमान से गिराया गया बम सब कुछ तबाह कर देता है. इसलिए, हम इसे “युद्ध” में से एक के रूप में संदर्भित करने में संकोच नहीं करते हैं. इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में सैन्य युद्धों के लिए कोई भी औपचारिक युद्ध की तैयारी जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ चल रही लड़ाई को शामिल किए बगैर प्रामाणिक रूप से आगे नहीं बढ़ सकती है और न ही सफल हो सकती है. ऐसा क्यों है? क्योंकि तीन तरह की अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक प्रतिबद्धताएं मौजूदा वक़्त में हैं, जिनका सम्मान इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र के बाहर और अंदर दोनों जगह होना चाहिए.

छह साल पहले सितंबर 2015 में दुनिया ने 17 यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (एसडीजी) को लागू करने का बीड़ा उठाया, जिसमें 14 एसडीजी लक्ष्य “पानी के अंदर जीवन” को लेकर थे – जिसमें समुद्र के इस्तेमाल और बचाव के साथ मरीन संसाधनों के टिकाऊ विकास के लिए योजनाएं थीं. इस तरह हम लोगों ने समंदर के अम्लीयकरण को रोकने और मरीन वायुमंडल को नष्ट नहीं होने देने के लिए प्लास्टिक, तेल/ रासायनिक / ध्वनि प्रदूषण से समुद्र को बचाने का बीड़ा उठाया.

रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट के अंतर्राष्ट्रीय संघ के मुताबिक, एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र में सिर्फ़ 2021 में 57 मिलियन लोग पर्यावरण संकट के चलते प्रभावित हुए. अनगिनत जीवित बचे लोगों, उनकी आजीविका, आश्रय, बचत, भोजन की आपूर्ति, और बची संपत्ति पलक झपकते ही नष्ट हो गई, ठीक उसी तरह जैसे एक पारंपरिक संघर्ष में आसमान से गिराया गया बम सब कुछ तबाह कर देता है.  

इसके छह सप्ताह के बाद 15 दिसंबर 2015 को पेरिस में आयोजित कॉप 21 सम्मेलन में वैश्विक समुदाय ने मौजूदा पर्यावरण की जंग को लेकर दुनिया भर में शांति की वकालत की. भविष्य की पीढ़ी के अस्तित्व को बचाने के लिए हमने दुनिया के बढ़ते तापमान को कम करने का मक़सद तैयार किया. ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन से पृथ्वी को नुकसान पहुंचाने को रोकने के लिए हमने वादा किया और राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) की प्रतिबद्धताओं के तहत कुदरती संसाधन को नुकसान होने से बचाया.

नवंबर 2021 में ग्लासगो में कॉप 26 में, हमने अपनी प्रतिबद्धताओं को फिर से नया किया है और उन्हें गंभीर बनाया.  हमने अन्य बातों के साथ-साथ विशाल समुद्री क्षेत्रों की रक्षा करने, समुद्र के अम्लीकरण और समुद्र के स्तर में वृद्धि को रोकने के लिए विशिष्ट कार्रवाई करने, प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने, कोरल रीफ़्स को बचाने और मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र के प्रबंधन के जरिए ग्रीन इकोनॉमी में कार्बन पृथक्करण को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धता जताई है. इतना ही नहीं, साल 2070 तक भारत ने कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक ले जाने का लक्ष्य रखा है, जो कुदरती संसाधनों की सुरक्षा किए बगैर कभी संभव नहीं है.

विडंबना यह है कि इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में संभावित सैन्य कार्रवाई की तैयारी से हमारी नई-नई जलवायु प्रतिबद्धताओं को ख़त्म करने का जोख़िम हमेशा बढ़ जाता है. नौसेना के जहाज समंदर में शोर करते हैं और अधिक प्रदूषणकारी हेवी फ्यूल ऑयल (बंकर तेल) पर चलते हैं. समुद्र के लिए यह हर तरह से नुकसानदेह है. सैन्य प्रशिक्षण अभ्यास, गोला-बारूद, विमानवाहक पोतों पर उड़ान भरना और उतरना, पनडुब्बी अभ्यास, और यहां तक कि गैर-सशस्त्र गश्ती जहाज भी कार्बन उत्सर्जन को बढ़ाने वाले हैं, जो हम और इस क्षेत्र के अन्य लोग कम करने की कोशिश में जुटे हैं. यह विकासशील छोटे द्वीप राज्यों (एसआईडीएस) और समुद्री जीवन के सभी स्वरूपों के लिए ख़तरनाक है. बेहतर महासागर प्रबंधन हमें इस विरोधाभास को स्वीकार करने की अपील करता है. हमें इस समस्या पर सभी ज़रूरी विशेषज्ञ, संसाधनों और धन के साथ विचार करना चाहिए ना कि इसे कुछ वक़्त के लिए टाल देना चाहिए.

