पिछले कुछ सालों में कश्मीर में आतंकवाद खतरनाक पैमाने पर बढता गया है। दशकों से कश्मीर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है, लेकिन २०१६ से हालात कुछ अलग हो गए हैं। घरेलु आतंकवाद कि उपज लगातार बढती गयी है, सैकड़ों स्थानीय लड़कों ने आतंकवाद का दामन थामा है।
केंद्र सरकार कि सख्त नीतियों से यहाँ ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ है। आँख के बदले आँख की रणनीति जो ऑपरेशन आल आउट के तहत अपनाई गई उसका नतीजा नहीं निकला। घाटी में दो तरफ़ा समस्या है, एक तरफ उग्रवाद के बढ़ने से कश्मीर में टकराव के हालात बदतर होते गए हैं, दूसरी तरफ टकराव पाकिस्तान की वजह से बना हुआ है। पाकिस्तान की तरफ से LoC पर सीजफायर का उल्लंघन बढ़ता गया है। घाटी इन दोनो के बीच फँसी हुई है। कश्मीर के मौजूदा संकट ने कश्मीरी नौजवानों को सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और बौद्धिक अराजकता की तरफ धकेल दिया है।
कश्मीर में “आजादी” और सियासी मंसूबे हमेशा पाकिस्तान प्रायोजित बंदूकों के ज़रिये हासिल करने की कोशिश हुई है। लेकिन हाल के सालों में आतंकवादी और आतंकवाद कि पहचान भी तेज़ी से बदली है। अब कश्मीर में आतंकवाद को पाकिस्तानी से मांगी बंदूकों की ज़रुरत नहीं।
आतंकवादियों की नई नस्ल स्थानीय नौजवानों की है जो कट्टरपंथ की राह पर चल पड़े हैं, जो अपने तथाकथित दुश्मन यानी भारत सरकार के मुकाबले खुद अपने समाज को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। अपने पूर्वजों के मुकाबले उनमें जोश है, वो प्रेरित हैं और वो टेक्नोलॉजी में माहिर हैं। वो सेना और दुसरे सुरक्षा बालों के खिलाफ लड़ते हुए मरने में शान महसूस करते हैं। और ये एह्सास भी नहीं है कि कश्मीर की व्यथा सिर्फ सियासत की ग़लतियों की वजह से नहीं, कुछ ज़ख्म खुद के दिए हुए हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक साल २०१८ के शुरूआती ४ महीनो में ५५ आतंकवादी मारे गए थे जिसमें से 27 स्थानीय लड़के थे। लेकिन जितने मारे गए इसी दौरान उसकी जगह ४५ स्थानीय लड़कों ने आतंकी गुटों में शामिल हो गए।
कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों ने आतंकी गुटों के नेतृत्व को ख़त्म करने कि नीति अपनाई है , ये मान कर की अगर नेतृत्व को ख़त्म किया जाएगा तो आतंकवाद की प्रक्रिया पर हमला होगा। नेतृत्व को ख़त्म करने की नीति के दो फायदे है, एक तो लीडरशिप का खात्मा और इसके नतीजे के तौर पर संगठन को ही ख़त्म करना। लेकिन इन दोनों में नई दिल्ली को कामयाबी नहीं मिली। ये नीति अपने लक्ष्य के विपरीत काम करती नज़र आयी। आतंकवाद ख़त्म करने के बजाय एक ऐसा माहौल बन गया जिसमें आतंकवाद फल फूल रहा है। जितनी बड़ी तादाद में नौजवान आतंकवाद में शामिल हो रहे हैं वो दिखाता है कि आतंकियों कि मौत और आतंक के खात्मे में कोई रिश्ता नहीं। सुरक्षा बलों को हाई प्रोफाइल आतंकियों को मार गिराने में बड़ी कामयाबी मिली है, बावजूद इसके आतंक ख़त्म नहीं हुआ, आतंकवाद कि तरफ रुझान और आतंक की शिद्दत बढ़ गई है।
आतंकी संगठनों के लीडरों को मारने की रणनीति ने उन्हें एक तरह से नायक बना दिया है। आतंकवाद को एक पंथ का दर्जा देकर उसके लीडरों को हीरो बना दिया है। उनकी मौत को शहादत का दर्जा दे दिया जाता है और वो दुसरे नौजवानों के लिए प्रेरणा का काम करता है कि वो भी हिंसा की राह पर जाएँ।
घाटी में आतंकवाद ख़त्म करने की भारत की नियत पर कोई शक नहीं, साथ ही ये भी सही है की अब पेलेट और बुलेट दोनों ही सेना की ज़रुरत बन गए हैं। लेकिन साथ साथ ये भी साफ़ है की हद से ज्यादा और लम्बे समय तक बल प्रयोग से कार्यवाई अपना असर खो बैठेगी, जैसा कि कश्मीर के नौजवानों में दिख रहा है जिन्हें अब अपनी हरकतों के गंभीर नतीजे की कोई परवाह नहीं। पिछले दशक में ऐसा कभी नज़र नहीं आया की कश्मीर के नौजवान ,मर्द और औरत उग्रवाद के खिलाफ सैनिक कार्यवाई के घटनास्थल पर पहुँच कर उसे रोकने की कोशिश करें, वो भी निहत्थे, गोली और पेलेट का सामना करते हुए। हाल ही में मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर सद्दाम पद्दार की माँ का उनको AK 47 को हवा में फायर करते हुए बेटे को बन्दूक की सलामी देता हुए विडियो ये दिखाता है कि कश्मीरी परिवारों की ज़हनियत में आतंकवाद घुस गया है, परिवार जो की समाज का सबसे छोटा हिस्सा और उसका आइना होता है। जो आतंकवाद के शिकार हैं वही आतंकवाद के रखवाले बन गए हैं।
