Author : Sarthak Shukla

Published on Dec 23, 2021 Updated 0 Hours ago

दुनिया भर के देशों के द्वारा जलवायु परिवर्तन पर कई वर्षों तक अधूरे वादों के बाद आज के युवा अलग-अलग पहल के ज़रिए जलवायु परिवर्तन के मामले में राहत देने के लिए क़दम उठा रहे हैं.

जलवायु परिवर्तन और युवा: युवा जलवायु योद्धाओं के ‘परिपक्व’ दस्तों से नीति निर्माता काफ़ी कुछ सीख सकते हैं

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हाल में ग्लास्गो (Galsgow) में समाप्त कॉप26 सम्मेलन (Cop26 Summit) जलवायु परिवर्तन (Clamate Change) के इर्द-गिर्द आकार लेने वाली वैश्विक सोच (Global Thinking) का लघु रूप था. इस दौरान कई दिलचस्प घटनाक्रम हुए जो कि औपचारिक परिस्थितियों और सड़कों पर हो रहे थे. जलवायु संधियों और संकल्पों को आकार देने वाले वार्ताकारों की औसत उम्र जहां क़रीब 60 साल थी, वहीं 15 वर्ष के लोग भी वहां मौजूद थे जो सड़कों पर ऐसी तख्तियां लेकर खड़े थे जिन पर लिखा था “हम कार्रवाई चाहते हैं, वादे नहीं!”.

इसे परिप्रेक्ष्य में रखें तो यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ के एक ताज़ा अध्ययन में पाया गया कि सर्वे में शामिल 75 प्रतिशत युवा आबादी मानती है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से भविष्य डरावना है और 65 प्रतिशत इस बात से सहमत हुए कि अलग-अलग देशों की सरकारें युवा लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रही हैं. ये एक ख़तरनाक स्थिति हैं जहां ऐसे लोग फ़ैसला ले रहे हैं जो अपने निर्णय का असर देखने के लिए मौजूद नहीं रहेंगे. वो लोग वादा कर रहे हैं, संधियों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं और कार्रवाई करने की मांग करने के लिए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे लोगों का जीवन बचाने की खातिर पैसा खर्च करने का संकल्प ले रहे हैं.

दुनिया भर में युवा जलवायु कार्यकर्ताओं के बयान, उनके क़दम और उनकी कार्य प्रणाली उनके द्वारा दिखाई गई तात्कालिकता की भावना के बीच उनकी वास्तविक परिपक्वता का प्रमाण हैं. 

नौजवानों की ऐसी आवाज़ को दूर करने की इच्छा, उन्हें युवा अवस्था के उल्लास का नतीजा बताना, या दिशाहीन चिंता बताना, एक प्रायोजित दुष्प्रचार कहना निस्संदेह आसान है. ये सामान्य सी बात है कि सरकारें या तो नौजवानों की मांग को सिर्फ़ दिखावे के लिए स्वीकार करती हैं या तुरंत क़दम उठाने की मांग, ख़ास तौर से युवा कार्यकर्ताओं की, को बहुत ज़्यादा बताने लगती हैं. ऐसे में सरकारें संतुलित ढंग से चुनौती से निपटने की परिपक्वता दिखाने में नाकाम रहती हैं.

इस मिथक को तोड़ने की ज़रूरत है कि युवा अवस्था और परिपक्वता विपरीत चीज़ें हैं. दुनिया भर में युवा जलवायु कार्यकर्ताओं के बयान, उनके क़दम और उनकी कार्य प्रणाली उनके द्वारा दिखाई गई तात्कालिकता की भावना के बीच उनकी वास्तविक परिपक्वता का प्रमाण हैं. इससे ये भी पता चलता है कि किस तरह जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करने में युवाओं के ड्राइविंग सीट पर बैठने से बड़े पैमाने पर क़दम उठाने को सक्रिय करके वास्तव में निरंतरता को बढ़ावा दिया जा सकता है. उदाहरण के लिए, युवाओं के द्वारा अलग-अलग तकनीकी हस्तक्षेप की पूरी दुनिया में प्रशंसा हो रही है जैसे 15 वर्ष की विनिषा उमाशंकर की प्रशंसा उनके द्वारा सौर ऊर्जा से चलने वाले आयरन के आविष्कार के लिए हो रही है.

