Published on Aug 02, 2023 Updated 0 Hours ago

इस क्षेत्र और यहां से दूर कई देशों का आर्थिक हित और भविष्य का विकास विस्तारपूर्वक इंडो-पैसिफिक में जहाज़ों के चलने की स्वतंत्रता और व्यापार के मुक्त प्रवाह से जुड़ा है.

हिंद-प्रशांत: चीन का उदय और इंडो-पैसिफिक पर उसका असर!
हिंद-प्रशांत: चीन का उदय और इंडो-पैसिफिक पर उसका असर!

ये लेख रायसीना एडिट 2022 श्रृंखला का हिस्सा है.


इंडो-पैसिफिक का क्षेत्र दुनिया की 65 प्रतिशत आबादी का घर है, दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका योगदान 63 प्रतिशत है और विश्व के समुद्री व्यापार का 60 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा इस क्षेत्र से होकर गुज़रता है. इस क्षेत्र और यहां से दूर कई देशों का आर्थिक हित और भविष्य का विकास विस्तारपूर्वक इंडो-पैसिफिक में जहाज़ों के चलने की स्वतंत्रता और व्यापार के मुक्त प्रवाह से जुड़ा है. 

यूक्रेन पर रूस के हमले और उसको लेकर पश्चिमी देशों के जवाब ने इंडो-पैसिफिक में सत्ता के संघर्ष में एक और आयाम जोड़ दिया है. दुनिया के देशों के मौजूदा विभाजन के दौरान चीन और रूस के बीच जो नज़दीकी रिश्ते दिखे हैं, उसका भविष्य के लिए गंभीर असर हो सकता है. 

आर्थिक, तकनीकी, सैन्य और राजनीतिक महाशक्ति के रूप में चीन के उदय का नतीजा शक्ति संतुलन में बड़े बदलाव के रूप में निकला है. इसके झटके अब साफ़ तौर पर महसूस हो रहे हैं और उसका असर पूरी दुनिया में महसूस किया जा रहा है. इसके परिणाम स्वरूप ये दलील दी जा रही है कि एक चालाक लड़ाके चीन के उदय से निपटना इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण होगा. ज़्यादा आक्रामक चीन का नतीजा क्वॉड्रिलेटरल सुरक्षा संवाद के फिर से शुरू होने और त्रिपक्षीय सुरक्षा संधि (ऑकस) के एलान के रूप में निकला है. भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया उभरते हुए शक्ति के केंद्र हैं और उन्हें इस क्षेत्र में संतुलित करने वाली ताक़त के तौर पर देखा जा रहा है. 

यूक्रेन पर रूस के हमले और उसको लेकर पश्चिमी देशों के जवाब ने इंडो-पैसिफिक में सत्ता के संघर्ष में एक और आयाम जोड़ दिया है. दुनिया के देशों के मौजूदा विभाजन के दौरान चीन और रूस के बीच जो नज़दीकी रिश्ते दिखे हैं, उसका भविष्य के लिए गंभीर असर हो सकता है. दूसरी तरफ़ अमेरिका चीन का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है जिसमें चीन का विशाल द्विपक्षीय व्यापार सरप्लस (396.58 अरब अमेरिकी डॉलर) है. अमेरिका के साथ अपने व्यापार सरप्लस को संतुलित करना और रूस के साथ संबंध चीन के लिए चुनौतीपूर्ण होगा. यूक्रेन संकट को लेकर सीधे हस्तक्षेप करने में पश्चिमी देशों की झिझक भी चीन का हौसला बढ़ा सकती है. इस भू-राजनीतिक माहौल में भारत को सावधानी से आगे बढ़ना होगा और अस्थिर पानी में ध्यान लगाकर चलना होगा. 

चार दशकों का आर्थिक सुधार

1979 का आर्थिक सुधार चीन में चार दशकों का बेमिसाल आर्थिक विकास लेकर आया. 2021 में चीन की जीडीपी 17.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गई जो पिछले साल के मुक़ाबले 3 ट्रिलियन डॉलर ज़्यादा थी. क्रय शक्ति समता (परचेज़िंग पावर पेरिटी) के मामले में चीन 2014 में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया और अनुमान लगाया जा रहा है कि नॉमिनल जीडीपी के मामले में भी 2028 तक अमेरिका के मुक़ाबले चीन आगे निकल जाएगा. चीन का लगातार आर्थिक विकास विश्व व्यवस्था में उसकी स्थिति को और मज़बूत करेगा और एक-ध्रुवीय विश्व के मुक़ाबले दो-ध्रुवीय या बहु-ध्रुवीय विश्व बन जाएगा. 

