Author : Khalid Shah

Published on Dec 22, 2020 Updated 0 Hours ago

व्यापक संवैधानिक बदलावों और कश्मीर के उठा-पटक भरे इतिहास के सबसे सख़्त लॉकडाउन के बावजूद, वहां के लोगों का बड़ी तादाद में मतदान के लिए बाहर निकलना बेहद महत्वपूर्ण भी है और सरकार के लिए ये एक अवसर भी है कि वो जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ संवाद स्थापित करे, उन्हें सुशासन के लाभ प्रदान करे और उनकी समस्याओं का समाधान करे.

चुनाव में औसत मतदान से जम्मू-कश्मीर में उम्मीद की नई लौ जगी है

पिक्चर कैप्शन-16 दिसंबर को बारामुला के पट्टन इलाक़े में मतदान के लिए क़तार में खड़े लोग, श्रीनगर.

फोटो:वसीम अंदराबी-हिंदुस्तान टाइम्स/गेटी

कश्मीर के गांदरबल इलाक़े के शालाबग़ मतदान केंद्र पर पड़ रहे चिनार के ऊंचे दरख़्तों के साये मानो एक नए सवेरे की गवाही दे रहे हों.  सुबह सात बजे के लिहाज़ से अभी भी पूरी तरह उजाला नहीं हुआ है. तापमान माइनस एक डिग्री सेल्सियस है. फ्लडलाइट की बेहद तुर्श सफ़ेद रौशनी मतदान के लिए बैलट बॉक्स तक पहुंचने का इंतज़ार कर रहे मर्दों और औरतों की लंबी क़तारों पर ऐसे पड़ रही है कि उनके साये भी ज़मीन पर साफ़ दिख रहे हैं. संविधान की धारा 370 के ख़ात्मे के बाद ये जम्मू-कश्मीर में होने वाला पहला चुनाव है. वहां मतदान के लिए जितने लोग जुटे थे, वो 5 अगस्त 2019 के बाद इकट्ठा हुई सबसे भारी भीड़ थी.

पहली नज़र में इन चुनावों की अहमियत इस बात में छिपी है कि सत्ता का ज़मीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण हो रहा है. 

चुनावों की अहमियत

पहली नज़र में इन चुनावों की अहमियत इस बात में छिपी है कि सत्ता का ज़मीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण हो रहा है. इससे स्थानीय पंचायतों, खंड विकास परिषदों और ज़िला परिषदों को इस बात का अधिकार मिलेगा कि वो स्थानीय ज़रूरतों और आकांक्षाओं के हिसाब से विकास के प्रोजेक्ट की शुरुआत करके उन्हें लागू कर सकें. लेकिन, जिस सियासी माहौल में ये चुनाव हो रहे हैं, उस नज़रिए से देखें तो ये इस क्षेत्र के राजनीतिक इतिहास के सबसे अहम चुनाव कहे जा सकते हैं.

संविधान की धारा 370 में संशोधन और जम्मू-कश्मीर का दर्जा राज्य से घटाकर केंद्र शासित प्रदेश करने के बाद, यहां की राजनीतिक व्यवस्था में ऐसी उथल-पुथल मची जिसे ‘सियासी ख़ला’ का नाम दिया गया. बहुत से विश्लेषकों और कश्मीर पर नज़र रखने वालों का मानना था कि जम्मू-कश्मीर में क़रीब एक साल से राजनीतिक गतिविधियां निलंबित रहने से जो राजनीतिक संकट पैदा हो गया है, उसका इस क्षेत्र पर तबाही लाने जैसा असर पड़ेगा. अब जम्मू-कश्मीर के नए केंद्र शासित प्रदेश में स्थानीय स्तर पर हुए चुनावों के साथ राजनीतिक गतिविधियों की फिर शुरूआत हुई है. इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर ही सही, मगर एक सकारात्मक शक्ति मिली है.

जैसा कि होता रहा है, इस बार भी केंद्र शासित प्रदेश के जम्मू क्षेत्र में मतदान का औसत काफ़ी अधिक रहा. सच्चाई तो ये है कि जम्मू में मतदान का प्रतिशत हाल के वर्षों में दर्ज सर्वाधिक था. आठ चरणों के चुनाव में, जम्मू क्षेत्र के दस ज़िलों में 65 से 70 प्रतिशत तक मतदान दर्ज किया गया. कई ज़िलों में तो मतदान का औसत 75 प्रतिशत तक रिकॉर्ड किया गया. जम्मू के सभी ज़िलों में वोटिंग का प्रतिशत अधिक ही दर्ज किया गया.

आठ चरणों के चुनाव में, जम्मू क्षेत्र के दस ज़िलों में 65 से 70 प्रतिशत तक मतदान दर्ज किया गया. कई ज़िलों में तो मतदान का औसत 75 प्रतिशत तक रिकॉर्ड किया गया. जम्मू के सभी ज़िलों में वोटिंग का प्रतिशत अधिक ही दर्ज किया गया.

