जिस समय अमेरिका में नए कोरोना वायरस का संकट अपने शीर्ष पर था, तब सम्मानित अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफ़ेयर्स ने अपने बसंत 2020 की प्रति को पूरी तरह से इस सवाल पर समर्पित किया था कि क्या अब समय आ गया है कि अमेरिका अपनी घर वापसी करे. फॉरेन अफ़ेयर्स, अमेरिका की विदेश नीति के तंत्र की बेहद सम्मानित संस्था है. अमेरिका की व्यापक रणनीति और विश्व स्तर पर अमेरिका की भूमिका को लेकर सवाल तो तब से ही उठ रहे थे, जब जनवरी 2017 में डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी. ट्रंप ने एक राष्ट्रवादी लोकप्रिय एजेंडे, ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ के वादे पर चुनाव में जीत हासिल की थी. ट्रंप ने बड़े आक्रामक तरीक़े से वैश्विक विचारधारा के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी शुरू की. ये वो विचारधारा है जो मुक्त व्यापार की समर्थक है. अंतरराष्ट्रीय संगठनों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अन्य देशों के मामले में दखल देने की हामी है. लेकिन ट्रंप ने आरोप लगाया कि इन्हीं नीतियों के कारण अमेरिका के हितों को ज़बरदस्त ठेस पहुंचती आई है और अब ये नीति आम अमेरिकी नागरिकों को क्षति पहुंचा रही है.
ट्रंप ने जो सामरिक विश्व दृष्टि पेश की वो ‘सैद्धांतिक व्यवहारवाद’ पर आधारित थी. इसमें सामंती व्यवस्था के विरोध का लोक लुभावन नारा भी शामिल था और. भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रवादी एजेंडा भी शामिल था. ट्रंप के इस विज़न के माध्यम से जान-बूझकर अमेरिका की उस नीति को पलटा गया जिसके तहत अमेरिकी तंत्र उदारवादी प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए सैन्य स्तर पर अग्रणी रहते हुए बाक़ी दुनिया से संवाद करने को तरज़ीह देता था. ट्रंप के राजनीतिक क्षितिज पर आने से पहले अमेरिका के सभी राजनीतिक दल इस विश्व दृष्टि को लेकर आम तौर पर सहमत थे. ये सहमति इस बात पर आधारित थी कि अमेरिका की उदार पूंजीवादी व्यवस्था दुनिया के तमाम देशों से अलग है. और उनके देश को मज़बूत बनाती है. सोवियत संघ के साथ शीत युद्ध के खात्मे के बाद से अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीतियों को इसी भरोसे पर चलाया जाता रहा है.
नए कोरोना वायरस की वजह से पैदा हुई महामारी ने डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन का विश्वास वैश्विक सहयोग और बहुपक्षीय व्यवस्था में बढ़ाने के बजाय, ट्रंप की अपनी राष्ट्रवादी सोच और विश्व दृष्टि को मज़बूत ही किया है. ट्रंप जिस तरह की राजनीति करते आए हैं, इस महामारी ने उसका हौसला और बढ़ा दिया है. जिसके कारण, झूठे तथ्यों पर आधारित जनप्रिय ध्रुवीकरण, घरेलू जनता की वैश्विक व्यवस्था में निराशा को बढ़ाने और नस्लीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. कोविड-19 के इस दौर में ट्रंप और बढ़ चढ़कर ‘अमेरिकी जनता’ के घरेलू और विदेशी दुश्मनों पर निशाना साध रहे हैं. डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका फ़र्स्ट की नीति और जिस तरह उनकी संघीय सरकार ने स्पेनिश फ्लू के बाद के सबसे बड़े स्वास्थ्य संकट से निपटने की कोशिश की, उससे विश्व स्तर पर अमेरिका के नेतृत्व की स्थिति अपने सबसे ख़राब दौर से गुज़र रही है.
इससे भी बढ़कर, ट्रंप अपने राष्ट्रवादी प्रचार के तहत कोरोना वायरस को बार बार चीन का वायरस कह रहे हैं. इसके अलावा वो कोविड-19 महामारी की शुरुआत को छुपाने के पीछे चीन की साज़िश होने की आशंका जता रहे हैं. ट्रंप की इस बयानबाज़ी से चीन और अमेरिका के बीच तनाव काफ़ी बढ़ चुका है. बहुत से पर्यवेक्षकों के लिए, ये हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए संघर्ष की शुरुआत है. और इससे दुनिया की राजनीति एक नए शीत युद्ध के भंवर में फंस सकती है.
