Published on Dec 06, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत और दक्षिण अफ़्रीका दोनों ही जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले ख़तरों की ज़द में हैं. ऐसे में यहां के समाज को कार्बनमुक्त करने का लक्ष्य वाकई बहुत बड़़ा है. 

नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए क्षमताओं का निर्माण: दक्षिण अफ़्रीका से एशिया तक तज़ुर्बे और सबक़

ये लेख कोलाबा एडिट 2021 सीरीज़ का हिस्सा है.


जलवायु संकट (Climate Crisis) पर बढ़ी हुई जागरूकता के हिसाब से इस मोर्चे पर की गई ठोस पहल काफ़ी पीछे छूट गई है. वैसे तो जलवायु परिवर्तन (Climate Change) पर अंतरसरकारी पैनल की पहली रिपोर्ट 1990 में ही आ गई थी. हाल ही में ग्लासगो (Glasgow) में हुए UNFCCC के कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (COP26) के 26वें सम्मेलन में लिए गए COP के निर्णयों में पहली बार “जीवाश्म ईंधन” का उल्लेख किया गया है. बैठक में इस बात को भी रेखांकित किया गया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजनाएं (यानी राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने गए योगदानों या NDCs) अब भी अपर्याप्त हैं और इनकी हर 2 साल बाद समीक्षा किए जाने की ज़रूरत है. राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने गए योगदान तमाम देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर अपनी प्राथमिकताओं को दुनिया के सामने पेश करने का अवसर प्रदान करते हैं. जलवायु के मोर्चे पर इन अल्पकालिक लक्ष्यों को दीर्घकालिक दृष्टिकोण (2050 या उसके आगे नेट-ज़ीरो उत्सर्जन) के साथ जोड़ने को लेकर बहसों का दौर जारी है. दक्षिण अफ़्रीका ने अपने निम्न उत्सर्जन विकास रणनीति के तहत 2050 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की वचनबद्धता जताई है. दूसरी ओर भारत ने 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने का इरादा ज़ाहिर किया है. इन देशों द्वारा सामने रखे गए लक्ष्य निश्चित रूप से बेहद महत्वाकांक्षी हैं. ग़ौरतलब है कि दोनों ही देश अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए कोयले से तैयार होने वाली बिजली पर निर्भर हैं. भारत और दक्षिण अफ़्रीका दोनों ही जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले ख़तरों की ज़द में हैं. ऐसे में यहां के समाज को कार्बनमुक्त करने का लक्ष्य वाकई बहुत बड़़ा है.

 भारत और दक्षिण अफ़्रीका दोनों ही जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले ख़तरों की ज़द में हैं. ऐसे में यहां के समाज को कार्बनमुक्त करने का लक्ष्य वाकई बहुत बड़़ा है. 

दक्षिण अफ़्रीका और भारत द्वारा तय किए गए नेट-ज़ीरो लक्ष्यों को पूरा करने के रास्ते में क्षमता-निर्माण एक अहम ज़रूरत है. ख़ासतौर से आने वाले सालों में अनिश्चितताओं से निपटने और बड़े पैमाने पर कार्रवाई करने की ज़रूरतों से जुड़ी क्षमता का विकास करना बेहद महत्वपूर्ण है. जलवायु परिवर्तन का स्वभाव जटिल और स्वरूप विरोधाभासी है. इससे जुड़े तमाम किरदारों के बीच के संबंधों और गतिशीलता से जुड़ी चुनौतियां बेशुमार हैं. जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर देशों द्वारा तय किए गए महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इनसे जुड़ी तमाम शर्तों को पूरा करना बेहद ज़रूरी है. साथ ही इस बारे में त्वरित कार्रवाई करना भी निहायत ज़रूरी है. इन दोनों देशों के संदर्भ में क्षमता निर्माण से जुड़ी पहेली को ठीक से समझने की दरकार है. दरअसल भारत और दक्षिण अफ़्रीका के सामने अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं को तत्काल तेज़ गति से विकास के रास्ते पर ले जाने की चुनौती है. इस बुनियादी चुनौती के साथ जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करना असल इम्तिहान है.

