Author : Kabir Taneja

Published on Mar 27, 2019 Updated 0 Hours ago

आतंकवाद से मुकाबला करते समय जहां प्रत्येक संघर्ष क्षेत्र की अपनी विशेष आवश्यकताएं और कारक होते हैं, वहीं पाकिस्तान औरों से बिल्कुल अलग है।

बालाकोट: आतंक के खिलाफ हवाई ताकत का उपयोग

भारतीय वायु सेना के मिराज 2000 लड़ाकू विमानों के पाकिस्तान की हवाई सीमा में सफलता से दाखिल होने और आतंकवादी गुट जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) के ठिकानों को निशाना बनाकर बम बरसाने के अभूतपूर्व मिशन को अंजाम दिए जाने के कुछ दिन बाद भी परमाणु शक्ति से लैस दोनों पड़ोसी देशों के बीच तनाव बरकरार है। पहाड़ की चोटी पर मौजूद जिस ​ठिकाने को निशाना बनाया गया, वह नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार नहीं, बल्कि पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा क्षेत्र के बालाकोट में ​है, जिससे पाकिस्तान के लिए स्थिति बहुत विकट हो गई है।

ये हवाई हमले और एक दिन बाद पाकिस्तानी वायुसेना की ओर से की गई जवाबी कार्रवाई ‘युद्ध के भ्रमजाल’ से घिर गए हैं, जिसमें भारतीय वायु सेना का एक मिग-21 गिरा दिया गया और भारतीय दावों के मुताबिक एक पाकिस्तानी एफ-16 विमान गिरा दिया गया, जो नियंत्रण रेखा के पार जाकर गिरा। मिग उड़ा रहे भारतीय पायलट को पकड़ लिया गया और जिसे बाद में “अमन का पैगाम” के तौर पर भारत को लौटा दिया गया। भारत ने इसे नजरंदाज करते हुए कहा कि जिनेवा समझौते के अनुसार, पाकिस्तान ऐसा करने के लिए बाध्य था।

भारत की ओर से किए गए पहले हवाई हमलों के मूल कारण को लेकर काफी बहस हो रही है — इन हमलों से क्या हासिल हुआ और इससे परमाणु शक्ति सम्पन्न दोनों देशों की सैन्य यथास्थिति की परिभाषा में क्या बदलाव आएगा, जिस पर वह दशकों से सहमत रहे हैं। आतंकवाद से मुकाबले के दौरान पहले कार्रवाई करने अर्थात “pre-emptive” ने यकीनन कारकों में महत्वपूर्ण बदलाव ला दिया है। हालांकि आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में हवाई ताकत का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल इस समस्या के समाधान का एक हिस्सा भर है और यह ऐसी व्यवस्था पर भरोसा करता है, जिसे प्रभावी बनने के लिए एकजुट और मिल-जुल कर काम करने वाली एक संस्था के तौर पर एक-दूसरे से जुड़ने की जरूरत है। हालांकि हम जानते हैं कि कुछ अर्से से ये हवाई हमले टेबल पर विकल्प के तौर पर मौजूद रहे हैं और ये ठिकाने बरसों से भारतीय निगरानी के दायरे में रहे हैं, यह भी दलील दी जा सकती है कि पाकिस्तान में ठिकानों पर उनका इस्तेमाल करने की कुछ सीमाएं थीं। मिराज 2000 हमले को निश्चित रूप से अपने इरादे को जाहिर करने और पाकिस्तान के किसी भी निष्क्रिय जोखिम — आकलन को बदलने में सफल रहे हैं कि भारत बिना किसी तरह की जवाबी सैन्य कार्रवाई किए अपनी धरती की छाती पर इस तरह के आतंकवादी हमले बर्दाश्त करता रहेगा। लेकिन क्या ऐसी कार्रवाइयां आतंक विरोधी साधन के तौर पर नियमित इस्तेमाल के लिए उपलब्ध हैं?

