Author : Sunjoy Joshi

Published on Jun 19, 2017 Updated 0 Hours ago

द्विपक्षीय संबंधों की नई दिशा और सुदढ़ सामरिक भागीदारी की ओर बढ़ रहे हैं दोनों देश।

अमेरिका और भारत: संतुलन कायम करने की जद्दोजहद
फाइल फोटो

भारत और अमेरिका ने आगामी 26 जून को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की पहली मुलाकात की आधिकारिक पुष्टि कर दी है, जबकि दोनों देश “प्रगाढ़ द्विपक्षीय संबंधों की नई दिशा” और “अपनी बहुआयामी सामरिक भागीदारी को सुदढ़ बनाने” के लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह अर्थपूर्ण, संक्षिप्त पंक्ति कुछ हद तक इसका विश्लेषण कर सकती है।

अहम बात यह है कि यह मुलाकात हम्बर्ग में जी-20 की बैठक से पहले होने जा रही है, जिसमें ट्रम्प और जर्मनी की चांसलर अंजेला मार्केल के बीच एक बार फिर से टकराव होने के आसार हैं। ट्रम्प के साथ मुलाकात से पूर्व मोदी ने हाल ही में जर्मनी, स्पेन, फ्रांस और रूस का दौरा कर दिलचस्प डाइनैमिक्स के लिए आधार तैयार किया है।

वैसे तो सामरिक मोर्चे पर चिंता के ढेरों कारण हैं। लेकिन ट्रम्प के उदय के बाद से जारी खबरों का बवंडर लगातार अमेरिका की ‘रिबैलेन्स टू एशिया’ नीति पर हावी होने की चेतावनी दे रहा है, जिसकी बदौलत अभी हाल ही में अमेरिका-भारत संबंधों में स्थायित्व और संतुलन कायम हुआ है। उस पर अब, हठधर्मी ट्रम्प द्वारा आउटसोर्सिंग और संबंधित वीजा व्यवस्थाओं के बारे में निर्णय लिया जाना, साथ ही साथ पेरिस समझौते के संबंध में ट्रम्प और मोदी की अलग-अलग सार्वजनिक घोषणाएं मौजूदा हालात में विघ्न उत्पन्न होने की आशंका जता कर रही हैं।

जरूरी नहीं कि ये हालात बिल्कुल अपरिचित ही हों। व्यवहारिक रूप से देखा जाए, तो प्रत्येक नया अमेरिकी राष्ट्रपति भारत-अमेरिकी संबंधों को लेकर शुरूआत में कुछ अनिश्चित ही होता है। इसके कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं। भारत के अनियंत्रित लोकतंत्र ने निवेशकों, फाइनेंसर्स, मार्केट मूवर्स और रणनीतिकारों को हमेशा समान रूप से हैरान किया है। हालांकि, समय बीतने पर, प्रत्येक अमेरिकी प्रशासन ने जाना कि एक लोकतंत्र के रूप में भारत के साथ रणनीतिक संयम बरते जाने की जरूरत है।

हर बार, दुनिया के अन्य देशों को आकर्षित करने की कोशिश में साल भर खर्च करने के बाद, हर एक अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत में निवेश और साझेदारियां विकसित करने का महत्व समझ में आने लगता है। हाल ही में, राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा जी-2 के साथ शुरूआत में बिताए गए कुछ समय ने “पिवट टू एशिया” और 2015 में भारत के साथ एशिया-प्रशांत दृष्टिकोण पत्र पर हस्ताक्षर किए जाने की राह तैयार की।

लिहाजा, इस संबंध के भविष्य के बारे में किसी भी तरह के संशय को आसानी से अतिशियोक्ति करार दिया जा सकता है। दोनों देशों में पिछली कुछ सरकारों के अनुभवों से भी यही जाहिर होता है ​कि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर की गई पहल की बदौलत ही उनके रिश्तों में गर्माहट आई-और तो और कई बार तो ऐसा अपने अधिकारी वर्ग और कमेंटेटर्स को नाखुश करके भी किया गया। चाहे 2008 का 123 समझौता हो या जनवरी 2015 का “एशिया प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र के लिए संयुक्त सामरिक विजन” — शीर्ष नेतृत्व की ओर से किया गया सामरिक राजनीतिक प्रयास बिल्कुल स्पष्ट था।

