Published on Aug 10, 2023 Updated 0 Hours ago

देश की युवाशक्ति से मुनाफ़ा कमाने के चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मंसूबे तार-तार हो रहे हैं.

सियासी संक्रमण की चपेट में सुस्त पड़ती चीनी अर्थव्यवस्था
सियासी संक्रमण की चपेट में सुस्त पड़ती चीनी अर्थव्यवस्था

तक़रीबन एक सदी पहले सोवियत जीवविज्ञानी ट्रोफ़िम लिसेंको ने ये विचार सामने रखा था कि विचारधारा, क़ुदरत पर भारी पड़ सकती है. लिसेंको ने दावा किया था कि वो बीजों में परिवर्तन लाकर प्राकृतिक बदलावों और अनिश्चितताओं से उनकी हिफ़ाज़त कर सकते हैं. उनके मुताबिक इससे साइबेरिया के जमा देने वाले वातावरण और भूभाग में भी फल उगाना संभव था. सोवियत संघ में कृषि क्रांति लाने को बेक़रार जोसेफ़ स्टालिन ने लिसेंको को बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी. लिसेंको के अतिवादी विचारों के साथ-साथ सरकार द्वारा चलाए जा रहे कृषि कार्यों में जबरन लाखों लोगों को शामिल किए जाने के परिणाम खेतीबाड़ी के लिए विनाशकारी साबित हुए. नतीजतन सोवियत संघ में अकाल के हालत पैदा हो गए. बहरहाल, जब लिसेंको के विचार जेनेटिक्स के सिद्धांत (जो 1930 के दशक में शोध का उभरता हुआ क्षेत्र था) के ख़िलाफ़ जाने लगे तो उन्होंने विज्ञान को ही ख़ारिज कर दिया. लिसेंको की नाकामियों के बावजूद स्टालिन ने सोवियत संघ के इस सितारा वैज्ञानिक को ख़ूब बढ़ावा दिया. दरअसल लिसेंको ने देश भर में फसलों का उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ रूस के दूरदराज़ के बंजर इलाक़ों को बड़े-बड़े उपजाऊ खेतों में बदल देने का वादा किया था. आगे चलकर 1950 के दशक के आख़िर में माओ त्से तुंग के शासनकाल में चीन ने भी ऐसे ही तौर-तरीक़े अपनाए. नतीजतन चीन को और भी भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा. वक़्त के साथ-साथ दुनिया की शब्दावली में लिसेंकोवाद (Lysenkoism) का विचार भी जुड़ता चला गया. दरअसल किसी ख़ास राजनीतिक विमर्श की हिमायत में तथ्यों और सिद्धांतों के साथ सोचे-समझे तरीक़े से  की गई छेड़छाड़ ही इस विचारधारा का सार है. 

वक़्त के साथ-साथ दुनिया की शब्दावली में लिसेंकोवाद (Lysenkoism) का विचार भी जुड़ता चला गया. दरअसल किसी ख़ास राजनीतिक विमर्श की हिमायत में तथ्यों और सिद्धांतों के साथ सोचे-समझे तरीक़े से  की गई छेड़छाड़ ही इस विचारधारा का सार है. 

भले ही लिसेंको की जन्मभूमि में आज उनके विचारों के लिए कोई जगह नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि लिसेंकोवाद का मूल-मंत्र आज भी चीन में जस का तस मौजूद है. हाल ही में कोविड-19 के प्रकोप से चीन जिन क़वायदों और तौर-तरीक़ों से निपट रहा है उससे यही बात साबित होती है. दरअसल 10 मई को शंघाई और बीजिंग (चीन की वित्तीय और सियासी राजधानियां) में पाबंदियों को और सख़्त कर दिया गया. चीन की सबसे बड़ी आबादी वाले शहर शंघाई में मार्च के आख़िर से लॉकडाउन लागू है. नतीजतन ये दुनिया भर की सुर्ख़ियों में छाया है. ऐसे में कई हलक़ों से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) पर कोविड-19 की रोकथाम से जुड़ी नीति पर पुनर्विचार करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. CCP के महासचिव शी जिनपिंग ने मई की शुरुआत में ही संकेत दे दिए कि कोविड-19 की रोकथाम को लेकर चीन के रुख़ में किसी प्रकार की नरमी नहीं आने वाली. उनका मानना है कि चीन में बुज़ुर्गों की एक विशाल आबादी और असंतुलित क्षेत्रीय विकास के चलते पाबंदियों और रोकथाम से जुड़े उपायों में किसी तरह की ढील देने से वहां की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा सकती है.

