Published on Aug 05, 2023 Updated 0 Hours ago

आपस में मिलकर ये अलग अलग तरीक़े, चीन द्वारा आपूर्ति श्रृंखलाओं पर एकाधिकार जमाने की कोशिशों का ताक़तवर ढंग से जवाब दे सकें. कम अवधि में ये समूह कारोबारी व्यवस्थाएं विकसित करने में ठोस प्रगति कर सकता है.

दुनिया के सामने चुनौती: कैसे चीन के सप्लाई चेन वर्चस्व को तोड़कर आपूर्ति समझौते के प्रतिरोधी स्वरूप को आकार दें!
दुनिया के सामने चुनौती: कैसे चीन के सप्लाई चेन वर्चस्व को तोड़कर आपूर्ति समझौते के प्रतिरोधी स्वरूप को आकार दें!

ये लेख रायसीना फाइल्स 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


पिछले दो दशकों से चीन ने विश्व राजनीति और आर्थिक व्यवस्था में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए पुरज़ोर तरीक़े से काम किया है. इससे चीन को दुनिया की अहम वस्तुओं, जिनमें माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स, बैटरी और ऊर्जा संरक्षण के उन्नत तत्व, नई ऊर्जा की तकनीकें और स्थायी मैगनेट के क्षेत्र में सबसे बड़ा हिस्सा बनाने का मौक़ा मिला है. इक्कीसवीं सदी को परिभाषित करने वाले अहम संसाधनों और तकनीक के लिए चीन पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता के ख़तरों का अमेरिका और उसके साथी देशों को अच्छे से एहसास है

आज कोई भी देश निर्माण की क्षमता में और कोई नुक़सान नहीं बर्दाश्त कर सकता है- फिर चाहे मानव संसाधन हो, उपकरण हों, अनुसंधान और विकास हो या फिर प्रबंधन और संगठन के हुनर हों- वो अपने ये संसाधन चीन के सबसे उन्नत क्षेत्रों के हवाले करने का जोख़िम मोल नहीं ले सकते हैं. अगर ऐसी क्षमता का नुक़सान होता है या इसमें भारी कमी आती है, तो इससे बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था और लाखों लोगों के रोज़गार के लिए तो ख़तरा पैदा होगा ही, इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के नए जोखिम भी पैदा होंगे. चीन ने कई अवैध और शोषण वाली गतिविधियों के ज़रिए पूरे देश की ताक़त लगाकर अन्य देशों से होड़ में आगे निकलने का नज़रिया अपनाया है. ऐसा लगता है कि उसका ये तरीक़ा मौजूदा व्यापारिक व्यवस्था में किसी बदलाव से परहेज़गार है. इस बात के बहुत कम तार्किक संकेत देखने को मिल रहे हैं कि मौजूदा वैश्विक समझौतों को नए सिरे से लागू करने की कोशिश- या फिर बेहतर नतीजे देने वाले नए समझौते करने से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ने वाला है. निर्माण के उत्पादन और अहम आपूर्ति श्रृंखलाओं पर चीन के लगातार बढ़ रहे नियंत्रण को क़ाबू करने के लिए अन्य देशों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार की लंबे समय से चली आ रही परंपराओं के बारे में नए सिरे से विचार करने के लिए तैयार रहना चाहिए.

आज कोई भी देश निर्माण की क्षमता में और कोई नुक़सान नहीं बर्दाश्त कर सकता है- फिर चाहे मानव संसाधन हो, उपकरण हों, अनुसंधान और विकास हो या फिर प्रबंधन और संगठन के हुनर हों- वो अपने ये संसाधन चीन के सबसे उन्नत क्षेत्रों के हवाले करने का जोख़िम मोल नहीं ले सकते हैं. अगर ऐसी क्षमता का नुक़सान होता है या इसमें भारी कमी आती है, तो इससे बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था और लाखों लोगों के रोज़गार के लिए तो ख़तरा पैदा होगा ही, इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के नए जोखिम भी पैदा होंगे. 

अब समय आ गया है कि देशों के समूह, बार बार वार्ताओं और समझौतों के ज़रिए बनाई गई एक व्यापक केंद्रीकृत वैश्विक व्यवस्था की जगह, छोटे छोटे ऐसे समझौते करें, जो सबसे ज़रूरी आपूर्ति श्रृंखलाओं का प्रशासन कर सकें. देशों के ये गठबंधन क्षेत्रीय हो सकते हैं. मूल्य आधारित हो सकते हैं और अपने अपने राष्ट्रीय और आर्थिक हितों के संरक्षण पर आधारित हो सकते हैं, जो अहम तकनीकों और संसाधनों का प्रबंधन करें. इन सभी बहुराष्ट्रीय समझौतों की एक बात समान होगी कि वो अपने अपने घरेलू उत्पादन को बढ़ाएं और सबसे महत्वपूर्ण उद्योगों में चीन के बाज़ार की ताक़त पर नकेल कसें. इसकी शुरुआत इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) की आपूर्ति श्रृंखलाओं को लेकर एक ऐसे आर्थिक और कूटनीतिक प्रयास से हो सकती है, जो आगे चलकर एशिया, उत्तरी अमेरिका और आख़िरकार यूरोप महाद्वीप के उच्च तकनीक वाले औद्योगिक लोकतांत्रिक देशों के बीच ठोस व्यापारिक समझौते का रूप ले सके. इसके नतीजे में बने ‘G7 प्लस’ गठबंधन में अमेरिका और भारत, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, मेक्सिको, कनाडा, फ्रांस, जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसी अन्य प्रमुख ताक़तें शामिल हो सकती हैं. ये सभी देश आपूर्ति श्रृंखलाओं के एक सीमित संख्या वाले बुनियादी मानकों पर दस्तख़त कर सकते हैं, जिससे उन्हें आपस में बराबरी से मौक़ा भी मिले और वो एक दूसरे की तुलनात्मक बढ़त का फ़ायदा भी उठा सकें.

