Author : Seema Sirohi

Published on Mar 29, 2018 Updated 0 Hours ago

बड़ा सवाल है की क्या ट्रम्प ने अब तक जो सावधानी या एह्तेयात बरता है वो बोल्टन और पोम्पेओ के तर्क के सामने टिका रह सकेगा।

बोल्टन-पोम्पेओ: अमेरिकी प्रशासन के नए चेहरे और इनका असर

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का जॉन बोल्टन को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और माइक पोम्पेओ को विदेश मंत्री के पद पर नियुक्त करने का फैसला ट्रम्प प्रशासन में एक निर्णायक मोड़ हो सकता है। जॉन बोल्टन को उदारवादी प्रशासन सख्त नापसंद करता है चूँकि उनकी छवि एक तेज़ तर्रार कट्टरपंथी की है।

दोनों ही सैन्य हस्तक्षेप के पक्षधर रहे हैं, दुसरे देशों के साथ नर्म कूटनीति की इनकी नीति में जगह नहीं रही है। बुश प्रशासन में बोल्टन का कार्यकाल इराक युद्ध के लिए उनके अतिउत्साह के लिए यादगार रहा है। विरोधियों की राय दबाने के लिए वो सभी हथकंडे अपनाते रहे हैं।

बोल्टन एच.आर. मैकमास्टर की जगह लेंगे जो ट्रम्प के साथ काम करने के लिए उनसे करीबी बनाने में नाकाम रहे, इसलिए नीतियों से जुड़े फैसलों पर हमेशा उन्हें लग थलग रखा गया। माइक पोम्पेओ रेक्स टिलरसन की जगह लेंगे। वो मौजूदा सी आई ऐ डायरेक्टर हैं और ईरान के कड़े आलोचक रहे हैं। विदेश नीति के मामलों में टिलरसन और ट्रम्प के बीच टकराव जगजाहिर हो गया था जिसकी वजह से अमेरिका के सबसे ऊंचे ओहदे पर नियुक्त राजनयिक के तौर पर रेक्स टिलर्सन का काम करना नामुमकिन हो गया था। जबकि माइक पोम्पेओ के राष्ट्रपति ट्रम्प से करीबी रिश्ते हैं। पोम्पेओ रोजाना की इंटेलिजेंस जानकारियां राष्ट्रपति को व्यक्तिगत तौर पर पहुंचाते हैं। जब विदेशी राजनयिक पोम्पेओ से बात करेंगे तो उन्हें ये साफ़ पता होगा की पोम्पेओ अमेरिकी राष्ट्रपति का पक्ष रख रहे हैं।

इस बदलाव का एलान करते वक़्त ट्रम्प ने कहा की “अब हम मेरी पसंद का कैबिनेट और दूसरी चीज़ों के करीब आ रहे हैं” राष्ट्रपति और राष्ट्रीय सुरक्षा टीम के बीच जो मतभेद पिछले साल रहे, इस बयान में इसी मतभेद का भाव साफ़ है।

विदेश नीति के सलाहकारों में अब झुकाव ज्यादा आक्रामक नीतियों की तरफ होगा, और ऐसे में रक्षा मंत्री जिम मैटिस की वो अकेली आवाज़ रह गयी है जो मिलिट्री के बजाय कूटनीति के रास्ते चलना चाहते हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार गैरी कोहन के जाने के बाद वाइट हाउस से उदारवादी नीति की पक्षधर कम बचे हैं।


नए बदलावों से अमेरिकी विदेश नीति का झुकाव अब आक्रामक नीति की तरफ हो गया है, रक्षा मंत्री जिम मैटिस की अकेली आवाज़ बची है जो मिलिट्री की जगह अब भी कूटनीति के रास्ते पर चलने की बात करते हैं।


संभावना है की बोल्टन और पोम्पेओ अपने ओहदे पर जमने के बाद मध्य और निचले स्तर पर अफसरों का तबादला करेंगे, जो उनकी नीति से सहमत नहीं होंगे उन्हें बदला जाएगा। उम्मीद है की राष्ट्रपति की नीतियां ज्यादा अच्छी तरह और कुशलता से कार्यान्वित होंगी क्यूंकि बोल्टन वाशिंगटन की अफसरशाही को अपने फायेदे के लिए इस्तेमाल करने में माहिर हैं, मैकमास्टर और टिलरसन इस मामले में नौसीखिए थे।