मानव इतिहास में यह पहली बार है कि संघर्ष की तैयारी जलवायु को ध्यान में रखकर करना होगा. ऐसा करना सभी इंडो-पैसिफ़िक देशों के हित में भी है जो बार-बार ख़तरनाक जलवायु संकट या जलमग्न ख़तरों का ख़ामियाज़ा उठाते हैं.

मानव इतिहास में यह पहली बार है कि संघर्ष की तैयारी जलवायु को ध्यान में रखकर करना होगा. ऐसा करना सभी इंडो-पैसिफ़िक देशों के हित में भी है जो बार-बार ख़तरनाक जलवायु संकट या जलमग्न ख़तरों का ख़ामियाज़ा उठाते हैं.  उन्हें ऐसी सैन्य तैयारियां करनी होंगी जिससे आगे कुदरती आपदा को बढ़ावा नहीं मिले.  इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में मुल्कों की राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को आगे बढ़ाने के लिए जो कुछ भी होता है, उससे ग्लोबल वार्मिंग के ख़िलाफ़ लड़ाई में एसडीजी या सीओपी प्रतिबद्धताओं को ख़तरे में डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती है. सभी प्रमुख देशों में सैन्य अधिकारियों और विदेश मंत्रालय इस तरह की अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों को टालने की कोशिश कर सकते हैं. क्योंकि वो दावा करेंगे कि उनकी युद्ध योजना में जलवायु के प्रति संवेदनशील होना उनकी प्रतिबद्धता के बाहर है और किसी भी मामले में यह अप्रत्याशित होता है.

यह क्षण मज़बूत नेतृत्व और एक या अधिक देशों द्वारा इसे आगे बढ़ाने की अपील करता है. उन्हें दूसरों को यह भरोसा दिलाना होगा कि हमेशा की तरह  यहां तक कि रक्षा मामलों में भी पहले की तरह चीजें नहीं लागू की जा सकती हैं. सैन्य तैयारियां इस बात का संज्ञान ले सकती हैं कि पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान को कैसे  कम किया जाए और उन्हें पारदर्शी रूप से अपने असर को मापना चाहिए और नतीजों से संबंधित आंकड़े साझा करना चाहिए. वरना भविष्य की किताबों में, प्रकृति के साथ इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र संघर्ष विराम की बात कर सकता है जिसे वैश्विक समुदाय ने ग्लोबल वार्मिंग के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में आगे बढ़ाने का दावा किया था. इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए.

सभी ऐतिहासिक परंपराओं से इतर इस बार, समुद्री पारिस्थितिकी की चिंताओं को भी नौसैनिक युद्ध की तैयारी के दौरान वैश्विक नतीजे के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए और इसके लिए भविष्य के जोख़िम ख़त्म करने की रणनीति की ज़रूरत है. इसमें पर्याप्त संचार, सहयोग, संस्थागत समन्वय और विशिष्ट जवाबदेही कार्यों को शामिल किया जाना चाहिए. इन नतीजों का आकलन करने के लिए साक्ष्य जुटाना, पारदर्शिता और विश्वसनीयता के लिए अधिकार प्राप्त समूह के साथ इसे साझा करना भी ज़रूरी है. हालांकि यह कठिन काम है. ऐसे में एक सकारात्मक समुद्र से संबंधित गवर्नेंस संवाद बनाने के इस मौके का लाभ उठाने के लिए भारत की उम्मीदवारी बेहतर हो सकती है और भारत इसका उदाहरण के जरिए नेतृत्व भी कर सकता है. इसे वैज्ञानिक / पारिस्थितिकीविद्  समुदाय और सैन्य योजनाकारों दोनों से “गैर-परंपरागत साझेदार” के साथ एक घरेलू टास्क फोर्स के साथ जोड़ना होगा. संयुक्त रूप से बेहतर परिणाम तक आने के लिए वे एक-दूसरे को उन संबंधित चुनौतियों के बारे में शिक्षित कर  सकते हैं जिनका वे सामना करते हैं.

