Published on Jul 09, 2020 Updated 0 Hours ago

श्रीलंका के तमाम नेताओं की भीड़ में महिंदा राजपक्षे का कद सबसे अलग और ऊंचा है. वो एक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अलग अलग समय पर तमाम घरेलू और बाहरी दबावों के बावजूद अपनी सियासी अहमियत बनाए रखी है.

तीन ख़तरों और तीन देशों के बीच अपने नीतियों और चुनौतियों में संतुलन बनाता श्रीलंका

शतरंज हमें युद्ध कला में ताक़त के केंद्र बिंदुओं की अवधारणाएं और और निर्णायक पलों के बारे में सिखाती है. ये खेल आमतौर पर सत्ता के केंद्र तक पहुंचने के संघर्ष के तौर पर शुरू होता है. वहीं, वेई ची हमें सामरिक घेरेबंदी करना सिखाता है. — हेनरी किसिंजर

चीन के क़रीब ढाई हज़ार साल पुराने सामरिक बोर्ड गेम वेई ची में संसाधनों का निर्माण बड़ी धीमी गति से और सब्र के साथ तैयार किया जाता है. ताकि खेल में संतुलन को अपने हक़ में झुकाया जा सके. इस खेल में हमेशा लंबे समय की रणनीति बनाने पर ज़ोर होता है. फ़ौरी लाभ पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता. अपनी ताज़ा किताब Has China Won? में किशोर महबूबानी इन्हीं सवालों को उठाते हैं. क्या चीन एक साथ कई भौगोलिक क्षेत्रों में वेई ची का खेल खेल रहा है. क्या चीन, आहिस्ता आहिस्ता, वैश्विक सत्ता का संतुलन अपनी ओर झुका रहा है?

1945 के बाद से दुनिया अब तक किसी विश्व युद्ध में मानवता के बड़े पैमाने पर संहार को रोकने में सफल रही है. ये विश्व शांति का एक लंबा दौर रहा है. जैसा कि 1986 में इतिहासकार जॉन ल्यूइस गैडिस ने लिखा था. विश्व शांति का ये दौर शीत युद्ध के बाद भी जारी है. छद्म युद्धों को छोड़ दें, तो इंसानियत ने इस दौरान अमन का एक लंबा समय बिताया है. चीन के एक बड़ी ताक़त के रूप में उभरने के कारण क्या अब इस खेल का संतुलन बिगड़ गया है? क्योंकि चीन और अमेरिका के बीच भौगोलिक सामरिकि तनाव बहुत बढ़ गया है. ख़ासतौर से एशिया में. चीन के उत्थान के बारे में हाल ही में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के दो बड़े जानकारों, जॉन जे. मियर्शीमर और किशोर महबूबानी ने एक परिचर्चा की थी. इस वाद-विवाद में दोनों ही बौद्धिक व्यक्तियों के विचार बिल्कुल अलग थे. मियर्शीमर आने वाले समय में विश्व कूटनीति में एक ऐसा संघर्ष होते देखते हैं, जिसका अंत उनके मुताबिक़, चीन के अमेरिका को वैश्विक महाशक्ति मान लेने के तौर पर निकलेगा. क्योंकि मियर्शीमर मानते हैं कि चीन के आर्थिक हित उसे अपनी सामरिक नीति में बदलाव के लिए मजबूर कर देंगे. वहीं, किशोर महबूबानी चीन के उद्भव को एक नई ताक़त के शांतिपूर्ण उत्थान के तौर देखते हैं. जो उनके मुताबिक़ एक नई सभ्यता के शक्तिशाली होने के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. किशोर के मुताबिक़, अभी चीन के शक्तिशाली होने का विरोध करने वाले राष्ट्र अंत में उसे एक बड़ी ताक़त मानने को मजबूर होंगे. मज़े की बात ये है कि दोनों ही विद्वानों ने इसके लिए जॉर्ज केन्नन का हवाला दिया है. जॉर्ज केन्नन, शीत युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारी सोवियत संघ की शक्ति को सीमित रखने के अभियान के गुरू थे. मियर्शीमर और महबूबानी ने चीन की शक्ति को क़ाबू में रखने के लिए सामरिक गठबंधन की उपयोगिता पर चर्चा के दौरान जॉर्ज केन्नन का नाम लिया.