123 समझौते की ही तरह, 2015 का संयुक्त विजन भी कई मायनों में, भारत के लिए पहला था। उसे साहस के साथ अमेरिका के संग मिलकर न सिर्फ द्विपक्षीय साझेदारी के लिए, बल्कि एशिया और उससे भी बढ़कर संयुक्त विज़न तैयार करने के लिए खुद को सबसे अलग रुख अपनाना पड़ा। और उसने इसे “विश्व के दो विशालतम लोकतंत्रों” का न्यायसंगत संघ घोषित करते हुए बिना किसी झिझक के यह काम किया। यह एक दुर्लभ घटना थी, जब भारत ने एक द्विपक्षीय समझौते के आधार के रूप में मानक नैतिक बल का उपयोग किया।

यह एक ऐसा अनोखा अनुभव भी था, जब अपने चौकन्नेपन और गठबंधनों की प्रतिरक्षा के लिए मशहूर भारत उनसे बाहर निकल आया और उसने पूरे एशिया प्रशांत के लिए एक विजन पर हस्ताक्षर किए। ऐसा करते हुए, उसने हिंद महासागर-प्रशांत महासागर को, एशिया प्रशांत के महज एक उपक्षेत्र के रूप में ही नहीं, बल्कि उसके अपने आप में एक भू-सामरिक सामुद्रिक क्षेत्र होने को भी मान्यता प्रदान की। प्रधानमंत्री मोदी की एक्ट ईस्ट नीति की गूंज अमेरिकी “पिवट टू एशिया” प्रस्ताव में मिलती है।

हालांकि अमेरिकी पिवट की मानक अपील अब बहुत निरर्थक और मामूली दिखाई देती है। खासतौर पर तब, जब इसको ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति में एशिया-प्रशांत की केंद्रीयता के बारे में व्यक्त अनिश्चितता के आलोक में देखा जाता है। यह विरोधाभास ऐसे समय हो रहा है, जब भूराजनीतिक घटनाक्रमों की बदौलत क्षेत्र के संघर्ष सहज रूप से पश्चिम की ओर बढ़ रहे हैं। इन रूझानों के मद्देनजर, अमेरिका भले ही जिन सरोकारों को आज खुद से “बहुत दूर” समझ रहा है, वे उसके प्रभाव क्षेत्रों के सबसे निकट पहुंचते जा रहे हैं।

पहली और स्पष्ट चुनौती चीन का उदय है, जो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई)के जरिए यूरेशियाई भूमि के साथ जुड़ना और हिंद महासागर तथा प्रशांत महासागर के बीच एक सेतु कायम करना चाहता है।

कोई भी परिदृश्य, जहां चीन, हिंद महासागर क्षेत्र में सामरिक रूप से प्रभुत्वशाली हो जाता हो, वह प्रबल एशियाई ताकत के रूप में अमेरिका की स्थिति को चुनौती देता है।

इसके अलावा, हम अफगानिस्तान में व्लादिमीर पुतिन की वापसी के भी साक्षी बन रहे हैं, जबकि पाकिस्तान के प्रति उसका नया झुकाव शीत युद्ध की उन धारणाओं को मिटाने की शुरूआत है, जिन्होंने क्षेत्र में अमेरिका की मौजूदगी को आकार दिया था। इसके अलावा, पहले से उलझनों में फंसे पश्चिम एशिया में खाड़ी सहयोग परिषद के भीतर अचानक पड़ी जबरदस्त दरार, क्षेत्र में अमेरिका के निश्चय की महत्वपूर्ण परीक्षा ले रही है।

इसलिए, ऐसे समय में जब दुनिया के इस हिस्से में नए सिरे से संतुलन बनाने के प्रमाण मिल रहे हैं, ऐसे में निश्चित तौर पर “बहुआयामी सामरिक भागीदारी (भारत-अमेरिका)को सुदृढ़ बनाने” की जरूरत है। इसलिए यह आवश्यक है कि 24 X 7 न्यूजसाइकिल की अनिश्चितताओं से आगे बढ़ा जाए और सामंजस्य के तीन प्रमुख बिंदुओं पर आधारित भारत-अमेरिकी भागीदारी के सामरिक बदलाव को दोहराया जाए।

पहला, 2015 के दस्तावेज से संकेत लेते हुए भारत-अमेरिकी रिश्ते बहुत हद तक मानकों के सामंजस्य पर आधारित हैं। तार्किक दृष्टि से देखा जाए, तो इसका आशय अंतर्राष्ट्रीय कानून, विवादों के निपटारे और वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं (जीपीजी)सहित ग्लोबल गवर्नेंस से संबंधित कुछ मामलों के संबंध में जल्द ही होने वाला संयोजन है। दोनों पक्षों को सामुद्रिक सुरक्षा के महत्व को नए सिरे से बल देने और साउथ चाइना सी सहित पूरे क्षेत्र में नेविगेशन और उड़ान भरने की आजादी सुनिश्चित करने की जरूरत है।