ट्रंप का लोकलुभावन राष्ट्रवाद
अमेरिका फ़र्स्ट के नाम पर ट्रंप जिस लोक लुभावन राजनीति के दांव चल रहे हैं, उसका मक़सद असल में गोरे, पुरुष, कामकाजी तबक़े के उन अमेरिका शिक्षित वोटरों को लुभाना है, जो कॉलेज नहीं गए और अमेरिका के दक्षिणी और मध्य पश्चिम क्षेत्रों में रहते हैं. ये मतदाता रिपब्लिक पार्टी के समर्थक गठबंधन का प्रमुख हिस्सा हैं. ट्रंप को वोट करने वाले लोगों के बीच हुए कई ओपिनियन पोल, सर्वे और जातीय सर्वे ये इशारा करते हैं कि ये ट्रंप समर्थक नस्लवादी राष्ट्रवाद, आर्थिक निराशावाद और राजनीतिक अलगाववाद के हामी हैं. और इसी कारण से वो राष्ट्रवादी और लोकलुभानवन शोर-शराबे वाली राजनीति के शिकार आसानी से बन जाते हैं. जिसमें तंत्र के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा है और जो संरक्षणवाद, नियमों में ढील देकर और अमेरिका में नई जान डालने का समर्थन करते हैं. ये ट्रंप समर्थक अमेरिकी सीमाओं की सैनिक मोर्चेबंदी और अप्रवासियों के ख़िलाफ़ कड़े क़दम उठाने का भी समर्थन करते हैं.
अमेरिका फ़र्स्ट की राजनीति ने अमेरिकी राजनीति में सियासी ध्रुवीकरण के उस आयाम को और मज़बूती दे दी है, जो 1990 के दशक से ही लगातार बढ़ रहा था. ट्रंप के शासनकाल में अमेरिकी समाज का ये ध्रुवीकरण अपने शिखर पर पहुंच गया. आज रिपब्लिकन पार्टी के अस्सी प्रतिशत समर्थक ट्रंप की उन जानी मानी नीतियों का समर्थन करते हैं, जो ट्रंप की राजनीतिक पहचान का अटूट हिस्सा हैं. जैसे कि अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर दीवार का निर्माण करना. जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों की इससे भी बड़ी तादाद ट्रंप की नीतियों का विरोध करती है. डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों के मुक़ाबले ऐसे रिपब्लिकन समर्थकों की संख्या दोगुनी है, जो कोरोना वायरस के प्रकोप के लिए कुछ ख़ास जातियों या समूहों को ज़िम्मेदार मानते हैं. यही कारण है कि ट्रंप लगातार इसके लिए चीन पर आरोप मढ़ रहे हैं और कोविड-19 महामारी के पीछे चीन का षडयंत्र देख रहे हैं.
12 मार्च 2020 को व्हाइट हाउस के ओवल ऑफ़िस से टेलिविज़न प्रसारण में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जान बूझकर नए कोरोना वायरस को अमेरिका में बाहर से आया ख़तरा बताया था. उसे विदेशी वायरस का नाम दिया था. और इसके बाद के बयानों में ट्रंप इसे ‘चाइनीज़ वायरस’ कहने लगे. ट्रंप ने इस महामारी को लेकर जो शुरुआती क़दम उठाए, वो सबके सब उनकी अमेरिका फ़र्स्ट की नीति का हिस्सा थे. जिसके तहत वो एकतरफ़ा फ़ैसलों की व्यवस्था को बढ़ावा देते हैं. जिसके अंतर्गत वो अमेरिका आने वाले अप्रवासियों को रोकने के लिए सीमा पर पाबंदियां लगाते हैं. और यूरोपीय संघ व चीन के ख़िलाफ़ घोषित रूप से द्वेष वाली नीति पर चलते हैं. ट्रंप इससे पहले भी यूरोपीय संघ और चीन पर ऐसी अन्यायपूर्ण व्यापारिक व्यवस्था का समर्थन करने के आरोप लगाते रहे हैं, जिससे अमेरिका को नुक़सान पहुंचता रहा है.