आपस में मिलते जुलते हितों वाले देशों के बीच आपूर्ति श्रृंखला के इस गठबंधन से ऐसे बहुत से फ़ायदे होंगे जिन्हें हासिल करना व्यापार की मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत बहुत मुश्किल है. ऐसे व्यापारिक समूह जिसमें सबसे ज़्यादा प्रति व्यक्ति ख़रीदारी की क्षमता रखने वाले देश शामिल होंगे, की मदद से से चीन के बहुआयामी प्रभुत्व से निपटने में मदद मिलेगी. दुनिया के बहुत से उत्पादों का अहम निर्यातक होने के साथ साथ चीन, ग्राहकों का एक बड़ा बाज़ार भी है. वो यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन चुका है, जो अमेरिका का सबसे क़रीबी साझीदार है.  [i] चीन के बाज़ार तक पहुंच दूर होने का डर, अमेरिका के कई देशों में, चीन के ख़राब बर्ताव के लिए उसे अनुशासित करने के लिए कोई ठोस क़दम उठाने को लेकर हिचक पैदा करता है.

विश्व बाज़ार के साथ चीन के एकीकरण और उसकी अर्थव्यवस्था पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण ने बहुत से उद्योगों में उसे बढ़त दिलाने का काम किया है, जो अक्सर अमेरिकी कंपनियों और कामगारों के हितों के ख़िलाफ़ जाता है. 2015 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार के नेतृत्व वाली औद्योगिक नीति का एक नया अपडेट, मेड इन चाइना को जारी किया, ताकि चीन को एक उच्च तकनीक का निर्माण करने वाली महाशक्ति और दुनिया के इनोवेशन हब के तौर पर विकसित किया जा सके. 

हालांकि अगर व्यापारक को लेकर नए समीकरण बनते हैं, तो इससे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर चीन अपनी हैसियत का वैसा फ़ायदा नहीं उठा पाएगा. G7 और भारत आपस में मिलकर दुनिया का लगभग आधा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) [1] बनाते हैं. अगर ये सभी देश समान विचारों वाले अन्य देशों के साथ तालमेल से काम करते हैं- और चीन को तब तक अपने साझा बाज़ार तक पहुंच देने से इनकार करते हैं, जब तक वो अपने तौर तरीक़ों में बदलाव लाकर सबको बराबरी का मौक़ा नहीं देता- तो वो चीन पर उसी तरह का दबाव बना सकते हैं, जैसा चीन ने इन देशों पर बनाया हुआ है.

महत्वपूर्ण उद्योगों में चीन का प्रभुत्व

2001 में जब चीन, विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना था, तो बहुत से लोगों को ये लगा था कि वो तेज़ी से बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था बनने की तरफ़ बढ़ेगा. इस तरह वो वैश्विक व्यापार के नियमों का पालन करने और अपनी राजनीतिक व्यवस्था का उदारीकरण करने के लिए मजबूर होगा. इसके बजाय हुआ ये कि चीन ने पिछले दो दशकों के दौरान अपनी सरकार आधारित व्यापारवादी नीतियों और व्यवहार को और मज़बूती से लागू किया. [ii]

विश्व बाज़ार के साथ चीन के एकीकरण और उसकी अर्थव्यवस्था पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण ने बहुत से उद्योगों में उसे बढ़त दिलाने का काम किया है, जो अक्सर अमेरिकी कंपनियों और कामगारों के हितों के ख़िलाफ़ जाता है. [iii]

2015 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार के नेतृत्व वाली औद्योगिक नीति का एक नया अपडेट, मेड इन चाइना को जारी किया, ताकि चीन को एक उच्च तकनीक का निर्माण करने वाली महाशक्ति और दुनिया के इनोवेशन हब के तौर पर विकसित किया जा सके. इस योजना में दस ऐसे उद्योगों की पहचान की गई है, जिन्हें चीन भविष्य की विश्व अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बेहद अहम मानता है. इसमें उन्नत ईंधन से चलने वाली बिजली की गाड़ियां, सुपरकंप्यूटर और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस शामिल है. इन तकनीकों में ख़ुद को एक विश्व नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए चीन रिसर्च और विकास, निर्माण और विदेशी तकनीक की जगह घरेलू तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहता है, जिससे कि वो सबसे अहम आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अपना नियंत्रण स्थापित करके विश्व बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर सके.[iv]

चीन अपनी मुद्रा रेनमिनबी पर आधारित अंतरराष्ट्रीय वित्तीय भुगतान व्यवस्था विकसित करने के लिए भी काम कर रहा है. चीन ने युआन में अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करने के लिए कई देशों में काम करने वाले पेमेंट सिस्टम को स्थापित किया है. इसका मौजूदा इस्तेमाल अभी तो अंतरराष्ट्रीय लेन-देन का एक मामूली हिस्सा ही है. लेकिन चीन वैश्विक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय लेन-देन को रेनमिनबी के ज़रिए करने में इज़ाफ़ा करना चाहेगा.

