कर्नाटक विधानसभा चुनाव में दो हफ्ते से भी कम समय का वक्त रह गया है औऱ इसी के साथ कावेरी नदी के मुद्दे पर सियासत भी तेज होती जा रही है। दोनों अहम पार्टियां सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्षी दल भाजपा, इस मुद्दे को जमकर उछाल रही हैं। पानी जैसे महत्वपूर्ण संसाधन के हल के लिए होशोहवास में बात करने की बजाय सनसनी फैलायी जा रही है और व्यावहारिक उपायों की बजाय जुबानी जंग लड़ी जा रही है। दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां हैं और वो एक सीमा से आगे जाकर इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ कह भी नहीं सकतीं क्योंकि पड़ोसी राज्य तमिलनाडु भी कर्नाटक जितना ही राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण है। कर्नाटक में कावेरी के मुद्दे को लेकर इतना कामचलाऊ रवैया अपनाया जाना ये दिखाता है कि कैसे राजनीति दुर्बलता के चलते पैदा होने वाली नीतिगत जड़ता दो राज्यों के बीच जल बंटवारे को नुकसान पहुंचा सकती है। कावेरी जल विवाद को राजनीतिक दल गंभीरता से नहीं ले रहे हैं ये इसी से पता चलता है कि किस तरह से कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों की प्राथमिकता इस समस्या को हल करना नहीं है। ये मुद्दा भले ही पानी के जायज़ बंटवारे का रहा हो लेकिन आज ये दोनों राज्यों में क्षेत्रीय अस्मिता का सवाल बन चुका है औऱ इसके पीछे वोटबैंक की राजनीति का बड़ा हाथ रहा है।
इस विवाद ने अपने इतिहास में तीन अलग-अलग सरकारों के दौर देखे हैं। पहली बार अंग्रेज शासन से पहले के दौर में 1807 में बांधों के निर्माण के बाद पानी के बहाव और उसके बंटवारे को लेकर विवाद शुरू हुआ। दूसरी बार ब्रिटिश शासन के दौरान इस विवाद ने हवा पकड़ी जब 1892 के समझौते के तहत मद्रास प्रेसिडेंसी को पानी के ऊपर अधिकार दे दिया गया जिसकी वजह से सामाजिक और आर्थिक असमनताएं पैदा हुईं और मामला बिगड़ता चला गया। 1924 में फिर एक समझौता हुआ जो अगले पचास सालों तक कायम रहा जिसके तहत दोनों पक्ष 1892 के तहत पानी के ऊपर दिये गये अधिकार को जारी रखने पर राजी तो हो गये लेकिन साथ ही मैसूर को कृष्णराज सागर बांध बनाने की अनुमति मिल गई। और तीसरा 1974 मे हुआ जब नदी के ऊपरीहिस्से पर बसे कर्नाटक राज्य ने कम बारिश के दिनों में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने की नीयत से जलाशय बनाने शुरू कर दिये। ये हारमन नीति के हिसाब से किया गया जिसमे नदी के ऊपरी हिस्से वाले राज्य को नदी पर पूरा अधिकार प्राप्त होता है और नदी के निचले हिस्से पर बसे राज्य की तरफ से इसमें कोई रोक-टोक नहीं की जाती है।
अब ये विवाद लगभग सौ सालों से ज्यादा पुराना हो चला है लेकिन इसके हल की कोई सूरत नजर नहीं आती। इस झगड़े का भावनात्मक मुद्दा बन जाना साबित करता है कि इसे लेकर कितनी गहरी राजनीति हुई है और इसका स्थायी समाधान खोजने की बजाय लोगों के हितों से खेला गया है।
ये जो क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर रणनीति तैयार किये जाने की गलत धारणा पैदा हो गई है इससे अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी के साथ ही उन आम लोगों को भी नुकसान पहुंच सकता है जो बहुतताकतवर नहीं होते हैं। राजनीतिक दल तो क्षेत्रीय पहचान चाहे वो धार्मिक हो या भाषाई, उसका इस्तेमाल वोट हासिक करने के अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए करते हैं और इस वजह से नदी के पानी के बंटवारे को लेकर हो रही बातचीत में तार्किक बातों का स्थान कम रह जाता है। दोनों ही राज्यों में राजनीतिक दलों के अपने हितो को लेकर दबाव बनाने और असहयोग करने की रणनीति के चलते इस विवाद का समाधान मुश्किल हो गया है।
1990 में कावेरी जल विवाद प्राधिकरण का गठन किया गया था ताकि नदी के जल का दोनों राज्यों के बीच इस तरह से न्याय संगत और प्रभावशाली तरीके से वितरण हो किकृषि, पेयजल और उद्योगों की पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। इस प्राधिकरण ने फरवरी 2007 में जो अपना अंतिम फैसला दिया, उसमें 30 हजार मिलियन क्यूबिक फिट यानी 30 टीएमसी पानी केरल राज्य को, 270 टीएमसी कर्नाटक को, 419 टीएमसी तमिलनाडु को और 7 टीएमसी पानी पुडुच्चेरी को दिया जाना था। लेकिन कर्नाटक की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया और चूंकि इसमें कम बारिश वाले साल में पानी के बंटवारे का कोई जिक्र नहीं था लिहाजा तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की सरकार ने भी माहौल बिगाड़ दिया।एक बार फिर विवाद इस सीमा तक पहुंच गया कि सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। लिहाजा आज की तारीख में हाल ये है कि जल बंटवारे को लेकर हो रही बातचीत को अब कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड का गठन करके संस्थागत स्वरूप देने की कोशिश हो रही है। अब सुप्रीम कोर्ट ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है या कहें कि भाजपा के पास इस मसले की जिम्मेदारी है जिसने हाल ही में मिली खबरों के मुताबिक दो हफ्ते का वक्त और मांगा है, यानी कर्नाटक चुनावों के बाद ही इस पर अब आगे कुछ हो सकेगा।
