Published on Sep 20, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत ने एटमी हथियारों का इस्तेमाल पहले न करने की जो नीति बनाई, ये उसके सामरिक रणनीतिकारों की बरसों की समझ और अनुभव का नतीजा था, जब उन्होंने कई दशक तक विश्व की एटमी ताक़तों के बर्ताव का अध्ययन किया और तब जाकर ये तय किया कि भारत की एटमी नीति के लिए इन देशों की रणनीति के क्या मायने हैं.

भारत की नो फ़र्स्ट यूज़ की एटमी नीति का त्याग, देश की सामरिक रणनीति को कई कदम पीछे ले जाएगा!

भारत ने किसी भी देश पर पहले परमाणु हमला करने न करने की नीति वर्ष 2003 में अपनायी थी. लेकिन, इस नीति का शुरू से ही विरोध होने लगा था और विरोध करने वालों के अपने तर्क थे. ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति के विरोधियों का ये आकलन था कि भारत की नाभिकीय नीति केवल पलटवार की रणनीति पर निर्भर थी. इस नीति के चलते भारत पहले दुश्मन के अपने ऊपर एटमी हमला करने का इंतज़ार करेगा और ऐसा होने के बाद वो दुश्मन पर परमाणु हमला करेगा. इस नीति से भारत की सामरिक नीति में एक ढीलापन दिखता है. ये नीति एक तरह के राजनीतिक आदर्शवाद से प्रेरित है. और भारत ने विश्व स्तर पर ख़ुद की एक ज़िम्मेदार परमाणु शक्ति संपन्न देश की छवि को बनाने के लिए इस नीति को अपनाया है.

हालांकि, ये बात सच से बिल्कुल ही परे है. भारत ने एटमी हथियारों का पहले प्रयोग न करने की जो नीति बनाई, ये इसके नीति नियंताओं के कई दशकों के अनुभवों का नतीजा है. भारत के रणनीतिकारों ने दुनिया के परमाणु शक्ति संपन्न देशों की नीतियों का अध्ययन किया और इन नीतियों के असर को जांचा परखा. तब जाकर भारत ने ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की परमाणु नीति को अपनाया. ये आदर्शवाद से प्रेरित नीति नहीं थी, बल्कि गहरे यथार्थवाद का परिचायक है. भारत के नीति निर्माताओं को इस बात का अच्छे से एहसास था कि एटमी हथियारों का किसी एटमी ताक़त वाले देश की सामरिक नीति में एक सीमित ही उपयोग है. ख़ास तौर से भारत जैसे देश के लिए तो और भी.

भारत की पहली नाभिकीय नीति बनाने वाले कई दिग्गजों के देहांत के बाद, आज की तारीख़ में भारत की ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति के रक्षक नौकरशाही का ढांचा मात्र रह गया है. जो इस नीति को दी जा रही चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसीलिए अब हमारे लिए सही यही है कि हम इस नीति की नए सिरे से समीक्षा करें और ये समझने की कोशिश करें कि उस दौर में भारत के नीति निर्माताओं ने क्यों परमाणु हथियारों के संदर्भ में ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति अपनायी थी. आज ये समझना बेहद ज़रूरी हो गया है.

अगर आज भारत की ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की सामरिक नीति को कोई ख़तरा है, तो ये इसके सैद्धांतिक विरोध का है. न कि, ये भारत की रणनीतिक ज़रूरतों की समीक्षा से उपजा नतीजा है.

यहां हमारे कहने का ये मतलब नहीं है कि भारत के मौजूदा रणनीतिकारों या पहले के नीति निर्माताओं ने परमाणु हथियार पहले इस्तेमाल न करने की नीति पर पुनर्विचार किया है और इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आज ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नाभिकीय नीति की अहमियत ख़त्म हो गई है. क्योंकि आज भी भारत की एटमी नीति की बुनियाद परमाणु अस्त्रों के पहले इस्तेमाल न करने की नीति ही है. अगर आज भारत की ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की सामरिक नीति को कोई ख़तरा है, तो ये इसके सैद्धांतिक विरोध का है. न कि, ये भारत की रणनीतिक ज़रूरतों की समीक्षा से उपजा नतीजा है.