ज़ाहिर है कि चीन के ये क़दम अमेरिका और उसके बहुत से साझीदारों को पसंद नहीं आ रहे हैं. अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि के ऑफ़िस ने बताया था अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था में चीन के दख़ल के चलते विश्व बाज़ार में ऐसा ख़लल पड़ता है, जो चीन के व्यापारिक साझीदारों के हितों के ख़िलाफ़ जाता है. [v] चीन की सरकार अपनी घरेलू कंपनियों को काफ़ी पूंजी और सब्सिडी मुहैया कराती है. वहीं, उनके अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंदियों को दंडित और शोषित करता है और पूरी दुनिया के विदेशी कारोबारियों से ज़बरदस्ती बौद्धिक संपदा के अधिकार छीनता है. [vi]

चीन, अपनी कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करने के लिए भी संस्थागत तरीक़े से प्रोत्साहित करता है. इसका नतीजा ये होता है कि अन्य देशों की कंपनियों को चीन की हुकूमत [2],[vii] की पूरी ताक़त से मुक़ाबला करना पड़ता है. इसके साथ साथ, चूंकि चीन पारदर्शिता की सारी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ता रहता है, तो इसके चलते विश्व व्यापार संगठन की मौजूदा व्यवस्थाएं नाकाम साबित होती हैं, और फिर चीन को हर क़ीमत पर अपनी औद्योगिक नीति के लक्ष्य हासिल करने का मौक़ा मिल जाता है. [3],[viii] वहीं दूसरी तरफ़ चीन की कंपनियों को बिना किसी भेदभाव के अन्य देशों के बाज़ार तक पहुंच हासिल होती है.

अब विश्व समुदाय को इस बात का एहसास हो रहा है कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर चीन के दबदबे से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कैसे ख़तरे पैदा हो रहे हैं. आज विकसित की जा रही बहुत सी उन्नत तकनीकों में ऐसा कच्चा माल इस्तेमाल होता है, जिनकी अक्सर सैन्य उपयोग अहमियत भी होती है. मिसाल के तौर पर, पर्मानेंट मैगनेट में ऐसे दुर्लभ खनिज इस्तेमाल किए जाते हैं, जो इलेक्ट्रिक गाड़ियों और मिसाइल डिफेंस सिस्टम में भी काम आते हैं. अगर किसी देश के साथ भयंकर तनाव के दिनों में चीन इन अवयवों को हथियार बनाना चाहे, तो इससे भविष्य में अमेरिका और उसके साथी देशों की चीन पर लगाम लगाने की क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा. भविष्य में चीन की औद्योगिक महत्वाकांक्षाओं के लिहाज़ से जितना अहम ऑटोमोटिव सेक्टर है, उतना शायद ही कोई और उद्योग है. दुनिया के बहुत से औद्योगिक देशों की कामयाबी में गाड़ियों के निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. दुनिया भर में कामयाब ऑटोमोटिव सेक्टर का विकास करने के ज़बरदस्त आर्थिक फ़ायदे होते हैं, क्योंकि इसके लिए बड़े पैमाने पर उपकरण बनाने की सुविधाएं विकसित करने की ज़रूरत होती है और इसमें कई तरह के कच्चे माल और अन्य सेवाओं का उपयोग किया जाता है. रिसर्च और विकास में निवेश होता है और इस उद्योग से सीधे और अप्रत्यक्ष तौर पर लोगों को रोज़गार मिलता है. चीन इसी मॉडल को अपनाने की उम्मीद कर रहा है. उशकी अपेक्षा ये है कि एक कामयाब ऑटोमोबाइल उद्योग उसे अन्य बहुत सी सामरिक और उच्च तकनीक वाले उद्योगों को विकसित करने में मदद करेगा. [ix]

अति आक्रामक चीन

इस वक़्त जो इंटरनल कंबशन इंजन की तकनीकें हैं, उनमें मुक़ाबला करने के बजाय चीन ने अलग ही रास्ता अख़्तियार किया है. [x] उसके इस प्रयासों के केंद्र में इलेक्ट्रिक गाड़ियां (EVs) हैं, जो चीन को इस नई तकनीक में अगुवा बनने का मौक़ा देती हैं और आने वाले कुछ दशकों में चीन इस उद्योग के एक बड़े हिस्से पर क़ाबिज़ हो सकता है. अब तक गाड़ियां बनाने वाली कंपनियों ने इलेक्ट्रिक गाड़ियों के विकास और उत्पादन में 500 अरब डॉलर के निवेश का एलान किया है और चीन इस निवेश के एक बड़े हिस्से को आकर्षित करने की काफ़ी अच्छी स्थिति में है. [xi]

