Author : Satish Misra

Published on Oct 10, 2018 Updated 0 Hours ago

मोहन भागवत संघ की छवि को बदलने में सफल होंगे या नहीं, ये पूरी तरह से संघ के ऐक्शन और बर्ताव पर निर्भर करेगा।

भागवत का वास्तविक हृदय परिवर्तन?

93 साल पुराने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) द्वारा बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचने की तीन दिन की कोशिश ने एक बड़ी राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है। छठे सरसंघचालक (मुखिया) मोहन भागवत के प्रयासों की तारीफ़ भी हो रही है और संदेह के नज़र से भी देखा जा रहा है। जहां इसकी टाइमिंग को लेकर सवाल उठ रहे हैं, वहीं सवाल और पड़ताल के लिए संघ के दरवाज़े खोलने की ज़रूरत को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।

 “हिंदु राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि यहां मुस्लिमों के लिए जगह नहीं है। जिस दिन ऐसा कहा जाएगा, उस दिन कोई हिंदुत्व नहीं बचेगा। हिंदुत्व वसुधैव कुटंबकम की बात करता है,” प्रतिद्वंदियों और विरोधियों के बीच जिस मुद्दे पर आरएसएस की छवि संदिग्ध बनी हुई है, उसी मुद्दे पर सफ़ाई देते हुए भागवत ने ये बातें कहीं।

संघ प्रमुख की बातों ने अविश्वास पैदा किया है, क्योंकि ये बातें तब कही गईं जब हिंदुत्व कठोर और आक्रामक हो गया है।

सबसे पहले, एक निराशाज़नक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए तथ्यों को बारीकी से देखने की ज़रूरत है। पहुंच बढ़ाने के लिए भागवत ने देश के प्रतिष्ठित विज्ञान भवन में 17 से 19 सितंबर तक विदेशी राजनयिकों, शिक्षाविदों, राजनीतिक दलों के नेताओं, व्यापारियों, उद्योगपतियों और समाज के दूसरे क्षेत्र के नेताओं जैसे चुनिंदा मेहमानों को न्योता दिया।

आरएसएस प्रमुख की व्याख्यान श्रृंखला ने भारतीय समाज, राजनीति धर्म और अर्थव्यवस्था का सामना करने वाले मुद्दों के विस्तृत दायरे को छुआ। आरएसएस से संबंधित विभिन्न मुद्दों और राष्ट्रीय मुद्दों पर इसकी राय से जुड़े श्रोताओं के सवालों का जवाब देने के लिए भागवत ने ख़ुद को पूरी तरह खोल दिया था।

 व्याख्यान श्रृंखला का पहला दिन “भविष्य के भारत” पर आरएसएस के दृष्टिकोण पर केंद्रित था। भागवत ने उन महत्वपूर्ण मुद्दों पर संघ की विस्तृत राय रखी, जिसके लिए विरोधी इसे घेरते रहे हैं।

संघ संस्थापक डॉक्टर केशव बलराम हेडगेवार को बार-बार उद्धरित (कोट) करते हुए भागवत ने संघ के राष्ट्रीय विस्तार को रेखांकित किया। वहां मौजूद लोगों को ये बताते हुए कि हेडगेवार कांग्रेस पार्टी में थे और एक साल के लिए जेल गए थे, संघ प्रमुख ने आज़ादी की लड़ाई में बड़ी भूमिका के लिए कांग्रेस की जमकर तारीफ़ की। “कांग्रेस के रूप में देश में एक बड़ा स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हुआ, जिसने कई महापुरुष दिए,” उन्होंने संघ का पक्ष रखते हुए बताया कि कांग्रेस समेत कई लोगों ने ब्रिटिश शासन से देश की आज़ादी में योगदान दिया।

समाज और राजनीति के ध्रुवीकरण की कोशिश में जुटी मौजूदा बीजेपी की विपक्ष मुक्त राजनीति के रुख़ को लेकर ये भागवत की चेतावनी थी या नहीं, ये संघ की भविष्य की गतिविधियों से ही पता चलेगा।

आरएसएस की सार्वजनिक और प्रचलित अवधारणा को बदलने के इस दृढ़ प्रयास में संघ प्रमुख ने धर्म, नौकरी में आरक्षण, राष्ट्रीय झंडा बनाम भगवा झंडा, गोरक्षा, भाषा, धारा 377, अल्पसंख्यक और धर्म परिवर्तन पर खुल कर संघ का पक्ष रखा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत दूसरे राजनेताओं पर अप्रत्यक्ष तौर पर हमला बोलते हुए भागवत ने कहा कि श्मशान और क़ब्रिस्तान की राजनीति, भगवा आतंकवाद वो लोग करते हैं जिनका एक मात्र मक़सद सत्ता में बने रहना होता है। संघ प्रमुख ने कहा कि, राजनीति लोगों के हित के लिए होनी चाहिए।

संक्षप में, भागवत ने मुस्लिमों और दूसरे अल्पसंख्यकों को लेकर पहले के कठोर रुख़ और रूढ़िवादी विचारों से संघ को अलग कर लिया। संघ प्रमुख ने कहा कि, ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ (आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम एस गोलवलकर की किताब) में कही गई बातें शाश्वत (हमेशा के लिए) नहीं हैं। साथ ही ये भी जोड़ा कि यह एक संदर्भ में लिखी गई थी और विचार स्थिर नहीं रहते हैं।

