Author : Rajeev Jayadevan

Published on Aug 10, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या वन-साइज़-फिट्स-ऑल बूस्टर नीति लंबे समय में एक अच्छा निर्णय होगा?

भारत में कोविड-19 के लिए बूस्टर शॉट: एक गतिशील लक्ष्य
भारत में कोविड-19 के लिए बूस्टर शॉट: एक गतिशील लक्ष्य

बूस्टर डोज़ क्या है?

किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जो प्राथमिक टीकाकरण प्रक्रिया को पूरी कर चुका है, उस शख़्स में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को फिर से जगाने के लिए उसे अतिरिक्त डोज़ देना आमतौर पर बूस्टर डोज़ के रूप में जाना जाता है.

एक सामान्य उदाहरण इन्फ़्लूएंजा का मामला है, जिसे आमतौर पर फ़्लू कहा जाता है. हालांकि, एसएआरएस सीओवी-2 जो कि एक सिंगल वायरस है, और इन्फ़्लूएंजा का कारक है वो कई अलग-अलग प्रकार और उप-प्रकार के वायरस के कारण होता है. हर साल फ़्लू के मौसम से पहले, उन चार इन्फ़्लूएंजा पैदा करने वाले वायरस को लक्षित करने के लिए एक व्यापक टीका एक-साथ रखा जाता है, जिसके उस वर्ष के आख़िर तक में प्रसारित होने की उम्मीद होती है.

हर साल फ़्लू के मौसम से पहले, उन चार इन्फ़्लूएंजा पैदा करने वाले वायरस को लक्षित करने के लिए एक व्यापक टीका एक-साथ रखा जाता है, जिसके उस वर्ष के आख़िर तक में प्रसारित होने की उम्मीद होती है.

इन्फ़्लूएंजा वायरस एंटीजेनिक शिफ़्ट की वज़ह से होते हैं, जो एंटीजेनिक संरचना में अचानक बड़ा परिवर्तन करते हैं. हालांकि, सार्स CoV2 ने अभी तक उस व्यवहार को प्रदर्शित नहीं किया है और इसके बजाय यह गैर-समान परिवर्तन के बावज़ूद अधिक क्रमिक दिखा रहा है, जिसे एंटीजेनिक ड्रिफ़्ट कहा जाता है. हालांकि, कुछ शोधकर्ताओं का मानना ​​है कि ओमिक्रॉन का म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) एक एंटीजेनिक बदलाव के रूप में जाना जा सकता है.

कोविड-19 के लिए बूस्टर की आवश्यकता क्यों है?

जब कोरोना महामारी ने दस्तक दी तब कई लोगों को उम्मीद थी कि यह जीवन में एक बार होने वाला संक्रमण होगा जिसे जीवन भर में एक बार टीकाकरण से रोका जा सकता है लेकिन जैसे-जैसे महीने बीतते गए, यह स्पष्ट होता गया कि यह वायरस उन लोगों को संक्रमित करने में सक्षम है जिन्हें पूरी तरह से टीका लगाया गया था या पहले से संक्रमित थे, या दोनों. आसान शब्दों में कहें तो हमारे शरीर द्वारा उत्पन्न प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया वायरस को फिर से हमें संक्रमित करने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं थी.

ऐसी घटना की तीन वजहें हैं:
सबसे पहले, वायरस ने अपने नए पाए गए मेज़बान यानी इंसानों में निरंतर वो क्षमता दिखाई है जो उनके अनुकूल है. मानव एंटीबॉडी प्रतिक्रिया पैटर्न का जल्दी से पता लगाने के बाद, वायरस ने अपने अमीनो एसिड अनुक्रम में छोटे बदलाव करके इससे बचने के तरीक़े खोज लिए हैं जिसे इम्यून एस्केप कहा जाता है. उदाहरण के लिए, ओमिक्रॉन में किसी भी पूर्व प्रतिरक्षा को पार करने की काफ़ी क्षमता होती है.

दूसरा, वर्तमान उपयोग में टीके इंजेक्शन जैसे होते हैं जो एक टिकाऊ और बहुआयामी प्रणालीगत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, जो अंगों को नुक़सान से बचाता है लेकिन प्राकृतिक संक्रमणों के विपरीत, टीके- इस वायरस के शरीर में प्रवेश को अच्छी तरह से रोक पाने में बेहतर नहीं हैं, ख़ास कर हमारी नाक और गले की म्यूकोसल लाइनिंग (श्लेष्मा परत) की जहां तक बात है. इसके अलावा,दो महीने या उसके बाद से ही एंटीबॉडी को निष्क्रिय करने का चरण शुरू होने लगता है. यह बार-बार होने वाले संक्रमण के लिए नए चरण तैयार करता है और इसे अक्सर सामान्य रूप से ‘प्रतिरक्षा का कमज़ोर होना’ माना जा सकता है. और तो और प्रत्येक अतिरिक्त डोज़ के बाद गिरावट और अधिक स्पष्ट होती है.