नेवीगेशन की आजादी के मामले पर हमारे बीच मतभेद की आशंका स्वीकार करने के बावजूद, इस बात में शायद ही संदेह होगा कि हमारी भू-आर्थिक गणना में इस क्षेत्र की समान अहमियत है। भारत के तीन विशालतम कारोबारी संबंध पूर्व एशिया में हैं और उसके 55 प्रतिशत कारोबार साउथ चाइना सी के रास्ते होता है।

क्या यह विज़न क्षेत्र के अन्य देशों के साथ मिलकर कोई मानक ढांचा बन सकता है? उदाहरण के लिए क्या अमेरिका और भारत समान दृष्टिकोण वाले अन्य देशों के साथ मिलकर ब्ल्यू इकॉनोमी के संबंध में मार्गदर्शक दस्तावेज तैयार कर सकते हैं? इससे बुनियादी ढांचे, निवेश, तटीय सुरक्षा, विवादों के निपटारे और समुदाय के नेतृत्व वाली सलाहकार प्रक्रियाओं जैसे प्रमुख मामलों के लिए मानक दृष्टिकोण तय किए जा सकेंगे।

यहीं से दूसरे सामंजस्य, भूमि, समुद्र और डिजिटल क्षेत्र में एशियाई सम्पर्क का मार्ग प्रशस्त होता है। यहां बीआरआई की वैकल्पिक योजना की आवश्यकता है, अमेरिका और भारत, अन्य साझेदारों के साथ मिलकर जिसकी पेशकश करें —  जो पूर्व, दक्षिण और मध्य एशिया तथा अफ्रीका को जोड़ता हो।

इस ढांचे के अंतर्गत देशों को वित्त और कर्ज अदायगी जैसी बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं से बांधने की जगह बुनियादी सुविधाओं, रोज़गार और आर्थिक अवसरों से संबंधित एशिया की महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए सतत और नवीन तरीके तलाशने वाले प्रयास शामिल किये जाने चाहिए। संभावनाएं असीम हैं और इनमें बुनियादी सुविधाएं, डिजिटल सम्पर्क,ज्ञान समूह और मूल्य श्रृंखलाएं शामिल हैं, जो दो महासागरों — पालो अल्टो से लेकर बेंगलूरू तक, टोक्यो से लेकर तेल अवीव तक और उनके बीच में आने वाले प्रत्येक स्थान में फैली हुई हैं।

मानकों और सम्पर्क में सामंजस्य के बाद तीसरा — सत्ता का सामंजस्य अनिवार्य हो जाता है। समय के साथ, क्षेत्र की राजनीतिक के प्रति व्यक्तिगत आकलन, दृष्टिकोण और प्रतिक्रियाओं के बीच तेजी से सामंजस्य स्थापित होने लगेगा।

कुछ प्रमुख बुनियादी घटक पहले से मौजूद हैं। जनवरी, 2015 में किए गए 10 वर्षीय रक्षा प्रारूप समझौते के अंतर्गत दोनों पक्षों ने साझा विकास और उत्पादन परियोजनाओं का अनुसरण करने पर सहमति प्रकट की थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका ने भारत के “प्रमुख रक्षा सहभागी” के दर्जे की नए सिरे से पुष्टि की है। यह निर्यात नियंत्रण के संबंध में भारत से जुड़े नियमों में ढील देने की दिशा में काम कर रहा है और भारत में कुछ खास वस्तुओं के हस्तांतरण के लिए निर्यात संबंधी प्रशासनिक नियमों (ईएआर)में संशोधन कर रहा है। नया नियम कानून में भी संशोधन करता है ताकि कम्पनियों को प्रमाणित उपयोग कर्ता (वीईयू)बनने के बाद लाइसेंस की जरूरत न पड़े।

लगभग दशक भर के विचार-विमर्श के बाद अगस्त 2016 में लॉजिस्टिक्स समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसने इस साझेदारी में एक नया आयाम जोड़ा। विशेष तौर पर भारत से संबंधित लॉजिस्टक्स सहायता समझौता — लॉजिस्टिक्स विनिमय समझौता ज्ञापन (एलईएमओए)चालू होने की कगार पर है।