जम्मू क्षेत्र की तुलना में कश्मीर में वोटिंग का प्रतिशत काफ़ी कम रहा. लेकिन, बहुत से ज़िलों में तुलनात्मक रूप से अधिक मतदान होते देखा गया. आठ चरणों में हुए मतदान के दौरान कश्मीर क्षेत्र में 30 से 40 प्रतिशत तक वोटिंग दर्ज की गई.

कश्मीर क्षेत्र में सबसे कम वोटिंग दक्षिण कश्मीर के ज़िलों में हुई. पुलवामा में 8.5 प्रतिशत तो शोपियां में केवल 14 प्रतिशत लोग मतदान के लिए घरों से बाहर निकले. इसकी तुलना में उत्तरी और मध्य कश्मीर में सभी चरणों में लगभग 40 प्रतिशत वोटिंग दर्ज की गई.

कश्मीर क्षेत्र में मतदान का प्रतिशत ये दिखाता है कि यहां के साठ फ़ीसद से ज़्यादा मतदाताओं ने या तो चुनाव का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया, या फिर वो मतदान की प्रक्रिया से दूर रहे. जबकि, इस बार कश्मीर के चुनावों में बहुत ही कम हिंसा हुई और अलगाववादियों व आतंकवादी संगठनों ने चुनाव के बहिष्कार का भी एलान नहीं किया था. फिर भी दक्षिणी कश्मीर में मतदान का बेहद कम प्रतिशत इस बात का संकेत है कि वहां के लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर कितने उदासीन और बेपरवाह हैं.

बुरहान वानी के ख़ात्मे के बाद हुए हर बार के चुनावों में दक्षिणी कश्मीर के लोगों ने बेहद कम दिलचस्पी दिखाई है. इससे पहले हुए पंचायत के चुनाव में बहुत सी पंचायतों की सीटों पर एक भी उम्मीदवार मैदान में नहीं उतरा. नतीजा ये हुआ कि ये सीटें ख़ाली रह गईं. हालांकि इस बार, दक्षिणी कश्मीर की हर पंचायत एवं डीडीसी सीट पर एक से अधिक उम्मीदवार चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरे थे और कम से कम कुछ मतदान तो हुआ.

मतदान के बहिष्कार की कोई अपील न होने और हिंसक घटनाएं न होना ही इस चुनाव की सबसे उल्लेखनीय बात रही. हिंसा की छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें, तो अधिकतर मतदान शांतिपूर्ण ही रहा. पहले के  लोकसभा चुनाव या पंचायत चुनाव की तुलना में इस बार मतदान का औसत बेहतर रहने की एक वजह ये भी रही कि इस बार न तो चुनाव के बहिष्कार का एलान हुआ और न ही किसी ने कोई धमकी दी थी.

इस बार के चुनाव में एक और महत्वपूर्ण बात उम्मीदवारों की संख्या भी रही. ऐसे कई इलाक़े जहां, ‘चुनाव’ लफ़्ज़ बोलना तक कुफ्र माना जाता था, वहां पर भी कई उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे थे. इनमें से कई प्रत्याशी बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे. ज़ाहिर है कि राजनीतिक आकांक्षा रखने वाले अब न तो चुनाव लड़ने से डरते हैं और न ही उन्हें धमकियों का ख़ौफ़ रहा. ये बात ही बहुत से युवाओं को जम्मू-कश्मीर की राजनीति की मुख्यधारा में आने का हौसला देगी.

जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में पिछले दो साल से कोई चुनी हुई सरकार न होने से प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव रहा है. केंद्र सरकार और केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन के लंबे चौड़े दावों से इतर इस इलाक़े में विकास की गतिविधियां नहीं शुरू हो सकी हैं. इससे भी ख़राब बात ये है कि लोगों को अफ़सरशाही की संवेदनहीन बेरुख़ी का सामना करना पड़ रहा है, जो मोटे तौर पर किसी जवाबदेही से बची रही है. राजनेताओं से इतर, सरकारी बाबुओं को चुनावों में जनता की नाराज़गी झेलने का कोई ख़ौफ़ नहीं होता. यही वजह है कि वो आम लोगों की परेशानियों को लेकर ज़रा भी फ़िक्रमंद नहीं होते. इस चुनाव में पड़ा हर वोट अफ़सरशाही की नाकामी के ख़िलाफ़ जनता की बुलंद आवाज़ है.

