Published on Jun 25, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत में भी कौन सी सूचना सच है और कौन सी झूठ, इसका पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन अभी तक यहां स्कूली स्तर पर मीडिया साक्षरता बढ़ाने पर बातचीत शुरू नहीं हुई है.

सूचनाओं की फरेबी दुनियाः मीडिया साक्षरता से ही हल होगी ये मुश्किल

हम ऐसे दौर में रह रहे हैं, जहां सूचनाओं का अंबार है और रोज़मर्रा की बातचीत में ‘पोस्ट-ट्रूथ’ जैसे शब्द शामिल हो गए हैं. जब लोग भावनाओं या पिछली मान्यताओं की वजह से तथ्यों की अनदेखी करते हैं तो उसे पोस्ट-ट्रूथ कहा जाता है. ऐसे दौर में ‘सूचनाओं’ को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ानी और समझ पैदा करनी होगी. अपने मतलब के लिए बातें गढ़ना और उनका प्रचार करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन डिजिटल वर्ल्ड में जिस तरह से राजनीतिक, विचारधारा, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर झूठी खबरें आ रही हैं, वह चिंता की बात है.

सोशल मीडिया और अनगिनत मेसेजिंग नेटवर्क की वजह से बड़े पैमाने पर सूचनाओं का प्रसार एलीट वर्ग या मीडिया तक सीमित नहीं रह गया है. इन नेटवर्क के चलते सूचनाओं के प्रवाह को रोकना नामुमकिन हो गया है. ऐसे माहौल में लोगों के पास ऐसे औज़ार होने चाहिए, जिससे वे उनका विश्लेषण और यहां तक कि उन्हें ख़ारिज कर सकें. इसके लिए हमें बहुत कम उम्र से ही जागरूकता बढ़ानी होगी क्योंकि सूचनाओं की बमबारी लड़कपन की उम्र से ही शुरू हो गई है. इसके लिए हमें स्कूली कोर्स, पढ़ाने के तरीकों और शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करने होंगे. ऐसे तरीके ढूंढने होंगे, जिनसे तथ्यों और काल्पनिक बातों में फर्क किया जा सके.

स्मार्टफोन और टैबलेट की संख्या बढ़ने से आज की पीढ़ी के छात्रों की पहले की तुलना में सूचनाओं तक पहुंच काफी आसान हो गई है. 2016 में स्टैनफोर्ड हिस्ट्री एजुकेशन ग्रुप की एक रिसर्च से पता चला कि अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का धड़ल्ले से इस्तेमाल करने वाले छात्रों में से 80 पर्सेंट विज्ञापन और ख़बरों के बीच फर्क़ नहीं कर पाए. इसका मतलब यह है कि छात्रों को जिस बड़े पैमाने पर सूचनाओं से जूझना पड़ रहा है, उसमें वे सच या झूठ का फर्क़ नहीं करने में ख़ुद को असहाय पा रहे हैं. हालांकि, कुछ देशों ने इस दिक्कत को पहले ही समझ लिया था और वे पिछले कुछ साल से इससे निपटने की कोशिश कर रहे हैं.

2014 के बाद से फिनलैंड (दुनिया के बेहतरीन सरकारी स्कूलों वाला देश) में झूठी ख़बरों के खिलाफ़ एक अभियान शुरू किया गया, जिसका मक़सद छात्रों में विश्लेषण की क्षमता और सूझबूझ बढ़ाना है. 2016 की आईए इंटरनेशनल सिविक और सिटिजनशिप एजुकेशन स्टडी के मुताबिक, फिनलैंड में 82 पर्सेंट शिक्षक ‘छात्रों में विश्लेषणात्मक और स्वतंत्र सोच को बढ़ावा देने’ को ज़रूरी काम मानते हैं. फैक्ट चेकिंग यानी सच्ची और झूठी खबरों का फर्क़ बताने वाले संस्थानों या जानकारों के साथ मिलकर फिनलैंड छात्रों को हुनरमंद बना रहा है ताकि वे झूठी खबरों की पहचान कर सकें. इसके लिए छात्रों के साथ मौजूदा मुद्दों पर बातचीत की जाती है, सवाल पूछने के कल्चर को और विमर्श को बढ़ावा दिया जाता है.

इसी तरह, सितंबर 2018 में अमेरिका के सरकारी स्कूलों में मीडिया साक्षरता बढ़ाने के लिए एक विधेयक लाया गया, जिसे कैलिफोर्निया के गवर्नर जेरी ब्राउन ने मंजूरी दी. इस बिल का प्रस्ताव राज्य के सीनेटर बिल डॉड दिया था. इसके ज़रिये राज्य के शिक्षा विभाग के लिए मीडिया साक्षरता बढ़ाने और शिक्षकों को उसके मुताबिक ट्रेनिंग देने की ख़ातिर निर्देश के संसाधन मुहैया कराने को अनिवार्य बनाया गया है.

भारत में भी कौन सी सूचना सच है और कौन सी झूठ, इसका पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन अभी तक यहां स्कूली स्तर पर मीडिया साक्षरता बढ़ाने पर बातचीत भी शुरू नहीं हुई है. शिक्षा के क्षेत्र में आईसीटी (इंफॉर्मेशन और कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी) का दख़ल बढ़ रहा है, लेकिन कामकाजी तकनीकी स्किल को साक्षरता समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. सूचनाएं सीमा से नहीं बंधी होतीं, इसलिए हमें यह देखना होगा कि उनका संदर्भ क्या है और क्या वे नैतिक होने की शर्त पूरी करती हैं.

भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था काफी हद तक सिलेबस पूरा करने तक सीमित है. वह छात्रों को झूठी और सच्ची खबरों का फर्क़ सिखाने की बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं है. पहली बात तो यह है कि अभी तक प्रशासनिक स्तर पर यह स्वीकार भी नहीं किया गया है कि झूठी खबरों की समस्या कितनी बड़ी है. दूसरी बात यह है कि अधिकतर शिक्षक डिजिटल टेक्नोलॉजी से अच्छी तरह वाकिफ़ नहीं हैं. इस अभियान में पहली बड़ी बाधा तो यही है. हमारे यहां अख़बारों में छपे हुए शब्दों या कही गई बात या टीवी या वॉट्सऐप फॉरवर्ड को आंख बंद करके सच मानने की एक सामाजिक संस्कृति है, जिसे बदलने के लिए हमें हर स्तर पर सुधार करने होंगे.

राज्यों के शिक्षा विभाग इसकी शुरुआत मीडिया साक्षरता को कोर्स का हिस्सा बनाने के साथ कर सकते हैं. अगर केंद्र सरकार ऐसा निर्देश देती है तो इसमें मदद मिलेगी. इसके बाद तुरंत इस विषय पर शिक्षकों का ट्रेनिंग मॉड्युल तैयार करने के लिए जानकारों की समितियां बनाई जानी चाहिए. इन समितियों में इस क्षेत्र में काम करने वालों और फैक्ट चेकिंग संस्थानों को शामिल करना होगा, जो सूचनाओं की सच्चाई का पता लगाने का सिस्टम तैयार कर चुके हैं. समितियां राज्य या संभव हो तो क्षेत्र के आधार पर बनाई जानी चाहिए ताकि वे अपने छात्रों को ध्यान में रखकर कारगर मॉड्युल तैयार कर सकें. ट्रेनिंग मॉड्युल भी व्यापक होना चाहिए और सालाना आधार पर उसकी समीक्षा की जानी चाहिए ताकि बदलती हुई ज़रूरतों के मुताबिक उसमें तब्दीली लाई जा सके.

दूसरी, छात्रों के विकास में माता-पिता और बुजुर्गों की बड़ी भूमिका होती है. इसलिए अगर घर के अंदर बहस-मुबाहिसे न हों तो बच्चों में उसकी आदत डालने में मुश्किल होगी. बच्चों में इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के बावजूद अलग-अलग अध्ययनों में पाया गया कि वे किसी सूचना के मामले में परिवार के सदस्यों पर सबसे अधिक भरोसा करते हैं. इसलिए शिक्षकों की ट्रेनिंग के साथ पेरेंट्स को भी उनमें सूचनाओं को लेकर सवाल करने की आदत डालनी होगी. पेरेंट-टीचर मीटिंग, स्कूल मैनेजमेंट कमेटी के कार्यक्रमों, एनुअल डे, स्पोर्ट्स डे पर इस मुद्दे पर चर्चा की जा सकती है.

तीसरी, इसके लिए हमें कोई तय कोर्स नहीं बनाना चाहिए. जहां से सूचनाएं आ रही हैं, वे किसी बंधी-बंधाई लीक पर नहीं चल रही हैं, इसलिए ट्रेनिंग में भी समय-समय पर बदलाव करना होगा. सूचनाओं की बदलती दुनिया के मुताबिक ट्रेनिंग की भी व्यवस्था करनी होगी. मिसाल के लिए, छात्रों को यह सिखाने का कोई मतलब नहीं है कि वे अखबारों में पैसा लेकर छापे गए कंटेंट की पहचान कैसे करें क्योंकि उनमें से ज्यादातर तक ट्विटर या वॉट्सऐप के जरिये सूचनाएं पहुंच रही हैं. छात्रों की ट्रेनिंग के लिए जहां तक संभव हो, अभी की स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सूचनाओं का इस्तेमाल करना चाहिए.

आखिर में, सूचनाओं को लेकर सवाल करने की आदत को बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन ऐसा भी न हो कि छात्रों के अंदर इससे निराशावाद पनपे. भले ही सूचनाओं की बाढ़ के कई ख़तरे हैं, लेकिन अलग-अलग तरह के मीडिया के आने से अधिक लोगों तक ख़बरें पहुंच रही हैं और उनमें विविधता भी बढ़ी है. इसलिए ठगे जाने का डर, सीखने या सूचना हासिल करने पर हावी नहीं होना चाहिए. आखिर, खबरों का विश्लेषण करने से पहले छात्रों की उनमें दिलचस्पी जगानी होगी. यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया साक्षरता का मतलब मीडिया कंट्रोल नहीं है. छात्रों को किसी भी सूरत में सूचनाओं के लिए कुछ माध्यमों तक सीमित रहने की सलाह नहीं देनी चाहिए. मक़सद यह होना चाहिए कि वे समझ बढ़ाते हुए सच्ची और झूठी खबरों का फर्क़ करना सीखें. हम ऐसे दौर में रह रहे हैं, जहां ग़लत सूचनाओं के प्रसार से सामाजिक मसले खड़े हो रहे हैं और यहां तक कि उसका असर देश में होने वाले चुनावों पर भी पड़ रहा है. इसलिए छात्रों को सूचनाएं जुटाने, बांटने और विश्लेषण के औज़ार से लैस करना ही होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.