सैन्य तैयारियां इस बात का संज्ञान ले सकती हैं कि पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान को कैसे  कम किया जाए और उन्हें पारदर्शी रूप से अपने असर को मापना चाहिए और नतीजों से संबंधित आंकड़े साझा करना चाहिए. 

भारत क्यों ऐसे भरोसेमंद नेतृत्व के लिए बेहतर पार्टनर हो सकता है? “आतंकवाद, हिंसक उग्रवाद, समुद्री क्षेत्र सहित संसाधनों और इलाक़ों के लिए संघर्ष हमारे समय की प्रमुख समस्याएं हैं. अंतर्राष्ट्रीय कानून और नियम, जिनमें यूएनसीएलओएस जैसे समुद्री क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले कानून भी शामिल हैं, पर दबाव बढ़ रहा है. जलवायु परिवर्तन, समुद्री प्रदूषण, और संसाधनों का अनियंत्रित और अत्यधिक दोहन जैसी सीमा पार चुनौतियां हमारी धरती को  लगातार असुरक्षित बना रही हैं.. हम सभी सहमत हैं, और यह हम सभी के फायदे के लिए ही है कि इंडो-पैसिफ़िक एक ऐसा क्षेत्र होना चाहिए  जिसमें आवागमन की आजादी, ओवरफ्लाइट, सतत विकास, पारिस्थितिकी और समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा, और एक खुला, मुक्त, निष्पक्ष और पारस्परिक रूप से लाभकारी व्यापार और निवेश प्रणाली की गारंटी सभी देशों को मिल सके.” इन बातों का  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 नवंबर 2020 के ईस्ट एशिया सम्मेलन में साफ तौर पर अपने संबोधन में उल्लेख किया था.

प्रधानमंत्री द्वारा शुरुआती संकेत के अलावा, भारत भी कार्बन शून्य प्रतिबद्धता के साथ इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका में है. इसलिए, भारत के पास इस समस्या को अपने नेतृत्व से ख़त्म करने का मौका है, जिसका पहले से ही सार्वजनिक रूप से  प्रधानमंत्री मोदी ने बता दिया था.

क्या भारत कर पाएगा? 

भारत सरकार भी आंतरिक साइलो-स्मैशिंग और क्रॉस-सेक्टरल समन्वय की कोई परंपरा का पालन नहीं करती है. हालांकि, नेट ज़ीरो  कार्बन के लक्ष्यों को पूरा करने में पुरानी आदतों को छोड़ना होगा. हर सेक्टर में संचार, जागरूकता, क्षमता बढ़ाना, सहयोग, मॉनिटरिंग और आंकड़ा जुटाने पर ध्यान देने की ज़रूरत है. ऐसे में अभी से ही शुरुआत क्यों ना की जाए? इस तरह की अप्रत्याशित चर्चा का समर्थन करना किसी भी अवांछित “मैत्रीपूर्ण टकराव” से बचने के जोख़िम को ख़त्म करना है जिससे भारत की शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को पूरा करने में कोई बाधा नहीं पहुंचे.

[1] हाल ही में 17 दिसंबर को फिलिपींस में आया राय टायफ़ून, 22 दिसंबर को मयांमार के जेड माइंस में लैंडस्लाइड, 14 दिसंबर को मलेशिया में बाढ़, 14 दिसंबर को इंडोनेशिया के माउंट सेमेरू ज्वालामुखी का फटना,1 दिसंबर को दक्षिण भारत/श्रीलंका में आई बाढ़.

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Mohua Mukherjee

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Mohua Mukherjee is the Energy and Climate Finance Expert: Program Ambassador Pro-Bono at the International Solar Alliance. She has worked as a senior development professional ...

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