चीन की नुक़सानदेह नीतियों का मुक़ाबला करने के लिए नई व्यवस्थाएं बनाने से उन सभी देशों को फ़ायदा होगा जो ऑटोमोबाइल और अन्य उन्नत तकनीकों वाले उत्पाद बनाते हैं. इस वक़्त ऐसा कोई देश नहीं है, जिसके पास ऐसे क़ुदरती संसाधन और निर्माण का बुनियादी ढांचा हो, जो ऑटोमोबाइल और परिवहन की दूसरे उन्नत साधन बनाने के लिए ज़रूरी आपूर्ति श्रृंखला अपने दम पर पूरी कर सके.

चीन बहुत आक्रामक तरीक़े से इलेक्ट्रिक गाड़ियों की आपूर्ति श्रृंखला पर अपना क़ब्ज़ा करने की कोशिश कर रहा है. इसमें दुर्लभ और अहम खनिजों से लेकर बैटरी का निर्माण तक शामिल है. 2016 से चीन ने सरकारी कंपनियों और अन्य निजी कंपनियों को विदेशी खनिज भंडारों पर क़ब्ज़ा करने की ज़िम्मेदारी दे रखी है- आज दुनिया भर में लीथियम और निकल के प्रसंस्करण के 60 प्रतिशत हिस्से और कोबाल्ट को साफ़ करने के 70 फ़ीसद पर चीन की कंपनियों का क़ब्ज़ा है. इससे आने वाले समय में इन बेहद अहम खनिजों की आपूर्ति पर उसका नियंत्रण हो जाएगा. [4] इसके अलावा इलेक्ट्रिक बैटरियं में इस्तेमाल होने वाले 41 फ़ीसद कैथोड और 71 प्रतिशत [5] एनोड का निर्माण चीन की कंपनियां कर रही हैं. यही नहीं, दुनिया भर में बनाई जा रहे बैटरी के 211 गीगा कारखानों में से 156 चीन में ही बनाए जा रहे हैं. [xii]

वैसे अन्य उद्योगों में दांव आज़माने की चीन की कोशिशों के मिले-जुले नतीजे ही रहे हैं. मिसाल के तौर पर घरेलू सेमीकंडक्टर उद्योग में अरबों डॉलर के निवेश और 2015 से 2020 के बीच, बैक-एंड सेमीकंडक्टर निर्माण के बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी लगभग दोगुनी करने करने के बावजूद, चीन सबसे उन्नत सेमीकंडक्टर के निर्माण में बहुत पीछे है. इस उद्योग में सबसे ज़्यादा अहम मानी जाने वाली लॉजिक चिप के सेक्टर में चीन की कंपनियों की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम है. [xiii] इसके बावजूद, उच्च तकनीक के निर्माण में अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने की चीन की कोशिशों को कम करके बिल्कुल नहीं देखा जाना चाहिए. चीन की सरकार ने 2030 तक अपने घरेलू सेमीकंडक्टर उद्योग में 150 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है ताकि वो इसके बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाकर ख़ुद को इस तकनीक का अगुवा बना सके. [xiv]

चीन अपनी मुद्रा रेनमिनबी पर आधारित अंतरराष्ट्रीय वित्तीय भुगतान व्यवस्था विकसित करने के लिए भी काम कर रहा है. चीन ने युआन में अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करने के लिए कई देशों में काम करने वाले पेमेंट सिस्टम को स्थापित किया है. इसका मौजूदा इस्तेमाल अभी तो अंतरराष्ट्रीय लेन-देन का एक मामूली हिस्सा ही है. लेकिन चीन वैश्विक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय लेन-देन को रेनमिनबी के ज़रिए करने में इज़ाफ़ा करना चाहेगा. [xv] इस मोर्चे पर किसी भी तरह की कामयाबी चीन को अपने व्यापारिक साझीदारों पर अपनी शर्तें थोपने का मौक़ा मुहैया कराएगा और इससे दुनिया भर में आपूर्ति श्रृंखलाओं पर ख़तरा और भी बढ़ जाएगा.

नए सहयोगी और साझीदार व्यापार समझौतों की तरफ़ बढ़ना होगा

अब तक, चीन से इन मुद्दों पर बातचीत करने या फिर मौजूदा अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उसके ख़िलाफ़ अपील करने की अमेरिका की कोशिशें बेकार साबित हुई हैं. अमेरिका और उसके जैसे विचार रखने वाले कई देशों ने विश्व व्यापार संगठन में चीन के ख़िलाफ़ 27 केस दायर किए हैं. वैसे तो जितने भी मामलों में फ़ैसला हुआ, उसमें अमेरिका की जीत हुई है. लेकिन अमेरिका, चीन की उन संरक्षणवादी औद्योगिक नीतियों में कोई भी बदलाव ला पाने में नाकाम रहा है, जिन पर आधारित चीन के नुक़सानदेह व्यापारिक व्यवहार को अमेरिका ने चुनौती दी थी. [xvi] कुल मिलाकर, कोई भी ‘कामयाबी’ थोड़े वक़्त की सफलता वाली मरीचिका ही साबित हुई है.