भारत के परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल न करने की नीति अपनाने की मुख्य वजह ये थी कि एटमी हथियारों से सीमित लक्ष्य ही हासिल किए जा सकते हैं. इसकी ज़रूरत देश के बचाव तक सीमित है. और देश के अस्तित्व को ख़तरा कोई एटमी हमला होने की सूरत में ही पैदा हो सकता है. एटमी हथियार परंपरागत अस्त्रों से बिल्कुल अलग हैं. क्योंकि उनसे भारी पैमाने पर तबाही मचती है और वो भी बहुत ही कम समय में. एटमी हथियारों में वो क्षमता है कि वो किसी भी दोपहर को पूरे समाज को तबाह करने की क़ुव्वत रखते हैं. ऐसी तबाही से बचने का एक ही तरीक़ा है और वो किसी एटमी हथियार से लैस संभावित दुश्मन को वैसी ही तबाही का डर दिखाना. ताकि दुश्मन देश, भारत के ख़िलाफ़ एटमी हमला करने से पहले ये सोचे कि उसे ख़ुद भी ऐसी ही तबाही झेलनी पड़ेगी. एटमी हथियारों से निपटने का यही तरीक़ा है कि इस ताक़त से लैस दुश्मन को वैसी ही तबाही का डर दिखाकर क़ाबू में रखा जाए. क्योंकि परमाणु हमले से बचाव का कोई और तरीक़ा है ही नहीं. हालांकि दुनिया के कई देशों के सामरिक रणनीतिकारों ने इस विकल्प पर भी विचार किया कि परमाणु हथियारों के सीमित इस्तेमाल का विकल्प भी खुला रखा जाए, ताकि हमला होने की स्थिति आने से पहले ही दुश्मन को सबक़ सिखा दिया जाए. हालांकि, भारतीय रणनीतिकारों को हमेशा से ही इस नीति पर संदेह रहा. भारत के पास भी परमाणु हथियार होने चाहिए, इस बात को मज़बूती से मानने वाले भारतीय रणनीतिकारों इस बात के ख़िलाफ़ थे कि परमाणु हथियारों का बड़ा ज़ख़ीरा जमा करना और एटमी हथियारों के इस्तेमाल के लिए व्यापक परमाणु नीति बनानी चाहिए. ख़ास तौर से शीत युद्ध के दौरान विश्व की दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के इस रास्ते पर चलने के भारतीय रणनीतिकार बहुत विरोधी रहे. ऐसे में भारतीय सामरिक नीतियां बनाने वाले, उस रास्ते पर कैसे चल सकते थे, जिस रास्ते पर चलने वाले देशों का वो ख़ुद विरोध कर रहे थे. ये भारत के हित में भी नहीं था.

किसी भी परमाणु शस्त्र संपन्न देश के लिए दुश्मन को एटमी ताक़त से धमकाना ही असली सुरक्षा है. दुश्मन के दिल में ये बात बैठा देना कि अगर वो परमाणु हमले का जोख़िम उठाता है, तो उसे इसकी सज़ा जवाबी एटमी हमले से ही दी जाएगी.

