Published on Aug 17, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत को विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों का भरोसा बढ़ाना होगा, जो शेयर बाज़ार में लगातार बिकवाली कर रहे हैं.

भारत और पूर्वी एशिया में आर्थिक सुस्ती और मंदी का दौर

भारत अकेला देश नहीं है, जो आर्थिक सुस्ती (इकनॉमिक स्लोडाउन) की चपेट में है. जापान से लेकर थाईलैंड तक ग्रोथ पर दबाव बना हुआ है और पूरब के कई देशों में सरकारें राहत पैकेज (स्टीमुलस पैकेज) के ज़रियेआर्थिक विकास दर को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. इस सुस्ती की सबसे तगड़ी मार मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर पड़ी है, जो कभी पूर्वी एशिया की टाइगर इकॉनमी कहे जाने वाले हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर, ताइवान और दक्षिण कोरिया में स्लोडाउन की चपेट में है. इसका कारण अमेरिका और चीन के बीच चल रहा व्यापार युद्ध और हाल में अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की चीन के और 300 अरब डॉलर के आयात पर अतिरिक्त सीमा शुल्क लगाने की चेतावनी है. चीन भी जवाबी हमले कर रहा है. उसने अपनी मुद्रा युआन को डॉलर की तुलना में 7 के रिकॉर्ड निचले स्तर को पार करने दिया. इससे चीन में बने सामान भारत सहित दूसरे देशों की तुलना में और सस्ते होंगे. व्यापार युद्ध के कारण पूर्वी एशिया में कई सप्लाई चेन (किसी सामान को बनाने के लिए जरूरी पार्ट्स) टूट गई है, जिससे इन देशों में आर्थिक सुस्ती आई है. भारत की आर्थिक विकास दर (जीडीपी ग्रोथ) वित्त वर्ष 2020 में पिछले साल से भी कम रह सकती है. भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने इसे घटाकर 6.9 प्रतिशत कर दिया है.

जब लोगों को बेहतर भविष्य का भरोसा होगा, तो वे कार, स्कूटर और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स ख़रीदना शुरू कर देंगे. अभी लोगों को नौकरी जाने की चिंता है क्योंकि रोज छंटनी की ख़बरें आ रही हैं. उनके रोज़मर्रा के ख़र्च में भी कमी नहीं आ रही है. इसी वजह से बचत दर घट रही है.