वर्तमान उपयोग में टीके इंजेक्शन जैसे होते हैं जो एक टिकाऊ और बहुआयामी प्रणालीगत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, जो अंगों को नुक़सान से बचाता है लेकिन प्राकृतिक संक्रमणों के विपरीत, टीके- इस वायरस के शरीर में प्रवेश को अच्छी तरह से रोक पाने में बेहतर नहीं हैं, ख़ास कर हमारी नाक और गले की म्यूकोसल लाइनिंग (श्लेष्मा परत) की जहां तक बात है.

तीसरा, जिस पर शायद सबसे कम चर्चा होती है, वह है मानव व्यवहार. लोग वायरस के प्रसार को रोकने के लिए तय किए गए सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों से थक चुके होते हैं. बिना मास्क के घुलने-मिलने में बढ़ोतरी, विशेष रूप से इनडोर सेटिंग्स में, वायरस को शरीर में प्रवेश करने का खुला मैदान मुहैया कराता है. यह टीकाकरण की प्रक्रिया को पूरा करने वाले और बुस्टर डोज़ ले चुके लोगों में भी देखा गया है, उदाहरण के लिए, पश्चिमी यूरोप में साल 2022 की शुरुआत में.

इसका नतीज़ा यह हुआ कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को बढ़ाने के लिए टीके की अतिरिक्त ख़ुराक़ देना आवश्यक हो गया. चूंकि, कोविड-19 से अधिकांश मौतें 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में देखी गई, इसलिए यह समूह, प्रतिरक्षा से समझौता करने वाले व्यक्तियों के साथ, इस तरह की अतिरिक्त सुरक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखे गए हैं. दूसरे शब्दों में, बूस्टर डोज़ लगवाने के लिए जोख़िम-लाभ समीकरण सभी समूहों के लिए एक समान नहीं है.

बूस्टर डोज़ पर उपलब्ध अधिकांश साक्ष्य एमआरएनए टीकों के बारे में हैं. इस बात के प्रमाण हैं कि जिन लोगों ने एमआरएनए बूस्टर डोज़ लगवाई हैं, उनमें अगले कुछ महीनों में कम संक्रमण देखा गया और एक समूह के रूप में वहां कम मौतें हुईं. ज़्यादा जोख़िम वाले क्षेत्रों में उस अवधि के दौरान होने वाले संक्रमणों की कुल संख्या में कमी का अपेक्षित परिणाम मृत्यु दर में कमी की संभावना है. युवा और स्वस्थ व्यक्तियों में, जिनमें मृत्यु का जोख़िम बहुत कम है, तीसरी ख़ुराक़ से मौत को लेकर मिली अतिरिक्त सुरक्षा अब तक अचूक रही है. संक्रमण के जोख़िम को कम करने के अन्य फायदे हैं जैसे कि लंबे समय तक असर डालने वाले कोविड केस में कमी और कार्यस्थल पर कम व्यवधान पैदा होना. यह गैर-दवाईयों के हस्तक्षेप जैसे मास्क और बेहतर इनडोर वेंटिलेशन के ज़रिए भी प्राप्त किया जा सकता है.

दरअसल, वैक्सीन से मिलने वाली सुरक्षा बहुआयामी होती है. यद्यपि हम आमतौर पर एंटीबॉडी के बारे में सुनते हैं लेकिन हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य घटक भी होते हैं जिन्हें आसानी से मापा नहीं जा सकता है. यह माना जाता है कि बी और टी सेल लंबे समय तक रहने वाली मेमोरी कोशिकाएं जब भी आवश्यकता होती हैं, हमारे आंतरिक अंगों के नुक़सान को कम करती हैं, भले ही एंटीबॉडी का स्तर कम हो. हालांकि, क्या अतिरिक्त टीके की ख़ुराक़ विशेष रूप से इनमें वृद्धि करेगी, यह कम से कम अभी तक साफ़ नहीं है.

हालांकि, यह बिना किसी विवाद के माना जा सकता है कि बूस्टर डोज़ के बाद शुरुआती कुछ महीनों में एंटीबॉडी को निष्क्रिय करने में अस्थायी वृद्धि होती है, जो संक्रमित होने के जोख़िम को कम करने से संबंधित है. यह दुर्भाग्य से अल्पकालिक होता है, जो आगे अतिरिक्त डोज़ की ज़रूरत पैदा करती है. हालांकि, एमआरएनए वैक्सीन की चौथी डोज़ पर किए गए अध्ययनों से पता चला है कि प्राप्त सुरक्षा तीसरी डोज़ की तुलना में कम समय तक चलती है.