परमाणु हथियारों को लेकर ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की भारतीय नीति, इसी सामरिक सोच का नतीजा थी. इसका एक पहलू ये भी था कि भारत परमाणु हथियारों का बड़ा ज़ख़ीरा नहीं जमा करेगा, बल्कि सीमित मात्रा में ही एटमी अस्त्र बनाएगा. अगर, परमाणु हथियार बनाने का प्राथमिक लक्ष्य-बल्कि ये कहें कि एकमात्र मक़सद ये था कि दुश्मन देशों को भारत पर परमाणु हमला करने से रोका जाए, तो ऐसे में भारत के लिए यही तार्किक था कि वो दुश्मन को परमाणु हमले के पलटवार का डर दिखाए. किसी भी परमाणु शस्त्र संपन्न देश के लिए दुश्मन को एटमी ताक़त से धमकाना ही असली सुरक्षा है. दुश्मन के दिल में ये बात बैठा देना कि अगर वो परमाणु हमले का जोख़िम उठाता है, तो उसे इसकी सज़ा जवाबी एटमी हमले से ही दी जाएगी. पलटवार का मतलब ही यही है कि किसी क्रिया की प्रतिक्रिया दी जाए. दुश्मनों को अपनी एटमी ताक़त का डर दिखाकर उन्हें ऐसा हमला करने से रोकने का मतलब यही होता है कि पहले किसी पर परमाणु हमला न किया जाए. इसीलिए भारत ने परमाणु हथियारों का पहले प्रयोग न करने की नीति यानी ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की पॉलिसी बनाई. इस नीति के और भी फ़ायदे हैं. इससे परमाणु हथियारों पर पूरी तरह से राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हुआ. इससे एटमी हथियारों का कमांड और कंट्रोल का भारतीय सिस्टम उतना तनावपूर्ण नहीं है, जैसा किसी देश के एटमी अस्त्र सेनाओं के हाथ में होने से होता है. साथ ही भारतीय परमाणु हथियारों की सुरक्षा भी बेहतर है.

‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति के परित्याग का मतलब है, दुश्मन पर पहले परमाणु हमला करना. ऐसे में सिर्फ़ दुश्मन को डराकर रखने के लिए परमाणु हथियार बनाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है. पहले परमाणु हमला करने की नीति पर चलने का फ़ायदा तभी है, जब देश के अस्तित्व पर कोई ख़तरा मंडरा रहा हो, या फिर ऐसे किसी ख़तरे की आशंका हो, जिसमें देश के मिट जाने का अंदेशा हो. मिसाल के तौर पर इज़राइल को ही देखिए. इज़राइल को लगता है कि वो दुश्मन देशों से घिरा हुआ है. भले ही उनके पास परमाणु हथियार नहीं हैं, लेकिन, इज़राइल की सीमा पर मौजूद दुश्मन उसकी हस्ती को मिटा सकते हैं. इसी तरह, पाकिस्तान को लगता है कि भारत ने कभी भी देश के विभाजन को खुले दिल से स्वीकार नहीं किया. इसलिए पाकिस्तान को ये डर सताता रहता है कि भारत कभी भी उस पर हमला कर के अपने में मिलाने की कोशिश कर सकता है. इसीलिए पाकिस्तान ने अपने परमाणु कार्यक्रम पर भारत के एटमी शक्ति बनने के बाद काम करना नहीं शुरू किया. बल्कि जब 1971 की लड़ाई में भारत ने पाकिस्तान को ये एहसास अच्छे से करा दिया कि पारंपरिक सैन्य शक्ति के मामले में वो उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता. उसके बाद पाकिस्तान ने परमाणु बम बनाने की दिशा में आगे बढ़ना शुरू किया. इज़राइल और पाकिस्तान, दोनों के लिए परमाणु हथियारों का पहले प्रयोग करने की नीति पर चलना वाजिब लगता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके अस्तित्व को पड़ोसी दुश्मनों से ख़तरा है. ये बात और है कि इज़राइल और पाकिस्तान, दोनों की ये सोच केवल एक कोरी कल्पना है. हक़ीक़त से इसका कोई वास्ता नहीं है. इसलिए उनकी मिसाल को मानना भारत के लिए तार्किक नहीं है, क्योंकि हर देश अपने ऊपर ख़तरा समझकर ही कोई नीति बनाता है.