भागवत की इस कोशिश को आरएसएस को देश की राजनीतिक व्यवस्था के ऊपर एक उच्च नैतिक मंच पर रखने के मक़सद के तौर पर देखा जा रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली बीजेपी का संघ परिवार में क़द थोड़ा बड़ा हुआ था। अब भागवत आरएसएस की मूल स्थिति को बहाल करने की कोशिशों में जुटे दिख रहे हैं, जो उनके पूर्ववर्ती राजेंद्र सिंह और के सुदर्शन के समय में कुछ हद तक रुक गई थी।

इस तथ्य को भली-भांति जानते हुए कि आरएसएस हिंदुओं के एक बड़े तबक़े को स्वीकार्य नहीं होगा क्योंकि इसका ब्रांड हिंदुत्व सनातन धर्म से टकराता है, जो काफ़ी प्रचलित है और एक बड़ा तबक़ा इसका पालन करता है, बावजूद इसके लगता है कि भागवत ने संघ को ज़्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए खुलने की अपनी कोशिश में अपने संगठन के उत्साह को कुछ हद तक कम कर दिया है।

उपमहाद्वीप में हज़ारों सालों से अस्तित्व में चला आ रहा सनातन धर्म बदलते समय के साथ अनुकूल होता गया, अपनाने योग्य बना रहा, बदलाव को अपनाता रहा और विकसित होता रहा है। सनातन धर्म के मंच से कई विरोध आंदोलन पनपे हालांकि ये सुधार आंदोलन थे। जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म, आर्य समाज, कई संप्रदायें और विभिन्न धाराएं सनातन धर्म से अलग हो गईं लेकिन उनका विस्तार एक क्षेत्र तक ही सीमित रहा या धीरे-धीरे विलुप्त हो गया। कुछ बढ़े, फिर गिरे जबकि कुछ संकुचित होकर रह गए। आरएसएस की स्थापना भी सनातन धर्म को नई दिशा देने के लिए हुई थी और इसने अपने फैलाव के लिए हिंदुत्व को हथियार बनाया था।

93 साल के अपने अस्तित्व में आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं में से एक की वजह से सत्ता में आया है। भागवत के शब्दों में संघ प्रचारक (कार्यकर्ता) आज राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष जैसे सभी संवैधानिक पदों पर क़ाबिज़ हो रहे हैं। उनमें से कई मुख्यमंत्री भी हैं।

 “हिंदुओं को राष्ट्रवादी धारा में व्यवस्थित करने के एक्सप्रेस मिशन”और उन्हें मज़बूत बनाने के मक़सद के साथ आरएसएस को लॉन्च किया गया था। संघ ने विनायक दामोदर सावरकर के हिंदुत्व की अवधारणा को अपनाया था जिसका संदेश था ‘सभी राजनीति का हिंदुकरण करो और हिंदुवाद का सैन्यीकरण करो।”

लगता है कि भागवत ने कुछ कट्टरताओं को कम करने की ज़रूरत महसूस की है, जिन्हें आरएसएस के विस्तार और आकर्षण को बढ़ाने के लिए इसका अभिन्न हिस्सा माना जाता है। अगर आरएसएस को अस्तित्व में बने रहना है और प्रतिबंधित नहीं होना है तो इसे और समावेशी होने की ज़रूरत है।

वास्तव में हद से परे जाने की संघ की ये पहल एक सोची-समझी राजनीति का हिस्सा है। इस दिशा में पहला क़दम था इस साल जून में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में आमंत्रित करना। इसने बहुत तरह की चर्चाओं को जन्म दिया।

हद से परे जाने की भागवत की इस कोशिश के लिए ये बिल्कुल सही समय है, ख़ासकर तब जब संघ का एक बच्चा सत्ता की शीर्ष कुर्सी पर है। भागवत ने जिस तरह से अपनी बातें रखीं, उससे उनके ताक़तवर होने का अहसास हो रहा था।

भागवत संघ की छवि को बदलने में सफल होंगे या नहीं, ये पूरी तरह से संघ के ऐक्शन और बर्ताव पर निर्भर करेगा। अपने पूर्ववर्तियों (पहले के संघ प्रमुखों) से अलग राह पर चलने का उनका दावा ज़मीन पर संघ के ऐक्शन से मेल खाना चाहिए। बीजेपी नेताओं समेत आरएसएस कार्यकर्ताओं को अपने ऐक्शन से इसे साबित करना होगा। कथनी और करनी में फ़र्क़ नहीं होना चाहिए।

भीड़ की हिंसा, गोरक्षा और धर्म के नाम पर नफ़रत को क़ाबू करने और प्रभावी रूप से दंडित करने की ज़रूरत है ताक़ि क़ानून सही दिशा में अपना काम कर सके। आरएसएस जिसका काफ़ी प्रभाव है, उसे एक तंत्र स्थापित करने की ज़रूरत है ताक़ि सामाजिक शांति और सांप्रदायिक सद्भाव प्रबल हो सके।

अगर भागवत के शब्द सिर्फ़ मन के दायरे में ही सीमित रह गए और ऐक्शन में नहीं बदले गए तो आरएसएस के हद से परे जाने को धोखाधड़ी के अभ्यास के तौर पर देखा जाएगा। वास्तविक हृदय परिवर्तन होना चाहिए।

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