ट्रंप आज जिस ‘सामरिक नस्लवाद’ की नीति पर चल रहे हैं, वो एक पहले से तय उस पैटर्न का हिस्सा है, जिनमें लोकलुभावन नीतियों के ज़रिए ध्रुवीकरण किया जाता है. और राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी दिक़्क़तों के लिए दूसरों पर आरोप मढ़े जाते हैं. वैश्विक स्वास्थ्य की चुनौती के साथ-साथ, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अमेरिका की सीमाओं से दूर खड़े हो रहे ख़तरों का ज़िक्र करके, ट्रंप इस महामारी के तबाही लाने वाले सामाजिक आर्थिक दुष्प्रभावों के लिए दूसरों को सियासी तौर पर ज़िम्मेदार ठहराते हैं. जबकि, असल में तो ये समस्याएं उनकी देर से क़दम उठाने, और संघीय सरकार द्वारा सघन प्रयासों के बजाय टुकड़ों में फ़ैसले लेने की वजह से पैदा हुईं. लेकिन, अपनी ग़लती मानने के बजाय ट्रंप इस महामारी के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की कट्टरता और ग़लत सूचनाओं के अभियान को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
ट्रंप आज जिस ‘सामरिक नस्लवाद’ की नीति पर चल रहे हैं, वो एक पहले से तय उस पैटर्न का हिस्सा है, जिनमें लोकलुभावन नीतियों के ज़रिए ध्रुवीकरण किया जाता है. और राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी दिक़्क़तों के लिए दूसरों पर आरोप मढ़े जाते हैं.
डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीतिक शुचिता को निशाना बनाकर और फ़ेक न्यूज़ मीडिया पर राष्ट्रपति ट्रंप को नस्लवाद और सांप्रदायिकता के नाम पर टारगेट करने को लेकर ट्रंप एक साथ अपने घरेलू विरोधियों को अमेरिकी जनता का दुश्मन ठहराते हैं. मार्च 2020 के अंत तक ट्रंप की कोरोना वायरस से निपटने की नीतियों का समर्थन करने वाले रिपब्लिकन पार्टी के वोटरों की संख्या 87 प्रतिशत पहुंच गई थी. वहीं, डेमोक्रेटिक पार्टी के केवल 26 वोटर ट्रंप की नीतियों का समर्थन कर रहे थे. तो स्वतंत्र वोटरों में भी आधे से कुछ ही ज़्यादा यानी 51 प्रतिशत लोग ट्रंप की कोविड-19 नीतियों का समर्थन कर रहे थे. इन आंकड़ों से साफ़ है कि अमेरिकी समाज के ध्रुवीकरण की ट्रंप की लोकलुभावन सियासत और नीतियों को लोग समाज के एक तबक़े के लोग काफ़ी पसंद कर रहे थे.
चीन बनाम अमेरिका:कोल्ड वॉर 2.0 की शुरुआत?
चीन को विलेन बनाने की कोशिश में जुटे ट्रंप असल में इसके ज़रिए दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीतना चाहते हैं. लेकिन, उनका ये क़दम बेहद जोखिम भरा है. फौरी राजनीतिक फ़ायदे के लिए वो भविष्य में चीन और अमेरिका के सामरिक समीकरणों के बिगड़ जाने का जोखिम मोल ले रहे हैं. घरेलू स्तर पर देखें, तो तमाम ओपिनियन पोल ट्रंप के इस दांव का समर्थन कर रहे हैं. ये इस बात का संकेत है कि मार्च 2020 तक अमेरिकी जनता के बीच चीन की नकारात्मक छवि बढ़ती जा रही है. चीन को लेकर अमेरिकी जनता का डर और चिंता के पीछे, आर्थिक कारण जैसे कि नौकरियां गंवाने और व्यापारिक असंतुलन से लेकर मानवाधिकारों और पर्यावरण को नुक़सान को लेकर चीन के ख़िलाफ़ सामाजिक राजनीतिक बैर जैसे कारण हैं.
चीन की बढ़ती ताक़त और उसके प्रभाव को लेकर अमेरिकी जनता की चिंता साफ़ झलकती है. 62 प्रतिशत अमेरिकी ये मानते हैं कि चीन उनके देश के लिए एक बड़ा ख़तरा है. 2018 और 2019 के मुक़ाबले चीन के बारे में ऐसी राय रखने वाले अमेरिकी नागरिकों की संख्या 14 प्रतिशत बढ़ गई है. अमेरिकी नागरिकों के इस मूड को भांपते हुए डोनाल्ड ट्रंप की प्रचार टीम की तरफ़ से अमेरिकी जनता को जो ई-मेल भेजा गया है उसमें साफ़ तौर पर लिखा गया है कि, ‘अमेरिका पर न केवल अदृश्य वायरस से हमला हो रहा है, बल्कि चीन खुलकर अमेरिका पर आक्रमण कर रहा है.’