शंघाई की फ़ुदान यूनिवर्सिटी और अमेरिका की इंडियाना यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा 10 मई को प्रकाशित एक मेडिकल स्टडी में मोटे तौर पर शी की चिंताओं को ही दोहराया गया है. शोध में चेतावनी भरे लहज़े में कहा गया है कि कोविड से जुड़ी पाबंदियां हटाने से 11.2 करोड़ से भी ज़्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ सकते हैं, जिससे 15 लाख से भी ज़्यादा मौतें होने की आशंका है. दरअसल चीन में 60 साल से ऊपर की आयु वाले तक़रीबन 5.2 करोड़ लोगों को मार्च के मध्य तक कोरोना वैक्सीन के पूरे डोज़ नहीं लग पाए थे. शोध में आशंका जताई गई है कि कोरोना से जुड़ी पाबंदियां हटाने की सूरत में वहां होने वाली मौतों में इन बुज़ुर्गों का तादाद तक़रीबन 75 फ़ीसदी तक हो सकती है.

चीनी टीकाकरण अभियान और सियासी लिसेंकोवाद     

दरअसल चीन ने कोरोना टीकाकरण अभियान की शुरुआत अपनी युवा आबादी से की थी. चीनी नीति निर्माताओं का विचार था कि कामकाजी उम्र वाली आबादी को टीका लगाने से अर्थव्यवस्था में रफ़्तार आएगी. वर्षों तक एक-संतान की नीति अपनाने के चलते चीन में बुज़ुर्गों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी हो गई है. आबादी का ये हिस्सा आर्थिक नज़रिए से कुछ ख़ास उत्पादक नहीं है, लिहाज़ा कोविड टीकाकरण की गिनती से उन्हें बाहर कर दिया गया. इस सिलसिले में हम शंघाई की मिसाल ले सकते हैं. ढाई करोड़ की आबादी वाले इस शहर की तक़रीबन 90 फ़ीसदी आबादी को टीका लगा दिया गया, लेकिन 60 साल से ऊपर की आबादी में ये आंकड़ा महज़ 62 प्रतिशत ही था. ज़ाहिर है कोविड टीकाकरण से जुड़ी चीनी रणनीति में सियासी लिसेंकोवाद के चलते बुज़ुर्गों की एक बड़ी आबादी वैक्सीन से महरूम रह गई. लिहाज़ा वहां कोविड से जुड़ी पाबंदियों में ढील देने की क़वायद बेहद मुश्किल हो गई है. युवाशक्ति का लाभ उठाने के चक्कर में टीकाकरण को लेकर अपनाए गए चीनी रुख़ से अस्थिरता का भंवर पैदा हो गया है. इससे उन्हीं युवाओं का नुक़सान हो रहा है.    

शंघाई की फ़ुदान यूनिवर्सिटी और अमेरिका की इंडियाना यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा 10 मई को प्रकाशित एक मेडिकल स्टडी में मोटे तौर पर शी की चिंताओं को ही दोहराया गया है. शोध में चेतावनी भरे लहज़े में कहा गया है कि कोविड से जुड़ी पाबंदियां हटाने से 11.2 करोड़ से भी ज़्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ सकते हैं, जिससे 15 लाख से भी ज़्यादा मौतें होने की आशंका है.

शंघाई समेत बाक़ी शहरों में लगे लॉकडाउन से चीन का व्यापार भी प्रभावित हो रहा है.  चीन के जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ कस्टम के मुताबिक निर्यात की मौजूदा वृद्धि दर धीमी होकर उसी स्तर पर जा पहुंची है जो 2020 में महामारी के सबसे भयानक दौर में थी (ग्राफ़िक देखें).

स्रोत: चाइना जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ कस्टम

कोरोना पाबंदियों के चलते फ़ैक्ट्रियों के बंद रहने से चीन की घरेलू मांग लड़खड़ा गई है. चीन के ऑटोमोबाइल संघ ने ख़ुलासा किया है कि अप्रैल में बिक्री के सालाना आंकड़ों में 48 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. चीन की ज़ीरो-कोविड नीति के चलते वहां के रोज़गार बाज़ार पर भी बड़ी मार पड़ी है. ऐसा लग रहा है कि देश की सबसे शिक्षित आबादी को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है. कोविड-19 के ताज़ा प्रसार को देखते हुए सिविल सेवा परीक्षाओं को टाल दिया गया है. इम्तिहान की नई तारीख़ों का अबतक एलान नहीं हुआ है. इस साल एक करोड़ से भी ज़्यादा छात्र ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर लेंगे. ज़ाहिर है इससे नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा और तेज़ हो जाएगी. बेरोज़गारी की आशंकाएं प्रबल होने से दीर्घकाल में चीन के विकास को चोट पहुंच सकती है. 16-24 वर्ष की आयु सीमा में बेरोज़गारी दर मार्च में 16 प्रतिशत थी. नौकरियों से जुड़ी संस्था झाओपिन के मुताबिक जनवरी-मार्च की तिमाही में ताज़ा ग्रेजुएट लोगों के लिए नई नौकरियों में 4.5 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. हालांकि कुछ लोग नौकरियों के बाज़ार में अस्थिरता के मौजूदा दौर में अपने लिए मोहलत जुटाने और अपने करियर को ऊंचा उठाने की क़वायदों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. इस साल मास्टर्स करने वाले तक़रीबन 11 फ़ीसदी छात्र अपनी शिक्षा के दर्जे को और ऊंचा उठाने के लिए डॉक्टरल और दूसरे कार्यक्रमों में दाख़िला लेने की योजना बना रहे हैं. 2021 में इन कार्यक्रमों से जुड़ने वाले विद्यार्थियों का अनुपात 4 फ़ीसदी था.  