प्रोफ़ेसर महबूबानी कहते हैं कि, ‘अमेरिका ने सिर्फ़ अपने बूते शीत युद्ध में विजय नहीं प्राप्त की थी. इसके लिए उसने नैटो के ज़रिये पश्चिमी देशों का एक मज़बूत गठबंधन बनाया. इसके अलावा अमेरिका ने तीसरे विश्व में अपने भरोसेमंद दोस्त देशों जैसे कि चीन, पाकिस्तान, इंडोनेशिया और मिस्र के साथ मज़बूत रिश्ते विकसित किए. इन मज़बूत गठबंधनों के संरक्षण के लिए अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था के द्वार अपने सहयोगी देशों के लिए खुले रखे. साथ ही उसने दिल खोल कर इन देशों की आर्थिक मदद भी की. अब ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका फर्स्ट की नीति का एलान कर दिया है. वो अपने महत्वपूर्ण साथियों जैसे कि यूरोपीय संघ और जापान के ऊपर व्यापार कर बढ़ाने की धमकी दे रहे हैं. साथ ही वो तीसरे विश्व के अपने साथियों जैसे कि भारत को भी धमका रहे हैं.’ वहीं, मौजूदा संदर्भ में अमेरिका के कमज़ोर होते गठबंधनों के बारे में मियर्शीमर कहते हैं कि अगले अमेरिकी राष्ट्रपति को चीन को क़ाबू में रखने के लिए नए सामरिक गठबंधन बनाने होंगे, साथ ही साथ अमेरिका को अपने पुराने साथियों को जोड़े रखने के लिए भी मज़बूती से कोशिश करनी होगी. अमेरिका के साथ मौजूदा शीत युद्ध 2.0 में उसका प्रतिद्वंदी स्पष्ट रूप से बढ़त बनाए हुए है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के समीकरण में बदलाव आने तय हैं. अब एकध्रुवीय विश्व व्यस्था के अंतर्गत, क्वाड (QUAD) प्लस और इसके जैसे कई नए सामरिक गठबंधनों का आने वाले समय में उदय होगा.

भारत और चीन के बीच सीमा पर मौजूदा संघर्ष ने क्षेत्रीय भौगोलिक राजनीति पर दबाव और बढ़ा दिया है. चीन के साथ मौजूदा सीमा विवाद की समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक में शामिल हुए एक भारतीय अधिकारी ने मीटिंग के बाद कहा कि, ‘चीन ने ऑस्ट्रेलिया से लेकर हॉन्गकॉन्ग, ताइवान, दक्षिणी चीन सागर और भारत से लेकर अमेरिका तक से संघर्ष छेड़ा हुआ है. अब वो हर क़ीमत पर दुनिया भर में अपनी दादागीरी जमाना चाहता है.’ भारत और चीन के बीच सीमा पर बढ़ते तनाव के बीच, भारत के तीन वरिष्ठ राजनयिकों, श्याम सरन, गौतम बम्बावाले और अशोक कंथा, भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव के लिए अमेरिका और भारत के बीच बढ़ते सामरिक सहयोग को वजह मानते हैं. अब अगर अमेरिका और भारत के सामरिक संबंध, चीन को आक्रामक बना रहे हैं. तो, इसका प्रभाव हम इस क्षेत्र के अन्य देशों जैसे कि श्रीलंका पर भी होते देखेंगे. क्योंकि, श्रीलंका के भारत और चीन दोनों ही देशों से काफ़ी पुराने संबंध रहे हैं. आने वाले समय में बहुत से देशों को अमेरिका या चीन में से कोई एक विकल्प चुनने को मजबूर होना पड़ सकता है. जबकि अब तक ये देश भौगोलिक सामरिक तनाव से ख़ुद को दूर रखने के लिए किसी भी पक्ष का खुल कर दामन थामने से बचते रहे थे.