चीन की बढ़ती ताक़त और उसके प्रभाव को लेकर अमेरिकी जनता की चिंता साफ़ झलकती है. 62 प्रतिशत अमेरिकी ये मानते हैं कि चीन उनके देश के लिए एक बड़ा ख़तरा है. 2018 और 2019 के मुक़ाबले चीन के बारे में ऐसी राय रखने वाले अमेरिकी नागरिकों की संख्या 14 प्रतिशत बढ़ गई है
जबकि, इससे पहले डोनाल्ड ट्रंप लगातार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की निजी तौर पर तारीफ़ करते नहीं थकते थे. ट्रंप के मुताबिक़, शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने कोरोना वायरस को रोकने के लिए ठोस क़दम उठा रहा है. यानी ट्रंप कभी तो चीन के साथ सहयोग वाले रवैये को अपनाते थे और कभी सार्वजनिक रूप से टकराव को बढ़ावा देने वाली व्यापारिक नीति पर चलते हैं. चीन को लेकर ट्रंप की कभी हां और कभी ना वाली इस नीति के पीछे उनके अपने प्रशासन के अंदरूनी टकराव को भी एक कारण कहा जाता है. जिसमें एक तरफ़ तो आक्रामक चीन विरोधी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मैथ्यू पॉटिंगर हैं. तो दूसरी तरफ़ आम तौर पर चीन समर्थक वित्त मंत्री स्टीवेन म्नूचिन और मुख्य आर्थिक सलाहकार लैरी कुडलो हैं. कोरोना वायरस को लेकर चीन के रुख़ के ख़िलाफ़ ट्रंप ने जिस तरह आक्रामक रुख़ अपनाया है, उससे ये लगता है कि पॉम्पियो और पॉटिंगर का खेमा हावी हो गया है और अब ट्रंप स्थायी तौर पर चीन विरोधी नीति के रास्ते पर चलने का इरादा पक्का कर चुके हैं. अगर हम अमेरिकी मीडिया, राष्ट्रीय सुरक्षा के विशेषज्ञों, पेंटागन और दोनों ही पार्टियों के संसद सदस्यों के बढ़ते बयानों की समीक्षा करें, तो ऐसा लगता है कि अमेरिका अब चीन की दुनिया पर दादागीरी वाली महत्वाकांक्षाओं को राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य तरीक़े से चुनौती देने के लिए लगातार प्रयास बढ़ा रहा है.
अमेरिका फ़र्स्ट नीति के तहत अमेरिका के सैन्य प्रभुत्व को नए सिरे से मज़बूत करने और दो बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबले के वैश्विक सामरिक माहौल को देखते हुए, 2017 में आई अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति ने पहले ही चीन को एक ऐसी शक्ति कहा गया है, जो मौजूदा व्यवस्था को बदलने पर उतारू है और अमेरिका का सामरिक प्रतिद्वंदी है. अमेरिका की ये नई सुरक्षा नीति, असल में ओबामा प्रशासन की सीमित तौर पर चीन को चुनौती देने वाली ‘Pivot to Asia’ को और मज़बूत करती है. 2016 के चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने जिन नए कट्टरपंथियों को नाकाम अमेरिकी तंत्र की संज्ञा दी थी, वो आज ट्रंप के नेतृत्व वाले प्रशासन में चीन को अमेरिका का मुख्य प्रतिद्वंदी मानने की नीति को अपनी बात के सच साबित होने के तौर पर देख रहे हैं. बल्कि, अब तो ओबामा प्रशासन के दौर के कई नए कट्टरपंथी, कट्टर राष्ट्रवादियों जैसे कि ट्रंप के पूर्व मुख्य रणनीतिकार स्टीव बैनन के सुर में सुर मिला रहे हैं.
2016 के चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने जिन नए कट्टरपंथियों को नाकाम अमेरिकी तंत्र की संज्ञा दी थी, वो आज ट्रंप के नेतृत्व वाले प्रशासन में चीन को अमेरिका का मुख्य प्रतिद्वंदी मानने की नीति को अपनी बात के सच साबित होने के तौर पर देख रहे हैं
लेकिन, हमें वैश्विक प्रभुत्व और क्षेत्रीय दादागीरी को लेकर आगे आने वाले संघर्ष का कोई भी आकलन करने से पहले ये देखना होगा कि इस वक़्त दुनिया के तमाम देश किस तरह आर्थिक रूप से एक दूसरे पर निर्भर हैं. और एशिया प्रशांत क्षेत्र में इस समयविश्व में इस समय कैसे भौगोलिक सामरिक हालात हैं और सैन्य कार्रवाई के लिए कैसा माहौल है. हमें ये भी देखना होगा कि यूरोप और एशिया में अमेरिका के सहयोगी भी चीन के साथ खुल कर संघर्ष करने के लिए पूरे मन से नहीं तैयार हैं. घरेलू कारणों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमज़ोर होती अपनी छवि के लिए अगर अमेरिका चीन के साथ एक नए शीत युद्ध की शुरुआत करता है, तो डर इस बात का भी है कि अमेरिका फ़र्स्ट की नीति उसे कहीं अमेरिका अलोन यानी दुनिया के मंच पर तन्हा न कर दे.
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