रक्षा खर्च में ये असाधारण बढ़ोतरी चीन की उस दीर्घकालीन रणनीति के मुताब़िक है जिसके तहत वो दुनिया की महाशक्ति बनने की अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा का समर्थन कर रहा है. आज चीन एक बड़ी सैन्य ताक़त है और इंडो-पैसिफिक में स्थित देशों के मुक़ाबले उसका संख्या बल और तकनीक बढ़ती जा रही है. 

खाड़ी युद्ध के बाद चीन सैन्य आधुनिकीकरण की राह पर चलने लगा. उसका उद्देश्य तेज़ी से युद्ध में सक्षम और ज़्यादा असरदार सेना तैयार करना था जिस पर आर्थिक तेज़ी का असर हो, तकनीक से लैस हो और आत्मनिर्भर हो. चीन की सेना स्थानीय स्तर के संघर्षों के लिए तैयारी करने से विकसित होकर ऐसी सेना बन गई है जो अपनी सीमा के बाहर युद्ध लड़ने में सक्षम है. 2020 में 252 अरब अमेरिकी डॉलर के रक्षा खर्च के साथ चीन का रक्षा बजट दुनिया में दूसरा सबसे ज़्यादा है और अमेरिका के रक्षा खर्च का लगभग एक-तिहाई है जबकि भारत के रक्षा खर्च के मुक़ाबले क़रीब साढ़े तीन गुना ज़्यादा. रक्षा खर्च में ये असाधारण बढ़ोतरी चीन की उस दीर्घकालीन रणनीति के मुताब़िक है जिसके तहत वो दुनिया की महाशक्ति बनने की अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा का समर्थन कर रहा है. आज चीन एक बड़ी सैन्य ताक़त है और इंडो-पैसिफिक में स्थित देशों के मुक़ाबले उसका संख्या बल और तकनीक बढ़ती जा रही है. दक्षिणी चीन सागर और तिब्बत में भी चीन युद्ध लड़ने का बुनियादी ढांचा बना रहा है जिससे चीन के युद्ध वाले इरादे का संकेत मिलता है. भारत कई देशों के साथ समान नैतिक मूल्य, चिंताएं, ख़तरा और चुनौतियां साझा करता है और इसलिए एक जैसी रणनीति बनाने की ज़रूरत है. जो विकल्प मौजूद हैं उनके मुताबिक़ बातचीत, तटस्थता या नियंत्रण की रणनीति का पालन किया जाए. बातचीत का नतीजा आर्थिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भरता के रूप में निकलेगा और ये पारस्परिक रूप से लाभकारी होगा. दुनिया चीन के शांतिपूर्ण उदय की उम्मीद करती है लेकिन वास्तविकता को समझने वाले लोग नियंत्रण की रणनीति के पक्ष में दलील देंगे जिसका नतीजा संघर्ष के रूप में निकल सकता है. 

चीन का इस क्षेत्र में कई देशों के साथ सीमा विवाद है. सेनकाकू द्वीप पर जापान के नियंत्रण का चीन ने विरोध किया है और दक्षिणी चीन सागर पर संप्रभुता का दावा किया है. चीन कृत्रिम द्वीप बनाने, हवाई पट्टी का निर्माण करने और पार्सल एवं स्पार्टली द्वीपों में सैन्य अड्डे तैयार करने में भी शामिल रहा है जिससे चीन की पहुंच/जवाब देने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है और विशेष आर्थिक क्षेत्र का विस्तार होता है. फिलीपींस, ब्रुनेई, मलेशिया, ताइवान और वियतनाम का भी दक्षिणी चीन सागर पर दावा है. ताइवान चीन के लिए एक अधूरा एजेंडा बना हुआ है और चीन-भारत संबंध गलवान की घटना के बाद ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां एक छोटी सी घटना भी महत्वपूर्ण बन जाती है. इनमें से उत्तेजना के हर एक बिंदु के बढ़ने की आशंका है जो इस क्षेत्र को अस्थिर कर सकता है. 

सस्ते श्रम की कमी और वृद्ध जनसंख्या

जब चीन कोविड-19 के बाद की आर्थिक बहाली के दौर में जा रहा है, उसके सामने कई चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं. चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त होने का संकेत दे रही है, कॉरपोरेट सेक्टर में कर्ज़ का स्तर ज़्यादा है, प्रजनन दर (1.702) प्रतिस्थापना (यानी रिप्लेसमेंट) की दर से नीचे बनी हुई है, लोग बूढ़े हो रहे हैं और सस्ते श्रम का फ़ायदा ख़त्म होता जा रहा है. जीडीपी के मुक़ाबले चीन के कर्ज़ (27 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) का अनुपात 159 प्रतिशत पर है जो कि वैश्विक औसत के मुक़ाबले 60 प्रतिशत ज़्यादा है. हॉन्ग कॉन्ग के एकीकरण, शिनजियांग में अशांति और तिब्बत में प्रदर्शन आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों को नियंत्रण से बाहर कर रहे हैं. बिना किसी ख़राब नतीजे के इस स्थिति से पार पाना है. एक स्थिर अर्थव्यवस्था और धन के समान वितरण को चीन के नेतृत्व के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है. इस पृष्ठभूमि में चीन की नीति में बदलाव पर नज़र रखना दिलचस्प है ताकि “मिडिल इनकम के जाल” (यानी ऐसी आर्थिक स्थिति जहां लंबे समय तक एक जैसी हालत बनी रहे) से परहेज़ किया जा सके. 