महिंदा चिंतनया, यानी श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने अपनी विदेश नीति का विज़न, 2005 में सामने रखा था. इसमें उनका ज़ोर गुट निरपेक्षता की नीति पर चलने का था. अब जबकि भौगोलिक सामरिक तनाव बढ़ रहा है. तो, राजपक्षे की विदेश नीति के लिए, श्रीलंका को किसी भी खेमे से ख़ुद को दूर रख पाना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी. बहुत से देशों ने अमेरिका के साथ अपने सुरक्षा के हित साधते हुए, चीन के साथ मिल कर अपने आर्थिक लक्ष्य भी सादे हैं. ऑस्ट्रेलिया इसकी शानदार मिसाल है. जिसने चीन के साथ अपने निर्यात की आमदनी बनाए रखने के साथ साथ अपने सुरक्षा समीकरणों को हमेशा अमेरिका के हिसाब से ढाला है. ऑस्ट्रेलिया के बड़े सामरिक विशेषज्ञ ह्यू व्हाइट कहते हैं कि, ऑस्ट्रेलिया के भविष्य पर चीन का दख़ल ज़्यादा होगा. आर्थिक भविष्यवाणियां कहती हैं कि अगले एक से दो दशकों में चीन की अर्थव्यवस्था, अमेरिका से अस्सी प्रतिशत बड़ी होगी. ऐसे माहौल में ऑस्ट्रेलिया को विश्व की नई सामरिक परिस्थितियों के लिए तैयार रहना होगा. क्योंकि अमेरिका की नेतृत्व की शक्ति में लगातार गिरावट आ रही है. ऐसे में चीन के साथ संघर्ष में ऑस्ट्रेलिया के लिए अमेरिका का समर्थन करना ठीक नहीं होगा. क्योंकि शायद चीन से ये लड़ाई, अमेरिका नहीं जीत सकता.’

पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण एशिया के साथ आर्थिक संबंध बेहतर होने के कारण चीन का प्रभाव भी बढ़ा है. अब चीन, अपने सबसे क़रीबी दक्षिण एशियाई देश भारत के साथ सीमा विवाद में उलझ गया है, तो श्रीलंका के सामने इन दो ताक़तवर देशों के साथ संतुलित संबंध रखने वाली विदेश नीति अपनाने की चुनौती होगी

पूरे दक्षिण एशिया में चीन का व्यापार पिछले एक दशक में काफ़ी बढ़ गया है. दक्षिण एशिया के सभी देशों के साथ चीन का व्यापारिक संबंध मुख्य तौर पर निर्यात का है. और ये निर्यात भारत से इन देशों को होने वाले एक्सपोर्ट से काफ़ी अधिक है. अगर हम आंकड़े देखें, तो चीन के मुक़ाबले, अपने पड़ोसी देशों को भारत का निर्यात बहुत कम रहा है. जिस तरह से इस क्षेत्र में चीन का आर्थिक दायरा बढ़ा है, वो इस बात का साफ़ संकेत है कि पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण एशिया के साथ आर्थिक संबंध बेहतर होने के कारण चीन का प्रभाव भी बढ़ा है. अब चीन, अपने सबसे क़रीबी दक्षिण एशियाई देश भारत के साथ सीमा विवाद में उलझ गया है, तो श्रीलंका के सामने इन दो ताक़तवर देशों के साथ संतुलित संबंध रखने वाली विदेश नीति अपनाने की चुनौती होगी. चीन ने श्रीलंका को भारी मात्रा में वित्तीय मदद दी है. इसके अलावा श्रीलंका से चीन के बड़े आर्थिक हित जुड़े हुए हैं. ऐसे में श्रीलंका की सरकार की विदेश नीति तय करने की प्रक्रिया पर इन बातों का प्रभाव पड़ना तय है.

