Author : Simran Walia

Published on Sep 28, 2018 Updated 0 Hours ago

तालिबान को सैन्य कार्रवाई कर अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता से बेदखल करने के बाद अब अमेरिका क्यों तालिबान के साथ बातचीत करने का प्रयास कर रहा है।

अमेरिका और तालिबान वार्ता के अनिश्चित पहलू

अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन ने 17 वर्षों से चले आ रहे लम्बे संघर्ष को समाप्त करने के लिए, अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए काम करने के लिए अमेरिका के प्रतिनिधियों और तालिबान के बीच सीधी बातचीत करने का फैसला किया है। अमेरिका ने आक्रमण कर 2001 में तालिबान को सत्ता से हटा दिया था। हालांकि अब तक तालिबान के नियंत्रण में देश के 45 प्रतिशत जिले हैं। पिछली गर्मियों में अफ़ग़ान सुरक्षा बलों का मनोबल और अमेरिकी सेना की उपस्थिति को बढ़ावा देने वाली राष्ट्रपति ट्रंप की अफ़ग़ान रणनीति इस विवाद का अंत करने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हुई थी।

तालिबान ने अफ़ग़ान सरकार के साथ किसी भी तरह की सीधी बातचीत से मना कर दिया था क्योंकि उसकी नजर में अफ़ग़ान सरकार गैर कानूनी है और तालिबान ने सीधे वाशिंगटन के साथ ही बात करने की मांग की थी। वह 2001 के बाद से ही अमेरिका को असली सत्ता मानता रहा है। तालिबान काफी लम्बे समय से अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सेनाओं को हटाने की मांग करता आ रहा है, जबकि अफ़ग़ान सरकार के लिए नाटो सेनाओं से देश छोड़ने के लिए कहना बहुत ही कठिन है। अफ़ग़ान प्रशासन का मुख्य उद्देश्य है तालिबान को यह कहकर फुसलाना कि विदेशी सेनाएं तालिबानी हिंसा की प्रतिक्रिया में नहीं बल्कि देश में शान्ति और स्थिरता के लिए दोबारा से तैनात हो सकती हैं।

राष्ट्रपति अशरफ गिलानी ने रमजान के महीने के दौरान तीन दिन के एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा इस उम्मीद में की कि यह आतंकियों को बातचीत की मेज तक लाएगा मगर इसका कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि इसके बदले वह और भी हमले करने के लिए तैयार हो गए। हालांकि इस युद्ध विराम ने अफगानों के बीच शान्ति की झलक दी और एक राजनीतिक समाधान की आवश्यकता के लिए प्रेरणा प्रदान की। जबकि देश के इन हालातों को देखते हुए, अमेरिका ने अब अपना रुख बदल दिया है और उसने अब तालिबान के साथ बातचीत करने का फैसला किया है। अमेरिका राजनीतिक भविष्य के लिए जरूरी मुद्दे पर भी बात करना चाहता है जैसे अफ़ग़ान राजनीतिक प्रक्रिया की समस्याओं, अफगानी संविधान और महिलाओं की स्थिति के बारे में भी अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच बात की जाएगी। अमेरिका से अमेरिकी सेनाओं और उनके अभियान से संबंधित मुद्दों में हस्तक्षेप करने की अपेक्षा की जा रही है।

तालिबान ने साफ़ कहा है कि अमेरिका को एक उचित समाधान खोजने के लिए इस्लामिक अमीरात के साथ बातचीत के लिए सीधे मौजूद होना चाहिए और उसे अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना को हटाना होगा।

अमेरिका के स्टेट सेक्रेटरी पोम्पो शान्ति प्रक्रिया के लिए सीधी बात पर फैसले के और समर्थन के लिए जुलाई में काबुल गए थे। उन्होंने कहा, ‘अमेरिका तालिबान से बात करने के लिए और अंतर्राष्ट्रीय सेना की भूमिका के बारे में चर्चा करने के लिए तैयार है।’ अमेरिका का यह मानना है कि वह शांति की बातचीत का समर्थन करेगा और उसे आगे बढ़ाएगा, मगर अफ़ग़ान समस्या के समाधान के संबंध में कोई भी अंतिम फैसला केवल और केवल अफ़ग़ान ही लेंगे। अमेरिका के अधिकारियों को उम्मीद है कि एक सीधी बातचीत ही शांति प्रक्रिया को आगे लेकर जाएगी। जिन सैन्य रणनीतियों को काबुल में अब तक इस्तेमाल किया गया है, वह केवल संघर्ष को ही उकसाएंगी और इनसे किसी भी तरह का किसी को फायदा नहीं है। तालिबान को भी अपने देश के विघटन का डर है और वह भी प्रतिक्रियात्मक आतंकवाद, प्रतिक्रियात्मक नशे का व्यापार और भ्रष्टाचार के मामले पर अमेरिका के समान ही चिंतित है। राष्ट्रपति गनी का मानना है कि संयुक्त राज्य और नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) अगर तालिबान पर कूटनीतिक दबाव डालेंगे तो शायद तालिबान बातचीत की मेज पर आ सकता है। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ एलिस वेल का कहना है, ‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति की स्थापना के लिए हम पाकिस्तान सहित सभी पड़ोसियों से बात करेंगे।’ पाकिस्तान ने अब तक कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया है जो उसे उठाना चाहिए था जैसे तालिबान के उन तत्वों को अपने देश से निकालना जो बातचीत के लिए तैयार नहीं है। यह भी माना जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान समूह पाकिस्तान के नज़दीक है। काबुल और वाशिंगटन ने यह दावा भी किया है कि इस्लामाबाद इस समूह को युद्ध से प्रभावित क्षेत्रों में भारत की भूमिका को कम करने के लिए एक ढाल के रूप में इस्तेमाल करता है।