16-24 वर्ष की आयु सीमा में बेरोज़गारी दर मार्च में 16 प्रतिशत थी. नौकरियों से जुड़ी संस्था झाओपिन के मुताबिक जनवरी-मार्च की तिमाही में ताज़ा ग्रेजुएट लोगों के लिए नई नौकरियों में 4.5 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई.

  

1989 में थियानमेन चौक पर हुई हिंसा की भयानक वारदात के पीछे बढ़ती बेरोज़गारी एक प्रमुख वजह थी. आज भी इससे जुड़ी यादें CCP की चिंता बढ़ा देती हैं. यही वजह है कि CCP के आला नेता नई पीढ़ी से लगातार संपर्क क़ायम करने में लगे हैं. चीन में 4 मई का दिन ‘युवा दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है. इस मौक़े पर CCP के महासचिव शी जिनपिंग ने बीजिंग की रेनमिन यूनिवर्सिटी का दौरा किया. उन्होंने देश में विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा को बढ़ावा देने का वादा किया. अनिश्चितताओं के दौर में अपने कुनबे में वफ़ादारी जगाना ज़रूरी हो जाता है. शायद इसी वजह से रेनमिन यूनिवर्सिटी में पश्चिमी सूटबूट की बजाए माओ के ‘क्रांतिकारी’ कुर्ते में नज़र आए जिनपिंग ने देश भर में ‘वैचारिक-राजनीतिक‘ पाठ्यक्रमों का विस्तार करने पर ज़ोर दिया.   

स्रोत: शिन्हुआ न्यूज़

कम्युनिस्ट यूथ लीग के शताब्दी समारोह में भी शी ने इसी तरह की दो टूक बातें करते हुए पुरज़ोर तरीक़े से राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाने की कोशिश की. शी ने युवाओं से “मुश्किलों से दो-दो हाथ करने” और “कठिनाइयों से पार पाने” की अपील की. अपने संबोधन में उन्होंने एक नारे- ‘मेरा सच्चा प्यार सिर्फ़ चीन के लिए है’- का भी ज़िक्र किया. इसे पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 18 साल के सैनिक ने लिखा था, जिसकी 2020 में गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के साथ हुई झड़प में मौत हो गई थी. 

साल 2022 सियासी रूप से बेहद संवेदनशील है. इस साल शी तीसरा कार्यकाल हासिल कर सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत बनाना चाहते हैं. ऐसे में उनके मन में भी माओ के नक़्शेक़दम पर चलने का लालच आ सकता है.

साल 2022 सियासी रूप से बेहद संवेदनशील

आख़िर में देखें तो भारत-चीन सीमा पर 2020 में हुए टकराव का एक बार फिर से ज़िक्र सामने आया. दरअसल भारत के साथ गलवान में हुई झड़पों में शामिल एक सैनिक को बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक के दौरान मशाल थमाकर सम्मानित किया गया. अतीत में भी शी जंग जीतने की क़ाबिलियत रखने वाली मज़बूत फ़ौज की ज़रूरत दोहराते रहे हैं. अप्रैल में भारतीय थल सेना प्रमुख के पद से रिटायर हुए जनरल मनोज नरवणे ने अंदेशा जताया था कि कोविड महामारी से जुड़े “घरेलू या बाहरी समीकरणों” ने मुमकिन तौर पर चीन को 2020 में सरहद पर आक्रामक तेवर अपनाने को प्रोत्साहित किया था. यहां ये याद रखना ज़रूरी है कि सियासी लिसेंकोवाद जैसे-तैसे और जल्दबाज़ी में समाधान ढूंढने की क़वायदों का नाम है. ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड मुहिम की नाकामियों के चलते ख़स्ताहाल अर्थव्यवस्था से जूझ रहे माओ ने 1962 में भारत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी थी. दरअसल इस युद्ध के ज़रिए वो पूरे मुल्क को अपने पीछे खड़ा करना चाहते थे. जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा था कि “युद्ध ही शांति है”- क्योंकि एक साझा दुश्मन हमेशा ही लोगों को एकजुट रखता है. बहरहाल, साल 2022 सियासी रूप से बेहद संवेदनशील है. इस साल शी तीसरा कार्यकाल हासिल कर सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत बनाना चाहते हैं. ऐसे में उनके मन में भी माओ के नक़्शेक़दम पर चलने का लालच आ सकता है. 

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