भारत की ओर से किए गए पहले हवाई हमलों के मूल कारण को लेकर काफी बहस हो रही है — इन हमलों से क्या हासिल हुआ और इससे परमाणु शक्ति सम्पन्न दोनों देशों की सैन्य यथास्थिति की परिभाषा में क्या बदलाव आएगा, जिस पर वह दशकों से सहमत रहे हैं।

दुनिया भर में आतंकवाद विरोधी कार्रवाईयों में हवाई ताकत के विकल्प के इस्तेमाल के ज्यादातर मौजूदा उदाहरणों में एक बात समान रही है, वह यह कि जिन संघर्ष के क्षेत्रों में इनका इस्तेमाल किया गया, वहां हवाई ताकत न के बराबर थी या मुकाबले के लिए कोई वैध वायुसेना नहीं थी। इसमें कोई संदेह नहीं, इससे वायुसेना के लिए आतंकवादी ठिकानों पर उस समय हवाई हमले करना उपयुक्त हो जाता है, जब मोटे तौर पर उसका विरोध करने वाला कोई न हो। इन तर्कों को आगे बढ़ाने के लिए आइये हाल के संघर्ष के दो मैदानों – अफगानिस्तान और आईएसआईएस (इराक और सीरिया) के खिलाफ युद्ध पर नजर डालते हैं। दोनों ऑपरेशन्स में एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ हवाई ताकत का जमकर इस्तेमाल किया गया, जिसके पास ऐसे हमलों के खिलाफ कोई प्रतिरोधक क्षमता न के बराबर थी। इन जंग के मैदानों के भीतर, हवाई ताकत को परम्परागत और स्वचालित मानव द्वारा संचालित विमान और ड्रोन हमलों, जिन्हें दूर बैठे पायलट ऑपरेट करते हैं, में बांटा जा सकता है। आतंकवादियों के खिलाफ परम्परागत और ड्रोन हमले दोनों ही लाभदायक रहे हैं। हालांकि नागरिक मौतों के कारण ड्रोन हमलों की आलोचना भी होती रही है।

इन आतंकवाद-विरोधी ऑपरेशन्स ने हमला करने की दृष्टि से बेहद सफल रहने वाले सिंगल इंजन के हल्के लड़ाकू विमान ब्राजील इम्ब्रेर ए-29 सुपर टोकानो की तर्ज पर कम लागत वाले, प्रभावी लड़ाकू विमान तैयार करने के एक अमेरिकी प्रोग्राम को जन्म दिया, जो विशेष रूप से कम लागत वाली आतंकवाद-विरोधी हवाई कार्रवाइयों के लिए बिल्कुल फिट रहेगा। इतना ही नहीं, मिलती-जुलती भूमिकाओं के लिए अमेरिका ने बहुत कम ऑपरेटिंग लागत के कारण लेबनान जैसे अन्य देशों को ए-29 दिए। अन्य, आर्थिक तंगी झेल रहे अन्य देश भी उग्रवाद और उनसे मिलते-जुलते खतरों से निपटने के लिए इन्हीं मॉडल्स का विकल्प आजमा रहे हैं।