हालांकि मूलभूत बदलाव कहीं ज्यादा गहन हैं। समय के साथ समान हथियार प्रणालियां, सुविधाओं के साझा उपयोग और समान रक्षा अवसंरचना और लॉजिस्टक्स सामरिक रुख के साथ ही साथ सुरक्षा आकलनों और प्रतिक्रियाओं में सामंजस्य बैठाने का कार्य करेंगे।

क्षेत्र में उजागर हो रहे डायनैमिक्स के मद्देनजर, अमेरिका और भारत दोनों, दक्षिण कोरिया, जापान, वियतनाम और आसियान के सदस्य देशों जैसे राष्ट्रों के साथ मजबूत संबंध बनाने के लिए विवश हैं। वे चीन के साथ भी जटिल रिश्ता बनाए रखने के लिए विवश हैं। चीन एक ऐसी सामरिक चुनौती बना हुआ है,जिसे नियंत्रित किए जाने की जरूरत है, इसके बावजूद वह दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक भागीदार है।

4,000 किलोमीटर लम्बी सीमा और अस्पष्ट पश्चिमी मोर्चा, जहां चीन उकसाने के लिए हमेशा तैयार रहता है, जैसी वास्तविकता के कारण भारत की स्थिति और भी ज्यादा जटिल है। भारत भले ही सीपीईसी को अपनी सम्प्रभुता के अतिक्रमण के तौर पर देखे, लेकिन बीआरआई, एक प्रोजेक्ट के रूप में धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित तौर पर एशिया साथ ही साथ यूरोप की कल्पना को भी आकर्षित कर रहा है। चीन इसे आर्थिक रूप से एकीकृत एशिया और यूरोप के माध्यम से व्यापार, विकास और समृद्धि को बढ़ावा देने वाले 21वीं सदी के एक बड़े वायदे के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। यह स्पष्ट है कि रणनीतिक तौर पर, चीन “मार्च वेस्ट” यानी पश्चिम का रुख करने के लिए संकल्पबद्ध है, जिसमें हिंद महासागर और यूरेशिया पर नियंत्रण का मुकाबला एक बड़े प्रयास का अंग है, जिसका एकमात्र लक्ष्य — यूरोप के केंद्र तक पहुंचना है।

महत्वपूर्ण यह है कि भारत और अमेरिका, भारत के पूर्वी तटीय क्षेत्र में परस्पर संबंधों को सीमित करने वाले 2015 के समझौते के दायरे से आगे बढ़ें और ऐसी नई साझेदारी कायम करें, जिसमें हिंद महासागर और प्रशांत महासागर का पश्चिमी विस्तार अरब सागर के पार केप ऑफ गुड होप्स तक हो।

उन्हें ऐसा स्वयं नहीं, बल्कि सहयोगियों के साथ मिल-जुलकर संधियों और समझौतों के जरिए, उन्हें समझाते-बुझाते हुए, सहायता देते हुए तथा नेटवर्क्ड सुरक्ष प्रबंधों के साथ करना चाहिए। पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संधियों, मानकों के नेटवर्क और नियम-आधारित समझौते होते रहने चाहिए। क्योंकि ऐसा नहीं किया जाना,चीन को इस क्षेत्र में खुद-ब-खुद संबंध की शर्ते तय करने की इजाजत दे देगा।

इस लेख की शुरूआत सामरिक संयम के गुण को हाइलाइट करते हुए की गई थी, जो भारत के साथ अमेरिका के संबंधों की कसौटी रहे हैं। अब, क्योंकि अमेरिका अपने अनुभवों से यह जान चुका है कि जब विवादित घरेलू बहस सामरिक विकल्पों से दूर हो जाती हैं, तो सभी असली लोकतंत्र अनियंत्रित हो सकते हैं और होते हैं। अब भारत भी बदले में उसी तरह के सामरिक संयम का परिचय दे सकता है।

इंतजार करने में ही भलाई है : सशक्त भारत, अमेरिका के लिए अपने आप में विशुद्ध रूप से सकारात्मक है, क्योंकि एशिया में उसका प्रसार उसकी क्षमता से बढ़कर है और अपनी मौजूदा राजनीतिक मंथन से उभरने वाला अमेरिका विश्वसनीय भागीदार बनने के लिए विवश है, क्योंकि भारत दुनिया के इस हिस्से में नियम आधारित व्यवस्था की दिलेरी से रक्षा करने के लिए मुस्तैद है।

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