केंद्र बिंदु ट्रम्प हैं, कहा जाता है की विदेश नीति पर उनके विचार अडिग हैं। लेकिन वो भी नए युध्ह छेड़ने के खिलाफ ही नज़र आये हैं, हालाँकि दुश्मनों को भस्म कर डालने की आग वो अपने बयानों से ऐसे उगलते रहे हैं जैसा की दुनिया ने पहले नहीं देखा, अपने परमाणु बटन का रॉब भी जमाते रहे लेकिन आख़िरकार अपनी सेना को नए युध्ह छेत्रों में भेजने के मामले में उन्होंने सावधानी बरती है। वो जितनी जोर शोर से कहते हैं करते नहीं।

अफ़ग़ानिस्तान में अतिरिक्त सेना भेजने पर हामी भरने के पहले ट्रम्प ने अपनी नेशनल सिक्यूरिटी टीम से इस पर सफाई मांगी की और ज्यादा सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान भेजने से अफ़ग़ानिस्तान में चले आ रहे इस युद्ध को ख़त्म करने में इस से कैसे मदद मिलेगी। इस पर साफ़ जवाब मिलने में देरी से ट्रम्प चिढ भी गए क्यूंकि इससे दक्षिण एशिया की रणनीति को जारी करने में देर हो रही थी। दक्षिण एशिया की इस नीति में पाकिस्तान पर काफी सफाई है जिसकी वजह से भारत ने इसकी तारीफ़ की है, लेकिन अब नए नियुक्त इस पर दुबारा ज़रूर गौर करेंगे।

बड़ा सवाल है की क्या ट्रम्प ने अब तक जो सावधानी या एह्तेयात बरता है वो बोल्टन और पोम्पेओ के तर्क के सामने टिका रह सकेगा। बोल्टन और पोम्पेओ, दोनों सैनिक कार्यवाई या हस्तक्षेप को सबसे अच्छा और तेज़ विकल्प मानते हैं। क्या वो अमेरिका को ईरान और नार्थ कोरिया से टकराव की राह पर ला कर खड़ा कर देंगे। कई उदारवादियों को इसका डर है।

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर ट्रम्प ने इराक युद्ध को एक बड़ी ग़लती बताया था, “अ बिग फैट मिस्टेक” और बुश प्रशासन पर इराक के सामूहिक विनाश के हथियार के मामले में झूठ बोलने का आरोप लगाया था। लेकिन अब बतौर राष्ट्रपति उन्हों ने बोल्टन को वाइट हाउस में जगह दी है, बोल्टन जो की इराक युद्ध के सबसे बड़े समर्थकों में रहे हैं।


एक बार अपनी जगह संभल लेने के बाद संभावना है की बोल्टन और पोम्पेओ मध्य और निचले स्टार पर अफसरों की फेरबदल भी करेंगे।


बल्कि बोल्टन युद्ध के ऐसे भयंकर समर्थक रहे हैं की वो इस युध्ह को ईरान पहुँचाना चाहते थे। हालाँकि इस युद्ध का के कई खतरनाक नतीजे सामने आये, जैसे की ISIS का जन्म, जिसका असर मिडिल ईस्ट से यूरोप तक मससूस किया जा रहा है। फिर भी बोल्टन अपने रुख पर अड़े हैं।

बोल्टन और पोम्पेओ दोनों ही ओबामा प्रशासन में हुई ईरान परमाणु डील को खतरनाक और विनाशकारी बताते हैं। वो इस डील को ख़त्म करना चाहते हैं और इस मामले में उन्हें ट्रम्प का समर्थन तो मिलेगा लेकिन यूरोपीय सहयोगियों का नहीं। न ही अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और दुनिया के दुसरे देश इस डील को ख़त्म करने में उनका साथ देंगे।

वाइट हाउस के चीफ ऑफ़ स्टाफ जॉन केली ने बोल्टन के वाइट हाउस आने जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. कहा जाता है की बोल्टन ट्रम्प के करीबियों में जगह बनाने में ईरान की डील को ख़त्म करने के सुझाव देकर ही दाखिल हो पाए।

खबर है की पिछले साल संयुक्त राष्ट्र में ट्रम्प ने बोल्टन के सुझाव पर ही कहा था की वो ईरान डील को ख़त्म कर देंगे अगर अमेरिकी कांग्रेस और यूरोपीय सहयोगी इस डील पर दोबारा से बातचीत नहीं करते। और अब्बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है।

अमेरिका के एक वरिस्थ अधिकारी यूर्पे के देशीं के दौरे पर हैं इस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए की ईरान परमाणु डील में १२ मई तक कुछ नयी बातें डाली जा सकती हैं या नहीं। ट्रम्प ने १२ मई की डेडलाइन तय की है। इन नयी शर्तों में ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल क्षमता पर रोक लगाने की बात है, परमाणु ठिकानो की और सख्त निगरानी भी लागु करने का प्रस्ताव है। ईरान की संवर्धन क्षमता की समय सीमा को भी अनिश्चित समय के लिए बढ़ने का सुज्झाव है।