अमेरिका और भारत के पास एक अर्थपूर्ण अवसर है कि वो साथ मिलकर चीन से अलग महत्वपूर्ण खनिजों और कल पुर्ज़ों की आपूर्ति श्रृंखला विकसित कर लें. जिन क्षेत्रों में घरेलू संसाधन मौजूद हैं, वहां भारत और अन्य देश अपने यहां खनिजों के खनन और उनके शुद्धिकर और प्रॉसेसिंग की सुविधाओं को भी बेहतर बना सकते हैं.

चीन के प्रतिद्वंदियों को ये एहसास हो गया है कि उन्हें अपनी क्षमताओं और ताक़त का विस्तार करने की ज़रूरत है- ख़ास तौर से इलेक्ट्रिक गाड़ियों, बैटरी, दुर्लभ खनिजों और सेमीकंडक्टर्स के मामले में. लेकिन अगर ये देश अपने घरेलू उत्पादन बढ़ाने में बड़ी कामयाबी हासिल भी कर लेते हैं, तो भी चीन की औद्योगिक नीतियों और व्यापार में दूसरों को नुक़सान पहुंचाने के तौर-तरीक़ों से पार नहीं पाया जा सकता है. इसीलिए, अब समय आ गया है कि उनमें से समान विचारधारा वाले कुछ देश, बेहद महत्वपूर्ण आपूर्ति श्रृंखलाओं के संदर्भ में नई व्यापारिक व्यवस्था बनाएं. इन समझौतों में कुछ ऐसे नियम और क़ायदे होंगे, जो कुछ बुनियादी मानकों के आधार पर चलेंगे. जैसे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और श्रमिकों व पर्यावरण के बुनियादी संरक्षण के पैमाने. ये ऐसे मानक होंगे जो व्यापार का पलड़ा अमेरिका और इसके भागीदारों के हक़ में झुकाएंगे.

चूंकि चीन के ख़िलाफ़ (और एक दूसरे की तुलना में भी) हर देश की अपनी ताक़त और कमज़ोरियां होंगी, तो इन देशों के राष्ट्रीय नेतृत्व को ऐसी नीतियों पर चलना होगा, जिससे इनोवेशन को बढ़ावा मिले. इससे सामरिक क्षेत्रों में हर देश की ख़ास स्थिति का फ़ायदा उठाया जा सकेगा. कुछ सिलसिलेवार कूटनीतिक और आर्थिक पहलों के ज़रिए इन देशों के नेता आपसी तालमेल बढ़ाने के लिए एकजुट होंगे और इसी से ज़रूरी सामान की आपूर्ति श्रृंखलाओं की एक नई व्यापारिक व्यवस्था विकसित होगी. चीन इस नेटवर्क से बाहर होगा और उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव के कई साझीदार भी इसका हिस्सा नहीं होंगे. इस व्यवस्था में शामिल न किए जाने वाले देश भी इस समूह को सामान बेच सकेंगे और ख़रीद सकेंगे. लेकिन, वो ये काम व्यापारिक होड़ में अपनी कमज़ोर स्थिति की क़ीमत पर ही कर पाएंगे. जो देश इस नई व्यवस्था के सदस्य नहीं होंगे, उनके साथ व्यापार और वहां निवेश पर निगरानी के लिए भी एक व्यवस्था की दरकार होगी. [xvii]

चीन की नुक़सानदेह नीतियों का मुक़ाबला करने के लिए नई व्यवस्थाएं बनाने से उन सभी देशों को फ़ायदा होगा जो ऑटोमोबाइल और अन्य उन्नत तकनीकों वाले उत्पाद बनाते हैं. इस वक़्त ऐसा कोई देश नहीं है, जिसके पास ऐसे क़ुदरती संसाधन और निर्माण का बुनियादी ढांचा हो, जो ऑटोमोबाइल और परिवहन की दूसरे उन्नत साधन बनाने के लिए ज़रूरी आपूर्ति श्रृंखला अपने दम पर पूरी कर सके. इसी वजह से, शुरुआती लक्ष्य तो ऐसे देशों की पहचान करना होगा जिनके पास प्राकृतिक संसाधन हैं और वो चीन के नियंत्रण से परे हटकर गाड़ियों और अन्य महत्वपूर्ण सामानों के निर्माण की पूरी आपूर्ति श्रृंखला में पूंजी निवेश के लिए तैयार हों. एक नए व्यापक व्यापार समझौते, जैसे कि सबसे ज़्यादा उम्मीद जगाने वाला हिंद प्रशांत आर्थिक ढांचा पर ज़ोर देने के बजाय बेहतर ये होगा कि फौरी नतीजों वाले छोटे छोटे लक्ष्य हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए. क्योंकि, व्यापार के व्यापक समझौते पूरे होने और इनका ज़मीन असर होने में कई बरस लग जाएंगे. इसमें दिलचस्पी रखने वाले देश आपस में व्यवहारिक समझौते कर सकते हैं, जो समय की चाल के साथ ढलते जाएं और धीरे धीरे औपचारिक समझौतों का रूप लेने वाले हों.