संक्रमण के जोख़िम को कम करने के अन्य फायदे हैं जैसे कि लंबे समय तक असर डालने वाले कोविड केस में कमी और कार्यस्थल पर कम व्यवधान पैदा होना. यह गैर-दवाईयों के हस्तक्षेप जैसे मास्क और बेहतर इनडोर वेंटिलेशन के ज़रिए भी प्राप्त किया जा सकता है.

अब सवाल उठता है कि क्या इंसानों को हर कुछ महीनों बाद बार-बार बूस्टर डोज़ लेना चाहिए, यह एक ऐसा सवाल है जिसका अभी कोई स्पष्ट जवाब नहीं है. इस विषय पर विज्ञान की दुनिया में भी अलग-अलग मत हैं, कुछ न्यूनतम प्रभावी डोज़ के सिद्धांत को लागू करते हैं, जबकि अन्य का दावा है कि इसका कोई विकल्प नहीं है.

क्या ओमिक्रॉन पर आधारित वैक्सीन को अपग्रेड करने का समय आ गया है?

उपरोक्त बातों को और जटिल बनाने वाला तथ्य यह है कि वेरिएंट हर कुछ महीनों में सामने आते हैं और पिछले वेरिएंट के मुक़ाबले उन्हें लेकर कुछ अनुमान लगा पाना आसान नहीं होता है. इसके बजाय, डेल्टा और ओमिक्रॉन जैसे नए रूपों ने जिनोम की दूरस्थ शाखाओं के ज़रिए जन्म लिया है. एक बार जब एक नया संस्करण हावी हो जाता है तो हम आने वाले हफ़्तों में इसके कई उप-वंशों को ख़तरे के रूप में देखने लगते हैं.

इस प्रकार, अलग-अलग टीकों का सैद्धांतिक समाधान कुछ कठिनाइयों के साथ आगे बढ़ता है.

सबसे पहले, अब तक परीक्षण किए गए ओमिक्रॉन-आधारित टीकों से जो प्रतिरक्षा पैदा हुई है वह अपेक्षाकृत मूल वैक्सीन के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर नहीं दिखी है, बाद वाले टीकों ने अधिक व्यापक रिस्पॉन्स पैदा की है जो कई प्रकार के संक्रमण को रोकने में सक्षम है. हालांकि, यह दुविधा पहली बार वैक्सीन लगवाने वालों के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है जो लंबे समय तक संक्रमण से सुरक्षा चाहते हैं.

दूसरा, जब तक ख़ास वेरिएंट के लिए टीका विकसित होता है और उसका परीक्षण और सामान्य इस्तेमाल के लिए जिसे उपलब्ध कराया जाता है, तब तक एक नया वेरिएंट लोगों को संक्रमित कर चुका होता है.

87 प्रतिशत वयस्क टीकाकरण लक्ष्य को पूरा करने और तीन बड़ी लहरों से गुजरने के बाद भारत में भी हाइब्रिड प्रतिरक्षा स्तर आ चुका है. संक्रमण का प्रत्येक दौर लंबे समय तक जीवित रहने वाली मेमोरी सेल (स्मृति कोशिकाओं) को याद करता है और अलग-अलग तीव्रता के बावज़ूद एक प्रतिरक्षा रिस्पॉन्स तैयार करता है.

तीसरा, ओमिक्रॉन उप-वंश अब विशेष रूप से ओमिक्रॉन के पुराने वेरिएंट से बचने के लिए अनुकूल हो रहे हैं. मोटे तौर पर इसका मतलब यह होता है कि ओमिक्रॉन के BA.1 वेरिएंट पर आधारित टीका केवल BA.1 के ख़िलाफ़ अच्छा और कारगर हो सकता है – और अन्य ओमिक्रॉन के सब-लाइनेज़ (उप-वंशों) जैसे BA.4 या BA.5  के ख़िलाफ़ यह उतना कारगर नहीं हो सकता है. इन्हें लेकर किए जा रहे कार्यों में कई कदम बढ़ाए गए हैं, जिसमें इंट्रानैज़ल या ओरल म्यूकोसल टीके, पैन-कोरोना टीके, और बायवेलेंट (द्विसंयोजक) टीके शामिल हैं, जिन्हें एक से अधिक वेरिएंट से लड़ने के लिए तैयार किया गया है. हालांकि, ये प्रक्रिया कागज़ पर प्रभावी दिखाई देता है लेकिन इन्हें लेकर कई चुनौतियों भी हैं. हम अभी तक नहीं जानते हैं कि वास्तविक दुनिया में ये कितने प्रभावी होंगे और इससे संबंधित नतीज़ों को लेकर हमें इंतज़ार करना होगा.