बोल्टन इस से कुछ क़दम आगे भी जा सकते हैं। २०१५ में न्यू यॉर्क टाइम्स में उन्होंने लिखा था की “ये तय है की ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को बातचीत के ज़रिये ख़त्म नहीं करने वाला है। न ही प्रतिबन्ध उसे अपने हथियारों के इंफ्रास्ट्रक्चर को और मज़बूत करने से रोक पायेंगे। कडवी सच्चाई ये है की सिर्फ सैनिक कार्यवाई, जैसी की इजराइल ने १९८१ में सद्दाम हुसैन के ओसिरक रिएक्टर पर की थी, या २००७ में उत्तर कोरिया के बनाए हुए सीरिया के रिएक्टर को जिस तरह उस ने तबाह किया था, ठीक इसी तरह की कार्यवाई की ज़रूरत ईरान के खिलाफ है.. समय कम है लेकिन फिर भी हमला कामयाब हो सकता है।”

ईरान पर पोम्पेओ का रुख भी इतना ही आक्रामक है। सीआईए निदेशक होने के नाते तमाम खुफिया जानकारी तक पहुँच होने के कारण ये हमलावर तेवर और तेज़ हुए हैं। पिछली जुलाई में पोम्पेओ ने ऐस्पन सिक्यूरिटी फोरम को बताया था की ईरान का सहयोग बहुत कम और अस्थाई है जिसे ईरान ख़ुशी से नहीं कर रहा।

अक्टूबर में इस से एक क़दम आगे बढ़ते हुए पोम्पेओ ने ईरान को एक ठग पुलिस राज्य , एक निरंकुश धर्मतंत्र कहा और उसकी तुलना आतंकी संगठन ISIS से की। एक ऐसा सुन्नी आतंकी संगठन जिस के खिलाफ ईरान लड़ता रहा है.जिस तरह की बातचीत चल रही है वो डोनाल्ड रम्सफेल्ड और डिक चेनी के दौर की याद दिलाती है जब इराक युद्ध की हवा बन रही थी।


ईरान पर पोम्पेओ का रुख भी इतना ही आक्रामक है।


एक सांसद के तौर पर पोम्पेओ ने ईरान के साथ किसी भी तरह की डील पर बातचीतका सख्त विरोध किया था। २०१४ मे ईरान से बात ख़त्म करने की मांग की और हवाई हमले कर ईरान के परमाणु स्थापना को देश से निकलने का सुझाव दिया। जब ओबामा प्रशासन ने ईरान के साथ डील को पूरा किया तो पोम्पेओ ने इसे समर्पण कहा।

इसी तरह उत्तर कोरिया से बोल्टन और पोम्पेओ संधिपत्र चाहते हैं, समझौता नहीं। बोल्टन पहले ये भी कह चुके हैं की अमेरिका उत्तर कोरिया पर बिना दक्षिण कोरिया की सहमती के हमला कर सकता है, जबकि दक्षिण कोरिया अमेरिका का एक संधि के तहत सहयोगी है।

अमेरिका के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर नियुक्त होने के बाद पिछले ही हफ्ते बोल्टन ने रेडियो फ्री एशिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा है की ट्रम्प और उत्तर कोरिया के तानाशाह किन जोंग उन के बीच मई में होने वाली शिखर वार्ता में ट्रम्प को उत्तर कोरिया पर अपने परमाणु कार्यक्रम को ख़त्म करने की ही बात करनी चाहिए, किसी और मुद्दे पर बात करना समय की बर्बादी होगी.. हालाँकि उन्हों ने ये माना की नार्थ कोरिया के खिलाफ सैनिक विकल्प खतरनाक होगा लेकिन ये भी कहा की ये और भी खतरनाक है की नार्थ कोरिया के पास परमाणु शक्ति हो।

पोम्पेओ ने भी पिछली जुलाई में कुछ ऐसी ही बात कही, “प्रायद्वीप को ‘डी-न्यूक्लियरआईस’ करना ही सबसे ज़रूरी बात होगी, उन हथियारों को अगर हम उस सत्ता से अलग कर सकें।”

ये युद्ध के बोल हैं। मुश्किल ये है की बोल्टन और पोम्पेओ के पास इसको असल टकराव में बदलने की प्रशासनिक और बौद्धिक क्षमता है।

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