एशिया प्रशांत, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भारत और अमेरिका, अपने जैसी विचारधारा वाले देशों के साथ संवाद की अगुवाई कर सकते हैं. इससे दोनों देश, इलेक्ट्रिक गाड़ियों और अन्य निर्मित उत्पादों के लिए सुरक्षित आपूर्ति श्रृंखला विकसित करने की संभावनाएं तलाश सकते हैं. जिन देशों के पास संसाधन और मूलभूत ढांचा है, उनकी सरकारों और निजी क्षेत्रों के बीच आपस में सीधी बातचीत से, कारोबारी समझौतों और व्यापारिक रिश्तों के नए अवसर सामने आने शुरू हो सकते हैं. इस पहल की शुरुआत करने के लिए, भारत और अमेरिका क्वॉड देशों (ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत और अमेरिका) और राष्ट्रीय तकनीक और उद्योग के केंद्रों (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया कनाडा और ब्रिटेन) की बैठक बुला सकते हैं. [xviii] इन समूहों के सदस्य देश आपस में मिल कर इस नई व्यवस्था की ख़ूबी से लैस हैं. इनके पास ऑटो मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर स्थापित करने के लिए पर्याप्त संसाधन भी हैं.

इसके अलावा फ्रांस, जर्मनी, जापान, मेक्सिको, सिंगापुर, दक्षिणी कोरिया और ताइवान को भी इस वार्ता में शामिल किया जा सकता है. क्योंकि, इन देशों के पास संसाधन, विशेषज्ञता या फिर मूलभूत ढांचा होने के साथ साथ कुछ साझा मूल्य और हित भी हैं. इस वार्ता का दायरा और आगे बढ़ाकर इसमें वियतनाम और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों को भी शामिल किया जा सकता है. इनमें से सभी देश शायद शुरुआत में सारे पैमानों पर सही न हों. लेकिन इन सभी देशों के पास अपनी अर्थव्यवस्था और संप्रभुता में चीन द्वारा लगाई जा रही व्यापारिक सेंध से पीछा छुड़ाने की दृढ़ इच्छाशक्ति ज़रूर है. कुछ देश तो औपचारिक बहुपक्षीय समझौतों के लिए प्रतिबद्धता के साथ इस नई व्यवस्था का हिस्सा बनेंगे- जैसे कि यूरोपीय संघ, अमेरिका- मेक्सिको- कनाडा समझौता या फिर क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP), जिनसे तालमेल बनाने की ज़रूरत पड़ेगी.

भारत-अमेरिका के लिये अर्थपूर्ण मौक़ा

वैसे तो कार्यकारी समूह किसी देश की अंदरूनी नीतियों में दखल नहीं देंगे. लेकिन, ये समूह हर देश को ऐसी नीतियां बनाने के लिए प्रोत्साहित ज़रूर कर सकते हैं, जो ख़ास उसके हालात के हिसाब से ढली हों. आपस में मिलकर ये अलग अलग तरीक़े, चीन द्वारा आपूर्ति श्रृंखलाओं पर एकाधिकार जमाने की कोशिशों का ताक़तवर ढंग से जवाब दे सकें. कम अवधि में ये समूह कारोबारी व्यवस्थाएं विकसित करने में ठोस प्रगति कर सकता है, जिससे कि वो ऑटोमोबाइल और उससे जुड़ी अहम तकनीकों और तत्वों की अपनी आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूती दे सकें. समय के साथ साथ इसके भागीदार देश ऐसी व्यवस्थाओं को आधार बनाकर बड़े बहुपक्षीय समझौते या फिर चीन के ग़ैर प्रतिद्वंदी बर्ताव से निपटने के लिए साझा ढांचा भी विकसित कर सकते हैं.

इन उपायों में सीमा के साझा तालमेल, निर्यात संबंधी नियंत्रण और लाइसेंस की व्यवस्था शामिल है. इन नीतियों को उचित बर्ताव और मानव अधिकार के मानक विकसित करने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है और इसके साथ, इन मानकों का प्रयोग, चीन मुक़ाबले में बढ़त के लिए भी किया जा सकता है. अमेरिका और भारत के पास एक अर्थपूर्ण अवसर है कि वो साथ मिलकर चीन से अलग महत्वपूर्ण खनिजों और कल पुर्ज़ों की आपूर्ति श्रृंखला विकसित कर लें. जिन क्षेत्रों में घरेलू संसाधन मौजूद हैं, वहां भारत और अन्य देश अपने यहां खनिजों के खनन और उनके शुद्धिकर और प्रॉसेसिंग की सुविधाओं को भी बेहतर बना सकते हैं. ये क़दम पर्यावरण की सुरक्षा और मानव अधिकारों के संरक्षण के साथ साथ उठाए जा सकते हैं- क्योंकि ये आपूर्ति श्रृंखला का वो बेहद अनिवार्य हिस्सा, जिस पर इस समय चीन का दबदबा है- का विकल्प तैयार किया जा रहा है. [xix]