अगर हम अन्य एटमी ताक़तों की बात करें तो, केवल अमेरिका और सोवियत संघ की परमाणु हथियारों से पहले हमला करने की नीति तार्किक लगती है. दोनों को इस बात की आशंका थी कि दुश्मन उन पर अचानक हमला कर सकता है. इसीलिए, दोनों ही देशों ने अपने एटमी हथियारों को तुरंत लॉन्च करने की स्थिति में रखा, ताकि किसी हमले की आशंका पर एटमी हथियारों से फौरन आक्रमण किया जा सके. इसके अलावा अमेरिका ने सोवियत संघ और चीन के ख़तरे से अपने सहयोगियों की सुरक्षा का बीड़ा भी उठा रखा था. ऐसे में अमेरिका को ऐसी नीति की ज़रूरत थी कि वो पहले परमाणु हमला कर सके. भारत के लिए ऐसी कोई सामरिक ज़रूरत मालूम नहीं पड़ती कि वो ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति का परित्याग करे. भारत को न तो अपने अस्तित्व पर ख़तरे की कोई आशंका नज़र आती है और न ही उसे अपने ऊपर अचानक से एटमी हमले का डर है. न ही भारत ने अपने सहयोगियों के लिए भी दुश्मन को डराने का ठेका ले रखा है.

एक पूर्व रक्षा मंत्री का तर्क था कि भारत को ये कहने की ज़रूरत ही नहीं है कि परमाणु हथियारों को लेकर उसकी नीति ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की है. ऐसे तो वो ख़ुद के बनाए हुए बंधन में बंध जाएगा. ये ख़याल बहुत आम है, मगर ग़लत है कि ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति पर चलने से भारत के विकल्प सीमित हो जाते हैं. इस में कोई दो राय नहीं कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को लेकर भारत के पास सीमित विकल्प ही हैं. लेकिन, ऐसा भारत की पहले परमाणु हमला न करने की नीति की वजह से नहीं है. बल्कि इसका ताल्लुक भारत के पास मौजूद परमाणु अस्त्रों और उसकी सामरिक ज़रूरतों से है. इस बात को और बेहतर तरीक़े से समझने के लिए पहले हमें ये जान लेना चाहिए कि अगर भारत ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की अपनी परमाणु नीति का त्याग करता है, तो उसके पास एटमी हथियार इस्तेमाल करने के और क्या विकल्प होंगे? पहले परमाणु हथियार इस्तेमाल न करने के वचन से पीछे हटने के बाद भारत के पास दुश्मन पर पहले परमाणु हमला करने का विकल्प होगा. लेकिन, सवाल ये है कि किन हालात में भारत पहले परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकेगा? अगर भारत किसी एटमी ताक़त वाले देश पर पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल करता है, तो ये तय है कि भारत को भी परमाणु हमले का पलटवार झेलना होगा. भले ही ये सीमित एटमी हमले के तौर पर ही क्यों न हो. लेकिन, ऐसा भी हुआ तो भारत को भारी तबाही झेलनी पड़ेगी. फिर भारत पर परमाणु हथियारों से पलटवार करने से कोई भी ताक़त नहीं रोक सकेगी. यही वजह है कि पहले एटमी हमला करने की नीति उन्हीं देशों के लिए मुफ़ीद है, जिन्हें दुश्मन के हाथों अपना अस्तित्व मिट जाने का ख़तरा सता रहा हो. फिर चाहे वो परमाणु हथियारों के हमले से डर हो या परंपरागत हथियारों के इस्तेमाल से तबाह होने की आशंका हो.

काउंटरफ़ोर्स हमला तभी असरदार हो सकता है, जब भारत पर पहले एटमी हमला हो जाए. क्योंकि अगर परमाणु युद्ध शुरू ही हो गया हो, तो ख़ुद को आगे और तबाह होने से बचाने के लिए इस विकल्प पर अमल करना ठीक होगा.