राजपक्षे की राजनीति के पचास वर्ष

घरेलू मोर्चे पर देखें तो, महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति कार्यकाल (2005-2015) और मौजूदा राष्ट्रपति उनके भाई गोटाबाया राजपक्षे के दौर में बहुत बदलाव आ गया है. अब दुनिया की राजनीति पूरी तरह से बदल चुकी है. भारत और चीन के बीच सीमा पर संघर्ष और चीन व अमेरिका के बीच बढ़ते भौगोलिक सामरिक तनाव के चलते, श्रीलंका में चीन के प्रभाव क्षेत्र में बहुत वृद्धि होने की संभावना है. चीन ऐसा श्रीलंका पर अमेरिका और भारत का प्रभाव कम करने के लिए करेगा. इस साल 27 मई को जब प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के राजनीतिक जीवन के पचास वर्ष पूरे हुए, तो दुनिया भर से जो बधाई संदेश आए, उनमें से एक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी था. उन कुछ दिनों के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी की राजपक्षे परिवार के सदस्यों के साथ ये दूसरी बार फ़ोन पर हुई बात थी. पहले तो, प्रधानमंत्री मोदी ने 23 मई को राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को फ़ोन किया था. उस समय श्रीलंका की सरकार ने भारत सरकार से 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक मदद सार्क फंड के तहत मांगी थी. ताकि श्रीलंका विदेशी मुद्रा के जिस संकट से जूझ रहा है, उससे निपटने में उसकी मदद हो सके. भारत के प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को ये आश्वासन दिया था कि, ‘हम ऐसी शर्तों पर श्रीलंका की मदद के लिए तैयार हैं, जो उसके लिए आसान हों.’ इस बात से एकदम साफ़ है कि भारत, कोविड-19 की सीधे दुष्प्रभावों से जूझ रही श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए ईमानदारी से सहयोग करने को तैयार है.

महिंदा राजपक्षे का अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए, राजनीतिक जीवन में पचास वर्ष पूरे करा अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है. दक्षिण एशिया में कई राजनीतिक ख़ानदान हैं. लेकिन, श्रीलंका का राजपक्षे परिवार अपनी दो प्रतीकात्मक मगर महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियों के कारण बाक़ी सियासी ख़ानदानों से बिल्कुल अलग है. पहला तो ये कि राजपक्षे परिवार ने लगभग तीस साल से श्रीलंका में जारी गृह युद्ध ख़त्म किया. जबकि उस समय बहुत से लोग इस गृह युद्ध का ख़ात्मा कर पाना लगभग असंभव काम मानते थे. और राजपक्षे परिवार की दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि है, श्रीलंका में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हम्बनटोटा बंदरगाह का निर्माण करना. इस बंदरगाह को राजपक्षे ने चीन के साथ सामरिक संबंध मज़बूत बनाने के लिए किया था. 2014 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, श्रीलंका के दौरे पर आए तो दोनों देशों के बीच कई महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समझौते हुए थे. राजपक्षे के हम्बनटोटा बंदरगाह को चीन को सौंपने की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी चर्चा हुई थी. 2015 में राष्ट्रपति पद का चुनाव हारने के बाद महिंदा राजपक्षे 2019 में प्रधानमंत्री के तौर पर देश की सत्ता में लौटे हैं. ऐसे में महिंदा राजपक्षे, एक ऐसे नेता के तौर पर अलग दिखते हैं, जिन्होंने अलग अलग समय पर तमाम घरेलू और बाहरी दबावों के बावजूद अपनी सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी है.

महिंदा राजपक्षे का अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए, राजनीतिक जीवन में पचास वर्ष पूरे करा अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है. दक्षिण एशिया में कई राजनीतिक ख़ानदान हैं. लेकिन, श्रीलंका का राजपक्षे परिवार अपनी दो प्रतीकात्मक मगर महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियों के कारण बाक़ी सियासी ख़ानदानों से बिल्कुल अलग है