तालिबान उस क्षेत्र में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए हारना नहीं चाहता है जबकि अमेरिका वर्चस्ववादी होने के कारण हर बार जीतना चाहता है।

इस प्रकार एक कारक और भी है कि अफ़ग़ानिस्तान में 20 अक्टूबर को संसदीय चुनाव होने को है, और लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत होनी चाहिए। चुनाव के स्थान पर सीधे बात करने का फैसला इस बात को बल दे सकता है कि अफ़ग़ान प्रशासन के पास प्रभावी राजनीतिक अधिकार नहीं है। अमेरिकी सरकार को अफ़ग़ानिस्तान में चुनावी प्रक्रिया का कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि चुनावी प्रक्रिया में लोगों का यकीन बहुत ही मायने रखता है। इसलिए, काबुल सरकार के स्थान पर तालिबान के साथ अमेरिका की सीधी बात से यह सन्देश भी अफ़ग़ान मतदाताओं में सीधे जाएगा कि अफ़ग़ान प्रशासन निष्प्रभावी है और जो पूरी की पूरी निर्वाचन प्रक्रिया को ही पीछे धकेल सकता है। इसके अतिरिक्त इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर तालिबान अमेरिका के साथ सीधी बात में शामिल होता है तो वह सरकार में एक बड़ी भूमिका नहीं चाहेगा।

‘कौन किससे बात करेगा’ का सवाल अफ़ग़ान शान्ति प्रक्रिया में 2011 से एक बड़ी बाधा के रूप में सामने है। हालांकि अमेरिका और तालिबान के बीच सीधी बात भी तभी तक महान है जब तक यह काबुल की राजनीतिक और निर्वाचन प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करता है। अफ़ग़ान सरकार को भी तालिबान से सीधे बात करने की जरूरत है क्योंकि अमेरिका का मानना है कि शान्ति प्रक्रिया अफगानों के द्वारा अफगानों के लिए ही होनी चाहिए। अभी तक कोई भी तारीख तय नहीं हुई है, और फैसले में देर भी हो सकती है, मगर अमेरिका की बात करने की इच्छा अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष को समाप्त करने की जरूरत को दिखाती है।

राष्ट्रपति घनी ने ईद पर एक तरफ़ा युद्धविराम की पेशकश की थी और तालिबान से इस क्षेत्र में लम्बे समय की शान्ति के लिए तीन महीने के युद्ध विराम को स्वीकार करने का अनुरोध किया था। दुर्भाग्य से कुंदुज़ के क्षेत्र में हुई हिंसा ने यह साफ कर दिया था कि तालिबान ने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने कुंदुज़ में दो सौ लोगों से भरी बस का अपहरण करने की पुष्टि की। मॉस्को ने तालिबान, अमेरिका, और काबुल को अगले महीने शांति प्रक्रिया की बातचीत के लिए बुलावा दिया है। हालांकि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वार्ता का फैसला टाल दिया है क्योंकि काबुल और अमेरिका ने बातचीत में शामिल होने के न्यौते में भाग लेने से मना कर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति ने रूस के विदेश मंत्री सेर्गी लावरोव से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि तालिबान के साथ कोई भी बातचीत केवल अफ़ग़ान सकरार की ही उपस्थिति में होनी चाहिए। अफ़ग़ान सरकार का मानना है कि रूस में शांति की बातचीत करना एकदम बेकार होगा और उसे तालिबान से सीधे बात करनी चाहिए। अब अमेरिका, तालिबान और अफ़ग़ान सरकार शांति की बातचीत को कैसे आगे ले जाते हैं, यह देखना बाकी है।

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