लगभग प्रत्येक जलवायु योद्धा ने कई अवसरों पर दलील दी है और ज़ोर डाला है कि जलवायु परिवर्तन सिर्फ़ एक संकट नहीं है बल्कि एक मौक़ा है जो हर किसी के लिए जीत की स्थिति बना सकता है. इस भावना के लिए हर किसी को साथ लेकर चलना और एक साझा ख़तरे को लेकर गठबंधन बनाना शामिल है. साथ ही बेहतर बनाने के अवसर का लाभ उठाना होगा.

युवा रचनात्मक संवाद की ज़रूरत को मानते हैं लेकिन एक बेहद महत्वपूर्ण तर्क की तरफ़ इशारा भी करते हैं कि ऐसे संवाद अभी तक हमें कहीं लेकर नहीं गए हैं. ये उतना ही परिपक्व दृष्टिकोण है जितना हो सकता है. उन संवादों और विचार-विमर्श के बारे में सोचिए जिनका इस्तेमाल हमारी अर्थव्यवस्था को ज़्यादा समावेशी, हमारे क़ानूनों को ज़्यादा सफल, हमारे प्रशासन को ज़्यादा करुणामय और लोगों के क़रीब लाने में किया गया है. विकास और लोक नीति में परिवर्तन का आकलन कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति के कल्याण से होता है. इनमें से किसी भी सूचक पर ये विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि सबसे संकटपूर्ण स्थिति में फंसे लोग काफ़ी आगे बढ़े हैं और उनका जीवन स्तर बेहतर हुआ है. इसके विपरीत ख़बरें, पत्रकारिता की रिपोर्ट और सामान्य टिप्पणियां हैं जो साबित करती हैं कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है.

सिस्टम में ग़लती

ये भावना अब तक जिस तरह से ऐसे संवाद हुए, उनके दोषों की तरफ़ भी इशारा करती है. अगर इस तरह के संवादों के निर्णयों से प्रभावित लोगों को ऐसा लगता है कि अभी तक ज़मीन पर बहुत ज़्यादा क़दम नहीं उठाए गए हैं और शायद राजनीतिक नेता अपने वादे पर खरा नहीं उतर रहे हैं तब इस तरह के सामाजिक संवादों की प्रणाली में संरचनात्मक रूप से कुछ गड़बड़ी है. ये बात जलवायु विचार-विमर्श पर भी लागू होती है. उदाहरण के लिए, जब बात जलवायु परिवर्तन और कोविड महामारी के चौराहे पर राजनीतिक नेताओं के रवैये की आती है तो ‘बेहतर निर्माण’ एक प्रमुख अलंकार बन गया. लेकिन ऐसे अलंकार से भरे शब्दों के साथ जोखिम ये है कि वो महज़ एक नारा बन कर रह जाते हैं, वो ज़मीनी स्तर पर किसी भरोसेमंद क़दम के मामले में पीछे रह जाते हैं. इस बात की तरफ़ कई लोगों ने जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में ध्यान दिलाया है. इसके विपरीत युवा वास्तव में अपनी बात को कार्रवाई में बदल रहे हैं. चाहे क़िस्सा ग्रीन होप फाउंडेशन का हो जो बांग्लादेश में मैंग्रोव के पेड़ों के संरक्षण को लेकर दूर-दराज़ के क्षेत्रों में काम कर रहा है और कमज़ोर लोगों को आजीविका या खाद्य सुरक्षा की पेशकश कर रहा है या 17 साल के कोसिलाथि न्याथि का उदाहरण ले लीजिए जो ज़िम्बाब्वे के विक्टोरिया फॉल्स से संबंध रखने वाले यूनिसेफ के जलवायु कार्यकर्ता हैं और युवा सामुदायिक सदस्यों के बीच जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर जागरुकता फैलाने का काम कर रहे हैं. दोनों ही मामलों में जलवायु कार्यकर्ता ठोस और स्पष्ट क़दम उठा रहे हैं. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का एक युवा परामर्श समूह भी है जिसमें कई देशों के प्रतिनिधि शामिल हैं. इसमें भारत का भी एक नुमाइंदा है. इस परामर्श समूह ने भी अपनी आवाज़ व्यक्त की है और विश्वसनीय ढंग से अपने दृष्टिकोण को कार्रवाई में बदल रहा है. इसका पता दुनिया भर में युवा कार्यकर्ताओं के द्वारा उठाए गए क़दम से भी चलता है. इस तरह का वैश्विक सलाह देने वाला समूह साथ काम करने और जलवायु की तात्कालिकता के जवाब में काम करने की कला अलग-अलग देशों की सरकार को दिखाने में नेतृत्व कर सकता है.