व्यापार की इस नई पहल में जितने तरह के देश शामिल हैं, उनमें से कई के यहां आला दर्ज़े की रासायनिक कंपनियां हैं, जिन्हें उद्योगों के नई भागीदारों के साथ मिलकर बैटरी, सेमीकंडक्टर, स्थायी मैग्नेट और अन्य कल-पुर्ज़े बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. क्योंकि तकनीक से जुड़ी कई आपूर्ति श्रृंखलाएं बहुत व्यापक हैं, तो इलेक्ट्रिक गाड़ियों की आपूर्ति श्रृंखला और स्वच्छ ऊर्जा के अन्य विकल्पं और कंप्यूटिंग की तकनीक वाली आपूर्ति श्रृंखला में बहुत सी बातें आपस में मेल खाने वाली होंगी. इससे उनके निर्माताओं को भी मज़बूती मिलेगी. इन देशों की सरकारें जिन मामलों में ये तय करेंगी कि वो राष्ट्रीय या आर्थिक सुरक्षा के कारणों के चलते अहम हैं, उन्हें सरकार से मदद देकर अन्य आपूर्ति श्रृंखलाओं का हिस्सा बनाया जा सकता है.

दुनिया के तमाम देशों को अपने आपको सिर्फ़ एक देश के हवाले करने का अभिशाप नहीं लेना चाहिए. न ही उन्हें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के जोखिमों को, चीन की तेज़ी से बढ़ रही भू-राजनीतिक हैसियत के हवाले कर देना चाहिए. सबसे अहम बात तो ये है कि दुनिया के तमाम देशों को अपने नागरिकों को 21वीं सदी की उन्नत अर्थव्यवस्था में भागीदारी करके बढ़त बनाने के मौक़े से महरूम नहीं करना चाहिए.

नए आर्थिक कूटनीतिक प्रयासों के सदस्य देश इलेक्ट्रिक गाड़ियों के विकास और उपयोग को बढ़ावा देने काम भी कर सकते हैं, क्योंकि ये ऐसे क्षेत्र है, जहां पर चीन अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता है. जैसे ही गाड़ियों के निर्माण का औद्योगिक ढांचा कमज़ोर होगा, तो ऑटोमोटिव उद्योग के इर्द गिर्द विकसित हुआ पूरा इकोसिस्टम कमज़ोर होने लगेगा. ऐसे में कोई भी एक देश ऑटो निर्माण के बाज़ार में अपनी मौजूदा स्थिति को बनाए नहीं रख पाएगा. क्योंकि इससे होने वाले रोज़गार और देश की आमदनी में योगदान जैसे आर्थिक लाभ ख़त्म हो जाएंगे.

रिसर्च और विकास में देशों का सहयोग बहुत महत्वपूर्ण है. इसी तरह इलेक्ट्रिक गाड़ियों की मांग बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना भी अहम है. बहुत से देशों ने इस दिशा में बड़े क़दम उठाए हैं और भारत भी इनसे अलग नहीं है. भारत सरकार की एडवांस्ड केमिस्ट्री सेल बैटरी स्टरेज और इलेक्ट्रिक गाड़ियों के निर्माण और उपयोग में तेज़ी जैसी पहल से बैटरी निर्माण की नई इकाइयों को पूंजी मुहैया कराई जा रही है. घरेलू निर्माण क्षमता को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसमें इलेक्ट्रिक और हाइड्रोजन ईंधन बैटरी वाली गाड़ियां शामिल हैं. इसके अलावा चार्जिंग का ऐस मूलभूत ढांचा खड़ा करने को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों से जुड़ा हो.

हर देश ने ऐसी नीतियां अपनाई हैं, ताकि इलेक्ट्रिक गाड़ियों की तरफ़ क़दम बढ़ाकर वो अपनी प्रगति की नियमित समीक्षा कर सकें. इससे सरकार की तरफ़ से दी जा रही मदद का उचित उपयोग करके तरक़्क़ी की रफ़्तार को बनाए रखने में मदद मिलेगी और साथ साथ ये भी सुनिश्चित हो सकेगा कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों या फिर उन अन्य अहम संसाधनों की आपूर्ति श्रृंखला को चीन अपने क़ाबू में न कर सके, जो उन्नत ईंधन वाली गाड़ियों के बाज़ार के लिए अहम हैं. इसमें सेमीकंडक्टर और दुर्लभ खनिज भी शामिल हैं.

निष्कर्ष

दुनिया के तमाम देशों को अपने आपको सिर्फ़ एक देश के हवाले करने का अभिशाप नहीं लेना चाहिए. न ही उन्हें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के जोखिमों को, चीन की तेज़ी से बढ़ रही भू-राजनीतिक हैसियत के हवाले कर देना चाहिए. सबसे अहम बात तो ये है कि दुनिया के तमाम देशों को अपने नागरिकों को 21वीं सदी की उन्नत अर्थव्यवस्था में भागीदारी करके बढ़त बनाने के मौक़े से महरूम नहीं करना चाहिए.