सवाल ये उठता है कि क्या बोर्ड में विवाद को सुलझाने की क्षमता है। सबसे बड़ी कमी ये है कि राज्यों में होने वाली अस्मिता की राजनीति के लगातार तेज होने की वजह से बोर्ड की सही फैसले लेने की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है।
जब तक स्वतंत्र रूप से काम करने वाले बोर्ड नहीं होंगे, तब तक राज्यों की दबाव की राजनीति और मुकदमेबाजी चलती रहेगी। एक और समस्या जो राजनीतिक दलों के सामने मौजूद है वो है गरीब किसानों और आम शहरी वर्ग के सामने मौजूद जल संकट। राज्य इस बात को समझने में नाकाम रहे है कि संघीय ढांचे के तहत जल संसाधन को साझा करना जरूरी है और कोई भी एक पक्ष सिर्फ जल संसाधन पर अधिकतम नियंत्रण हासिल करके और आरोप-प्रत्यारोप लगाकर राजनीति लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। राजनीतिक पार्टियां सियासी वजहों से ऐसे मामले में एक लुभावना मुद्दा तैयार करती हैं और किसी भी तरह के सहयोग से दूर भागती है क्योंकि इससे राजनीतिक तौर पर जमीन तैयार करने और अलग-अलग वर्ग के लोगों को आकर्षित करने में आसानी होती है। हालांकि जैसे जैसे पानी की कमी बढ़ती जा रही है और भविष्य में जब बढ़ती आबादी की पानी की मांग और बढ़ेगी तब कावेरी विवाद का राजनीतिकरण भी अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच जायेगा और जटिलता बढ़ जायेगी।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि एक शताब्दी से ज्यादा पुरानी समस्या का हल रातों रात हासिल नहीं किया जा सकता, लेकिन अब सरकार को अगले कुछ सालों के भीतर ऐसे कड़े कदम उठाने ही चाहिए जिससे एक सफल और सर्वस्वीकार्य समझौता हासिल किया जा सके। एक लचीले रुख के साथ तीन नीतिगत मोर्चों पर इसके लिए प्रयास किये जा सकते हैं।
पहला यह कि जल संसाधन को लेकर जो तार्किक बात समझ में आती है वो यह है कि राज्यों को मौजूदा राष्ट्रीय जल संसाधन का बुद्धिमत्ता के साथ प्रबंधन करना चाहिए और किसी भी साझा जल संपत्ति के मामले में दूसरे जल-साझीदारों के साथ अच्छे सम्बंध बनाये रखने चाहिए। इस सिद्धान्त का पालन किये बिना राष्ट्रीय जल प्रबंधन नीतियों में दूरदर्शिता नहीं रह जाती है और इसका नतीजा होता है आपसी विवाद। सरकार को इस मामले में सबसे बेहतर नीति का पालन करना चाहिए और वो यह है कि समान साझेदारी और स्थायित्व को आर्थिक क्षमता और राजनीतिक कौशल के ऊपर तरजीह दी जाए।
दूसरा यह कि सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति प्राप्त स्वायत्त बोर्ड का गठन जरूरी है ताकि राज्यों के बीच होने वाले जल विवादों को बिना राजनीतिक दबाव के हल करने के लिए निष्पक्ष, भरोसेमंद और समयबद्ध सिफारिशें लागू की जा सकें। लेकिन बिना विशेषज्ञों के सुझावों के ऐसा करना पर्याप्त नहीं होगा।
और तीसरा है राजनीतिक क्षेत्र में सुधार। मिसाल के तौर पर, राजनीतिक दलों को किसी साझेदारी वाले संसाधन के बारे में आय बढ़ जाने और जीवन स्तर सुधर जाने जैसे वादे करके आम जनता को प्रदर्शनों के लिए भड़काना नहीं चाहिए वो भी जब मकसद महज मीडिया का ध्यान खींचना और लोगों को इकट्ठा करना हो। इस मामले में राष्ट्रीय ताकतों को उद्देश्य और लाभ को स्पष्ट करते हुए बिना किसी शोरशराबे के लोगों को ऐसे मामलों में उठाये जाने वाले कदमों की अहमियत बतानी चाहिए।
कावेरी जल विवाद का बरसों से चला आ रहा बोझ कर्नाटक और तमिलनाडु की मौजूदा पीढ़ी के कंधों पर है और अगर हम डटकर गैर राजनीतिक तरीके से काम नहीं करेंगे तो ये बोझ अगली पीढ़ी के कंधों पर पड़ेगा। इस बोझ को खत्म करने के लिए तीनों नीतिगत मोर्चों पर चट्टानी दृढ़ता के साथ काम करना पड़ेगा। लेकिन अगर आने वाली सरकारें भी उसी हिचकिचाहट के साथ काम करती रहीं जैसा कि आजाद भारत की पिछली सात दशक की सरकारों ने किया था तो जल्दी ही सत्ता के दावेदार सूखी कावेरी पर जंग लड़ते नजर आयेंगे।
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