लोक कल्याण और रोज़गार

युवा रोज़गार पर जलवायु परिवर्तन के असर को स्वीकार करने में भी सटीक रहे हैं. ज़्यादातर देशों के संकल्प और जलवायु लक्ष्य नेट-ज़ीरो टारगेट, उत्सर्जन को कम करने, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने, आर्थिक क्षेत्रों में जलवायु लचीलापन को भरने और इसी तरह की दूसरी महत्वाकांक्षाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं. रोज़गार, ख़ास तौर पर हरित रोज़गार, एक नतीजा बन गया या इस हरित परिवर्तन का एक तरह का परिणाम. ये समावेशी और न्यायसंगत आर्थिक विकास की समस्या की तरह है. पायदान में सबसे नीचे खड़े मज़दूरों का कल्याण आर्थिक विकास का एक नतीजा बन गया है, उन्हें समर्थ नहीं बनाया जा रहा है. रोज़गार, लोगों का कल्याण और जीवन की गुणवत्ता को दी जा रही दूसरे दर्जे की प्राथमिकता एक ख़तरनाक घटनाक्रम है जो सोच को इसके मूल विषय से  भटकाती है.

ये एक महत्वपूर्ण विशेषता है जो जलवायु कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी के संदेश के इर्द-गिर्द साधारण बात है कि वो सिर्फ़ एक विशेष मुद्दे को लेकर परंपरागत पर्यावरणीय अभियान नहीं है. नये ज़माने का ये पर्यावरणवाद बेहद महत्वपूर्ण जलवायु न्याय और सबसे कमज़ोर समूह के कल्याण को लेकर भी है. ये उन्हें जलवायु कार्रवाई की वक़ालत करने वालों में सबसे परिपक्व लोगों का समूह बनाता है. युवा कार्यकर्ता अभियान चला रहे हैं और जलवायु अनुकूलन, आजीविका के समाधान, आपदा से मुक़ाबला करने में लोगों की मदद और पारिस्थितिक रूप से और आर्थिक रूप से ज़्यादा लचीला बनाने की तरफ़ काम कर रहे हैं. ये ठोस क़दम हैं जो योजना बनाने, नीति दस्तावेज़ तैयार करने और दिशानिर्देश, जिन्हें कुछ देशों ने जलवायु के क्षेत्र में ‘उचित परिवर्तन’ के लिए तैयार किया है, से काफ़ी दूर हैं.

कुछ युवा कार्यकर्ताओं ने मीडिया में भी अपना दृष्टिकोण और जलवायु कार्रवाई को लेकर अपनी भूमिका दिखाई है. ये युवा कार्यकर्ता उन भागीदारों में से पहले हैं जिन्होंने इस बात की ओर आकर्षित किया है कि मीडिया का ध्यान राजनीतिक नेताओं के द्वारा वास्तविक रूप से किए जा रहे कामों के बदले उनके दावों की ओर है कि वो क्या करने वाले हैं. उदाहरण के लिए, किसी देश में वहां की सरकार द्वारा बताई गई बातों के आधार पर मीडिया वहां की नवीकरणीय ऊर्जा क्रांति की ख़बरें प्रमुखता से दिखा सकता है लेकिन बुनियादी सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय अशांति की ख़बरें अक्सर सुर्खियों से ग़ायब रहती हैं. ये नीतियों और नीति निर्माताओं के द्वारा आम लोगों के प्रति एक संस्थागत उत्तरदायित्य को सुनिश्चित करने में कमज़ोरी के बारे में बताता है. ये एक मूलभूत शक्ति की गतिशीलता से जुड़ी हुई चीज़ है, जहां लोगों को कलंकित किया जाता है और सख़्ती से नीतियों को ग्रहण करने वाले के तौर पर रखा जाता है, उन्हें समान रूप से नीतियों का निर्माता नहीं बनाया जाता है जबकि लोकतंत्र के गुण 21वीं शताब्दी में अच्छी शासन व्यवस्था के लिए ज़रूरी हैं.