प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के राजनीतिक जीवन के पचास वर्ष पूरे होने के जश्न में, पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने एक ख़ास वीडियो संदेश में कहा कि, ‘मुझे वर्ष 2018 में महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाना ही पड़ा. क्योंकि वही थे जो हमारे देश को बचा सकते थे.’ इससे साबित होता है कि श्रीलंका के तमाम नेताओं की भीड़ में महिंदा राजपक्षे बिल्कुल अलग दिखाई देते हैं. क्योंकि लोग उन पर भरोसा करते हैं कि वो श्रीलंका के राष्ट्री मूल्यों और हितों की रक्षा करेंगे. अपने लंबे राजनीतिक करियर में महिंदा राजपक्षे ने सियासत में अपने लिए जो विश्वास अर्जित किया है वो उनकी नेतृत्व क्षमता के प्रामाणिक होने की गवाही है. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे की तारीफ़ करते हुए उनके बेटे नमल राजपक्षे ने अपने पिता के उन शब्दों को याद किया जो उन्होंने गृह युद्ध ख़त्म होने पर कहे थे. तब राजपक्षे ने कहा था कि, ‘हमारा काम तो अब शुरू हुआ है. आओ हम सब मिलकर इस देश की अपार संभावनाओं की पूर्ति करते हैं, क्योंकि अब बमों की दहशत ख़त्म हो गई है. अब से मेरे देश का हर नागरिक शांति से रह सकेगा.’ ये महिंदा राजपक्षे का नेकनीयती के साथ देखा गया ख़्वाब था, जिसे वो ईमानदारी से पूरा करना चाहते थे. लेकिन, उस ख़्वाब की तामीर का सफर अधूरा रह गया था. लोगों के दिलों के ज़ख़्म पूरी तरह भर नहीं सके. समुदायों में आपसी मेल-मिलाप पूरी तरह नहीं हो सका. लिट्टे की विचारधारा और उसका विरोध अभी ज़िंदा है. इसे हमने विजय दिवस के दौरान एक के बाद एक सरकारी वेबसाइटों पर साइबर अटैक के तौर पर देखा था. जिसमें आधिकारिक वेबसाइट पर हमले के बाद तमिल ईलम की विचारधारा का संदेश दिया गया था.

2015 में राष्ट्रपति का चुनाव हारने के बाद अपने परिवार के ख़िलाफ़ उठे सियासी तूफ़ान के दौरान महिंदा राजपक्षे ने चट्टान की तरह अडिग रह कर अपने परिवार की रक्षा की थी. उनके बेटे नमल राजपक्षे कहते हैं कि, ‘श्रीलंका की राजनीति या आपको एक मज़बूत किरदार में तब्दील कर देती है या फिर वो आप को हर मुमकिन तरीक़े से खंड खंड कर डालती है.’ पिछले साल के ईस्टर पर आतंकवादी हमलों के बाद जब देश को एक मज़बूत नेतृत्व की ज़रूरत थी, तब महिंदा राजपक्षे को सबसे भरोसेमंद नेता के तौर पर देखा गया. लोगों का विश्वास था कि महिंदा राजपक्षे ही देश की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उसे स्थिरता प्रदान कर सकते हैं. राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे ने अपने छोटे भाई गोटाबाया राजपक्षे का समर्थन किया और वो श्रीलंका के राष्ट्रपति चुन लिए गए. गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका के एक अन्य ऐसे नेता हैं, जो अपने देश की सुरक्षा के पेचीदा समीकरणों में काफ़ी असरदार साबित हुए हैं. अमेरिका, चीन और भारत के प्रभाव क्षेत्रों के बीच संतुलन बनाते हुए, राजपक्षे को तिहरे ख़तरे का सामना करना पड़ सकता है. जो दुनिया में बढ़ते सामरिक तनाव के कारण उनके क्षेत्र का भी रुख़ कर रहा है. और उनकी विदेश नीति के लिए चुनौती बन रहा है. इसके अतिरिक्त वो लिट्टे के बचे हुए समर्थकों की ओर से वैचारिक युद्ध से भी रूबरू होंगे. साथ ही राजपक्षे परिवार के सामने इस्लामिक उग्रवाद की विचारधारा से निपटने की भी चुनौती है. इसी विचारधारा को मानने वालों ने श्रीलंका में पिछले वर्ष ईस्टर के भयानक आतंकवादी हमले किए थे.

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