मिसाल के तौर पर दक्षिण अफ़्रीका में बेरोज़गारी की दर 34 फ़ीसदी है. आंकड़ों से साफ़ है कि बेरोज़गारी, ग़रीबी और तमाम तरह की आर्थिक रुकावटें दक्षिण अफ़्रीका के सामने मुंह बाए खड़ी हैं. मौजूदा हालात में किसी तरह का बदलाव लाने की प्रक्रिया में इन चुनौतियों का ध्यान रखना आवश्यक है. इसके साथ ही राजनीतिक और संस्थागत संदर्भों में देश के जटिल परिदृश्य को बारीकी से समझना भी निहायत ज़रूरी है. दक्षिण अफ़्रीका में असमानता चरम पर है. वहां के ऊर्जा क्षेत्र में उत्सर्जन का स्तर बेहद ज़्यादा है. मौजूदा वक़्त में बिजली लुकाछिपी का खेल खेल रही है और अक्सर अंधेरा छा जा रहा है. इसके साथ ही सरकार में हरेक स्तर पर क्षमताओं में असमानता का माहौल है. ऐसे माहौल में देश के सामने नेट-ज़ीरो अर्थव्यवस्था के विमर्श की ओर बढ़ना एक बड़ी चुनौती है. नेट-ज़ीरो के बारे में की जा रही बातों और संबंधित लक्ष्यों को नेट-ज़ीरो से जुड़ी वास्तविक कार्रवाइयों में तब्दील करना और उनपर अमल सुनिश्चित करना कतई आसान नहीं होगा. इन तमाम मसलों को स्थानीय संदर्भों का स्वरूप देना पड़ेगा.

दक्षिण अफ़्रीका में असमानता चरम पर है. वहां के ऊर्जा क्षेत्र में उत्सर्जन का स्तर बेहद ज़्यादा है. मौजूदा वक़्त में बिजली लुकाछिपी का खेल खेल रही है और अक्सर अंधेरा छा जा रहा है. 

एशियाअफ़्रीका क्षमता के लिहाज़ से काफ़ी पीछे

दुनिया के कई महादेश एशिया और अफ़्रीका के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा विकसित हैं. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए उनके पास पर्याप्त क्षमता और वित्तीय साधन मौजूद हैं. एशिया और अफ़्रीका क्षमता के लिहाज़ से काफ़ी पीछे हैं. नेट-ज़ीरो लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन समस्याओं से पार पाना निहायत ज़रूरी है. क्षमताओं में मौजूद ये अंतर हैं:

  • तकनीकी विकास को लेकर जागरूकता और पहुंच का अभाव. आगे बढ़ने के लिए इस मोर्चे पर तरक्की से जुड़ी जागरूकता भी कम है. हाल के वर्षों में दुनिया भर में कोयले से पैदा होने वाली बिजली के मुक़ाबले सौर तकनीक ज़्यादा सस्ती हो गई है. साफ़ है कि नीति निर्माताओं को ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों (जैसे कोयला और गैस) से आगे की सोच विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किए जाने की ज़रूरत है.
  • अपर्याप्त क्षमता और वित्तीय संसाधन. वित्तीय बाज़ारों तक पहुंच का अभाव.
  • सरकारों के भीतर और अनेक स्तरों पर विरोधाभासी नीतियां. इनमें जीवाश्म ईंधनों के लिए मौजूदा वक़्त में दी जा रही राष्ट्रीय सब्सिडी की व्यवस्था भी शामिल है.
  • विभिन्न किरदारों के बीच स्पष्ट और टिकाऊ दृष्टिकोण के अभाव के साथ-साथ दीर्घकालिक गठजोड़ और जुड़ावों की ग़ैर-मौजूदगी.
  • चाक-चौबंद निर्णय प्रक्रिया और प्रगति पर नज़र रखने के लिए ज़रूरी आंकड़ों और सूचनाओं का अभाव.

हालांकि ये तमाम चुनौतियां इनसे जुड़े विभिन्न किरदारों के बीच गठजोड़ के अवसर भी मुहैया कराते हैं. इनमें सिविल सोसाइटी, निवेशक, कारोबारी और नागरिक शामिल हैं. मिसाल के तौर पर दक्षिण अफ़्रीका में तमाम किरदार नेट-ज़ीरो लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए कई तरह की क़वायद कर रहे हैं. हालांकि इनमें से कई कार्रवाइयां एकाकी तरीक़े से और बहुत छोटे पैमाने पर हो रही हैं. इसके बावजूद नेट-ज़ीरो के लक्ष्य की ओर गतिशीलता सुनिश्चित करने के लिए ये क़वायद बेहद अहम हैं. नीचे इनका ब्योरा दिया गया है:

  • दक्षिण अफ़्रीका में राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति ने प्रेसिडेंशियल क्लाइमेट चेंज को-ऑर्डिनेशन कमीशन का गठन किया है. 24 सदस्यों वाले इस आयोग को 1 करोड़ रैंड (दक्षिण अफ़्रीकी मुद्रा) का सालाना बजट आवंटित किया गया है. इस 24 सदस्यीय निकाय में कई संबंधित किरदारों को शामिल किया गया है. इस कड़ी में दूसरे पक्षों के साथ-साथ राष्ट्रीय सरकार, निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी की मिसाल दी जा सकती है. अपेक्षाकृत कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्था और समाज के निर्माण की ओर आगे बढ़ने से जुड़ी क़वायद में तालमेल बिठाने और उसकी निगरानी करने के लिए आयोग का गठन किया गया है. इस संदर्भ में देश के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य से जुड़ी ख़ासियतों को तवज्जो देने की बात भी कही गई है. ये आयोग नेट-ज़ीरो के लक्ष्य की ओर सरकार के पहले क़दम का संकेत है. दक्षिण अफ़्रीका में नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को लेकर अमल में लाए जाने वाला रोडमैप सुनिश्चित करने के लिए ये क़वायद की गई है.
  • दक्षिण अफ़्रीका के चार सबसे बड़े शहरों ने 2030 तक सभी नई इमारतों को नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के हिसाब से तैयार करने का लक्ष्य तय किया है. इसके साथ ही तमाम मौजूदा इमारतों को भी 2050 तक नेट-ज़ीरो के हिसाब से ढालने का मकसद सामने रखा गया है. इनमें केप टाउन, डरबन, जोहानिसबर्ग और प्रिटोरिया (तशवेन) शामिल हैं. सी40 सिटीज़ क्लाइमेट लीडरशिप ग्रुप प्रोग्राम की मदद से इन चारों शहरों ने नेट-ज़ीरो कार्बन बिल्डिंग नीति और इनसे जुड़े नियम-क़ायदे तैयार करने की प्रतिबद्धता जताई है. इस कड़ी में ऊर्जा की कार्यकुशलता से जुड़ी तमाम ज़रूरतों को मौजूदा राष्ट्रीय मानकों से कहीं ऊपर और पूरी कठोरता से लागू करने की बात कही गई है. बहरहाल इस सिलसिले में केप टाउन शहर तो एक क़दम और आगे निकल गया है. केप टाउन में नेट ज़ीरो कार्बन के मानक पर तैयार होने वाली इमारतों से जुड़ी पूरी क़वायद के लिए अलग से एक टीम गठित कर दी गई है.
  • टुकड़ों में बंटे तौर-तरीक़ों का त्याग: दक्षिण अफ़्रीका के कारोबार जगत और शहरों का एक व्यापक निकाय गठित किया गया है. इनका उद्देश्य विभिन्न किरदारों के बीच नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने की प्रतिबद्धताओं से जुड़ी जानकारी, ज्ञान और कौशल का आदान-प्रदान सुनिश्चित करना है. इस निकाय का नाम एलायंस फ़ॉर क्लाइमेट एक्शन साउथ अफ़्रीका है. इसके तहत “2050 तक सामूहिकता के साथ शुद्ध रूप से शून्य कार्बन उत्सर्जन करने वाली क़वायद में निजी क्षेत्रों, शहरों, प्रांतों, निवेशकों, शोध संस्थानों और तमाम दूसरे पक्षों के “हैरान करने वाले गठजोड़” तैयार” करने की बात कही गई है.

2070 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य का पीछा करते हुए भारत के रास्ते में क्षमता से जुड़ी तमाम तरह की अड़चनें पेश आ सकती हैं. इनके निपटारे के लिए भारत निश्चित रूप से दक्षिण अफ़्रीका के अनुभवों का लाभ उठा सकता है. 

दक्षिण अफ़्रीका के अनुभवों का लाभ उठा सकता है भारत

बहरहाल भारत 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने की यात्रा शुरू कर रहा है. ऐसे में  दक्षिण अफ़्रीका के सामने रखी गई मिसालें भारत के लिए सीख बन सकती हैं. 2070 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य का पीछा करते हुए भारत के रास्ते में क्षमता से जुड़ी तमाम तरह की अड़चनें पेश आ सकती हैं. इनके निपटारे के लिए भारत निश्चित रूप से दक्षिण अफ़्रीका के अनुभवों का लाभ उठा सकता है. इनमें राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट दृष्टिकोण और नेतृत्व खड़ा करने के साथ-साथ समुचित वैधानिक और नियामक मानदंड तैयार करने से जुड़े उपाय शामिल हैं. इनके अलावा ज्ञान आधारित उपक्रमों के विकास के लिए समर्पित विशेषज्ञ सहायता जैसे क्षेत्र में भी भारत कई सबक सीख सकता है.

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