राजनीतिक नेता एक तरफ़ तो कहते हैं कि वो “समाधान” चाहते हैं लेकिन वो ये समझने में नाकाम हो जाते हैं कि जब तक आप समस्या को पूरी तरह नहीं समझेंगे तब तक उसके समाधान की तलाश करना बेकार है. नीति बनाने में ग़लत जानकारी वाले रवैये का नतीजा ऐसे परिदृश्य के रूप में उभरा है जहां नीतियों का मतलब ज़मीन पर वास्तविक कार्रवाई के बदले राजनीतिक पैंतरे के रूप में ज़्यादा सामने आया है, अफसोसजनक तौर पर इस तथ्य को स्वीकार्यता मिली है कि लागू करने की चुनौती निश्चित है और इसलिए कुछ हद तक कोई कार्रवाई नहीं करना ठीक है. इस परिदृश्य को बदलने का आह्वान कई युवा कार्यकर्ताओं ने किया है.

जलवायु कार्रवाई की मिथ्या धारणा के कुछ सरल तरीक़ों पर प्रकाश डालने के लिए युवा जलवायु कार्यकर्ताओं ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि जब तक हम समानता को नज़रअंदाज़ करेंगे और उत्सर्जन कम करने के सबसे महत्वपूर्ण ढंग के रूप में “चालकी से लेखा-जोखा” करेंगे तब तक इसका कोई अच्छा नतीजा नहीं मिलेगा. ये निवेशकों के द्वारा जलवायु को लेकर ग़लत धारणा पेश करने और जलवायु कार्रवाइयों के ‘हरित पूंजीवाद’ बनने पर वास्तविक चिंताओं को लेकर भी सही है. इस वक़्त की ज़रूरत ‘वादे पर खरा उतरना’ है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक नेता कोयला खदान को समृद्ध करने की इजाज़त देते हुए, तेल की खोज के लिए लाइसेंस देते हुए और कोयले से चलने वाले बिजली प्लांट को बढ़ाते हुए ‘कोशिश करने’ और जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करने के लिए कार्रवाई करने का वादा कर रहे हैं.

सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हिस्सेदार अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने की खातिर इस आंदोलन को और आगे बढ़ा सकते हैं. 

निष्कर्ष

बदलते समय में जलवायु परिवर्तन के लिए समाधान को भी चीज़ों के बदलने की रफ़्तार के साथ चलना होगा. तेज़ी से बदलते घटनाक्रम के साथ रफ़्तार बनाए रखने में सरकार या सरकारी विभागों का ट्रैक रिकॉर्ड ख़राब रहा है लेकिन आज के युवा समय की ज़रूरत के हिसाब से उभरे हैं और उन्होंने सही चीज़ करने के लिए शानदार समर्पण दिखाया है. युवाओं ने सरकार की कमियों को  दिखाया है और सरकार की बयानबाज़ी में अंतर को भी उजागर किया है.

बड़े पैमाने पर असर इस समझ से आएगा कि पहली नज़र में प्रभाव के लिए क्या बाधाएं हैं. इसके अलावा अलग-अलग कार्रवाइयों को संगठित करना, एक सामाजिक आंदोलन की रचना करना, नेटवर्क बनाना और सामूहिक रूप से आगे बढ़ना भी ज़रूरी है. ये ऐसे उपाय हैं जिन्हें आज के नौजवान जलवायु और दूसरे मोर्चों पर अपना रहे हैं.

सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हिस्सेदार अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने की खातिर इस आंदोलन को और आगे बढ़ा सकते हैं. वो इस बात को ज़रूर मान्यता दें कि युवा होना उम्र नहीं बल्कि ऐसी विचारधारा पर आधारित हो जिसमें वैज्ञानिक सोच, सवाल करने और समाज के बड़े हिस्से के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण करने की उम्मीद हो.

समय की ज़रूरत है कि नीचे से ऊपर के दृष्टिकोण को अपनाया जाए जहां नीति निर्माता, आर्थिक हिस्सेदार और दुनिया के तथाकथित ‘वयस्क’ नौजवानों से सुनना सीखेंगे और सीखने के लिए सुनेंगे. ये बड़े पैमाने पर असर के लिए महत्वपूर्ण है.

मशहूर युवा कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने जैसा हाल में कहा, “हम सत्ता में बैठे लोगों को ये फ़ैसला करने की इजाज़त नहीं दे सकते कि उम्मीद क्या है. उम्मीद निष्क्रिय नहीं है. उम्मीद का मतलब है सच्ची बात कहना. उम्मीद का मतलब है क़दम उठाना. और उम्मीद हमेशा लोगों से आती है.”

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