एशिया प्रशांत से यूरोप और उत्तर अमेरिका और अन्य क्षेत्रों में फैली बाज़ार आधारित व्यापार व्यवस्था से सुरक्षित और विविधता भरी आपूर्ति श्रृंखलाओं के विकास को बढ़ावा मिलेगा, जिससे चीन के बर्ताव से पैदा हुए जोख़िम कम होंगे. अहम क्षेत्रों में इनोवेशन और निर्माण को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों के साथ साथ, इस बहुपक्षीय व्यापारिक पहल के सदस्य देश, 21वीं सदी की तकनीकों वाली वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनकर आर्थिक लाभ भी उठा सकेंगे.


[1] SAFE analysis based on data from the World Bank.

[2] An example is Huawei. While the company made China a major exporter of 5G technology, it owes its success to the more than US$75 billion state support it received in the last 25 years.

[3] China joined the World Trade Organization (WTO) two decades ago but has yet to submit a complete list of subsidies the central government provides to industry. It took 15 years for the Chinese delegation to start submitting information on local and provincial-level subsidies, a shift in policy sparked by US challenges.

[4] Based on analyses by SAFE and Roland Berger.

[5] Based on analyses by SAFE and Roland Berger.

[i] Silvia Amaro, “China Overtakes U.S. as Europe’s Main Trading Partner for the First Time,” CNBC, February 16, 2021, https://www.cnbc.com/2021/02/16/china-overtakes-us-as-europes-main-trade-partner.html

[ii] U.S. Trade Representative, 2021 Report to Congress on China’s WTO Compliance, February 2022, page 2.

[iii] See, e.g., Tom Hancock, “Xi Jinping’s China: Why Entrepreneurs Feel like Second-Class Citizens,” Financial Times, May 13, 2019; and U.S. Trade Representative [USTR], 2021 Report to Congress on China’s WTO Compliance, February 2022, page 2.

[iv] China Government Website, “Notice of the State Council on Printing and Distributing Made in China 2025,” State Council, May 8, 2015, available at: http://www.gov.cn/zhengce/content/201505/19/content_9784.htm.

[v] In addition to industrial policies and 5-year plans, the Chinese government has direct influence over state-owned and private enterprises through internal Communist Party committees. Enterprises are increasingly pressured to have at least one Party member on their board of directors and to make final business decisions in coordination with Party cells. See e.g., USTR, pages 7 and 9.

[vi] For example, the U.S.-based company Velodyne Lidar sued its Chinese partners Robosense and Hesai for infringing on its intellectual property rights. The company risked retaliation from Beijing. Furthermore, Velodyne knew that Chinese courts would almost certainly side with Chinese companies. In fact, the lawsuit did not have any significant implications for the Chinese firms. A few months after the lawsuit, Hesai was able to raise what was then the largest ever investment in China’s lidar industry. See e.g., Echo Huang, “The world’s leader in self-driving lidar technology is suing two Chinese companies over IP,” Quartz, August 15, 2019; Yahoo Finance, “Hesai Raises $173M in Series C Led by Bosch and Lightspeed,” January 9, 2020; Securing America’s Future Energy, The Commanding Heights of Global Transportation, September 2020, page 54.

[vii] Chuin-Wei Yap, “State Support Helped Fuel Huawei’s Global Rise,” The Wall Street Journal, December 25, 2019. https://www.wsj.com/articles/state-support-helped-fuel-huaweis-global-rise-11577280736

[viii] See e.g., U.S. Trade Representative, 2021 Report to Congress on China’s WTO Compliance, February 2022, pages 2 and 28.

[ix] Jost Wübbeke, Mirjam Meissner, Max J. Zenglein, Jaqueline Ives, and Björn Conrad, “Made in China 2025: The making of a high-tech        superpower and consequences for industrial countries,” Mercator Institute for China Studies, December 2016, page 30.

[x] The Economist, “China has never mastered internal-combustion engines,” January 2, 2020.

[xi] Paul Lienert and Tina Bellon, “Exclusive: Global Carmakers Now Target $515 Billion for EVs, Batteries,” Reuters, November 10, 2021.

[xii] Benchmark Mineral Intelligence, “President Biden Issues Rallying Call for More EV Battery Gigafactories,” May 19, 2021.

[xiii] Christopher Thomas, “Lagging but Motivated: The State of China’s Semiconductor Industry,” Brookings, January 7, 2021.

[xiv] Semiconductor Industry Association, “Taking Stock of China’s Semiconductor Industry,” July 13, 2021.

[xv] See, e.g., Lisa Du, Qizi Sun, Ran Li, and Yujing Liu, “Why China’s Payment System Can’t Easily Save Russian Banks Cut Off from Swift,” Bloomberg, March 14, 2022

[xvi] U.S. Trade Representative, 2021 Report to Congress on China’s WTO Compliance, February 2022, at page 3.

[xvii] Aaron L. Friedberg, The Growing Rivalry Between America and China and the Future of Globalization, Texas National Security Review, Vol 5, Iss. 1, Winter 2021/2022, pages 117 and 118.

[xviii] William Greenwalt, Leveraging the National Technology Industrial Base to Address Great-Power Competition, Atlantic Council, April,2019.

[xix] The Metals Company, “The Metals Company Enters into Business Collaboration MoU with Epsilon Carbon to Complete a Pre-Feasibility Study For the World’s First Commercial Polymetallic Nodule Processing Plant in India, March 17, 2022.

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