इराक और सीरिया में, आईएसआईएस को एक नहीं, बल्कि तीन हवाई ताकतों — अमेरिका, रूस और सीरिया द्वारा किसी भी समय निशाना बनाया गया। इन तैनातियों ने आईएसआईएस के भौगोलिक नियंत्रण के काफी हद तक टुकड़े-टुकड़े कर दिये, लेकिन सिर्फ इसलिए क्योंकि इनके बाद इराकी सेना इराक में बड़े पैमाने पर जमीनी कार्रवाई कर रही थी और इसी तरह की कार्रवाइयां कुर्दों की अगुवाई वाले फौज जैसे सीरिया में एसडीएफ द्वारा की जा रही थीं। इन हवाई हमलों का मकसद अलग था। उन्होंने जमीनी सैनिकों के लिए इलाकों पर फिर से नियंत्रण करने या इलाकों के भीतर जाने और आतंकवादी शिविरों का सफाया करने का मार्ग तैयार किया। आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में हवाई हमलों को शामिल किए जाने का दूसरा तरीका “तलाश करो, स्थिर करो और सफाया करो” के सिद्धांत पर आधारित था। इस कारण से एडम आर. ग्रिसम और कार्ल पी. मुलर ने बिल्कुल सही कहा है कि सेना की हवाई खुफिया जानकारी, सर्वेक्षण और पहले आक्रमण (आईएसआर) की क्षमताएं दरअसल आक्रमण का पहला कदम है। यह ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ कार्रवाइयों के दौरान खासतौर पर अमेरिका द्वारा किए गए ड्रोन के इस्तेमाल के दौरान विकसित हुआ। यूं तो अपनी मजबूती, हाई आपरेटिंग सीलिंग और दुश्मन के इलाके में कम जोखिम होने के कारक के कारण इसतरह की कार्रवाइयों के लिए ड्रोन्स पहली पसंद रहे हैं, लेकिन किसी आतंकवादी गुट के लोगों को सफाया करने के लिए चलाए गए ये मिशन अनेक बार आतंकवा​दी गुटों की हाइरार्की तोड़ने में सफल रहे हैं। अल कायदा के अनवर अल-अवलाकी जैसे नामी-गिरामी सरगना से लेकर आईएसआईएस के सरगना अबु बकर अल-बगदादी के करीबी सदस्यों तक इराक और सीरिया में हुए ड्रोन हमलों में मारे गए हैं। वरिष्ठ सदस्यों को मार गिराने से आतंकवादी नेटवर्क अक्सर पूरी तरह तितर-बितर हो जाते हैं या तो वे टूटकर छोटे-छोटे गुटों में बंटने के लिए मजबूर हो जाते हैं या बहुत से मामलों में प्रभाव, कमांड और ताकत के लिए वरिष्ठ सदस्यों के बीच अंदरूनी जंग छिड़ जाती है।

वरिष्ठ सदस्यों को मार गिराने से आतंकवादी नेटवर्क अक्सर पूरी तरह तितर-बितर हो जाते हैं या तो वे टूटकर छोटे-छोटे गुटों में बंटने के लिए मजबूर हो जाते हैं या बहुत से मामलों में प्रभाव, कमांड और ताकत के लिए वरिष्ठ सदस्यों के बीच अंदरूनी जंग छिड़ जाती है।

अल कायदा के पूर्व सरगना ओसामा बिन लादेन ने एक बार अपने तत्कालीन सहयोगी अतिया अब्द अल रहमान को इस बारे में चेताया था कि गुट के सरगना का एकाएक मारा जाना एक प्रशासनिक संकट है। बिन लादेन ने कहा था कि निचले दर्जे के लीडर्स, जो पूर्व लीडर्स जितने अनुभवी नहीं हो, तो वे कार्रवाइयों और प्रबंधन में गलतियां दोहराते हैं, ऐसी गलतियां करते हैं, जो ऐसे गुट बर्दाश्त नहीं कर सकते, जिनका पीछा आधी दुनिया कर रही हो। ये गलतियां उन्हें दुश्मन के सामने जाहिर कर देती हैं। आतंकवाद-विरोधी विकल्प के तौर पर ड्रोन के इस्तेमाल ने अफ्रीका के अल शबाब और बोको हराम जैसे गुटों को अपने लड़ाकों को यह हुक्म और सलाह जारी करने को मजबूर कर​ दिया है कि वे डिजिटल कम्युनिकेशन के साधनों का इस्तेमाल न करें और खुले स्थानों पर झुंडों में इकट्ठे न हों। ये युद्ध नीतियां आतंकवाद से निपटने के लिए ज्यादा प्रत्यक्ष और जोखिम भरी युद्ध नीतियों को अपनाने की इजाजत देती हैं, जैसे पाकिस्तान में की गई वह आक्रामक कार्रवाई जिसमें ओसामा बिन लादेन मारा गया-ऐसी कार्रवाई का इस्तेमाल केवल बेहद विकट स्थितियों में ही करना होगा। पाकिस्तान में, जहां एक ओर तालिबान, अनेक ​तालिबान सरगनाओं का सफाया करने वाले अमेरिकी ड्रोन हमलों से बचने के लिए वही हथकंडे अपनाते हैं, वहीं जैश ए मोहम्मद, लश्कर ए तैयबा और सरकार द्वारा समर्थित अन्य गुटों की तरह उनको न सिर्फ परमाणु संरक्षण के साए में ऑपरेट करने वाली पाकिस्तान की आतंकवादी व्यवस्था से शरण मिलती है, बल्कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक आतंकवादी करार दिए जाने के बाद भी वे शहरों में खुलेआम घूमते देखे जाते हैं।