यही वजह है कि भारत के सामरिक रणनीतिकारों ने काउंटरफ़ोर्स की नीति पर भी गहन विचार के बाद ये पाया कि ये भी महज़ एक ख़्वाब है, जिसे पूरा किया जाना कमोबेश नामुमकिन है. काउंटरफ़ोर्स का मतलब है, कि दुश्मन देश पर हमला करने की सूरत में उसके आबादी वाले इलाक़ों जैसे शहरों को निशाना बनाने के बजाय उसके परमाणु हथियारों का ख़ात्मा कर दिया जाए. मतलब, दुश्मन के परमाणु हथियारों का ज़ख़ीरा इस्तेमाल करने से पहले ही तबाह कर दिया जाए. लेकिन, ये फ़ॉर्मूला तभी क़ामयाब हो सकता है, जब किसी देश के परमाणु हथियारों के ठिकाने के बारे में एकदम सटीक जानकारी हो. ताकि उन पर सही निशाना लगाकर तबाह किया जा सके. दुनिया की बड़ी से बड़ी ताक़त के पास इस बात की पक्की ख़ुफ़िया जानकारी नहीं होती. और अगर भारत किसी दुश्मन देश पर ऐसा हमला करता है. और इस हमले में अगर दुश्मन के कुछ परमाणु हथियार बच जाते हैं, तो भारत को भारी तबाही झेलनी पड़ेगी. काउंटरफ़ोर्स हमला तभी असरदार हो सकता है, जब भारत पर पहले एटमी हमला हो जाए. क्योंकि अगर परमाणु युद्ध शुरू ही हो गया हो, तो ख़ुद को आगे और तबाह होने से बचाने के लिए इस विकल्प पर अमल करना ठीक होगा. लेकिन, अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, तो ये ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति पर चल कर ही आएगी. उसके विकल्प के तौर पर तो क़तई नहीं. पक्की ख़ुफ़िया जानकारी न होने की स्थिति में अगर परमाणु हमला पहले किया जाता है, तो इसके नतीजे बेहद भयानक हो सकते हैं. तब कोई भी देश अगर ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति में बदलाव करके चेतावनी वाला या आक्रमण के पलटवार वाला हमला करता ही है, तो उसका सीमित असर होगा. हम भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की कल्पना करें (या भारत और चीन के बीच एटमी युद्ध के बारे में ही सोचें), तो दोनों देश इतने क़रीब हैं कि प्रतिक्रिया के लिए वक़्त ही नहीं मिल सकेगा. कोई भी राजनेता केवल इस शक के आधार पर परमाणु हमले की इजाज़त नहीं देगा कि दुश्मन देश के भारत पर एटमी हमले का पूरा संदेह है.

भारत के रणनीतिकारों के बीच पाकिस्तान के टैक्टिकल न्यूक्लियर वेपन्स यानी सीमित इस्तेमाल के लिए बनाए गए परमाणु हथियारों को लेकर भी चिंता है. साथ ही भारत की चिंता पाकिस्तान की आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली नीति भी है. हालांकि ये चिंता वाजिब है. फिर भी, ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति का परित्याग करने से ये चिंताएं दूर करने में कोई ख़ास मदद नहीं मिलेगी. आतंकवाद और टैक्टिकल न्यूक्लियर वेपन, दोनों ही इस बात के सबूत हैं कि पाकिस्तान पारंपरिक हथियारों के मामले में ख़ुद को भारत से कमतर मानता है. ऐसे में भारत अगर पाकिस्तान को पहले परमाणु हमला करने की धमकी देता है, तो ये बात भी काफ़ी हद तक बेमानी ही लगती है. इससे बेहतर तो ये होगा कि भारत अपनी परंपरागत शक्ति का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान से मिलने वाली ऐसी चुनौतियों को ख़त्म कर दे और पाकिस्तान को ये एहसास दिला दे कि वो अगर जंग के रास्ते पर आगे बढ़ता है, तो उसका अंजाम क्या होगा.

भारत की पहले परमाणु हमला न करने की नीति और इसे त्यागने की सूरत में पैदा हुए हालात की समीक्षा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ये भारत के अपने सामरिक लक्ष्य हासिल करने का यह एक शॉर्ट कट तरीका है न कि अपनी सामरिक चुनौतियों के स्थायी समाधान का सावधानीपूर्वक चुना गया विकल्प है. ये शर्मनाक होगा. क्योंकि भारत की ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति इसकी रणनीतिक चुनौतियों और सामरिक ज़रूरतों को ही ध्यान में रखकर बनाई गई है. और इसके केंद्र में भारत का वो पड़ोसी है, जिसे ये डर है कि उसके अस्तित्व को भारत से ख़तरा है. जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है.

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