बूस्टर का मतलब ‘बुलेटप्रूफ़’ नहीं है

बूस्टर डोज़ लगवाने का मतलब यह कतई नहीं है कि यह संक्रमण से सुरक्षा की गारंटी है. इटली और फरो आइलैंड्स से अलग-अलग प्रकाशित अध्ययनों से पता चलता है कि दो-तिहाई स्वास्थ्य कार्यकर्ता जो सामाजिक समारोहों में गए थे, वे हाल ही में एमआरएनए बूस्टर वैक्सीन को लेने के बावजूद ओमिक्रॉन से संक्रमित हो गए. इसका मतलब यह हुआ कि पर्याप्त रूप से वायरस एक्सपोज़र लोड आसानी से पिछले बूस्टर डोज़ से मिलने वाली सुरक्षा को तोड़ सकता है. यही कारण है कि मास्क की अहमियत जो हवा की स्वच्छता को अमल में लाते हैं, उसे नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि कमज़ोर व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए इसका योगदान बेहद अहम है.

भारत का परिदृश्य

इस बीच भारत के दृष्टिकोण से, व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले दोनों टीकों ने तीसरी डोज़ के रूप में बेहद साकारात्मक असर दिखाया है. कोविशील्ड, जिसे ब्रिटेन में ChAdOx1 के रूप में भी जाना जाता है, कम से कम mRNA वैक्सीन जितना ही अच्छा है और इसका इस्तेमाल तीसरी ख़ुराक़ के रूप में किया जा सकता है. तीसरी डोज़ के तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले कोवैक्सिन की प्रतिरक्षा रिसपॉन्स को भी बेहतर देखा गया है. हाल ही में एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण से पता चला है कि तीसरी लहर के दौरान इस टीके को लगवाने वाले लोगों की संख्या और टीकों के बीच कोई अंतर नहीं था. हालांकि, ख़ुराक़ों को मिलाने संबंधी अध्ययन जल्द ही प्रकाशित किया जाएगा.

अन्य संभावित विकल्प, जिन्हें अभी तक बूस्टर डोज़ के रूप में अधिकृत नहीं किया गया है, भारत में निर्मित दो प्रोटीन सबयूनिट टीके हैं, कॉर्बेवैक्स और कोवोवैक्स. हालांकि, बूस्टर डोज़ के तौर पर कॉर्बेवैक्स के उपयोग पर प्रकाशित डेटा उपलब्ध नहीं है, जबकि नोवावैक्स (कोवोवैक्स का यूएस संस्करण) इंग्लैंड में तीसरी डोज़ के रूप में उपयोग किए जाने पर प्रतिरक्षा पैदा करने के तौर पर दिखाया गया है.

दुनिया में अब तक बड़ी संख्या में लोगों को कुदरती तौर पर संक्रमण हो चुका है, उनमें से कई एक से अधिक बार संक्रमित हुए हैं. ओमिक्रॉन के आने से पहले ही भारत के कुछ हिस्सों में सेरोप्रिवलेंस यानी आबादी में एंटी-बॉडी का स्तर 97 प्रतिशत तक पहुंच गया था. इसमें से अधिकांश साइलेंट करियर थे जो ग्रामीण भारत में संक्रमण के सीरोलॉजिकल सबूत वाले केवल 25 प्रतिशत लोगों में संक्रमण के किसी भी लक्षण को दिखाते थे.

87 प्रतिशत वयस्क टीकाकरण लक्ष्य को पूरा करने और तीन बड़ी लहरों से गुजरने के बाद भारत में भी हाइब्रिड प्रतिरक्षा स्तर आ चुका है. संक्रमण का प्रत्येक दौर लंबे समय तक जीवित रहने वाली मेमोरी सेल (स्मृति कोशिकाओं) को याद करता है और अलग-अलग तीव्रता के बावज़ूद एक प्रतिरक्षा रिस्पॉन्स तैयार करता है. ऐसे में अच्छी तरह से टीकाकृत आबादी में संक्रमण को रोकने में बूस्टर डोज़ की अहम भूमिका होती है और इसे आगे भी और परिभाषित करने की आवश्यकता है. दरअसल, बात यह है कि फैसले लेने वाले तमाम वज़हों में इतनी विविधता के साथ यह मुमकिन नहीं है कि देश में वन-साइज़-फिट-ऑल बूस्टर डोज़ की नीति अमल में लाई जा सके.

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