हालांकि, हवाई हमलों से परे, इस बात का भी स्वस्थ आकलन ​किया जाना जरूरी है कि आतंकवादी गुटों के वरिष्ठ नेता या सरगना के मारे जाने के ​बाद वह गुट क्या स्वरूप लेगा। जैश-ए-मोहम्मद जैसे देवबंदी गुटों का व​रीयताक्रम शायद अल कायदा या आईएसआईएस जैसा मजबूत न हो। पाकिस्तान पर अनेक पुस्तके लिखने वाली प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर जैसे विशेषज्ञ इस बात पर रोशनी डालते हैं कि पाकिस्तानी देवबंदी गुटों के पास मजबूत वरीयताक्रम वाला ढांचा होना आवश्यक नहीं है और इसकी बजाए वे अव्यवस्थित रूप से परस्पर सम्बद्ध दूसरे गुटों पर भरोसा करते हैं, जो आपस में अपने गुट के ‘बुजुर्गों’ को सरगना के तौर पर बदल लेते हैं। यहां, एक ऐसा गुट जिसे प्रचलित विश्वास के बावजूद पाकिस्तान द्वारा पूर्ण सुरक्षा की गारंटी प्राप्त न हो, और जिसमें जैश-ए-मोहम्मद और उसके सरगना मसूद अजहर जैसे वरीयताक्रम का अभाव हो, वह अपने मजबूत गुट की छवि बरकरार रखने के लिए सरकार की मदद पर निर्भर रहता है।

अंत में, हवाई हमले अपने आप किसी आतंकवादी गुट के टुकड़े-टुकड़े नहीं करते। आतंकवाद से मुकाबला करते समय जहां प्रत्येक संघर्ष क्षेत्र की अपनी विशेष आवश्यकताएं और कारक होते हैं, वहीं पाकिस्तान औरों से बिल्कुल अलग है। भारत को एक दीर्घकालिक, स्पष्ट आतंकवाद-विरोधी रणनीति की जरूरत है, जिसमें हवाई ताकत की महत्वपूर्ण भूमिका हो। हालांकि बालाकोट जैसी कार्रवाइयों का लाभ उठाने के लिए महज इरादे से कहीं ज्यादा स्पष्ट नीतियों का होना आवश्यक है। पाकिस्तान एक ऐसी जगह है, जहां एक मजबूत वायुसेना जैश ए मोहम्मद और अन्य गुटों को हवाई हमलों से सुरक्षा प्रदान करती है और भले ही सरकार की यह सहायता सशर्त हो सकती है, लेकिन भारत को महत्वपूर्ण खुफिया क्षमता और आधुनिक रक्षा तंत्र से लेकर सहायक कूटनीति सहित दीर्घकालिक राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। क्षमता निर्माण और तैनाती के बिना सिग्नलिंग से केवल राजनीतिक स्तर पर लाभ उठाने के लिए उपयोगी अल्पकालिक जीत ही हासिल होगी। उनमें स्पष्ट सामरिक लाभ और आतंकवादी खतरों का दीर्घकालिक सफाया करने का विजन नहीं होगा।

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