मतदान का प्रतिशत बेहतर

जम्मू-कश्मीर के इन चुनावों में पहले की तुलना में मतदान का प्रतिशत बेहतर होने की एक वजह इस इलाक़े का मौजूदा राजनीतिक माहौल भी है. एक तरफ़ पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकार डेक्लेरेशन (PAGD)  के झंडे तले कश्मीर के सभी राजनीतिक दल एकजुट हो गए थे. वहीं दूसरी तरफ़ बीजेपी ने कश्मीर के राजनीतिक दलों के इस गठबंधन के  ख़िलाफ़ सख़्त रवैया अपनाकर सियासी ध्रुवीकरण का माहौल बना दिया था. इस चुनाव में हर मतदाता के ज़हन में ये ख़याल था कि वो बीजेपी और उसकी नीतियों के पक्ष में मतदान करे या उसके ख़िलाफ़ वोट दे.

भले ही इस बार चुने गए जनप्रतिनिधियों को केवल विकास संबंधी योजनाओं का फ़ैसला करने का ही अधिकार होगा, लेकिन मतदाता ने तो केंद्र सरकार के काम-काज पर अपना फ़ैसला सुनाया है. क्योंकि जून 2018 से केंद्र की सरकार की जम्मू-कश्मीर में अप्रत्यक्ष रूप से शासन कर रही है और इसी सरकार ने 5 अगस्त 2019 के व्यापक संवैधानिक बदलावों के साथ साथ बड़े पैमाने पर नीतिगत परिवर्तन वाले फ़ैसले भी लिए हैं.

ज़ाहिर है कि राजनीतिक आकांक्षा रखने वाले अब न तो चुनाव लड़ने से डरते हैं और न ही उन्हें धमकियों का ख़ौफ़ रहा. ये बात ही बहुत से युवाओं को जम्मू-कश्मीर की राजनीति की मुख्यधारा में आने का हौसला देगी.

ये चुनाव ‘गुपकार गठबंधन’ (PAGD) की पार्टियों का भी तगड़ा इम्तिहान है. संविधान की धारा 370 में संशोधन के ज़रिए बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर के स्पेशल स्टेटस को ख़त्म कर दिया. इसके बाद बीजेपी और उसकी वैचारिक व्यवस्था ने बड़े ज़ोर-शोर से ये अभियान चलाया कि नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, पीपुल्स कांफ्रेंस और दूसरी छोटी क्षेत्रीय पार्टियों ने लोगों का समर्थन खो दिया है. हो सकता है कि इस चुनाव के नतीजे ऐसी कल्पनाओं को झटका दें.

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि कि गुपकार गठबंधन (PAGD) के सभी दल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे. ज़ाहिर है इस चुनाव के नतीजे ही अब्दुल्ला, मुफ़्ती, सज्जाद लोन और दूसरे राजनेताओं के भविष्य का फ़ैसला करेंगे. क्योंकि ये नेता पहले ही केंद्र सरकार और उसकी एजेंसियों द्वारा किए गए परिवर्तनों से मिले झटके झेल रहे हैं.

एक महत्वपूर्ण संकेत

कश्मीर क्षेत्र में मतदान का प्रतिशत, मोदी सरकार और बाक़ी दुनिया के लिए भी एक महत्वपूर्ण संकेत है. दक्षिणी कश्मीर से जो नाराज़गी और उदासीनता उभरकर सामने आई थी और जिसके चलते उस इलाक़े में आतंकवाद के नए दौर की शुरुआत हुई थी, वो अभी ख़त्म नहीं हुई है. लेकिन, इसके साथ-साथ दक्षिणी कश्मीर के बाहर के इलाक़े के लोगों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति जो विश्वास व्यक्त किया है, वो अपने आप में एक कहानी कहता है. अगर व्यापक संवैधानिक बदलावों और कश्मीर के उठा-पटक भरे इतिहास के सबसे सख़्त लॉकडाउन के बावजूद, वहां के लोगों का बड़ी तादाद में मतदान के लिए बाहर निकलना बेहद महत्वपूर्ण भी है और सरकार के लिए ये एक अवसर भी है कि वो जम्मू-कश्मीर की जनता से संवाद स्थापित करे, उन्हें सुशासन के लाभ प्रदान करे और उनकी समस्याओं का समाधान करे.

आम तौर पर मुख्यधारा का मीडिया और इसके चर्चित चेहरे कश्मीरियों और उनकी राजनीतिक अभिव्यक्ति को देशभक्ति और राष्ट्रद्रोही, कट्टरपंथी युवा बनाम सुरक्षा बल और अच्छे कश्मीरी बनाम बुरे कश्मीरी नागरिकों के खांचे में बांटकर देखता आया है. ऐसे ख़यालात को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ा है. जम्मू-कश्मीर के इलाक़े और यहां के लोगों की राजनीतिक अभिव्यक्ति के कई रंग हैं, और लोगों के मिज़ाज को भांप पाना कई बार बहुत मुश्किल होता है. इसीलिए अगर कोई इन चुनावों का जश्न मनाना शुरू करे, उससे पहले ही राजनीतिक और सुरक्षा तंत्र को इस चुनाव से उभरने वाले संकेतों को सही और संवेदनशील तरीक़े से पढ़ना और समझना होगा.

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