अमेरिका में भी कर्ज़ सस्ता करके आर्थिक विकास दर तेज़ करने की कोशिश हो रही है. हाल ही में यूएस फ़ेडरल रिज़र्व रिज़र्व (भारत के आरबीआई जैसी संस्था) ने निवेश को बढ़ावा देने और करीब सौ फीसदी रोज़गार के लिए ब्याज़ दरों में कटौती की है. बैंक ऑफ जापान के पास कर्ज़ और सस्ता करने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि वहां दरें पहले ही शून्य के करीब हैं. इधर, आरबीआई ने हाल में रीपो रेट (इस दर पर वह बैंकों को कर्ज़ देता है) को 0.35 प्रतिशत घटाकर 5.4 प्रतिशत कर दिया, जो 9 साल में इसका सबसे निचला स्तर है. वह भी कर्ज़ सस्ता करके ग्रोथ बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. आरबीआई के साथ पिछले हफ्ते न्यूजीलैंड और थाईलैंड ने भी ब्याज़ दरों में क्रमशः आधा प्रतिशत और 0.25 प्रतिशत की कटौती की. आशा है कि आरबीआई के रेट घटाने के बाद बैंक संभावित निवेशकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को और कर्ज़ कर्ज़ देंगे. इससे खासतौर पर एमएसएमई क्षेत्र को लाभ होने की उम्मीद है, जिसका देश के निर्यात में 45 प्रतिशत योगदान है और जिससे 12 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. हाल के महीनों में सरकार से कई रियायतें मिलने के बाद भी एमएसएमई सेक्टर संकट का सामना कर रहा है. यह बात सही है कि आर्थिक सुस्ती के लंबा खींचने से लोगों का भरोसा कम हो रहा है. आरबीआई के हालिया कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे (जुलाई 2019) से पता चला था कि उपभोक्ताओं का भरोसा कम हो रहा है. उन्हें नौकरी जाने और महंगाई बढ़ने का डर है. हालांकि अगर सरकार समय रहते कदम उठाती है तो इस संकट को दूर किया जा सकता है. सिर्फ ब्याज़ दरों में कटौती से कंप्लीट इकॉनमिक रिकवरी की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि इसमें बैंकों से उम्मीद काफी बढ़ जाती है और उनका रिकॉर्ड इस मामले में अच्छा नहीं रहा है. आरबीआई के गवर्नर कंज्यूमर डिमांड और निवेश को बढ़ाना चाहते हैं. जीडीपी के अनुपात में भारत का ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन आसियान और पूर्वी देशों की तुलना में काफी कम रहा है. 2018 में यह जीडीपी का 30.7 प्रतिशत (स्थिर मुद्रा में) रहा. कंज्यूमर डिमांड का मामला थोड़ा ट्रिकी है. जब लोगों को बेहतर भविष्य का भरोसा होगा, तो वे कार, स्कूटर और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स ख़रीदना शुरू कर देंगे. अभी लोगों को नौकरी जाने की चिंता है क्योंकि रोज छंटनी की ख़बरें आ रही हैं. उनके रोज़मर्रा के ख़र्च में भी कमी नहीं आ रही है. इसी वजह से बचत दर घट रही है. सरकार के सामने आम ग्राहक का आत्मविश्वास बढ़ाने की चुनौती है. इसके लिए उसे रोज़गार बढ़ाने के कुछ उपाय करने होंगे और महंगाई दर को निचले स्तर पर बनाए रखना होगा. ट्रांसपोर्टेशन कॉस्ट यानी आवाजाही की लागत भी घटानी होगी, जिससे लोगों की आमदनी में सेंध लग रही है. वह इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ाकर यह काम कर सकती है. इस क्षेत्र में ऐसे भी देश को स्थिति बेहतर करने की जरूरत है. इससे कम समय में रोज़गार बढ़ेगा और आर्थिक विकास दर में तेजी आएगी. इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए निजी क्षेत्र से उपकरणों की जरूरत पड़ेगी और इससे वह भी निवेश के लिए आगे आएगा. आरबीआई के सरप्लस रिज़र्व से जो पैसा मिलेगा, उससे सरकार यह काम आसानी से कर सकती है. विदेश से कर्ज़ लेकर भी वह इसके लिए फंड जुटा सकती है. कृषि क्षेत्र में भी भारी निवेश की जरूरत है ताकि किसानों की आमदनी बढ़े. एग्रीकल्चर मार्केटिंग को भी अपग्रेड करने होगा और फ़सलों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए गोदामों की क्षमता बढ़ानी होगी. वित्त मंत्रालय की मानें तो राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट यानी सरकार की आमदनी से अधिक खर्च) पहले ही जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के लक्ष्य को पार कर गया है. इसलिए इसमें और बढ़ोतरी से तूफान नहीं आएगा.

यह बात सही है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन यह उतनी तेज़ नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए थी.

सरकार को तुरंत निर्यात क्षेत्र में भी जान फूंकनी पड़ेगी. इस मामले में पड़ोसी देश हमें कड़ी टक्कर दे रहे हैं. भारत के निर्यात क्षेत्र की मुक़ाबला करने की क्षमता में सुधार करना आसान काम नहीं है क्योंकि यहां सिर्फ़ 5 प्रतिशत कामगार ही प्रशिक्षित हैं. दक्षिण कोरिया में यह 96 प्रतिशत और चीन में 24 प्रतिशत है. जापान भी इसमें काफी आगे है. रेलवे से माल ढुलाई में सुधार, बेहतर बंदरगाहों और हवाई अड्डों जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार से निर्यातकों की लागत कम होगी.

सरकार को विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) का भरोसा बढ़ाना होगा, जो भारतीय शेयर बाजार से लगातार पैसे निकाल रहे हैं. फ़ाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक, उन्होंने सिर्फ जुलाई में 5.5 अरब डॉलर की रकम निकाली है. इस वजह से पिछले महीने शेयर बाजार का प्रदर्शन 17 साल में सबसे खराब रहा. सरकार टैक्स आमदनी भी बढ़ाना चाहती है. बिज़नेस पर टैक्स लगाना नाज़ुक मामला है और अगर टैक्स अथॉरिटीज का ख़ौफ़ बन जाए तो उससे बुरी बात तो कुछ हो ही नहीं सकती. इसलिए टैक्स प्रशासन को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. भारतीय अर्थव्यवस्था घरेलू निजी निवेश पर काफी हद तक आश्रित है. यह बात सही है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन यह उतनी तेज़ नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए थी. माकूल पर्यावरण नियमों और ज़मीन अधिग्रहण में आसानी से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने में मदद मिल सकती है. कुल मिलाकर, मोदी सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है.


यह लेख पहले The Tribune में प्रकाशित हो चुका है.

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