चीन की अर्थव्यवस्था सुस्त होने का संकेत दे रही है, कॉरपोरेट सेक्टर में कर्ज़ का स्तर ज़्यादा है, प्रजनन दर (1.702) प्रतिस्थापना (यानी रिप्लेसमेंट) की दर से नीचे बनी हुई है, लोग बूढ़े हो रहे हैं और सस्ते श्रम का फ़ायदा ख़त्म होता जा रहा है.

चीन दुनिया में उत्पादन का केंद्र है और पूरे विश्व में सबसे ज़्यादा तेल और गैस का आयात भी चीन ही करता है. विकास को बनाए रखने के लिए ऊर्जा सुरक्षा को अहम समझा जाता है. कच्चे तेल की ज़्यादातर मात्रा फारस की खाड़ी से आयात किया जाता है जिसे मलक्का स्ट्रेट के ज़रिए पहुंचाया जाता है. ये सामरिक कमज़ोरी चीन के लिए चिंता का स्रोत है और आगे भी बनी रहेगी. इतिहास में ऐसे भरपूर उदाहरण हैं जहां व्यापार के साथ-साथ सेना भी आई और इसलिए चीन के आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए भविष्य में सैन्य कर्मियों की तैनाती की उम्मीद की जा सकती है. 

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का प्रमुख कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य बुनियादी ढांचे के निर्माण, क्षेत्रीय कनेक्टिविटी और आर्थिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भरता तैयार करके चीन के बाज़ार का विस्तार करना है. बीआरआई की कई परियोजनाओं की आर्थिक व्यावहारिकता- जिसमें चीन के श्रम, सामग्री और फंड का इस्तेमाल किया गया- ने मेज़बान देश को आर्थिक जाल में फंसा दिया है. मेजबान देश के द्वारा कर्ज़ चुकाने में असमर्थता का परिणाण रियायतों के रूप में निकला है जो उस देश के राष्ट्रीय हित के लिए नुक़सानदेह है. श्रीलंका के द्वारा बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के लिए बिना सोचे-समझे चीन से कर्ज़ लेने का नतीजा वहां मौजूदा वित्तीय संकट के रूप में निकला है. चीन पहले ही 99 साल के लीज़ पर हम्बनटोटा बंदरगाह को अपने कब्ज़े में ले चुका है और अब श्रीलंका कर्ज़ के पुनर्गठन की मांग कर रहा है. 

चीन-अमेरिका सामरिक प्रतिस्पर्धा इंडो-पैसिफिक में दूसरे देशों पर भी असर डालती है. दुनिया मिल कर काम करने वाली समृद्धि और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की उम्मीद कर सकती है. लेकिन लगता है कि एक ज़िद्दी और विस्तारवादी चीन ने संघर्ष का रास्ता चुन लिया है.

इंडो-पैसिफिक क्षेत्र विश्व की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है. एक तरफ़ हमारे सामने अमेरिका है जिसका कई दशकों से दबदबा रहा है. दूसरी तरफ़ हमारे सामने चीन है जो उभरती हुई महाशक्ति है लेकिन जिसे संदेह की नज़रों से देखा जाता है क्योंकि चीन यथास्थिति के लिए ख़तरा है. चीन-अमेरिका सामरिक प्रतिस्पर्धा इंडो-पैसिफिक में दूसरे देशों पर भी असर डालती है. दुनिया मिल कर काम करने वाली समृद्धि और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की उम्मीद कर सकती है. लेकिन लगता है कि एक ज़िद्दी और विस्तारवादी चीन ने संघर्ष का रास्ता चुन लिया है. चीन का मक़सद अपने खोए हुए गौरव को हासिल करना है, इसके लिए पहले वो एशिया में अपना दबदबा बढ़ाएगा और फिर विश्व में. इसलिए चीन का उदय इंडो-पैसिफिक और उसके आगे के देशों के लिए एक चुनौती बनी रहेगी. कई देश और क्षेत्रीय समूह तटस्थ बने हुए हैं और हालात बदलते हुए देख रहे हैं. उन्हें चीन के उदय और उसके इरादे पर निगरानी रखते हुए अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए जवाब तैयार करना होगा. 


ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं और ये सरकार की नीति के बारे में नहीं बताते हैं. 

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