ये बदहाल स्थिति दिखाती है की उग्रवाद कि ये नई घटनाएं घाटी की मानसिकता में जड़ कर चुकी हैं। इस के साथ वो ऐसी उपजाऊ ज़मीन दे रही है जिसमें आतंकवाद और पनपेगा ,नए नौजवानों के रूप में जो मारे गए आतंकवादियों कि जगह लेने को तैयार खड़े हैं। ये वक़्त आ गया है कि नई दिल्ली ये समझ ले कि आतंकवादियों को मारना जो कि उतने ही हिन्दुस्तानी हैं जितने कि कश्मीरी, आतंकवाद को ख़त्म नहीं करेगा।
आतंकी कमांडर नौजवानों के लिए प्रेरणा बन गए हैं और उन्हें मसिहा का दर्जा मिल गया है। वो मर कर शहीद बन रहे है और उनकी मौत उनके दोस्तों को जोश दिला रही है। उनकी यादें सोशल मीडिया कि दुनिया में जिंदा रखी जा रही हैं। उनकी ज़िन्दगी, उनकी जद्दोजेहद को महिमामंडित किया जाता है, नौजवानों से वादा किया जाता है कि बंदूक के सहारे उन्हें एक सुनहरा भविष्य मिलेगा। आतंकवाद की दुनिया में एक उज्जवल भविष्य? इस से बड़ा मिथक और क्या हो सकता है। बहरहाल झूठ और फरेब किसी पंथ को खड़ा करने और उसके लीडरों को उपासना के योग्य बनाने के लिए ज़रूरी होता है। ये जनता को जोड़ता है और उन्हें एक सामूहिक पहचान देता है। जितना बड़ा झूठ का जाल बुना जायेगा भक्तों की संख्या उतनी बड़ी होगी। कश्मीर में खुदा के नाम पर शहीद होने और आजादी से बड़ा मिथक दूसरा नहीं।
मौजूदा स्थिति में नए आतंकवादी रंगरूटों की बढती संख्या मार्कंडेय पुराण के रक्तबीज राक्षस की स्थिति जैसी है।
रक्तबीज को ब्रह्मा का आशीवाद था कि धरती पर गिरने वाली उसके रक्त की हर एक बूँद से एक नया राक्षस पैदा होगा। सब तरफ विनाश के बाद रक्तबीज का देवी काली ने संहार किया और उसका गिरता हुआ सारा रक्त का रक्तपान कर गईं। लेकिन कश्मीर की लड़ाई राक्षसों और देवताओं के बीच का युद्ध नहीं है या फिर बुरे और भले के बीच का युद्ध नहीं है। हम एक ऐसे समाज की बात कर रहे हैं जिस पर कट्टरपंथ थोपा गया , और जो अब ग़लत रणनीतियों और आत्म चिंतन की कमी की वजह से पहचान के संकट से जूझ रही है।
१९८९ से कश्मीरी जनता बन्दूक के खौफ में रह रही है चाहे वो बंदूक सेना की हो या आतंकवादियों की दशकों से हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन की वजह से समाज मानसिक आघात झेल रहा है। बड़ी तादाद में कश्मीरी नौजवान या तो आतंकवादी होने की वजह से या फिर आतंकवाद का समर्थक होने की वजह से या फिर आतंकी होने के शक में गिरफ्तार हुए हैं या फिर गायब हो गए हैं। नौजवानों का गायब होना, पूछताछ के दौरान जानकारी हासिल करने के लिए टार्चर, 2010 में माछिल की मुठभेड़ और २०१६ से पेलेट गन का अंधाधुंध इस्तेमाल केंद्र सरकार के लिए कश्मीर की स्थिति को और जटिल बनाता गया है।
कश्मीर में अशांति कि इस नई लहर पर पाकिस्तान की खामोशी स्पष्ट है। इस्लामाबाद को हंसने का मौक़ा मिला है क्यूंकि ये भारत की नीतियों की वजह से है पाकिस्तान कि नहीं कि सीमापार आतंकवाद की शक्ल बदल कर घरेलु उग्रवाद की समस्या बन गयी है।
कश्मीर घाटी में हालात नाटकीय घटनाक्रम में बदतर होते गए हैं, सरकार को ये समझने कि ज़रूरत है कि उसे बातचीत का हर रास्ता खोलना होगा कश्मीरी समाज के सभी हिस्से के साथ बिना शर्त डायलाग करना होगा, और कश्मीर की जनता को भी ये समझना होगा कि उनके सियासी मंसूबे हिंसा से हासिल नहीं होंगे। कश्मीर की फौरी ज़रुरत है एक ऐसी सामाजिक सियासी लीडरशिप जो कि आतंकवाद का विकल्प दे सके एक नई पटकथा रच सके और कश्मीरी समाज को उस कीमत का एहसास दिला सके जो उन्हों ने बंदूक को गले लगाने के लिए चुकाई है।
लेखक ORF मुंबई में एक फेलो है।
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